Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
रात, शहर और मैं
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
2 min
146 reads

आकाश,

टुकड़ों में मेघाच्छन्न है

या तो पूरी तरह

या बिल्कुल नहीं।

खुले आकाश का सबसे चमकदार सितारा

मेघों को दूर से निहारता है

जैसे पड़ोस का बच्चा मुझको-

भय, संदेह से व्याकुल आँखों से,

कुछ दूरी पर खड़े रहकर।

आषाढ़ के काले बादलों का छोर

बस उनके पीछे चमकती बिजली

ही दिखा पाती है ।

वातावरण के सन्नाटे को

सन्नाटा नहीं रहने देती

अन्दर से आती कूलर की ध्वनि,

झींगुरों का शोर (सदा की तरह)

कुत्तों की चीखपुकार,

बादलों की गड़गड़ाहट

और हाइवे से आती ट्रकों की आवाज़ें ।

हवा की गति अच्छी है,

गमले में लगा गुलाब झूमता हुआ अच्छा लगता है,

छत पर छिटके पॉलिथीन व काग़ज़

हवा चलने पर दौड़-भाग मचाते हैं,

और मेरे पाँव पर जमे मच्छर

हवा तेज़ चलने पर उड़ जाते हैं ।

रात बहुत काली है,

चंद्रमा का कोई पता ठिकाना नहीं,

पर इतनी काली नहीं कि

दूर के पेड़ों की रेखाकृति भी न दिखे।

और बिजली चमकने पर तो

क्षण भर को सब आलोकित हो जाता है ।

शानू और शीवी

अन्दर से मुझको विस्मय से देखते हैं-

‘भैया छत पर एक बजे क्या कर रहे हैं’ ?

लीनियर अल्जेब्रा की किताब औंधें मुँह पड़ी है

और रजिस्टर इस प्रकार भरा जा रहा है

रात अब पहले जितनी रोमांचक नहीं लगती

और मच्छर भी बहुत हो गए हैं

(हवा अचानक रुक क्यों गई ?)

बिजली का कौंधना अच्छा तो लग रहा है

पर अब अन्दर चलता हूँ

वैसे भी यह बल्ब रात की चादर में

बेमतलब छेद कर रहा था ।

~ प्रशान्त (२९.०६.९७)

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles