प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी! मेरा नाम ऋचा है। आप तीन महीने पहले मुझे यूट्यूब में आप मिले और तब से मुझे लग रहा है कि हाँ, कुछ हो सकता और कुछ बदलाव हम कर सकते हैं अपनी ज़िंदगी में। अन्यथा काफ़ी कुछ मन में चल रहा था।
मेरा जो व्यक्तित्व है वो कुछ ऐसा है, कॉन्फिडेंस कम रहता है, मुझे दुविधा रहती है और अंतर्मुखी हैं हम काफ़ी। किसी से बातचीत कर नहीं पाते सही से। मुझे लगता है कि मेरी बात कोई सुनने वाला, समझने वाला नहीं है। इस वजह से हम ज़्यादातर चुप रहते हैं। लेकिन मन में बहुत कुछ चलता है।
मेरे अंदर गुस्सा बहुत ज़्यादा है। जो कि मुझे लगता है कि पितृसत्तात्मक समाज की वजह से है। पितृसत्ता की वजह से है या मेरे आस-पास जो हम दुनिया देखते हैं और समझते हैं उसकी वजह से है।
जब हम छोटे थे, दूसरी या तीसरी कक्षा में, मेरे इलाके में एक दीदी थीं, उनकी शादी हुई। शादी के बाद दहेज की वजह से उनके पति और ससुराल वालों ने उनको जला दिया। वो हैं, जिंदा हैं, सही सलामत हैं। लेकिन वो पूरी बदल गयीं। मतलब शरीर जल गया। उस घटना से उनकी ज़िंदगी बदल गयी पूरे तरीक़े से।
थोड़े और बड़े हुए इलाके में एक दूसरी दीदी थीं। उनकी शादी हुई। उनका भी उनके ससुराल वालों के साथ सही नहीं चल रहा था। चर्चा होती थी लेकिन उनके मायके वाले वापस उनको ससुराल भेज देते थे। अंत में ये हुआ कि जब वो तीन माह की गर्भवती थीं, एक रात उनके पति ने उनको शायद ज़हर देकर बेहोश करा और जब बेहोश वो हो गयीं, उनको रेलवे ट्रैक पर डाल दिया। ट्रेन निकल गयी उनसे। उनका जीवन ख़त्म।
अच्छी खासी पढ़ी-लिखी थीं वह। सब कुछ था। फिर थोड़े और बड़े हुए तो राजनीति से अगर जुड़ा देखें तो युद्ध हुए। भारत-पाकिस्तान का कारगिल युद्ध हुआ। गोधरा कांड हुए।
तो उसको हम समझते थे कि ये क्या हो रहा है। मतलब ये कौन है पीछे से जो ये कर रहा है? किस्से सुनने को मिलते थे जहाँपर हत्याएँ और बलात्कार हो रहे हैं। क्यों हो रहे हैं?
क्षमा कीजिएगा, बोल नहीं पा रही हूँ सही से। अभी आजकल जो ख़बरें पढ़ते हैं, अगर बलात्कार की बात करें तो अभी कुछ मामले ऐसे सुनने में आते हैं कि कुछ लोग ऐसे हैं कि कुछ पुरुष जो न केवल किसी भी उम्र की मादा इंसानों के साथ बलात्कार करते हैं बल्कि वे बकरियों, कुत्तों, गायों, गर्भवती गायों जैसी किसी भी अन्य प्रजाति के साथ भी बलात्कार करते हैं। ऐसे मामले भी सुनने को मिलते हैं।
वह लोग कहाँ से आ रहें? वो लोग कौन हैं? ये समझ में नहीं आता है। लेकिन गुस्सा बहुत है मन में। गुस्सा बहुत आता है। और भी कई ऐसी चीज़ें हैं। अब वो गुस्से का असर मेरे निजी जीवन पर पड़ता है। मेरे अंदर युद्ध चलता रहता है कि मुझे ये चीज़ें नहीं झेलनी हैं। छोटी-छोटी बातों में हम बराबरी करने लग जाते हैं, तुलना।
मुझे अगर बुरा लगता है कि अगर हम अपने पति के साथ बाइक पर जा रहे हैं तो मुझे पीछे बैठना पड़ता है। मुझे वो पीछे बैठना अच्छा नहीं लगता। अब ये बात हम बोल नहीं सकते। बोलने वाली बात नहीं है। सामने वाला समझ भी नहीं पाएगा। अगर हम अपने पति को बोलेंगे तो वो कहेंगे कि तुम्हारे साथ कुछ गड़बड़ है।
इसमें बुरा मानने वाली क्या बात है?
