राम का भय ही पार लगाएगा

Acharya Prashant

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राम का भय ही पार लगाएगा

रामहि डरु करु राम सों ममता प्रीति प्रतीति।

तुलसी निरुपधि राम को भएँ हारेहूँ जीति।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: ध्यान देना होगा! कुछ ऐसा है यहाँ पर जो आपको चौंका सकता है।

राम से ही डरो! हो राम से ही ममता-प्रीत और राम ही हों सर्वत्र प्रतीत। तुलसी निरुपधि राम, निरुपाधि राम, निर्गुण राम को भय, हारहुँ जीत।

हार को जीत में बदलने की कीमिया का नाम है राम! कि जैसे गुरु अंधेरे को प्रकाश में बदल देता है। तुलसी कह रहे हैं 'डर', तुलसी कह रहे हैं 'ममता', तुलसी कह रहे हैं 'प्रीति', तुलसी कह रहे हैं 'प्रतीति'। आप उपनिषदों के पास जाएंगे तो वे कहेंगे ये सब भ्रम है। ममता भ्रम ममत्व, भय भ्रम, मोह भ्रम और जो कुछ भासता हो, प्रतीत होता हो वो तो निश्चित ही भ्रम।

फिर तुलसी क्यों कह रहे हैं राम से भय, राम से प्रीत, राम से ममता, राम ही प्रतीति? क्यों कह रहे हैं? गौर करेंगे! साथ रहेंगे तो आगे पता चल जाएगा!

जो राम के साथ है, जिसके लिए राम है, राम उसकी हार को भी जीत में बदल देते हैं। बड़ा मुश्किल है हमारे लिए अगर हमसे सीधे कह दिया जाए 'ममत्व' त्याग दो! बड़ा मुश्किल है हमारे लिए अगर हमसे सीधे कह दिया जाए 'भय' त्याग दो! और अति मुश्किल है अगर हमसे कह दिया जाए कि जो प्रतीत होता है उस सब को भ्रम मात्र जानो! तुलसी ने एक व्यवहारिक उपाय बताया और क्या है वह व्यवहारिक उपाय? वह कह रहे हैं छोड़ो तुम कि जो दिख रहा है वो झूठ है, कि जो कुछ प्रतीत होता है वह झूठ है, तुमसे हो नहीं पाएगा। प्रतीत तो तुम्हें होता ही रहेगा क्योंकि जन्म लेते ही एक अर्थ में तुम हार गए थे। अगर यह माया की जीत है कि माया के होते संसार तुम्हें भाषित होता है तो माया सदा की जीती हुई है तुम सदा के हारे हुए हो क्योंकि तुम्हारे होने में ही 'ममत्व' शुमार है। तुम्हारी आँख खुलती नहीं है की जगत तो तुम्हें दिखने लगता है। तुम्हारी एक-एक कोशिका भय जानती है तो अगर भय का एहसास और अगर ममता-मोह और अगर इंद्रियगत अनुभव हार हैं तो तुम हारे ही हुए हो। इस हार को तुम टाल नहीं पाओगे। यह तुम धोखा दोगे अपने आपको अगर तुम कहोगे नहीं! मैं तो मोह से मुक्त हो गया, मुझे कोई ममता नहीं। मुझे जगत दिखाई नहीं देता, मुझे कुछ पाना नहीं, कोई कामना नहीं, कोई मात्सर्य नहीं। झूठ! सारी पोल खुल जानी है। अगर कुछ तुम्हे आकर्षित नहीं करता तो इसका अर्थ इतना ही है कि अभी उसका आकर्षण इतना बड़ा नहीं है कि तुम्हें झुका सके। कुछ और आ जाएगा ज़्यादा लुभावना, ज़्यादा बली वह खींच लेगा तुमको। तुम पूर्ण नहीं हो तो तुम्हारा वैराग्य भी पूर्ण नहीं हो सकता। तुम पूर्ण नहीं हो तो तुम्हारा बोध पूर्ण नहीं हो सकता। तो हार तुम्हारी पक्की है अधिक से अधिक यह कर लोगे कि थोड़ा लड़-भिड़ के हारोगे। आसानी से हार जाए सो संसारी, ज़रा लड़-भिड़ के हारे तो वो सन्यासी। हार तो दोनों की ही पक्की है। पैदा होने का ही मतलब है हार! कबीर साहब कहते हैं-

"हद चले सो मानवा, बेहद चले सो साध"

लेकिन मानव हो या साधु हो हारे तो दोनों ही हैं। जीता कोई और है। इन दोनों में से किसी को भी विजेता घोषित नहीं करते कबीर साहब। आगे कहते हैं-

"हद बेहद दोनों तजै, ताका पता अगाध"

नहीं कह रहे हैं कबीर साहब की संसारी हारा हुआ है और साधु जीता हुआ है। यह दोनों ही हारे हुए हैं। संसार में आने का मतलब ही है कि तुम्हारी हार पक्की है, तुम हारे हुए हो या तो हदों में रहोगे या तो कहोगे हदों में नहीं रहना है, दोनों ही स्थितियों में तुम हो हद के तल पर। दोनों ही स्थितियों में बात तो तुम हदों की ही कर रहे हो। कोई कह रहा है भीतर रहना है, कोई कह रहा है बाहर रहना है।

इस हार को जीत में बदलना कैसे है? इसीलिए शुरू करते हुए ही मैंने कहा कि "हार को जीत में बदलने की कीमिया है- राम।" हार तुम्हारी पक्की है तुम कुछ कर लो। तुम यह मत सोचना कि तुम्हारा ज्ञान तुम्हारे काम आएगा, तुम्हारा वैराग्य, तुम्हारा त्याग, तुम्हारा प्रेम, स्नेह, बोध, कर्म कुछ भी तुम्हारे काम आएगा। कुछ काम नहीं आएगा इतना ही होगा तुम जितनी कोशिश करोगे तुम और अहंकारी होते जाओगे, ये सोचते जाओगे कि मैंने बहुत कर लिया है। वैराग्य की दिशा में, बोध की दिशा में, मुक्ति की दिशा में।

तो तुलसी सूत्र क्या दे रहे हैं? तुम मुक्त मत हो! तुम मुक्त मत हो! तुम यह मत कहो कि संसार से मुक्त होना है, तुम यह मत कहो कि जो दिख रहा है वो सब झूठा है। नेति-नेति छोड़ो तुम, तुम्हारे बस की नहीं है क्योंकि तुम जिसकी नेति-नेति कर रहे हो वो तुम्हारे ही भीतर बैठा है नेति-नेति के कर्ता के रूप में। जब तुम नेति नेति कर रहे होते हो तो तुम जिस वस्तु को काट रहे होते हो, वह वस्तु तुम पर हँस रही होती है क्योंकि बाहर कट कर तुममें भीतर प्रवेश कर गई होती है। तुम्हारे भीतर होती है तभी तो तुम्हें दिखाई देती है। तुम काटते भी उसको कहाँ हो? बाहर ही तो काटते हो, भीतर तो वह बैठी हुई है। भीतर न बैठी होती तो बाहर कैसे काटते? तुलसी वो मार्ग कहते ही नहीं हैं। वो भक्त हैं। भक्तों के लिए कुछ भी अस्पृश्य नहीं। भक्त के लिए कुछ भी भगवान से रिक्त नहीं है। भक्त का सूत्र दूसरा है। भक्त कहता है डर तुझे बहुत लगता है न? तू 'डरों के डर' से डर, तू भय से बढ़े भय से डर, तू राम से डर। तू डर ज़रूर क्योंकि डर से तेरी मुक्ति नहीं है, तू डर से हारा ही हुआ है, तू यह मत कह कि "मैं निडर बनूँगा" तू कह "मैं डरता हूँ बहुत डरता हूँ और मैं राम से डरता हूँ"। जैसे ही तू कहेगा "मैं राम से डरता हूँ", सारे डर दूर हो जाएंगे।

मैं आपसे पहले सत्र में कह रहा था कि काल को हटाना हो तो महाकाल के करीब चले जाएँ। महाकाल काल को खा जाएगा। यह बिल्कुल वही बात है- भय को हटाना हो तो महाभय के करीब चले जाएँ। महाभय भय को खा जाएगा। संसार भय है! संसार भय है क्योंकि वो आपसे कुछ छीन लेता है। लेकिन संसार जब छीनता है तो साथ में कुछ उम्मीद भी रखता है कि कुछ दे देगा। थोड़ा-थोड़ा छीनता है, छोटा-छोटा छीनता है। संसार ने आज तक जो भी आप से छीना वो थोड़ा-थोड़ा है, छोटा-छोटा है, हिस्सा है, आंशिक है। राम महाभय हैं और महाकाल हैं। वो आपसे सब कुछ छीन लेंगे यहाँ तक कि आपका भय भी छीन लेंगे। तो डरना है तो उससे डरो न! बाकी सब से तो 'कुछ' आपका छिनेगा। राम तो आकर आपसे आपको ही छीन लेंगे। आप कहेंगे 'मैं' कहाँ गया? अब ये इतना बड़ा छलिया है। यह सब हर ले जाने वाला है। इससे तो डरना ही चाहिए। बड़ा डरावना है, खौफ़नाक है। सब हर ले जाने वाला। संसार आपसे क्या छीन लेगा? संसार आपसे आपकी ज़मीन-जायदाद छीन लेगा, रोने के लिए आप तो बचे। जब सारी छिन गई ज़मीन-जायदाद तो बैठ कर रो कौन रहा था? कौन रो रहा था? तो आप तो बचे। पूरे छिने होते तो रोने वाला भी कोई न बचता। राम तो ऐसा छीनेंगे कि रोने वाला भी न बचे। पूर्ण मृत्यु हो जानी है कुछ शेष नहीं रहेगा। पीछे मुड़ कर देखेंगे तो घुप अंधकार, कुछ नहीं दिखेगा, बंद। आप कहेंगे मैं आया कहाँ से? मेरे पीछे कोई लकीर दिखाई नहीं देती, कोई इतिहास समझ में नहीं आता। अतीत की पैदाइश तो मैं नहीं हूँ। मैं आया कहाँ से? राम ने अतीत ही मिटा दिया पूरा। कुछ छोड़ा ही नहीं मुझमें ऐसा खाली किया कि कोई अवशेष नहीं। राम महाकाल हैं! तुलसी में, ज्ञानी में और मूर्ख में अंतर यही है डरते तीनों ही हैं। एक डरता है उससे जो इस लायक ही नहीं है कि उससे डरा जाए और ज्ञानी डरता है उससे जिससे डरना ही चाहिए। जिससे डरे बिना गुजारा नहीं और जिससे डर के तर ही जाओगे। मूर्ख होते हैं वो जो भय से मुक्ति माँगते हैं। तुम भय से मुक्ति मत माँगो तुम और भय माँगो। तुम महाभय माँगो मिल गया तुम्हें महाभय तो कायरों की तरह जिस छोटे भय से इधर-उधर डरते, छुपते फिरते हो, वो कायरता जाती रहेगी। बात आ रही है समझ में?

हर भय एक विचार है। हर भय क्या है? एक विचार है। तुम कहते हो तुम किसी चीज़ से डरते हो। वह चीज़ तुम्हारे सामने हो और उसे देखकर तुम्हें कुछ ना हो तो क्या तुम्हें चीज़ ने डराया? डर तुम कब कहते हो कि लगा? तब ना जब डर का अनुभव हुआ और डर का अनुभव तुम्हारे भीतर है। तो डर क्या है फिर? एक अनुभव है। वो अनुभव उस वस्तु से नहीं है जिस वस्तु पर तुम दोष लगाते हो। वो अनुभव तुम्हारे भीतर की कोई बात है। डर तुम्हारे भीतर है, विचार तुम्हारे भीतर है। 'राम का नाम' वो औषधि है जो तुम्हें समस्त विचारों से खाली कर देती है। वो चीज़ इतनी मीठी है और इतनी आख़िरी कि उसके बाद तुम्हें कुछ और सोचने की ज़रूरत नहीं पड़ती। तो तुम सोच रहे थे डर डर काल काल मृत्यु मृत्यु और तभी आ गया 'राम नाम!'

