प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मैं ‘स्नेह’ या यूँकहूँ तो ‘अटेंशन’ की प्राप्ति के लिए कभी-कभी अपने आप को कमज़ोर दिखाती हूँ। मैं ऐसा क्यों करती हूँ?
आचार्य जी: हम सब पूर्णता में जीना चाहते हैं। हम सब स्वास्थ्य में जीना चाहते हैं। हम चाहते हैं कि हमारे अनुभव में न आए कि हम बीमार हैं, आधे-अधूरे हैं, चिंताग्रस्त हैं, पर ऐसा हो नहीं पाता। हमारा अनुभव ही हमें बता देता है कि हमारी हालत क्या है। स्वयं से ही पूछो तो बात खुल जाती है। तो हम फिर अपने आप को एक विचित्र तरह का हास्यास्पद धोखा देते हैं। हम कहते हैं कि मुझे तो पता है कि मेरी हालत कैसी है, तो अगर स्वयं से पूछूंगा तो जानता हूँ कि जवाब क्या मिलेगा, उत्तर आएगा, स्वस्थ नहीं हो तुम, बेचैन हो, बीमार हो। हम तिकड़म लगाते हैं, हम दूसरों से पूछते हैं और दूसरों से अगर हमको सम्मान मिल जाए, स्वीकृति मिल जाए, स्नेह मिल जाए, तो फिर हम अपने आप को जताते हैं, अपने आप को साबित करते हैं, ‘देखा हम ठीक ही हैं’ उसने कहा, ‘देखा हम सम्मान योग्य हैं, उसने हमें सम्मान दिया’, ‘देखा हम इस लायक हैं कि हम पर ध्यान दिया जा सके, हमें ध्येय बनाया जा सके’, ‘देखो उसने हम पर ध्यान दिया न अभी-अभी’।
दूसरों से स्वीकृति की कामना, वास्तव में बताती यही है कि आप खुद अपने आप को स्वीकृत कर नहीं पा रहे। अगर कोई अपनी ही दृष्टि में स्वच्छ होगा, सम्पूर्ण होगा, स्वस्थ होगा तो वो दूसरों से प्रमाण मांगने क्यों जाएगा? दूसरों से प्रमाण माँगने जैसे ही आप पहुँचते हैं, अपने स्वास्थ्य के प्रति, वैसे ही ये तय हो जाता है कि आप अस्वस्थ हैं। दूसरों से जैसे ही आप प्रमाण माँगते हैं अपने सम्माननीय होने का, वैसे ही येह तय हो जाता है कि आप सम्मान के क़ाबिल नहीं हैं। और ये कोई दूसरा नहीं तय कर देता, ये बात आपने ही तय करी होती है। आप अगर स्वयं को सम्मान दे रहे होते, और निश्चित होते आप कि आप सम्मान के पात्र हैं, क़ाबिल हैं, तो दूसरों से क्यों पूछने जाते? ‘क्या मैं इज्ज़त का अधिकारी हूँ?’ ‘क्या मुझे थोड़ा सम्मान मिलेगा?’ और दूसरे कभी उतना जान नहीं पाएंगे, जितना आप जानते हैं। कारण स्पष्ट है, बात ज्ञान की नहीं अनुभव की है।
बीमारी अनुभव है, बेचैनी अनुभव है। तो आप के भीतर जो कुछ चल रहा है आप ज्ञानी हो चाहे अज्ञानी हो, भीतर चलने वाली घटना का अनुभव तो आप ही करेंगे न, और जो दूसरा व्यक्ति है वो कितना भी ज्ञानी हो लेकिन वो अनुभव तो नहीं कर सकता आपके भीतर क्या चल रहा है। हाँ वो हो सकता है कि अपने ज्ञान के द्वारा कुछ अनुमान लगा ले, कुछ हिसाब करे, कुछ गणित करे, लेकिन फिर भी आपके पास जो स्पष्ट और प्रत्यक्ष प्रमाण है वो किसी दूसरे के पास नहीं हो सकता। भई दूसरा अपने ज्ञान के आधार पर ये प्रमाणित भी कर दे कि आप साहब बहुत स्वस्थ हैं, लेकिन ये तो आप ही जानते हैं न कि भीतर चल क्या रहा है, कि नहीं?
जानते तो आप ही हैं कि रातों की नींद उड़ी हुई है, और दिन में खटपट लगी हुई है, तो दूसरा किस हद्द तक काम आ सकता है हमारे? इसलिए दूसरों से मान्यता और स्वीकृति पाने की इच्छा, मैं कह रहा हूँ सबसे ज़्यादा उनमें देखी जाएगी जो खुद को मान्यता नहीं दे सकते, जो ख़ुद को स्वीकृति नहीं दे पाते। दूसरों से प्रेम पाने की इच्छा भी, सबसे ज़्यादा उन्हीं में देखी जाएगी जो स्वयं को प्रेम नहीं कर सकते। भली बात आप स्वयं को प्रेम नहीं कर सकते आप दूसरों के पास जाते हैं, मुझे प्यार करो, मुझे प्यार करो। दूसरे ने वो कर भी दिया जिसे आप प्यार बोलते हैं, तो क्या फ़र्क पड़ जाना है? भूलिएगा नहीं कि मूल तकलीफ क्या थी, किस वजह से आप दूसरे के पास गए थे? आप स्वयं को प्रेम नहीं कर पा रहे थे। और स्वयं को प्रेम क्यों नहीं कर पा रहे थे? क्योंकि अहम्, कैसा भी दिखता हो, कैसा भी आचरण करता हो, कैसा भी दलिद्र सा उसका चरित्र हो, लेकिन एक बात जान लीजिएगा, वो सच्चाई का और ऊंचाई का बड़ा कद्रदान है। मैं अहंकार की बात कर रहा हूँ। अहंकार दिखाई तो देता है कि जैसे सब बुराइयों का, और नीचाइयों का, और क्षुद्रताओं का पक्षधर हो, होता भी है, लेकिन भीतर ही भीतर वो आशिक़ तो होता है सच्चाई का और ऊँचाई का।
तो आप अपने आप को प्यार कर पाएँ इसके लिए ज़रूरी है कि आपको अपने जीवन में सच्चाई दिखाई दे, और ऊँचाईई दिखाई दे। अब अगर जीवन में सच्चाई नहीं है, ऊँचाई नहीं है तो आप अपने आप को प्रेम नहीं कर पाएँगे। आपको अपने प्रति ही एक ग्लानि रहेगी, एक लज्जा सी रहेगी, एक जुगुप्सा रहेगी। लज्जा इसलिए रहेगी क्योंकि आप वैसा जी नहीं रहे हैं जैसा जीने के आप अधिकारी थे, और जैसा जीना आपका उत्तरदायित्व था। आप वैसा नहीं जी रहे हैं। आप में संभावना थी ऊँचा जीने की, सच्चा जीने की, उसकी जगह आप गड्ढों में, नीचाइयों में, कीचड़ में लथपथ पड़े नज़र आते हैं। आप कैसे अपने आप को प्रेम करेंगे? प्रेम करने के लिए सबसे पहले प्रेम योग्य विषय होना चाहिए न। कोई ऐसा होना चाहिए जो प्यार के क़ाबिल हो। अगर अपनी ज़िंदगी ही ऐसी नहीं है कि वो प्यार के क़ाबिल हो तो अपने आप को नहीं प्यार कर पाएँगे,जब अपने आप को प्यार नहीं कर पाएँगे तो दूसरों के सामने खड़े हो जाएंगे दिल का खाली कटोरा ले के, ‘मुझे प्यार करो ,मुझे प्यार करो’(मुस्करा कर गाना गाते हुए) वो कटोरा ख़ाली ही रह जाना है, उसमें आप कितने भी आशिक़ों से भीख डलवा लीजिये प्यार की। अभी दो तरफा चोट पड़ रही है। पहली बात तो ये, दूसरों से प्यार माँगने आप जा ही इसलिए रहे हो क्योंकि आप अपने आप को प्यार कर नहीं सकते, दूसरों से सम्मान माँगने आप जा ही इसलिए रहे हो क्योंकि अपने आप को सम्मान आप दे नहीं सकते, ये पहली चोट। और दूसरी चोट, दूसरे आपके दिल के कटोरे में कितना भी प्यार सम्मान इत्यादि डाल दें, वो कटोरा खाली ही रह जाना है। आप ज़िन्दगी भर यही कहते रह जाओगे कि प्यार नहीं मिला। ‘कोई मुझे प्याल नहीं कलता’(हँसते हुए तोतली भाषा में बात करते हुए)। सुना है कि नहीं सुना है? अरे दूसरों से नहीं, ख़ुद से सुना है कि नहीं सुना है? सबकी यही शिकायत रहती है, क्या? ‘कोई मुझे प्याल नहीं कलता’। आधे फिल्मी गाने ही इसी तर्ज़ पर हैं, ‘कोई होता जिसको अपना हम अपना कह सकते यारों।’ प्यार की प्यास, और इसीलिए फ़िर हम सम्मान को लेकर इतने संवेदनशील होते हैं कि किसी ने ज़रा सा कुछ कहा नहीं कि हम आहत हो जाते हैं। ‘उसने मेरा अपमान कर दिया! पता है न हम किस ख़ानदान से हैं, हम अपना अपमान नहीं झेलेंगे।’
अरे बात ख़ानदान की है ही नहीं, बात तुम्हारे खोखलेपन की है, खोखलेपन को ख़ानदान का नाम क्यों दे रहे हो? तुम्हें पता है कि तुम सम्मान के क़ाबिल नहीं हो, इसलिए दूसरा जैसे ही तुम्हारा ज़रा सा अपमान करता है तुम भीतर तक दहल जाते हो, तुम्हें शक़ हो जाता है कि कहीं ख़बर लीक तो नहीं हो गई? कहीं ये बात दूसरों को भी तो नहीं पता चल गई कि मैं सम्मान के लायक हूँ ही नहीं? तुम कहते हो इससे पहले की ये बात आग की तरह फैल जाए, मैं तो हूँ ही अपमान का अधिकारी। जल्दी से मैं अपमान करने वाले को मिटा देता हूँ, उससे लड़ लेता हूँ, उसे तोड़ देता हूँ, या उसे मार ही देता हूँ। क्योंकि असली बात तो यही है कि जिसने मेरा अपमान करा है उसने काम बिल्कुल ठीक करा है,| अपमान तो मेरा होना ही चाहिए।
जो अपनी नज़रों में अपना सम्मान करता है, उसे क्या अंतर पड़ेगा इस बात से कि दुनिया उसे कैसे देखती है? बताओ मुझे। जो अपनी नज़रों में अपनी इज्ज़त करता है, उसे क्यों फर्क पड़ जाएगा अगर दूसरा आ करके उसकी स्तुति कर जाए, और चाहे दूसरा आ करके उसकी निंदा कर जाए, अवमानना कर जाए, क्या फ़र्क पड़ना है, हम जानते हैं हम कौन हैं। अपनी इज्ज़त आप करना हम जानते हैं, दूसरों से थोड़ी ही इज्जत माँगेंगे। समझ में आ रही बात?