छोटी-छोटी बातें एक पत्नी या बहु के रूप में मुझे वो अच्छी नहीं लगतीं और उसका असर ये होता है कि गुस्से के कारण हम उसको बता नहीं पाते हैं किसी को सही तरीक़े से। तो हम अपनेआप को ही आहत करते हैं और अपने पति को भी गुस्सा दिखाते हैं।
मेरा एक छोटा बच्चा है। तीन साल का है। सबसे ज़्यादा दिक्कत मुझे उसके साथ होती है। क्योंकि जो मेरे अंदर कुंठा है, जो गुस्सा है, वो उसपर निकलता है। जैसे, एक छोटा बच्चा है; वो ज़िद करता है छोटी-छोटी बातों पर है तो हम उसको कई बार ज़्यादा डाँट देते हैं या थप्पड़ बिठा देते हैं। अब मेरी कोशिश होती है कि उसके पर हाथ न उठाएँ। लेकिन गुस्सा होता है।
अब उसके अन्दर मुझे वो दिखता है कि उसको ये समझ में आता है कि उसकी बात अगर नहीं सुनी जा रही है तो वो गुस्सा दिखा सकता है। वो झलक मुझे उसके ऊपर दिखती है। वो मुझे बहुत बुरा लगता है। मुझे ऐसा लगता है कि जिस चीज़ से हम हमेशा बचने की कोशिश कर रहे थे।
दूसरी चीज़ ये है कि मैंने अपने घर पर भी गुस्सा देखा है। मेरे पिताजी का यद्यपि उन्होंने कभी शारीरिक रूप से क्षति नहीं पहुँचायी मेरी मम्मी को या हम लोगों को भी। लेकिन नियंत्रित करना चाहते हैं। मैंने सामान्यतया देखा है कि जो पति होते हैं वो नियंत्रित करना चाहते हैं— पूरे परिवार को कैसे चलाना है या पत्नी के निर्णय हैं या जो भी है।
यद्यपि मेरे पति ऐसे नहीं हैं। लेकिन मैंने देखा अपने पिता को, अपने भाई, ससुराल वालों को। तो मुझे अब ऐसी स्थिति आ गयी कि मैं किसी के भी द्वारा नियंत्रित नहीं होना चाहती। मुझे न सुझाव अच्छे लगते हैं, अगर सामने से आ रहे हैं। न, और नियंत्रण तो बिलकुल भी नहीं करना चाहते।
कई बार हम इस चीज़ को कह देते हैं तो भी सही तरीक़े से नहीं कह पाते, तो वो झगड़े में ही बदल जाता है। कई बार हम नहीं कह पाते तो उसका गुस्सा फिर मेरा अपने पर निकलता है।
मुझे ये समझ में नहीं आ रहा है कि हम इस गुस्से के साथ क्या करें? किस तरीक़े से हम इसको एक सही दिशा में लेकर जाएँ कि कुछ सकारात्मक बदलाव कर पाएँ?
आचार्य प्रशांत: देखिए, आपने बहुत सारी ऐसी बातें बोल दीं जो आपको गुस्सा दिलाती हैं। दहेज के लिए उत्पीड़न हुआ, हत्या हुई। दो देश आपस में लड़ रहे हैं। दो समुदायों के लोग आपस में लड़ रहे हैं। एक लिंग के लोग दूसरे लिंग पर वर्चस्व रखना चाहते हैं। बलात्कार हो रहे हैं। ये सब, बहुत सारी आपने बातें कहीं। और ये सब बातें आपको ठीक नहीं लगती हैं। आपमें क्रोध आता है। आपमें क्रोध आता है, आप कह रही हैं कि आप एक सीमा के बाद संवाद से ही पीछे हट जाती हैं, बहुत बातचीत ही नहीं करना चाहती।
देखिए, ये लगता तो सभी को है कि कुछ ग़लत है, बहुत कुछ ग़लत है। कोई यहाँ ऐसा नहीं बैठा होगा जिसे अपने जीवन से, समाज से, देश से शिकायत नहीं होगी। अख़बार भरे रहते हैं उन बातों से जो ग़लत हैं। सुर्ख़ियाँ भी उन्हीं को मिलती हैं। प्रश्न ये है कि गुस्सा करना किसपर है? किसको हम ग़लत ठहरा रहे हैं? क्या हम बदलना चाह रहे हैं? क्रोध तो ऊर्जा का एक उफ़ान होता है जो कुछ बदलना चाहता है।
जब मन को ये एहसास होता है कि कहीं कुछ ग़लत है तो उसकी प्रतिक्रिया क्रोध के रूप में हो सकती है। और क्रोध होता ही यही है, ऊर्जा का एक उफ़ान। बढ़ गयी है ऊर्जा, आप तुरंत ही कुछ परिवर्तित कर देना चाहते हैं। हम भी मानते हैं कि बहुत कुछ ग़लत है। और अगर कुछ ग़लत है तो उसको परिवर्तित किया ही जाना चाहिए। पर क्या बदलना चाहती हैं आप? क्रोध जो जानता हो स्वयं को, वो सृजनात्मक हो जाता है। और क्रोध जो स्वयं को नहीं जानता, वो अंधा हो जाता है, विक्षिप्त हो जाता है, बस तोड़-फोड़ करता है।
क्या हमें पता है कि हम किस पर क्रोधित हों? क्या हमें पता है ग़लत ही क्या है?
एक व्यक्ति है, जो विवाह ही दहेज के लिए कर रहा है। पत्नी से उतना मिल नहीं रहा तो गर्भवती पत्नी है तो भी उसको मारे दे रहा है। ये व्यक्ति कभी पैदा हुआ था, बच्चा था। जैसे अभी आपका छोटा बच्चा है तीन साल का, वैसे ये हत्यारा भी एक दिन बच्चा था। ये कैसे पहुँच गया इस हालत में जहाँ ये जीवन-भर किसी व्यक्ति के साथ-साथ रहने, खाने-पीने-सोने को तैयार हो गया पैसे की ख़ातिर? किसने इसको उस हालत में पहुँचा दिया? जानवर भी ऐसे नहीं होते।
जानवरों से बदतर इस मनुष्य को किसने बना दिया? ख़ुद तो नहीं बना होगा। इतनी बुरी तो नहीं है मनुष्य की प्रकृति कि वो दूसरे मनुष्य को, जिसके गर्भ में उसी की औलाद हो, पैसे की ख़ातिर जला दे या ट्रेन के नीचे डाल दे। ये कर कौन रहा है? आसान हो जाता है कहना कि ये काम उस इंसान ने करा। उसपर थूक दो, सरे आम फाँसी की माँग करो, कहीं दिख जाए तो उसको पत्थर मारो, लिचिंग कर दो उसकी। ये तो ठीक है।
‘इस व्यक्ति ने बड़े पाप करे हैं, इसको मार दो’। और मारने की बात कौन कर रहा है? ये पूरी भीड़ इसको मारने की बात कर रही है।
यह जो आदमी है, ये बचपन से लेकर आज तक इसी भीड़ के बीचों-बीच रहा है। ये जैसा भी बना है, इसे किसने ऐसा बनाया है? और वही भीड़ क्या कह रही है? ‘इसे मार दो’।
मुझे इस व्यक्ति की वकालत नहीं करनी है। इस व्यक्ति से मेरा कोई ख़ास रिश्ता नहीं है, इसको बचाने में मेरा कोई स्वार्थ नहीं। मैं तो बस समझना चाह रहा हूँ, ये व्यक्ति आया कहाँ से?
एक नेता है जो किसी देश पर युद्ध घोषित कर देता है—आज भी इस समय एक बड़ी लड़ाई चल रही है दुनिया में। हर तरह के हथियार उसमें प्रयुक्त हैं। आशंका ये भी है कि उसमें जैविक हथियार, रासायनिक, यहाँ तक कि नाभिकीय हथियार भी इस्तेमाल हो सकते हैं—एक नेता है, उस नेता ने युद्ध घोषित कर दिया है। उस युद्ध में हज़ारों लोग मारे ही जा चुके हैं। उस नेता को ताकत कहाँ से मिल रही है? मैं उस नेता को दोष दे दूँ? मार दूँ उस नेता को?
और नेताओं को मारने की भी हमारी पुरानी परम्परा है। सद्दाम हुसैन को याद करिए, मारा गया था कैसे। वो न्यायालय में खड़ा है सद्दाम हुसैन, दाढ़ी-वाढ़ी बढ़ाकर। मार दो। और बहुत सारे नेता हैं, उन्हें या तो मार दिया जाता है युद्ध के बाद या वो आत्महत्या कर लेते हैं।
नेता? सिर्फ़ नेता ज़िम्मेदार है? नेता कहाँ से आया? नेता को नेता बनाया किसने है? नहीं, उसकी हम बात करना नहीं चाहते क्योंकि हम ही ने बनाया है।
धर्मावलंबियों बल्कि अंधावलंबियों की एक भीड़ दूसरे पंथ के लोगों की बस्ती में घुसकर आग लगा देती है। या दूसरे पंथ के लोगों से भरी हुई ट्रेन के एक डब्बे में आग लगा देती है। दर्जनों, सैकड़ों, कई बार हज़ारों लोग मरते हैं इस तरह के उत्पातों में। ये जो आग लगाने वाले लोग हैं, इनको धर्म का ये विकृत अर्थ बताया किसने? या वो पैदा ही हुए थे धर्म के बारे में इस तरह की मूर्खतापूर्ण, विभत्स, हिंसक धारणाएँ लेकर के। किसने बनाया? बताइए तो।
जानवर अपने माहौल का उत्पाद नहीं होता। उसपर अपने माहौल का असर पड़ता भी है तो दस-बीस प्रतिशत। आप एक कुत्ते का छोटा-सा बच्चा ले आइए। और आप बड़े आदमी हैं, लाखों की आपकी कमाई, बड़ा आपका घर है। आप उस बच्चे को बिलकुल अपने साथ रखिए, उसको बोतल से दूध पिलाइए, अपने बिस्तर पर सुलाइए, उसे कपड़े भी पहनाइए। आजकल ये सब किया जाता है। ये सब करिए। उसको आप बिलकुल वही माहौल दीजिये जो आप अपने बच्चे को देते हैं घर में। और देते हैं लोग।