और तुम जब भी सोचते हो, तुम डर के ही तो सोचते हो? डर ही तो विचारों की प्रेरणा है। डर ही तो विचारों का केंद्र है। विचार किसी भी दिशा में हो सकता है, विचार किसी भी वस्तु का हो सकता है पर ईमानदारी से बताइयेगा डरे न हो तो इतना विचार करेंगे जितना करते हैं? और जब डर लगता है तो विचारों की गाड़ी कैसे धक-धका के भागती है? और जब मौज में होते हैं तो विचारों की कहाँ ज़रूरत बचती है? तो तुम डरे बैठे थे और भीतर विचारों की चक्की चल रही थी चल रही थी और फिर आ गया राम नाम। राम नाम वो तुम जिसका विचार ही नहीं कर सकते। जो समस्त विचारों का अंत है, घोल देता है सबको। आखिरी बात है, विचार गया। विचार गया, तो डर गया, काल गया इसीलिए 'राम का नाम' महाकाल है। काल, विचार है और राम का नाम समस्त विचारों की विलुप्ति है।

अब ये ज़रा उल्टी बुद्धि है। जो साधारण मन होता है वो भय से, मृत्यु से बचने के लिए जीवन की ओर भागता है और जो गहरा मन होता है, समझदार मन होता है वह मृत्यु से बचने के लिए सीधे महामृत्यु की ओर चला जाता है।

"मैं कबीरा ऐसा मरा, दूजा मरण ना होय।"

वो ये नहीं कह रहे हैं कि मैं ऐसा जिया कि अब मरूँगा नहीं। वो क्या कह रहे हैं? वो कह रहे हैं मैं ऐसा मरा, पूरा मरा कि अब नहीं मरूँगा। काल से बचना हो तो महाकाल। मरने से बचना हो तो पूरा मर जाओ। यही युक्ति तुलसी भी सुझा रहे हैं- राम का भय रखो!

भय मुक्त होने की अपनी कोशिश में कहीं राम के प्रति भय मुक्त मत हो जाना। क्योंकि पहली बात वो झूठ होगा, दूसरी बात वो बड़ा खतरनाक झूठ होगा। क्योंकि राम यदि तुम्हारे पास नहीं हैं तो भयमुक्त तो तुम हो ही नहीं सकते और दूसरी बात तुम अपने आपको यदि यह झूठ समझा रहे हो कि मैं तो भयमुक्त हो गया हूँ, तो अब तुम्हें ज़िदगी बहुत बड़े झटके देगी। तुम जानोगे भी नहीं कि तुम्हारे भीतर डर, झूठ, कामनाएँ, रिक्तताएँ कितनी गहरी बैठी हुई हैं? तुम तो इसी स्वांग में जियोगे कि मुझे तो अब डर लगता नहीं। मुझे राम का भी कोई डर नहीं। राम कहेंगे मेरा डर तो बहुत आगे की बात है, तू ज़रा सड़क पार कर मैं अभी एक ट्रक भेजे देता हूँ, देखता हूँ कि इससे डर लगता है कि नहीं? मेरा डर तो बहुत दूर की बात है, मेरे हनुमान का डर भी बहुत आगे की बात है तुझसे, मैं एक छोटा सा बंदर भेज देता हूँ दाँत किटकिटाता हुआ, अभी आकर तेरी छाती पर सवार हो जाए फिर देखता हूँ डर लगता है कि नहीं? और तुम ढोल पीट रहे थे कि हम बड़े ज्ञानी हैं, फ्रीडम फ्रॉम फियर, हमने बड़े-बड़े सुधिजनों को पढ़ा है, उन्होंने हमें बताया है कि डरना मत, किसी से भी मत डरना और तभी वो हनुमान का दूत आएगा और दाँत दिखायेगा, चढ़ जायेगा छाती पे और पूछेगा तुमसे, कहां गया तुम्हारा निडर होना वह निर्भयता सारी कहां गई? तुम ही थे न अभी जो शाम को बड़ी तकरीर देकर आए थे कि भय समस्त दुःखों का मूल है। अब रात में अचानक बत्ती गुल हो गई और पेट में दबाव बढ़ता है और टटोल रहे हो इधर उधर कि कहीं से कुछ रोशनी मिल जाए कुछ टॉर्च, मोमबत्ती मिल जाए और जब टटोल रहे हो तो पीछे से कोई स्पर्श कर दे पीठ पर और पूछे कहो क्या ढूंढते हो? और तुमने इतना बड़ा पोथा लिखा है- कि डरना नहीं चाहिए और डर यहाँ से आता है, डर वहाँ से जाता है और डर से तत्काल मुक्ति संभव है और बस एक ठंडा हाथ चाहिए। जितना ठंडा हाथ उतनी ही बर्फ़ सी आवाज़। "दोस्त क्या चाहिए?" इसके बाद पूरे सबूत के साथ पकड़े जाओगे कि डरे थे।(सभी श्रोता हँसते हुए) पार्थिव सबूत, भौतिक सबूत, मानसिक भी नहीं कि इंकार कर दो डर आया ही नहीं। छुआ जा सकता है, चित्र लिया जा सकता है, धोया जा सकता है ऐसा सबूत।

तुलसी इस तरह के पाखंड से बचने के लिए कह रहे हैं। वो कह रहे हैं हटाओ यह सब बातें कि निर्भय हूँ और ये हूँ और वो हूँ डरे तो हो ही। तुम डरने के लिए सुपात्र चुनो! तुम डर का सम्यक विषय चुनो। राम से डरने का अर्थ क्या हुआ? राम से डरने का अर्थ हुआ कि मैं अपने आपको जो भी जानता हूँ , समझता हूँ, वो राम के समक्ष बहुत छोटा है। उसे राम में अंततः समा जाना है। वो जब तक है, वो तब तक डरा हुआ ही रहेगा। उसके लिए तो डर से मुक्ति पाने का एक ही तरीका है कि वह डरता रहे राम से। यह बात थोड़ी उल्टी लगेगी पर गौर करो। डर से बचना हो तो डरते रहो- राम से।

इसीलिए बहुत सारे पुराने धर्म तुमसे कह गए हैं कि वो मात्र करुणावान ही नहीं होता, उसका तांडव, उसका प्रकोप, उसकी लाठी, उसका खौफ़ ये भी भी बड़े हैं। 'गॉड फ़ियरिंग' जो शब्द है अब उसका बड़ा दुरुपयोग हो गया है। पर अगर उसके मूल में जाओगे तो समझोगे की भावना क्या थी? शब्द अच्छा है तब तक अच्छा है जब तक गॉड को तुम कोई धारणा, कोई मूर्ति, कोई विषय, कोई छवि न बना लो। इसी तरह से तुलसी आगे कहते हैं कि- और अभी तुम्हारी जितनी हारे हैं जीत में तब्दील हो जाएंगी। 'ममत्व' हार है। 'विपर्यय' हार है। 'मोह' हार है। बिल्कुल हारे हुए हो तुम। हारना तुम्हारी प्रकृति। यही हार झट से जीत में बदल जाएगी अगर मोह हो जाए तुम्हें- राम से। जो तुम्हें दिखता है वो तो तुम्हे दिखता ही रहेगा। झूठ मत बोलना कि नहीं दिखता। लेकिन जो दिखता है वही तुम्हारी जीत बन जाएगा अगर जो कुछ तुम्हें दिख रहा है वो तुम्हें राम दिखें।