तो प्यार माँगना ही सबूत है इस बात का कि आप प्यार के क़ाबिल नहीं हो, और इज्ज़त माँगना ही सबूत है इस बात का कि आप इज्ज़त के काबिल नहीं हो। तो गड़बड़ हो गई, और ये जो अटेंशन सीकिंग बिहेवियर होता है, दूसरों का ध्यान खींचने की चेष्टा, यही सबूत है इस बात का कि आप इस क़ाबिल ही नहीं हो कि आप पर कोई ध्यान दे। जो वास्तव में इस लायक होगा कि उस पर ध्यान दिया जाए, वो कोशिश करके दूसरों का ध्यान क्यों खींचेगा?कहो?
फिर दूसरों का ध्यान आप इसलिए भी नहीं खींचते कि आप उन्हें कुछ दे सको, दूसरों का ध्यान आप इसीलिए तो खींचते हो कि उनसे कुछ? ले सको। ये तो और बड़ा सबूत हो गया न भीतर के खाली कटोरे का। भीतर के खाली,और छेद वाले कटोरे को विज्ञापित करते घूमते हैं हम, ‘तन्हा है मेरी ज़िन्दगी, तू आ आ आ ।’ क्या भाई, प्यार माँग रहे हो, या खैरात? पर अधिकांशतः हम प्रेम खैरात की तरह ही माँगते हैं। कोई कोई ही होता है, जिसको प्रेम मिलता है पूजा की तरह, प्रशंसा की तरह, सम्मान की तरह, समर्पण की तरह। अधिकांश लोगों को तो प्रेम ऐसे ही मिलता है, सहारे की तरह, खैरात की तरह, भीख की तरह, सांत्वना की तरह, गौर कीया है?, हज़ारों में कोई एक होता है जिसको प्रेम इसलिए मिलता है क्योंकि वो क़ाबिल है। बाकियों को तो प्रेम मिलता ही इसीलिए है क्योंकि वो नाक़ाबिल हैं। और आपकी नाक़बिलियत के नाते आपको जो प्रेम मिले, उसको मैं कह रहा हूँ प्रेम मत कहिएगा, खैरात कहिएगा, सहारा कहिएगा, सांत्वना कहिएगा। हम कह भी देते हैं, ‘मेरी ज़िंदगी में सहारा आ गया’ ‘तुम ही तो हो, तुम्हारे बिना मेरा क्या होगा।’ ये आपको प्रेम थोड़े ही मिला है, बैसाखी मिली है। बैसाखियों से प्रेम तो नहीं किया जाता न, न आप बैसाखी से प्रेम कर पाएंगे न बैसाखी आपसे, यूँ ही परस्पर लेन-देन का रिश्ता है। ये भी हो सकता है बैसाखी बनी रहे, आप स्वस्थ हो जाओ तो बैसाखी की कोई ज़रुरत ही न पड़े, और ये भी हो सकता है कि बैसाखी टूट जाए, घिस जाए तो आप अपने प्रयोग के लिए कोई दूसरी बैसाखी ले आ लो। होता है ऐसा कि नहीं होता?
अगर आपका और दूसरे व्यक्ति का सहारे का, कमज़ोरी का और सांत्वना देने का ही रिश्ता है तो जिस दिन वो दूसरा व्यक्ति आपको सहारा देने लायक नहीं रहेगा आप नई बैसाखियाँ नहीं खोज लोगे? और अगर आप ऐसे हो गए कि आपको अब सहारे की जरूरत नहीं पड़ी तो भी क्या आप बैसाखियों को नहीं त्याग दोगे? पर अधिकांशत: ऐसा ही होता है हमारा प्रेम, स्नेह, अपनापन। ऐसा प्रेमी तो हम खोजते ही नहीं जिसको सर उठा कर देखना पड़े। जो इतना ऊँचा हो, इतना ऊँचा हो कि सम्मान ही नहीं, श्रद्धा का पात्र हो। ऐसा प्रेमी हम खोजते ही नहीं, ऐसा प्रेमी हमें बड़ा ख़तरनाक लगता है। ख़तरनाक क्यों लगता है? क्योंकि अगर ऐसा कोई आ गया जीवन में तो हम उस पर नियंत्रण कैसे करेंगे भाई? कोई छोटा मोटा जीव-जंतु ले आओ ज़िन्दगी में, जिसको जेब में रखा जा सके। मुझे नए आशिक मिले हैं अभी अभी, ये रहे (इशारे से, हाथ जेब में डालकर बाहर निकालते हुए), ये रहे।
कहा भी जाता है न, ‘तुम जैसे चार को तो मैं जेब में रखकर घूमती हूँ’ ये ठीक है, इतना चलता है। क्योंकि अब इस तथाकथित प्रेमी को नियंत्रित किया जा सकता है। जो बहुत ऊँचा हो, उसको जेब में कैसे रखोगे? तो ऐसे को हम प्यार करते ही नहीं। बुद्धुओं को बहुत प्यार मिल जाता है, बुद्धों को बहुत कम। बुद्ध को आप एक सतही सम्मान दे सकते हो, दूर ही दूर से उनके प्रति आकर्षित अनुभव कर सकते हो, पर प्रेम नहीं करोगे उनसे। वास्तव में इस पृथ्वी पर जिनको सबसे कम प्रेम मिला है वह ‘मुक्त पुरुष’ ही हैं। मज़ेदार बात क्या है, उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता। और जिन्हें सबसे ज़्यादा प्यार मिला है, वो सब घुग्घुलाल हैं। लेकिन मज़ेदारर बात क्या है, उन्हें भी फर्क नहीं पड़ता। घुग्घुलाल को आप दे लो जितना प्रेम देना है वो रहेगा तो? घुग्घुलाल ही। और बुद्ध से रख लो जितना परायापन रखना है, कर लो जितनी इर्ष्या करनी है, बना लो जितनी दूरी चाहते हो, लेकिन रहेंगे तो वो? बुद्ध ही। बुद्ध को कोई फर्क ही नहीं पड़ना, तुम उन्हें प्रेम करते हो कि नहीं करते हो। उन्हें फर्क पड़ता होता तो फिर वो बुद्ध नहीं होते। और घुग्घुलाल का कटोरा खाली का खाली ही रहना है भले सौ लोग उनको प्रेम करने वाले आ जाएँ। आशिकों की, चाहे प्रियसियों की फौज लेके चलें घुग्घुलाल, भीतर का खोखलापन थोड़े ही भर जाना है, कि भर जाना है? दूसरे से तुम वो क्यों माँग रहे हो जो तुम खुद को ही नहीं देना चाहते? तुम खुद को तो सम्मान देना नहीं चाहते हो,दूसरे से माँग रहे हो सम्मान, तो मैं कहूँगा अगर तुम सम्मान के क़ाबिल हो तो सबसे पहले तुम ही खुद को सम्मान दो न। अपनी नज़रों में तो गिरे हुए हो, और मेरी नज़रों में उठना चाहते हो? ये बात तो जमी नहीं, कि जमी? और जो अपनी नज़रों में उठा हुआ होगा, वो प्रेम दे तो सकता है, प्रेम की भीख नहीं माँग सकता। बात समझ रहे हो न? वो फिर सम्मान का भिखारी नहीं होगा, न बड़ा आहत हो जाया करेगा वो। आ रही बात समझ में?
कुछ चीज़ें ऐसी होती हैं जो दूसरों से ही मिलती हैं। वो स्थूल चीज़ें होती हैं, इससे सम्बंधित( हाथों की तरफ इशारा करते हुए), किस से? शरीर से सम्बंधित। गर्भ में होते हो तो पोषण किससे मिल रहा होता है? माँ से मिल रहा है। पैदा हो जाते हो, तो हवा कहाँ से मिलती है? वातावरण से, अन्न-जल कहाँ से मिलता है? धरती से, कपड़ों के लिए कपास कहाँ से आता है? पौधों से। ये सब चीज़ें तो दूसरों से ही आनी है भाई, आनी हैं न। थोड़ी और सूक्ष्म चीज़ेंभी हैं जो दूसरों से आती हैं, ज्ञान, संस्कार आदि भी जो कि ज्ञान का ही एक रूप हैं, ये सब भी दूसरों से आ जाते हैं। ठीक है यहाँ तक, भाषा तुमको आत्मा नहीं सिखाएगी। ये नहीं होने वाला कि तुम कहो कि हम दूसरों से क्यों ले भाषा, भाषा तो दूसरे ही बताएंगे। देश के नीयम कानून क्या है, ये भी दूसरों ने ही तय करे हैं और दूसरे ही तुमको बता देंगे, ठीक है। ये सब चीज़ें हैं जो दूसरों से ही आती हैं।
लेकिन कुछ दूसरी चीज़ें हैं जो दूसरों से नहीं आनी चाहिए, वो नितांत अपनी होती हैं, अपनी ही रहनी चाहिए। मत कहो कि कोई आ कर के मुझे खुशियाँ दे जाए, आनंद तुम्हारी अपनी बात है, आत्मा की। जो अपनी खुशियों के लिए दूसरों पर निर्भर हो गया वो सदा दुखी रहेगा। लेकिन हम यही कहते हैं न, कोई पूछता है अरे अरे, मुँह लटकाए काहे घूमते हो? क्यूँ इतने उदास हो? हम क्या बोल देते हैं? कोई है कहाँ जो हमारी ज़िन्दगी में मुस्कान बिखेर जाए, तो मुँह तो लटका ही रहेगा न। ‘क्या हुआ डार्लिंग, आज इतनी उदास क्यों हो? तुम दूर थे न इसलिए’ आशय क्या है, आशय यही है कि खुशी दूसरे से आती है। दूसरा हो तो खुशी आएगी। जो अपनी खुशी के लिए मैं कह रहा हूँ दूसरे पर निर्भर हो गया, उसने अपनी किस्मत में दुख ही दुख लिख लिया। दुख और कुछ है ही नहीं, जो खुशी दूसरों से आती है उसी का नाम दुख है। और इसीलिए हम बार-बार भेद करते हैं सुख में और आनंद में।
आनन्द वो खुशी है जो दूसरों पर निर्भर नहीं करती। दूसरों पर निर्भर नहीं करती, परिस्थितियों पर निर्भर नहीं करती, वो तुम्हारी अपनी आंतरिक बात है। दूसरों पर क्या निर्भर करती है चीज़ें? अभी हमने बात करी थी, क्या क्या है जो दूसरों से आता है? रुपया, पैसा ये सब तो सामाजिक चीज़ें हैं न बाहर से ही आएगा, खाना पीना, ये सब बाहर से आता है। जिसकी खुशियाँ इन चीज़ों पर निर्भर करने लग गईं, किसी भी ऐसी चीज़ पर निर्भर करने लग गयी जो बाहरी है, जो दूसरों से मिलती है, वो अब गुलाम हो गया न। उसकी खुशी अब दूसरों से आ रही है, तो अपनी खुशी के लिए वो दूसरों पर आश्रित हो गया। और जो गुलाम हो गया, आश्रित हो गया उसको बहुत बड़ा दुख मिल गया न। क्या दुख मिल गया? गुलामी। तुम अपनी खुशी के लिए अगर दुसरो पर आश्रित हो गए तो तुमने अपने लिए एक बहुत बड़ा दुख तैयार कर लिया न? क्या दुख, गुलामी।
आनन्द बिल्कुल अलग चीज़ होती है, बिल्कुल अलग चीज़। वो इस पर नहीं निर्भर करता कि कौन तुम्हारे पास है, कौन दूर है, तुम्हें क्या मिला है, क्या नहीं मिला है, तुम्हारी जेब में कितना है, कितना नहीं है, कौन तुमको इज्ज़त दे रहा है, कौन नहीं दे रहा है। आनन्द किसी ऐसी चीज़ पर आश्रित होता है जो तुम से छीन नहीं सकती, जो अनन्य है तुमसे। जो तुमसे विलग, जुदा हो ही नहीं सकती। दूसरे तुम से सब कुछ छीन सकते हैं, लेकिन तुमसे वो तो नहीं छीन सकते न, जिसको तुम अपने आप से अलग होने देने को राज़ी ही न हो। बात समझे? उसी को बताने वालों ने कहा है आत्मा।
आत्मा माने कुछ ऐसा जो तुमसे अलग हो ही नहीं सकता। आत्मा माने कुछ ऐसा जिससे इतना प्रेम है तुम्हें कि तुम प्राण तो छोड़ सकते हो पर उसको नहीं छोड़ सकते। आनन्द का मतलब है हमने ज़िन्दगी जी है ऐसी, और हम हैं ऐसे, कि हम बहुत प्रसन्न हैं स्वयं से। आनन्द का मतलब समझ रहे हो? हम हैं ऐसे कि हम बहुत प्रसन्न हैं। हमें कुछ मिल नहीं गया है ऐसा, हमारे साथ कुछ हो नहीं गया है ऐसा, हम हैं ऐसे कि हम स्वयं से बड़े प्रसन्न हैं, यह आनन्द है, हम हैं ऐसे। अब दूसरों पर निर्भर होना पड़ेगा क्या? और अगर आप हो ही नहीं ऐसे कि आप स्वयं से प्रसन्न रह सको, तो दूसरा आगे कितना भी हँसाए, रिझाए, चुटकुला सुनाए, गुदगुदी करे या गोद में लेके घुमाएएं, कितनी देर हँस पाओगे? बल्कि पता है क्या होगा? एक विचित्र चीज़ होगी, जब आपको पता है कि आप अपनी ही नज़रों में प्रेम के लायक नहीं, सम्मान के लायक नहीं, तो दूसरा अगर कोई आए और आपको प्रेम दे और सम्मान दे तो आप उसको क्या समझोगे? बेवक़ूफ़, बेवक़ूफ़।
अब जो आपको इज्ज़त देने आया है, आपकी नज़रों में वो बेवक़ूफ़ है। बोलो उसकी दी हुई इज्ज़त का आपकी नज़रों में क्या महत्त्व है? एक दुकानदार है, वो नकली माल बेच रहा है, उसके पास नकली माल है उसी को वो बेच रहा है। उसके पास एक ग्राहक आता है और दुकानदार उससे बोलता है ‘ये लीजिये साहब, ये बढ़िया माल है, आप लीजिये। और बहुत बढ़िया है तो थोड़ा महँगा है, बाज़ार से थोड़ा सा ज़्यादा महँगा है, लीजिये लीजिये’ और जो ग्राहक है वो ले भी लेता है। दुकानदार इस ग्राहक को क्या समझ रहा है? भले ही उस ग्राहक से उसको बिक्री मिल रही है और पैसा मिल रहा है पर उसको समझ क्या रहा है? मन ही मन क्या समझ रहा है? बेवक़ूफ़ जानता है न वो बेवक़ूफ़ है। ठीक उसी तरह से हम और किसी को बेवक़ूफ़ समझें चाहे न समझें, जो हमें प्यार दे और इज्ज़त दे उसे हम सबसे ज़्यादा बेवक़ूफ़ जानते हैं। क्योंकि हमें पता है कि हम, प्यार और इज्ज़त के क़ाबिल नहीं हैं। इसी से ये भी समझ लो फ़िर कि हम छुपे-छुपे, चुपचाप सम्मान किसका करते हैं? जो हमें इज्ज़तत नहीं देगा हम उसकी इज्ज़त करेंगे, और जो हमें प्यार नहीं देगा हम उसकी ओर आकर्षित हो जाएंगे। अब समझ में आ रहा है लोग सेलिब्रिटीज़ के पीछे क्यों भागते हैं? क्योंकि वो तुम्हें दो धेले का कुछ नहीं देने वाले, तुम उनके सामने पड़ जाओ तो तुम्हें कोहनी मार के हटा देंगे, बल्कि वो तुम्हें छुएँगे भी नहीं, उनके गार्ड्स हैं जो आएंगे और तुमको ‘इधर चल हटो’और तुम उनके ऊपर जान निछावर किए रहते हो।
इसीलिए क्योंकि वो तुम्हें एक पैसे की इज्ज़त नहीं देने वाले। वो तुम्हें कोई न ध्यान देने वाले हैं, न प्रेम देने वाले हैं। इसीलिए वो तुम्हारी नज़रों में प्रेम के और सम्मान के अधिकारी हैं। और इसीलिए तुम्हारे घर में जो लोग होते हैं, जो अपनी तरफ से तुम्हें प्रेम भी देते है और इज्ज़त भी देते हैं, तुम उनका मुँह तोड़ने को राज़ी रहते हो। तुम कहते हो ‘तू मुझे प्यार करता है इसलिए साबित हो जाता है कि तू महा बेवक़ूफ़ है, तू अगर इतना बड़ा उल्लू न होता तो मुझे प्यार करता क्या? अंधे, तुझे दिख नहीं रहा मैं कौन हूँ, तू मुझे प्यार कर रहा है।’ तो नाक़ाबिल आदमी को प्यार करने की सज़ा ये मिलेगी, कि उसे तुम जितना प्यार करोगे वो उतना ज़्यादा तुम्हारा अपमान करेगा। और नाक़ाबिल आदमी के साथ बिल्कुल ये उल्टा नीयम भी चलता है कि तुम जितना उसकी उपेक्षा करोगे, जितना तुम उसकी अवमानना करोगे वो उतना ज़्यादा तुम्हारे सामने नाक रगड़ेगा। कुछ बातें समझ में आ रही हैं?
इस पूरे वक्तव्य के केंद्र पर बैठी है योग्यता, पात्रता, वो पैदा करो| प्रेम मत मांगो, पात्रता पैदा करो। पात्रता पैदा कर लोगे, तो अपने ही इश्क़ में पड़ जाओगे, फिर कोई बाहर वाला आशिक़ चाहिए नहीं। और मज़ेदार बात ये है कि जो पात्रता पैदा कर लेते हैं, उनको बाहर भी फिर बहुत आशिक़ मिल जाते हैं, लेकिन उन्हें उनकी ज़रुरत नहीं रह जाती। समझ में आ रही है बात? और इस तरह के सिद्धांतों में तो पड़ ही मत जाना कि, प्यार के हक़दार सभी हैं। कोई कितना भी गया गुज़रा हो, उसे भी प्यार तो मिलना चाहिए न। बेकार की बात, बहुत बेकार की बात। आजकल ये खूब चल रहा है अनकंडीशनल लव के नाम पर, कि कोई कैसा भी है, उसे प्यार करो। अरे वो ख़ुद को नहीं प्यार कर सकता, कोई और उसे क्या प्यार करेगा। वो अगर ख़ुद को प्यार करता होता तो उस हालत में होता जिस हालत में है वो? बोलो।
प्यार इतनी सस्ती चीज़ नहीं होती है, कि यूँ ही बाँटते फिरें। हमें भी ऐसा ही बताया गया है, कि भले लोग तो वो होते हैं, संत-मानुष तो वो होते हैं जो गली-गली प्रेम बिखराते फ़िरते हैं। सब बेकार की बातें हैं। संत वो है जिसने सिर्फ उच्चतम से प्यार किया है, जो सिर्फ़ राम से प्यार करे, उसका नाम है कबीर। तुम ने क्या समझ लिया कि वो गली गली जो कोई मिल रहा है उसको प्रेम देता फिर रहा है? न, संत वो बिल्कुल नहीं हो सकता जिसको हर किसी से प्यार हो जाए। जो सुपात्र हो, जो ऊँचे से ऊँचा हो, जो अधिकारी हो सिर्फ उसको प्यार करो। और अधिकार की भी अब तुम व्याख्या समझ लो अच्छे से। जो अधिकार है आपका, वही कर्तव्य भी बताता है आपका। अधिकार और कर्तव्य आपके दोनों एक हैं, और वो क्या हैं? जीवन को सार्थक बनाना, जीवन को यथाशक्ति ऊँचे से ऊँचा जीना, यही कर्तव्य है, यही धर्म है और इतना ही करने पर आपका अधिकार है। ये करिए।