कुत्ते का बच्चा भी आपके घर में कालीन पर चल रहा है, एसी की हवा ले रहा है। आप बाहर निकलते हैं तो आपके साथ-साथ गाड़ी में चल रहा है। ये सब कुछ करिए आप कुत्ते के बच्चे के साथ। और ये सब करने के पाँच साल बाद आप अपने कुत्ते को सड़क के कुत्ते से ज़रा नाप कर देखिए; शारीरिक तौर पर नहीं, व्यवहारिक तौर पर, मानसिक तौर पर। तुलना में दस-ही-बीस प्रतिशत का अंतर मिलेगा।
यहाँ तक कि आप अपने डॉगी को जब घुमाने लेकर चलेंगे सड़क पर और उसके सामने सड़क का डॉगी आ जाएगा तो बिलकुल कलई खुल जानी है, दोनों एक हो जाते हैं। देखा है? बिलकुल एक हो जाने हैं। अगर दोनों नर हैं, तो भौंकने की जो प्रतिस्पर्धा चलेगी, पूछिए मत। और अगर वो जो सड़क वाला डॉगी है, वो मादा है तो आपका डॉगी एसी और बोतल और बिस्तर और गाड़ी सब भूल जाना है। उसे याद आना है बस ये कि मैं तो श्वान हूँ। मैं भी वही हूँ, जो ये है।
तो पशुओं पर बहुत अंतर नहीं डाला जा सकता परवरिश का। थोड़ा-बहुत पड़ जाएगा, बहुत नहीं। इंसान बहुत ज़्यादा निर्मित और निर्धारित होता है अपने माहौल-परवरिश से।
अब इंसान अगर घोर विकृत निकल रहा है तो मैं समझ नहीं रहा, मैं दोष दूँ किसको? निश्चित रूप से उस इंसान को दिया तो जाना ही चाहिए। क्योंकि मैं स्वयं कहता हूँ, वेदांत की सीख है कि तुम्हारा माहौल कितना भी ख़राब हो अंततः चुनाव की शक्ति तुम्हारे पास रहती है। तो दोष किसी दूसरे को मत देना। ये बिलकुल मेरी सीख है।
जब कोई व्यक्ति मेरे सामने आता है, और कहता है कि मैं तो मजबूर हूँ मैं क्या करूँ, मेरा तो माहौल ही ख़राब है। तो मैं उससे हर बार यही कहता हूँ— ‘माहौल को दोष मत दो। क्योंकि माहौल किसी के नियंत्रण में नहीं होता। लेकिन अपना जीवन और अपने चुनाव तो हम निर्धारित करते हैं न? तुम क्यों ग़लत चुनाव करते हो? क्यों तुम बाहरी डर, दबाव, लालच के आगे घुटने टेकते हो? सही चुनाव करो।’ ये मैं कहा करता हूँ। जब कोई व्यक्ति मजबूरी का रोना रोये, तो मैं उसको ये बात बोलता हूँ।
लेकिन जब किसी व्यक्ति पर पूर्ण दोषारोपण कर दिया जाए कि उसके गुनाहों के लिए बस वो व्यक्ति ही ज़िम्मेदार है। तब मैं एक प्रतिप्रश्न उठाता हूँ, बिलकुल उल्टी तरह का। मैं पूछता हूँ कि क्या वाकई बस वो व्यक्ति ज़िम्मेदार है? वो व्यक्ति कहाँ से आया? आसमान से टपका? बोलिए न, कहाँ से आया? हम जानते नहीं वो कहाँ से आया और हम क्रोध ख़ूब दिखाते हैं।
मैं फिर कह रहा हूँ, उस व्यक्ति का पक्षधर नहीं हूँ मैं। मैं यहाँ उसको बचाने, उसकी वकालत करने के लिए नहीं बैठा हूँ। लेकिन अगर हम वाकई सच्चाई जानना चाहते हैं तो क्या ये उचित नहीं कि हम समझें कि ये अपराधी आते कहाँ से हैं? और अपराधी सिर्फ़ वही नहीं हैं जो ऐसे अपराध करते हैं जो कानूनन अमान्य हैं।
राजनेता भी अपराध कर रहे हैं, घरों में पति भी अपराध कर रहे हैं, पत्नियाँ भी अपराध कर रही हैं; दफ़्तरों में अफ़सर, मैनेजर—यह भी अपराध कर रहे हैं। हर कोई अपराध ही कर रहा है। ऐसे-ऐसे अपराध हो रहे हैं, जिन्हें कोई कानून अपराध मानता ही नहीं। जिस बच्चे को पैदा ही नहीं होना चाहिए था, आपने पैदा कर दिया। दुनिया की किसी किताब में ये अपराध नहीं माना जाएगा। पर ये घोर अपराध है।
आप माँसाहार करते हैं, इसको अपराध माना ही नहीं जाता। इसको तो ज़ायका माना जाता है। पर ये महा अपराध है, नारकीय अपराध है। तो माँसाहारी को माँसाहारी बनाया किसने?