एक तो सज्जन वो होंगे, जो कहेंगे हमें तो अब कुछ दिखता ही नहीं। भौं! तो बोल किससे रहे हो? यह तो हो गया आडंबर "कि हमें तो जग की व्यर्थता समझ में आ गई है, दृष्टि का मिथ्या होना दिखा है, तो हमें अब कुछ दिखाई नहीं देता। दूसरा यह है- दिखाई देता है, लेकिन जो दिखाई देता है उसमें राम दिखाई देते हैं। हम इतना राममय में हैं कि जो दिखता है उसमें राम दिखते हैं। अर्थ क्या हुआ? इसका अर्थ यह हुआ मैं इतना डूबा हुआ हूँ राम में कि चारों तरफ जो दिखता है वह राम के रंग में डूब जाता है। समझियेगा उदाहरण देता हूँ-आपकी एक छोटी सी बच्ची है और वह आपके दिमाग पर राज करती है। आपके मन की देवी है वो। अब आप चल रहे हैं और आपको एक छोटा सा फूल दिखाई देगा। तुरंत आपको क्या विचार आएगा? यह फूल तोड़ कर बच्ची को दे दे। तो आपको फूल नहीं दिखा आपको क्या दिखाई दिया? आपको आपकी बच्ची ही दिखाई दी। आप ज़रा आगे बढ़े, आपको कुछ दिखाई देगा जो गेहुँआ है, सफेद है या सांवला है। रंग दिखाई दिया है आपको लेकिन वो रंग आपको तुरंत एक क्या याद दिला देगा? आपके मन में वह रंग नहीं उतरेगा आपके मन में उस रंग के माध्यम से आपकी बच्ची की छवि उतर जाएगी। आपको गेहुँआ रंग दिखाई दिया आपको अपनी बच्ची का चेहरा याद आ जाएगा। रंग तो नहीं दिखाई दिया न?

तुलसी कह रहे हैं ऐसे ही तुम्हें जो कुछ भी दिखाई दे, वह न दिखाई दे, 'राम' दिखाई दें। क्योंकि राम तुम्हारे मन के राजा रहें। बात आ रही है समझ में?

आप जानते हैं? आपके मन में जो कुछ चल रहा होता है, संसार में आपको वही-वही दिखाई देता है! आपके मन में वासना चल रही हो, आपको पुरुष चाहिए हो, आप जिधर देखेंगे उधर आपको मात्र पुरुष ही दिखाई देंगे। आपको स्त्री चाहिए हो, आपकी आँखों को और कुछ दिखाई ही नहीं देगा, स्त्रियाँ, उनकी भाव-भंगिमाएँ, उनके रूप-रंग, उनके अंग-प्रत्यंग। जो मन में होता है वही-वही बाहर दिखाई देता है। आपने देखा है? आप कभी बाज़ार जाते हैं कुछ खरीदने के लिए आपकी दृष्टि बार-बार कहाँ जाकर रुकती है? कहाँ जाकर रुकती है? वही जो आपको चाहिए। ठीक वहीं पर जाके आपकी दृष्टि रूकती है जो आपको चाहिए। बाकी जगहों पर नज़र रूकती ही नहीं, दिखाई देता ही नहीं। राम यदि मन में हो तो बाहर भी मात्र दिखाई क्या देंगे? राम! तुलसी भी यही सूत्र दे रहे हैं। वो कह रहे हैं- "जगत को नश्वर, मिथ्या मत बोलो, तुम इतने राममय हो जाओ कि जहाँ देखो वहाँ राम दिखाई दें।

तुम्हें कपड़ा दिखाई दे तुम कहो बढ़िया है! मेरे घर में मानस की एक प्रति पड़ी हुई है, मैं इस कपड़े से उस प्रति की जिल्द बनाऊंगा। तुम्हें कहीं को जाता हुआ कोई वाहन दिखाई दे ठीक! ये वाहन कहीं को जा रहा है। एक दिन मैं भी कहीं को चला जाऊंगा। तुम्हें एक जोड़ा आता दिखाई दे। तुम कहो "जोड़ा तो तभी जोड़ा है जब राम और सीता का हो।" जो कुछ भी तुम्हें दिखाई दे, वो तुम्हें किसी न किसी तरीके से सुध किसकी दिला दें? राम की!

वह तभी होगा जब तुम्हारे मन में राम की सुध पहले से बसती हो। जब पहले वह भीतर बसती होगी तब बाहर जो देखोगे उसमें राम ही दिखाई देंगे। बात आ रही है समझ में?

तब कोई भी पशु दिखेगा तो तुम कहोगे राम की सेना में गिलहरी भी थी और भालू भी थे। अब एक साधारण चूहा गिलहरी कुछ भी हो सकता है और किसकी याद दिला गया? राम की याद दिला गया और पूरा समुद्र है राम कथा, उसमें इतने पात्र हैं, इतनी घटनाएँ हैं, इतने अवसर है याद करने के कि सब याद हो जाना है। वहाँ हिरण है, वहाँ जंगल है, वहाँ शहर है। तुम बोर्डिंग पास लेकर बैठे हो बोइंग 737 में तुम्हें याद आ जाए पुष्पक विमान! क्या बुराई है? वहाँ इतना कुछ है कि तुम्हें जो भी दिखाई दे रहा है उसका सीधा संबंध उससे बैठ जाएगा। नदी देखो कोई तुम्हें शरीर याद आ जाए। भाइयों को देखो तो तुम्हें कभी भरत कभी लक्ष्मण याद आ जाए, बच्चे दिखे तो लव कुश। भाइयों में प्रेम तो राम भरत मिलाप। भाइयों में कलह तो विभीषण और रावण। जो देख रहे हो उससे याद रामकथा की ही बंध रही है। कोई पत्नी को समर्पित है तो राम, कोई पत्नी की नहीं सुनता तो रावण। संसार में तुम जो भी कुछ पाते हो वह पूरा का पूरा राम कथा में मौजूद है ही न? तभी तो रामायण इतना सशक्त और प्रचलित व्यक्तय है। इसीलिए तो हमारे मन से वह उतरता नहीं। इसीलिए तो रामकथा कभी बासी नहीं होती। क्योंकि तुम्हारे जीवन में जो भी कुछ हो सकता है, वह उसमें मौजूद है रामायण हो महाभारत हो कोई भी महाकाव्य हो। एक एपिक की खूबसूरती ही इसमें होती है कि वह तुम्हारे जीवन का जस का तस प्रतिनिधित्व कर देता है। तुम जो हो उसमें अपना प्रतिबिंब देख लेते हो इसीलिए फिर वो समयातीत हो जाता है। समय बीतता जाता है और हर घर में कौरव और पांडव आज भी पाए जाते हैं। महाभारत कभी पुरानी नहीं होगी। रामायण कभी पुराने नहीं होगी। क्योंकि वह कभी पुराने नहीं होंगे इसलिए तुम्हारे पास प्रचूर मौका है उनमें अपने जीवन को निरंतर देखने का। यही है राम की निरंतर सुध बनाए रखना। जो कुछ घट रहा है तुम्हारे जीवन में देखो वह जुड़ा हुआ है राम से ही। बात आ रही है समझ में?

इसीलिए इतने दृष्टांत मिलते हैं। तुलसीदास की अगर माने तो उन्हें बार-बार राम लक्ष्मण मिल जाते थे। कभी इधर, कभी उधर, कभी इस बहाने, कभी उस बहाने। अब कैसे मिल जाते थे? कैसे उन्हें कहीं भी दिखाई दे जाते थे राम-लक्ष्मण? चित्रकूट में बैठे हैं, हरे वस्त्रों में दो सुंदर युवक आ रहे हैं।

एक गोरा एक सांवला। मिल गए राम लखन। उस मौके पर तुलसी नहीं पहचान पाए कथा यही कहती है पर फिर भी मिल गए। कैसे मिल गए? ऐसे ही मिल गए भीतर बैठे थे तो बाहर भी दिखाई दे गए। तुम्हारे भीतर भी राम बैठे हो तो जगत तुम्हारे लिए राममय हो जाएगा। अद्भुत नहीं है तुलसी की कहानी स्नानादि के लिए, स्वच्छ होने के लिए जो जल लेकर जाते थे प्रात में उसमें से जो शेष बच जाता था उसको लाकर के एक पेड़ की जड़ में डाल देते थे। यह पानी है, बच गया है, इससे यह पेड़ सींचे देते हैं। उस पेड़ पर एक प्रेत बसता था, अब कहानी देखिए, तो वो सींचे पानी उस प्रेत को मिल जाए, प्रेत बड़ा खुश। तो प्रेत एक दिन पकड़ लेता है तुलसी को, कहता है "विरह में हो क्या चाहिए?" अब पत्नी तो बहुत पहले ही छोड़ आए थे। तो बोलते हैं 'राम'। बोलता है "मैं ठहरा प्रेत, राम मेरे बस की नहीं, हनुमान का पता बता सकता हूँ। अब प्रेत हनुमान का पता बता रहा है और यह घटनाएँ घट रही हैं, तुलसी मज़ाक में नहीं बता रहे हैं। उनकी मानें तो यह सचमुच हुआ और हम और आप कोई होते नहीं हैं यह कहने वाले कि यह नहीं हुआ। अगर यह नहीं हुआ तो रामचरित मानस भी नहीं हुई। मानस का होना यह प्रमाण है, कि यह हुआ। कैसे हुआ वह एक अलग तल की बात है। हो सकता है वैसे न हुआ हो, जैसे दो आम आदमियों की मुलाकात होती है। कोई ज़रूरी नहीं है कि प्रेत सामने ही खड़ा हो तो ही प्रेत है। प्रेत कहीं भी हो सकता है। अंतर रूप में भी तो हो सकता है, मनोलोक में भी तो हो सकता है, तो भी है प्रेत! प्रेत बोलता है चलो हनुमान से मिलवाते हैं। अब हनुमान से कैसे मिलवाएँ? कहे कि आप जब राम कथा वाचते हैं तब एक कोढ़ी आता है बूढ़ा, सबसे पहले आता है सबसे बाद में जाता है, वही है, हनुमान है। और घूम रहे हैं हनुमान कोढ़ी बन के उन्हें रामकथा सुननी है और यह हो रहा है पर सिर्फ तुलसी के साथ हो रहा और भी लोग रहे होंगे चित्रकूट में उनके साथ नहीं हो रहा है। उनके साथ क्यों नहीं हो रहा है? मन में राम नहीं है तो उनके लिए कौन से हनुमान?

तो अब ये राम कथा करते हुए देखते हैं वो बैठा हुआ है पीछे। अंत में वह चल देता है तो उसको पछियाते हैं, वह जंगल पहुंच जाता है, उसको पकड़ लेते, बोलते हैं महाराज! पहचान लिया आपको! वह कहता है "अरे! छोड़ो मुझे! कहाँ तुम फंसा रहे हो?" यह छोड़ते नहीं हैं फिर हनुमान अपना रूप दिखाते हैं। बोलते हैं माँगो! वह बोलते हैं 'राम'! कहते हैं "आएँगे, पहचान भर लेना।" गौर करिएगा वाक्य पे- "आएँगे पहचान भर लेना।" और तुलसी चूकते हैं, वो घटना घटती है कि आए और तुलसी कह रहे हैं वाह! क्या सुंदर नवयुवक हैं बढ़िया! वह घोड़े पर निकल गए। इधर से हनुमान कह रहे बुद्धू बन गया। फिर जाकर दोबारा बताते हैं फिर आएँगे!

अब ये क्या हो रहा है? आपको वाकई लग रहा है राम-लक्ष्मण घोड़े पर बैठकर घूम रहे थे चित्रकूट में? ये हो रहा था क्या? वास्तविकता की, रियलिटी की परिभाषा बदलिए। सिर्फ वही नहीं हो रहा होता है जिसको आप छू सकें, जिसका आप चित्र उतार सकें, जो तथ्यों के अंतर्गत आता हो। 'होना' कुछ और भी होता है और आपकी जिंदगी बड़ी रुखी है, बड़ी दरिद्र है अगर आपकी जिंदगी में बस वह होता है, जो बस होता है, जो भौतिक है, जो पार्थिव है। बड़ी अधन्य जिंदगी है आपकी अगर आपकी जिंदगी में कुछ ऐसा नहीं होता है जो होता नहीं है फिर भी होता है। चलते-फ़िरते अगर आपको 'राम' नहीं मिल जाते, तो आप चले ही क्यों रहे हैं? जहाँ हैं वहीं लुढ़क जाइए। चलना तो तब सार्थक है न कि चले तो चौराहे पर 'राम' मिल गए और आकर वास्तव में बता रहे हैं लोगों को, बिना किसी अतिशयोक्ति के, वो राम मिले थे रास्ते में और माहौल ऐसा है, समाज ऐसा है, संगत ऐसी है, कि जिसको बता रहे हैं वह कह रहा है हाँ! हाँ! मिले होंगे। अक्सर मिल ही जाते हैं।