जो ऐसे जिएगा, वो बहुत भरपूर जिएगा, छाती में उसकी ठंडक रहेगी। और जो ऐसे नहीं जिएगा, उसको दुनिया से लाख पदक मिल जाएं, लाख तुम उसको मालाएँ पहना लो, खूब उसका सम्मान कर लो, पचास-साठ लोग आ कर के कहें कि हम तुमसे इतना प्यार करते हैं कि तुम्हारे लिए जान दे देंगे, तो भी उसके भीतर की अकुलाहट नहीं शान्त होगी।
प्रेम और पात्रता बिल्कुल साथ-साथ चलें, भूलिएगा नहीं। हल्की चीज़ नहीं प्रेम कि कहीं भी लुटा आए। जो पात्र नहीं है प्रेम का फ़िर उसके प्रति क्या रखना है? उसके प्रति संवेदना रख लो, उसके प्रति करुणा रख लो। संवेदना और करुणा एक बात है, प्रेम बिल्कुल दूसरी बात है। कोई आशिक़ तुम्हारे दरवाज़े दिन रात खड़ा रहता है, कुत्ते की तरह जीभ लटका के और दुम हिलाता हुआ। उसको रोटी डाल दो वो एक बात है। पर तुम कुत्ते के साथ साथ कुत्ता थोड़े ही बन जाओगे, कि बन जाओगे? बोलो। संवेदना रखना ठीक है, करुणा रखना भी ठीक है, गिरे हुए को सहारा देकर ऊपर उठाना भी ठीक है।
पर प्रेम वो गिरे हुए को सहारा देने का नाम नहीं होता, लेकिन ये बात हमें काफी बता दी गई है। उस झूठी धारणा को मिटाना बहुत ज़रूरी है। गिरे हुए को सहारा देने का नाम प्रेम नहीं होता। गिरे हुए को सहारा देने की बात सिर्फ उनको शोभा देती है, जो ख़ुद हिमालय सरीखी ऊँचाइयों पर बैठे हों। आप वहाँ बैठे हैं क्या? गिरे हुए के प्रति मैं कह रहा हूँ करूणा रखिए, बेशक उसे हाथ दीजिए, सहारा दीजिए, उठाइए, पर प्रेम दूसरी चीज़ है। अंतर क्या है प्रेम और करुणा में समझिएगा।
प्रेम उससे किया जाता है, जिसमें आप समाहित हो जाना चाहते हों। प्रेम जिससे किया जाता है व्यक्ति बिल्कुल उसके जैसा हो जाना चाहता है, प्रेम में ये बात है। प्रेम में उद्गमन है, ऊँचाई है, करुणा में नहीं है। तुम किसी गिरे हुए बेबस व्यक्ति के प्रति करुणा रख रहे हो, तुम उसके जैसा थोड़े हो जाना चाहते हो? या चाहते हो? प्रेम में तुम सर ऊपर की ओर उठाते हो, प्रेमी तुम्हारा बहुत-बहुत ऊँचा होना चाहिए, मैंने कहा हिमालय सरीखा। और करुणा में तुम सर नीचे को झुकते हो। सुन्दर बात है करुणा, ऊँची बात है करुणा, लेकिन करुणा जो भी हो, प्रेम नहीं होती। बात आ रही है समझ में?
अगर ज़िन्दगी में तरक्की करनी है, ऊपर बढना है, जीवन को सार्थक बनाना है, तो उसको खोजो तुमसे ऊपर का है, बड़ा है। और उसके इश्क में बिल्कुल गिरफ्तार हो जाओ, समर्पित हो जाओ, सुधबुध खो दो। और जब पाओ कि तरक्की हो गई, बहुत ऊँचे उठ गए, तब पाओगे के जितने भी हैं जो अभी ऊँचे नहीं उठे हैं उनके लिए तुम्हारे पास है ‘करुणा’। लेकिन तुम ख़ुद अभी मिट्टी में ही लोट रहे हो, और कहो कि हाँ मिट्टी वाले जितने हैं, मेरे पास उन सब के लिए करुणा है तो ये बिल्कुल बेकार की बात है। तुम्हें अभी हक़ ही नहीं है करुणा का, तुम अधिकारी ही नहीं हो करुणा के। तुम पर करुणा बिल्कुल चुटकुले जैसी लगती है। जैसे कि कोई भिखारी कहे की मुझे नगर भोज देना है, इस शहर में सब भूखे मर रहे हैं, आज मैं भंडारा लगाऊँगा, लेकिन भाई साहब बस वो थोड़ा सा दो रुपया दीजिएगा, मैंने तीन दिन से कुछ खाया नहीं है। जो खुद जमीन पर लोट रहा है उसको करुणा शोभा नहीं देती। हम में से अधिकांश लोग वही हैं जो अभी ख़ुद ही जमीन पर लोट रहे हैं। हमारा धर्म है प्रेम, संतों का धर्म है करुणा, संसार के प्रति। हमारा धर्म है प्रेम। ये स्पष्ट है? इस पर कुछ और बातचीत?