प्रयोग हो चुके हैं, जहाँ छोटे बच्चों के सामने फल रख दिया जाता है और माँस रख दिया जाता है। और लगभग शत-प्रतिशत बच्चे फल खाते हैं, माँस को छूते ही नहीं। घिना और जाते हैं। कई बच्चे रोना शुरू कर देते हैं माँस देखकर के। उस बच्चे को ज़बरदस्ती माँस खिलाया किसने? क्या हम ये बात नहीं करना चाहते? वो कौन सी ताकत है जो हम सबको ही अपराधी बना रही है?
हाँ कुछ ऐसे होते हैं, जिनके अपराध बिलकुल कोढ़ की तरह फूट-फूट कर सामने आते हैं। बिलकुल दिखने लगते हैं उनके—चू रहे हैं अपराध, उनके अस्तित्व से, उनके व्यक्तित्व से। उनको फिर हम अपराधी घोषित कर देते हैं, जेलों में ठूँस देते हैं। यहाँ अपराधी कौन नहीं है? और मैं ये इसलिए नहीं कह रहा हूँ कि हम सब अपने प्रति ग्लानि भाव से भर जाएँ। मैं इसलिए कह रहा हूँ कि हमें पता तो चले कि वास्तविक गुनहगार छुपा कहाँ बैठा है।
वेदांत बताता है वास्तविक गुनहगार कौन है। उसका नाम है ‘अविद्या’। वास्तविक अपराधी का नाम है अविद्या। अविद्या का अर्थ होता है— मन को सांसारिक कूड़े-कचड़े से भर लेना। अविद्या का अर्थ होता है— अपनेआप को अध्यात्म से विहीन, विमुख रखना। ये अविद्या है। हमारा पूरा समाज ऐसा है। पूरी हमारी प्रचलित संस्कृति ऐसी है जिसमें अध्यात्म के लिए कोई जगह नहीं है। और जहाँ अध्यात्म के लिए जगह नहीं होगी वहाँ समाज की काया से—मैं कह रहा हूँ—अपराध का कोढ़ बार-बार फूट-फूट कर निकलेगा।
उस एक व्यक्ति को, जिसने अपराध किया, सज़ा निसंदेह मिलनी चाहिए। बिलकुल मिलनी चाहिए। क्योंकि माहौल कैसा भी हो, अपराध करने का चुनाव तो अंततः उस व्यक्ति का ही था। वो चाहता तो अपनेआप को रोक सकता था, भले ही माहौल कितना ही उसको प्रभावित कर रहा हो, दबाव डाल रहा हो। तो उस व्यक्ति को तो निस्संदेह सज़ा मिलनी ही चाहिए जो हत्यारा है या बलात्कारी है या चोर है। लेकिन क्या सिर्फ़ उस व्यक्ति को ही सज़ा मिलनी चाहिए?
एक आदमी है जो एक धार्मिक नारा बोलते हुए जाकर के दूसरे धर्म के लोगों की गर्दन काट देता है। इस आदमी को तो मैं निश्चित रूप से कहूँगा सज़ा दो। पर मैं कहूँगा, अभी और भी बहुत हैं जिनको सज़ा दो। इस व्यक्ति के पीछे कौन है? कौन है जो इसको बता रहा है कि धर्म का अर्थ होता है दूसरे धर्म के लोगों से नफ़रत करना, उनकी हत्या कर देना वगैरह-वगैरह? धर्म का ये गन्दा अर्थ इसको पढ़ाया किसने? मुझे बताओ। सबसे बड़ा अपराधी वो है।
इसको—यह जो हत्या कर रहा है—इसको सज़ा दो। पर इससे चार गुनी सज़ा मिलनी चाहिए उसको जो ऐसों को तैयार कर रहा है।
दुनिया में कोई नहीं प्रजाति होती जीव की जो दूसरे जीवों का बलात्कार करे। उनको ये ख़याल ही नहीं आता। मनुष्य ने ये अजब कारनामा कैसे करके दिखा दिया? कि गधा, घोड़ा, गाय, बकरी, ऊँट; इनका बलात्कार कर रहे हो। ये कहाँ से सीख मिल गयी? कौन है जो मनुष्य में इतनी तीव्र कामुकता भर रहा है? क्या उसका नाम छुपा हुआ है? क्या आप नहीं जानते, एक आम आदमी को इतना घोर रूप से कामुक कौन बना रहा है? आप नहीं जानते?