अगर ऐसा जीवन नहीं है आपका, ऐसा घर नहीं है आपका, ऐसी संगति नहीं है आपकी तो आप नाहक जी रहे हैं। जीवन में कुछ है कि नहीं यह जाँचना हो तो, अपने आप से बस यही पूछिए? चलते-फ़िरते अक्सर 'राम' मिल जाते हैं कि नहीं? नहीं मिल जाते! तो जैसा कह रहा था चलना-फिरना ही बंद करिए। आती है बात समझ में? हम इन बातों को अंधविश्वास कह देते हैं, हम इन बातों को कपोल-कल्पना कह देते हैं, हम कहते हैं उन्होंने भाँग खा रखी थी। हाँ उन्होंने भाँग खा रखी थी, तभी उस भाँग से इन महाशास्त्रों का जन्म हो गया है और तुमने भाँग नहीं खा रखी है, तभी तुमने आज दुनिया की ये हालत कर दी है। तुम बड़े होश मंद हो। बात आ रही है समझ में।

ममत्व तो है ही, मोह तो है ही, तो क्यों कहते रहते हो कि यह गुड्डा मेरा है, यह खिलौना मेरा है सीधे बोलो न कि राम मेरा है। यह जो तुम्हारा 'मेरा' है न, इसको शांति वही मिलनी है और कहीं भी नहीं। मोह को त्यागो मत, राम से मोह जोड़ लो। त्यागना तुम्हारे बूते का नहीं। नौंवीं या बारहवीं बार बोल रहा हूँ। सब कुछ त्याग दोगे, त्यागने वाले को कहाँ से त्यागोगे? सब त्यागा! अब त्यागी को कौन त्यागे? त्यागी तो वैसे भी महिमावान क्योंकि त्यागी है भाई! उसको कैसे त्यागोगे? त्यागने से अच्छा है, जब पाने से निजात नहीं है, तो पा लो! पा ही लो! पूरा पा लो! किसको पा लो? राम को ही पा लो। दिल लगा लो किससे? राम से। दिल उचटता तो वैसे भी नहीं है तुम्हारा, कहीं ना कहीं जाकर बैठ जाता है। कभी इधर, कभी उधर, कूड़ा-कर्कट, ढिबरी कहीं भी जाकर बैठा है। इससे अच्छा उसे राम में जाकर बैठा लो। यह भक्त का रास्ता है। आओ भगवान हाथ हमारे नन्हे नन्हे हैं पर हम इन्हीं से तुम्हें पूरा पाना चाहते हैं। छोटे बच्चे देखे हैं सामने पिता खड़ा हो 6 फुट पक्का और यह इतने छोटे हैं कि उसके घुटने तक भी नहीं आते और उसको पूरा कसके खड़े हो जाते हैं। अपनी जान उन्होंने बांध लिया और मजेदार बात यह है कि पिता बंध भी जाता है। कोई पिता तुमने नहीं देखा होगा जिसको उसके नौनिहाल ने बांध रखा हो और वो झटक के चल दे पाँव। कम से कम राम तो ऐसे पिता नहीं। तुम्हारे हाथ ज़रा से हैं, अपनी इन्हीं नन्हीं हथेलियों से बांध लो। तुम्हारे मोह में बंध जाएंगे। इसीलिए इतनी कथाएँ हैं के भक्त के सामने भगवान भी विवश हो के चले आते हैं।

वैज्ञानिक मन हो, तार्किक मन हो तो बातें फिर मूर्खतापूर्ण लगती हैं। मूर्खतापूर्ण नहीं है! और है भी मूर्खतापूर्ण तो ऐसी मूर्खता राम सबको बक्शें। तुम इसी मूर्खता के अभाव में पगलाये जा रहे हो। अपनी शक्ल देखो! तुम्हारी बुद्धि तुम्हारे किस काम आयी है? अपनी जिंदगी देखो! अपनी हालत देखो और दूसरों को कहते हो कि मूर्ख हैं क्योंकि मीठी कथाओं में यकीन करते हैं। उनके लिए वह कथाएँ नहीं है, वो 'मिठास' जीवन है उनका। वो राम के मोह में जीते हैं, तुम कह रहे हो सपने में जीते हैं। तुम काम के मोह में जीते हो, तुम अपने आप को होशियार बताते हो। यह बात तो बहुत जचने वाली है? उनके मन के आकाश में राम उदित होते हैं, तुम कहते हो झूठ है, सपना है और अपने सपनों को तुम महिमामंडित किए जाते हो। तुम कहते हो मेरे सपने हैं टूटने नहीं चाहिए।

अगर उनके राम सपना भी हैं, तो तुम्हारे सपनों से भला सपना है। सपने तो लेते ही हो, वो सपना ले लो, जो तुम्हें जगा देगा।

बिना उद्देश्य के जीवन में जी नहीं पाओगे, निरुद्देश्य जीना किताबी बात है। जीवन जीने का एक सादा, सीधा, सरल तरीका तुमसे कहे देता हूँ (तुलसी का माहौल है)- एक ऊँचे से ऊँचा, एक मीठे से मीठा, एक प्यारे से प्यारा उद्देश्य पकड़ो और अपना पूरा जीवन उसको समर्पित कर दो। इसके अलावा जीने का कोई तरीका नहीं और उस महत उद्देश्य का ही तुलसी की दुनिया में नाम है- राम। तुम्हें राम नाम नहीं देना, तुम कोई और नाम दे दो। पर जीने का इसके अलावा कोई तरीका नहीं।

यह छोड़ो कि मैं सब कुछ त्याग दूँगा, निरुद्देश्य हो जाऊँगा, खाली हो जाऊँगा इत्यादि। तुम तो पकड़ों! तुम एक महत उद्देश्य पकड़ो और जीवन उसको दे दो। यही भक्ति है,यही कर्मयोग है। इसी में जीवन का रस है, सार्थकता है। बात आ रही है समझ में? तुम्हारे पास अगर वह महत उद्देश्य नहीं है तू बड़ा गरीब है तुम्हारा जीवन। अपने आपसे पूछो किसके लिए जी रहा हूँ? जिसके लिए जी रहे हो अगर वह अनंत नहीं है तो तुम्हारा अंत हो चुका! लगातार तुम अंतों की कड़ियाँ जी रहे हो। इस कड़ी अंत हुआ, फिर अगली कड़ी अंत हुआ, फिर अगली कड़ी अंत हुआ, मौत दर मौत जी रहे हो। ये जीना भी कोई जीना है?

राम से नीचे का कोई उद्देश्य रखना मत! ये हुआ हार को जीत में बदलना। जब तुम पैदा हुए तो माया ने तुम्हें सज़ा दी थी। कैसे? माया ने कहा था अब तू जीवन भर किसी उद्देश्य का पीछा करेगा यही तेरी सजा है, यह तेरी हार है। तुमने हार को जीत में तब्दील कर दिया। कैसे?

तुमने कहा ठीक! तूने मुझे शराब दिया है मैं जीवन भर किसी उद्देश्य का पीछा करूँ, तो अब उद्देश्य तो मुझे चाहिए ही, तो मैंने राम को उद्देश्य बना लिया। ये हार बदल गई जीत में। वही तुलसी कह रहे हैं क्या?

"तुलसी निरुपधि राम को, भएँ हारहूँ जीत।"

हारे हुए की जीत हो गयी, जो राम के साथ हो गया। उद्देश्य बनाना हार थी, पर 'राम' को उद्देश्य बनाना जीत हो गई। अब माया कह रही है यह बेईमानी है। माया ने तो यही सोचा था कि तुम उद्देश्य बनाओगे कोई हल्का-फुल्का पाँच मंज़िला मकान हो जाए, दस देशों में व्यापार हो जाए, 15 देश बीवी को दिखा आऊँ इत्यादि। माया ने तुम्हारा वज़न इतना ही नापा था। उसके अनुसार इससे ज़्यादा तुम्हारी काबिलियत नहीं थी। कही- "ये उद्देश्य बनाएगा और कोई हल्का-फुल्का उद्देश्य बनाएगा।" की 100 करोड़ इकट्ठा हो जाए तर गयें! तुमने माया को मात दे दी, तुमने माया के पार का उद्देश्य बना लिया।

राम दूरी माया बढ़ती, घटति जानि मन माँह।

भूरि होति रबि दूरि लखि, सिर पर पगतर छाँह।।

~ संत तुलसीदास

आचार्य प्रशांत: इसे कहते हैं पूरे जगत में राम को देखना सूरज रोज़ उगता है, आप रोज़ धूप खाते हो, छाया भी रोज़ बनती है कि नहीं। आपको यह बात कभी लगी? जो तुलसी कह रहे हैं यहाँ पर? आपको कभी समझ में आया कि सूरज, राम है और छाया, माया है। पर उनके मन में राम छपते हैं, तो उनके साथ दिन भर जो भी घटना घट रही है, उसमें उन्हें राम की ही छाप दिखाई दे जाती है। वह कहते हैं यह सूरज नहीं है राम है और यह ये छाया नहीं है ये माया है। अगर मैंने सूरज को कोई भी दर्जा दिया, सर्वोच्च के अतिरिक्त, तो माया प्रकट हो जाएगी। मैं सूरज को बाये रखूँ तो माया प्रकट हो जाएगी कहाँ? दाएँ। मैं सूरज को आगे रखूँ तो माया प्रकट हो जाएगी कहाँ? पीछे। मैं सूरज को पीछे रखूँ तो माया प्रकट हो जाएगी कहाँ? आगे और मैं सूरज को रखूँ ही नहीं, अंधेरा कर दूँ, रात कर दूँ। तुम आया प्रकट हो जाएगी कहाँ? चहु दिश। एक ही तरीका है माया को अप्रकट कर देने का, ग़ायब कर देने का, जूतों के नीचे रख देने का क्या? सूरज को वहाँ रखो जहाँ उसे होना ही चाहिए। कहाँ होना चाहिए उसे? ऊपर।

और नहीं कोई जगह नहीं, कोई जगह और यही एक छोटा सा सूत्र है जो मानवता हमेशा भुलाए रहती है, जो साधक हमेशा भुलाए रहता है। पहली गलती तो हम यह करते हैं कि हमारे लिए रात हो जाती है। पहली गलती तो हम यह करते हैं कि सत्य को द्वैत का हिस्सा बना देते हैं। सूरज भी हमारे लिए बस आधे दिन आता है। बात समझ रहे हो सूरज आधे दिन आता है इसका आशय क्या है? सूरज हमारे लिए आता ही तब है जब हम अंधेरे और रात से गुज़र चुके होते हैं। जब दुख हम खूब भुगत चुके होते हैं तब हम जाते हैं अध्यात्म की शरण में। रात से गुज़ारो तब हमें कीमत पता चलती है रोशनी की। तो यह तो हुई पहली भूल। कि हमारे लिए दिन है ही तब जब साथ में रात हो और दूसरी भूल यह हुई कि जब हमारे लिए दिन है अभी, मान लीजिए बारह घंटे का तो उस बारह घंटे में से बस एक,दो, चार क्षण आते हैं जब हम सूरज को वह स्थान दे पाते हैं जिसका वो अधिकारी है। राम अक्सर तो हमारे लिए होते ही नहीं और जब होते भी हैं तो हम उनका अपमान, उनकी अवहेलना कर देते हैं। हम कहते हैं अरे तू दाएँ रह, अरे तू बाएँ रह, अरे तू शिखर से ज़रा हटके रह। चौबीस घंटे में दो क्षण के लिए होता है कि सूरज हमारे सर के ठीक ऊपर होता है फिर बस इतनी ही सांत्वना आज तक मानव को मिलती रही कि चौबीस घंटे में से दो पल और फिर बाकी सारे पल काहे के होते हैं? क्लेश के, दुःख के, पीड़ा के।

बताने वाला या तो आपको मिलेगा ही नहीं क्योंकि आप उससे बहुत दूर हो, आपके लिए रात है अभी और जब बताने वाला मिल भी जाएगा तो आप उसका अपमान करोगे, आप उसकी अपेक्षा किसी और चीज़ को महत्व दे दोगे, सर के ऊपर नहीं रखोगे उसको। आप कहोगे कुछ और ज़रूरी है। आप रखो उसे कहीं और, आप जान ही नहीं रहे हो कि सूरज को कहीं और रखकर आपने किस को अपने पास रख लिया है? किसको अपने पास रख लिया है? छाया को अपने पास कर लिया, अंधकार को अपने पास कर लिया। मानवता यही दो गलतियाँ हमेशा से करती आई है। अक्सर तो वो ऐसी जगह जाकर बैठ जाती है, जहाँ प्रकाश उसे उपलब्ध ही न होने पाए, चुन-चुन के ऐसी जगह निकालती है और जब दैवीय अनुकंपा से उसे ऐसा कोई मिल भी जाता है जो उसे प्रकाश दे दे, तो वो उसे समुचित स्थान नहीं दे पाती। वह कहती है "होगा कोई, हमारी ही दुनिया में है तो हमारे जैसा ही होगा।"