प्र २: आचार्य जी, इसमें एक मन में स्थिति ये रहती है, जैसे, कोई व्यक्ति है उसके छोटे बहन भाई हैं, वो अपनी ख़ुद की पढ़ाई कर रहा है, तो उसे लगता है कि मैं इनको थोड़ा गाइड कर दूँ, जो मेरे को जानकारी मिली है। तो उसमें उसका व्यवधान होता है, उसका अपना समय जाता है, उनको गाइड करने में। वो गलत रास्ते पर चल रहे होते हैं तो वो कई बार ज़ोर-ज़बरदस्ती कर के उनको सही रास्ते पे डलवाता भी है, सही स्कूलों में या सही कोर्सेज में, तो ये वाली चीज़ आपके हिसाब से क्या ठीक है? उसे सिर्फ अपनी ही पढाई पर ध्यान देना चाहिए, पहले खुद ही अपना एक स्तर प्राप्त करना चाहिए, भाई बहनों का जो होगा, या अपनी तरफ़ से साथ में कोशिश करते रहना चाहिए कि उनको भी गाइड करता चलूँ?
आचार्य: दोनों बातें बहुत अलग अलग नहीं हैं। अगर ये भी प्रेरणा है कि अपने से नीचे वाले को ऊपर उठाना है, तो वो तुम कर कैसे लोगे अगर तुम्हारे अपने ही बाज़ुओं में दम नहीं है? और तुम्हारे अपने बाज़ुओं में दम आता है ऊपर वाले की संगति से, तो नीचे वालों के लिए अगर करुणा रखनी भी है तो वो करुणा, प्रेम का विकल्प नहीं हो सकती।नीचे वालों के लिए अगर तुमको करुणा रखनी है तो वो करुणा भी तुम अभिव्यक्त कर पाओगे तभी जब तुम्हें ऊपर वाले से प्रेम हो। समझ रहे हो बात को?
नीचे वाले को उठाने के लिए ताक़त चाहिए न तुम्हे? वो ताक़त तुम्हें कहाँ से मिलेगी? अभी तो तुम्हारे पास अपनी ही ताक़त बहुत कम है। वो ताक़त ही तुम्हे उससे मिलती है जो ताक़तवर है तुमसे ज़्यादा। और अगर तुम ये कहो कि नीचे वालों को उठाने में, छोटों की मदद करने में, मैं इतना व्यस्त हो गया कि मैंने ऊपर वाले की परवाह करना ही छोड़ दिया, तो तुम ये पाओगे कि तुम नीचे वालों की भी मदद नहीं कर पा रहे हो। ये दोनों चीज़ेंसाथ ही चलती हैं। नीचे की भी मदद करनी है तो पहले ऊपर से कुछ पाना पड़ेगा। जो लोग कहते हैं कि उन्होंने दूसरों की मदद करने के लिए, अपनी कुर्बानी दे दी, उनको एक बड़ी सज़ा ये मिल सकती है कि वो पाएँ कि जिनकी मदद करने के लिए उन्होंने अपनी कुर्बानी दी, वो उनकी मदद भी नहीं कर पाए।
तो प्रेम का कोई विकल्प नहीं है। प्रेम का मतलब ही है जीवन को ऊँचा, ऊँचा और ऊँचा ले जाना। जीवन को उसके साथ रखना जो साथ रखने के लायक है। वो पहली चीज़ है भाई, उसके बाद तुम्हें जितनी मदद करनी हो दुनिया की, कर लेना। पर जो केंद्रीय मुद्दा है, उस पर समझौता करके नहीं। उस पर समझौता बिल्कुल नहीं करा जाता, एकदम मत कर लेना।
ये मैं तुम्हें क्षुद्र स्वार्थ का सूत्र नहीं समझा रहा हूँ। जो ऊँचा उठेगा, वो स्वतः ही नीचे वालों की मदद करना चाहेगा, और जो नीचे वालों की मदद करना चाहता है उसे ऊँचा उठना नहीं पड़ेगा। तो बात छोटे और निजी स्वार्थों की नहीं है, बात जीवन के कुछ मूलभूत सिद्धांतों की है, उनको नहीं भुलाया जा सकता। जो उनको समझते नहीं हैं, जो उनकी उपेक्षा करते हैं, वे आजन्म दुख पाते हैं।