आपके मन में कोई विचार न हो वासना का, आप टीवी खोलिए, वो आपमें उत्तेजना का संचार कर देगा। आप किसी न्यूज़ पोर्टल पर चले जाइए, इंटरनेट पर। वहाँ पर नग्न अभिनेत्रियों के चित्र एक के बाद एक पसरे हुए होंगे। आपमें वासना का संचार कर दिया जाएगा। बहुत सारी फ़िल्में हैं, उनमें और पोर्नोग्राफी में कोई अंतर शेष नहीं है। आप कहीं भी जाइए इनके गाने बज रहे होते हैं, यहाँ तक कि हमारे तीज-त्योहारों और शादी आदि उत्सवो पर भी यही फूहड़ गाने बज रहे होते हैं। अब मुझे आप बताइए कि बलात्कार के लिए आपको प्रेरित कौन कर रहा है?
कुत्ता नहीं करता बलात्कार, बंदर नहीं करता, शेर नहीं करता। कम-से-कम विजातीय बलात्कार तो ये बिलकुल नहीं करते। आप नहीं पाएँगे कि शेर हिरणी का बलात्कार कर रहा है; उसे भूख लगी होगी मारकर खा जाएगा, बलात्कार नहीं करेगा। आदमी के भीतर इतनी वहशियत भरी किसने है? और जो भर रहा है ये वहशियत, उसे अनुमति कौन दे रहा है? क्या आप ये नहीं जानना चाहतीं?
जो नेता आपकी ज़िंदगी बर्बाद कर रहा है, उसको वोट किसने दिया है? वो आपने ही दिया है। फ़िल्मों के निर्माता-निर्देशक ज़बरदस्त तरीक़े से आपको भ्रष्ट कर रहे हैं। उनको पैसा किसने दिया है? टिकट खरीद-खरीद कर आपने ही दिया है।
यह घर-घर का अपराध है, ये हर जगह हो रहा है। ये आपके मोहल्ले की, आपके घर की, ये बस आपके अनुभव की कहानी नहीं है। अपराध हवा में है, क्योंकि अविद्या हवा में है। मैं तो बल्कि कहूँगा कि आपने जो इतना विस्तृत विवरण दिया, आपके अनुभवों का, वो कुछ भी नहीं है। ‘टिप ऑफ द आइसबर्ग’ (बड़ी समस्या की छोटी-सी झलक) उतना भी नहीं है। क्योंकि बाकी अपराध तो हमें पता ही नहीं चल रहे। और दिक्कत यही है कि सारे अपराध हमें पता नहीं चल रहे। पता अगर चल जाएँ तो क्रांति हो जाए। अधिकांश अपराधों को तो हम सामान्य मान लेते हैं ‘ये तो सामान्य जीवन है! क्या रखा है इसमें! इसको अपराध क्यों घोषित करें?’
यहाँ तो कदम-कदम पर अपराध है। अपराध की क्या परिभाषा है? किसी का नुकसान करने को अपराध कहते हैं, यही न? किसी को आप नुकसान कर दें तो इसको हम घोषित करते हैं— अपराध। जो अपना ही हित नहीं जानता, वो दूसरों का क्या कर रहा होगा पल-पल? नुकसान ही तो कर रहा होगा न? तो आप जानते-बूझते करते हों, न करते हों, अनजाने में तो लगातार आप अपराधी हैं ही।
अपने गुस्से को सही दिशा दीजिए। अपने गुस्से को बोध दीजिए। नहीं तो आप गुस्सा कुछ चंद लोगों पर निकालती रहेंगी। ये जो गंदा विशाल नाला है। ये जिस जगह से आ रहा है, उस जगह पर उँगली रखिए। और वो जगह कोई एक सीमित भौगोलिक जगह नहीं है। वो जगह कुछ चंद लोगों की जगह नहीं है। वो जगह प्रत्येक व्यक्ति के मन में है। उस जगह को आंतरिक अंधकार कहते हैं। उस जगह को—दोहरा रहा हूँ—अविद्या कहते हैं। वहाँ से आ रहे हैं सारे अपराध।
और देखिए, जिन लोगों ने दुनिया देखी है, उनसे आप थोड़ा बात करेंगी न, तो वो आपको कहेंगे कि पकड़े हमेशा छोटे चोर जाते हैं। आप जिनको अपराधी बता भी रही हैं, ये चिंदी चोर हैं, ये पॉकेट -मार हैं। ये पकड़ लिए जाते हैं, फिर हम कहते हैं, ‘देखो, ऐसा कर दिया! देखो, वैसा कर दिया!’