कोई तुलसी ही चाहिए रात को दिन को, छाया को, छवि को दृष्टांत बना कर 'राम' समझा देने के लिये। एक चीज़ से बाज़ आ जाइए- कुछ और ज़रूरी है। इसके अलावा कुछ नहीं है त्यागने लायक और यह भी न त्यागा जाता हो तो यह याद कर लीजिए कि राम ज़रूरी हैं। यह राम धुन लगातार बजती रहे।लगातार बजती रहे। कुछ तो हो जिसका सतत स्मरण रहे। जैसे कहते हैं न कबीर साहब-

साँस नगाड़ा कूच का, बाजत है दिन-रैन

कोई तो नगाड़ा दिन-रात भीतर बजे ताकि भूल न जाओ, तुम भूलते कितना हो और ऐसा नहीं कि तुमसे भूलवश भूल हो जाती हो। तुम्हारी भूल भी भूल नहीं है। तुम्हारी भूल न जाने क्या है? कोई याद दिलाता हो, बार-बार जताता हो, बार-बार बुलाता हो, तब भी।

नहीं ठीक है! बुलाता होगा, संध्या का सूरज है, आँखों के सामने है तो निश्चित हमारी ही ऊँचाई का होगा। हमारी ही ऊंचाई का न होता तो आँखों के सामने कैसे आता? ये तुम्हारा तर्क है।

ग़ौर कर लेना सूरज तुम्हे जब भी दिखाई दे रहा है, जब भी वो तुम्हारी दृष्टि के भीतर है, निश्चितरूप से तुमने अपने आप को गलत जगह रखा हुआ है। सूरज तुम्हारे लिए तभी सूरज है, तभी मान्य है, जब वो तुम्हे दिखाई देना बंद हो जाये, बिल्कुल सर के ऊपर रहे। जब तक सर के ऊपर नहीं है तुम उसे देख सकते हो और अगर अभी वो तुम्हारे लिए दृश्य मात्र है तो तुम्हारे किसी काम का नहीं है। राम तुमसे इतने ऊपर हों कि तुम्हें दिखाई न दें इसीलिए राम की मूर्ति नहीं, राम नाम। राम नाम। कोई तो हो तुम्हारे जीवन में तुमसे इतने ऊपर का कि तुम उसे दृश्य न मानो, तुम उसे व्यक्ति न मानो, तुम उसे पदार्थ न मानो, और नहीं है कोई ऐसा, तो तुम्हारे पास रहेगी तुम्हारी छाया, वही तुम्हारी सतत संगनी रहेगी। उसी के साथ जियोगे। कौन है मेरा साथी? मेरी छाया। छाया, साया, माया! इन्हीं के साथ जियोगे।

सूनापन किसकी ज़िन्दगी में है? सूनापन उसकी जिंदगी में है जिसकी ज़िन्दगी में वो दोहरा मौजूद है। सूनेपन की, लोलनिनेस की परिभाषा जान लो- जो अपनी ज़िंदगी में दोहरा मौजूद है, वो सूनेपन का शिकार है। दोहरा मौजूद माने पहले तो स्वयं और दूसरा उसकी छाया। हम और जीते कैसे हैं? अपनी छाया के साथ ही तो जीते हैं। हमारे जीवन में और कोई नहीं होता-हम होते हैं और हमारा प्रतिबिम्ब, हमारी छाया होती है। हमारी सारी बातें हमसे होती हैं, हमारी सारी बात-चीत अंतर्संवाद होती हैं, हम किसी दूसरे से नहीं बात कर रहे होते हैं, हम अपनेआप से ही बात कर रहे होते हैं। दूसरे को तो हम जानते ही नहीं। दूसरा कुछ और नहीं है बस छवि है हमारे लिए और वो छवि हमने प्रक्षेपित करी है।।

भरापूरा कौन होता है? सूनापन किसका नहीं होता? वो जिसके साथ कोई नहीं है। वो जो छायाहीन है। जिसके साथ कोई है वो हमेशा अकेलेपन का सूनेपन का शिकार रहेगा और जिसके साथ कोई नहीं, जो अकेला खड़ा हो गया है, जिसके सर पर सिर्फ़ राम हैं और वो राम भी ऐसे हैं कि वो दिख नहीं रहे। उन्हें इतना सम्मान है कि उनकी छवि नहीं बनाई जा रही। मात्र वही होगा जिसके जीवन में सूनापन नहीं होगा। बात आ रही है समझ में?

अपने आप से पूछिए, अपने आप को निरंतर कोंचते रहिए भूल तो नहीं रहा? भूल तो नहीं रहा? हर पाँच मिनट में अपने आप से ये सवाल पूछा करिये फ़िर भूला न? फ़िर 'कुछ और' कीमती हो गया न? फ़िर किसी और बात को महत्व दे दिया न? लगातार यही। क्या कीमती हुआ जाता है? कहाँ दिल लगा बैठे? किसको हैसियत दे दी? मन के, मन के, मन के। बात आ रही है समझ में? क्या घूम रहा है मन में? राम तो नहीं घूम रहे। देने वाला वो, पालने वाला वो, समझाने वाला वो, बचाने वाला वो, ले जाने वाला वो, तुम याद किसको कर रहे हो? नहीं असल में पिछली गली के गुप्ता जी को याद कर रहे थे। मुँह देने वाला वो, ज़ुबान देने वाला वो, स्वाद देने वाला वो, पाचन उससे, जीवन उससे, अन्न उससे, धन उससे, तुम याद किसको कर रहे हो? नहीं वो सामने वाली दुकान में समोसे!

तुम्हारी हालत उस बच्चे जैसी है जिसका बाप फलों का थोक व्यापारी हो और बच्चा एक सड़े हुए अंगूर के लिए रोता हो और रोता ही नहीं है जब बाप पीछे से आवाज़ देता है, तो कहता है नहीं! वो मेरा सड़ा हुआ अंगूर है, मैं उसको हासिल करने जा रहा हूँ। ये अलग बात है कि वो सड़ा अंगूर भी दिया बाप ने ही है, पर तुर्रा ये है कि मेरा है। अंगूर है और मग़रूर है! सड़ा है और अड़ा है! मेरा प्यार व्यक्तिगत अंगूर! और वहाँ पीछे से आवाज़ें दी जा रही हैं कि भाई! अनार की तश्तरी भेजी है, अंगूरों का थैला भेजा है और उसके बाद शिकायत ये कि जीवन दुःख है! अंगूर सड़ा है।

अंगूर सड़ा है कि तू औंधा घड़ा है? कितना भी तुझे दिया जाता है तुझमें समाता नहीं, तू औंधा पड़ा है।

लेकिन शिकायत क्या है?

अंगूर सड़ा है।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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