कोई गरीब, अपनी किसी झोपड़-पट्टी मोहल्ले में बलात्कार कर दे, पुलिस आकर के सौ डंडे मारती है उसको। गरीब है, पकड़ा गया। डंडे उसे पड़ने भी चाहिए। पर महानगरों में पूरी की पूरी एक एस्कॉर्ट इंडस्ट्री चलती है। वो वेश्यावृत्ति की इंडस्ट्री है। और खुले आम उसका विज्ञापन होता है। और जो समाज के सबसे सफ़ेदपोश लोग होते हैं, ऊँची जगहों पर बैठे हुए, सम्मानित, धनी, ये उनके क्लाइंट्स होते हैं, ग्राहक। इनका नाम कभी आता है? और पैसे देकर के किसी का जिस्म खरीदना अपराध नहीं है क्या? पर उनका नाम कभी नहीं आएगा। वो आपकी नज़रों में इज़्ज़तदार बने रहेंगे। आप उनको वोट भी दे आएँगे। और अगर वो आपको किसी मंच पर दिखाई दे जाए तो आप उनको मालार्पण भी कर देंगे। आप ज़िंदाबाद के नारे भी लगा देंगे। वहाँ आपको अपराधी दिखाई नहीं पड़ेगा।
अपराध हर जगह है। अपराध हमारे मन से निकल रहा है। अपराध हमारी संस्कृति से निकल रहा है, माहौल से निकल रहा है। और इस माहौल को दूषित किया जा रहा है हमारी शिक्षा द्वारा। वापस आइए इस बात पर कि मनुष्य बहुत हद तक अपने माहौल की निर्मिति होता है। जैसा इंसान का माहौल होता है वैसा बन जाता है इंसान।
किसी भी जगह को, परिवार को, समाज को, देश को बनाने में सबसे प्रमुख योगदान शिक्षकों का होता है —ये बात इतनी घिसी-पिटी है, हर साल आप पाँच सितम्बर को यही बात सुनते हैं और तालियाँ बजा देते हैं—‘शिक्षक दिवस, हाँ! देश के निर्माता कौन? शिक्षक। शिक्षक।’ ताली बजा दो, सबको एक-एक लड्डू मिल जाएगा, घर चले जाओ—पर ये बात वास्तविक है। शिक्षक ही बनाते हैं किसी भी जगह को।
अब शिक्षक कौन हैं आज? घर पर शिक्षक हैं माँ-बाप, जो ख़ुद घोर मूर्ख हैं। और भारत के लिए खेद की बात है कि शिक्षक यहाँ आमतौर पर वो लोग बनते हैं जो कुछ और नहीं कर पा रहे होते जीवन में। मेरा शिक्षकों की अवमानना का कोई इरादा नहीं है। मैं भली-भाँति जानता हूँ कि पाँच प्रतिशत शिक्षक ऐसे भी होते हैं— बहुत काबिल, बहुत समर्पित। पर मैं जो बहुमत है, पिच्चानबे प्रतिशत, उनकी बात कर रहा हूँ।
जो बहुत शिक्षा लेकर भी शिक्षक बनते हैं, उनके पास भी अपने विषय का ज्ञान हो सकता है, अध्यात्म में शून्य होते हैं।
आप में से जिनके घरों में छोटे बच्चे हों, आप देखिएगा कि उनके शिक्षक-शिक्षिकाएँ किस तरीक़े के हैं उनके स्कूलों में। और अगर मेरी आपकी बातचीत थोड़ी भी सार्थक रही है, कृष्ण से और वेदान्त से आपका थोड़ा भी प्रेम रहा है तो आपका दिल धक्क से रह जाएगा कि मैं ऐसे लोगों को सुपर्द कर रहा हूँ अपने बच्चों को! ये विद्यालय नहीं हैं, ये अविद्यालय हैं, यहाँ अविद्या सिखाई जाती है।
फिर हमको बहुत बुरा लगता है कि कहाँ से आ गये अपराधी, हत्यारे, बलात्कारी? यहीं से आ गये, और कहाँ से आ गये! इंसान का निर्माण तो शिक्षालयों में ही होता है। घर पर आप उसकी शिक्षा ख़राब करते हैं। और स्कूलों और कॉलेजों में जो एकदम अनुपयुक्त लोग हैं, उनके हाथ में शिक्षा सौंप दी गयी है। और घर और विद्यालय यदि काफ़ी नहीं थे तो बाकी शिक्षा हमको मिल जाती है मीडिया से, टीवी से, फ़िल्मों से और अपनी संगति से। और वहाँ से जो घनघोर शिक्षा मिलती है, उसका तो कोई पारावार नहीं!
इस तरीक़े के खाद-पानी से, ऐसी गंदी हवा से, और ऐसे घुप अंधेरे में, अगर विषवृक्ष नहीं पैदा होगा तो और क्या? बोलिए। अब आश्चर्य की बात ये नहीं है कि कुछ लोग हत्या इत्यादि क्यों कर देते हैं? कुछ लोग अपनी पत्नियों को दहेज के लिए क्यों मार देते हैं? अब आश्चर्य की बात ये है कि इतने सड़े हुए माहौल में भी कुछ लोग बचे कैसे रह जाते हैं? ये है आश्चर्य की बात। इसको कहिए कि ये है दैवीय अनुकम्पा। कोई बचा कैसे रह गया? क्योंकि अंधेरों की साजिश तो बड़ी पूरी, बड़ी गहरी थी। उसके बाद एक इंसान भी बचा कैसे रह गया?
धर्म सब कुछ है। आपकी शिक्षा में यदि आध्यात्म नहीं तो शिक्षा शिक्षा नहीं। आपकी राजनीति में अध्यात्म नहीं तो वो विषनीति है, अधर्म नीति है। आपके सम्बन्धों में यदि अध्यात्म नहीं तो पति-पत्नी का सम्बन्ध बहुत हद तक दुकानदार और ग्राहक का सम्बन्ध है, क्रय-विक्रय का सम्बन्ध है। वही बात बाप-बेटे, माँ-बेटे के सम्बन्ध पर भी लागू होती है। माल बेचा जा रहा है, माल खरीदा जा रहा है। और माल से जब अपेक्षाएँ पूरी नहीं होती तो माल को कचड़े में फेंका जा सकता है।
उत्तर भारत के कई राज्यों में अभी भी सेक्स रेशियो एट बर्थ (जन्म के समय लिंगानुपात) नौ सौ से भी कम है। उसका अर्थ है कि जन्म लेने वाली दस लड़कियों में से लगभग दो मारी जा रही हैं। हर पाँच बच्ची में से एक जन्म लेते वक्त ही या जन्म लेने से पहले मार दी जाती है। या तो भ्रूण हत्या हो जाती है या फिर शिशु हत्या बोल दीजिए, नवजात हत्या बोल दीजिए।
हम बात कर रहे थे कि स्त्रियों पर अत्याचार हो रहे हैं—बलात्कार इत्यादि, दहेज-हत्या इत्यादि। क्या ये जो बच्चियाँ जन्म से पहले मार दी जाती हैं, इनकी हत्या में इनकी माओं का कोई योगदान नहीं होता? क्या सारे मामलों में ऐसा ही होता है कि पति और बाप यही इच्छुक थे हत्या के, और माँ तो विरोध कर रही थी, माँ से जबरन हत्या करवा दी गयी भ्रूण की?
एक लिंग शोषक है और एक लिंग शोषित है; क्या ऐसी है कहानी? या अंधेरा पूरा है, एकदम घना है, चारों ओर है, सबके लिए है? आमतौर पर दहेज हत्या के मामले में जलाने वालों में सास का भी बड़ा अहम किरदार होता है। तो ऐसा है क्या कि एक लिंग दूसरे लिंग की हत्या कर रहा है? या ऐसा है कि लालच एक इंसान की हत्या कर रहा है? इसको हम क्या माने? पुरुष स्त्री की हत्या कर रहा है, या लालच एक इंसान की हत्या कर रहा है? बोलिए। अगर पुरुष स्त्री की हत्या कर रहा है तो उसमें मरने वाली की सास इतना क्यों उपद्रव कर रही थी। उछल-उछल कर योगदान दे रही थी— ‘मिट्टी का तेल मैं डालूँगी इसके ऊपर’।
तो लालच है न दोषी? उस लालच को इतने ज़बरदस्त तरीक़े से हमारे भीतर किसने घुसेड़ दिया? ठीक उन्होंने, जिन्होंने वासना डाल दी हमारे भीतर। पागल कर दिया है आज के आम नौजवान को वासना ने। वो जी नहीं पा रहा। वो मिठाई की दुकान पर जाता है, वहाँ भी एक अर्धनग्न स्त्री की तस्वीर उसका स्वागत करती है। वो पुरुषों के कपड़े खरीदने के लिए जाता है, वहाँ पर भी एक नंगी देह लगी हुई है, उसके हाथ में पुरुषों की बनियान और चड्ढियाँ हैं; स्त्री देह, नंगी। और आप नहीं खरीदोगे न सामान? अगर आपमें लालच नहीं बैठाया जा रहा।
वह जो सास है, जो अपनी बहू को जला डालना चाहती है। उसको इतना दहेज चाहिए क्यों? क्योंकि उसने टीवी पर अभी-अभी विज्ञापन देखा है कि एक नए तरीक़े का एसी आया है बाज़ार में। वो मुझे भी चाहिए। वो जो सास है, वो अभी स्त्री नहीं है, वो लोभग्रस्त व्यक्ति है एक। और उसमें लोभ कौन डाल रहा है?
उसके घर में एसी लगा हुआ है, उसे ऐसी कोई समस्या नहीं है। उसको बताया जा रहा है लेकिन नया एसी आया है, ज़्यादा ठंडा करता है। और इस एसी का विज्ञापन भी कौन कर रही है? वहाँ भी एक आधी नंगी फ़िल्मी तारिका है जो कूद-कूद कर बता रही है कि जब ये एसी चलता है तब तो मेरा मन करता है कि और अपने सारे कपड़े उतार दूँ। और सास ने ये देखा, और सास बिलकुल बौरा गयी, बोली ‘मुझे भी यही चाहिए’। और कैसे आएगा? और वो दहेज से आएगा। दहेज कौन लाएगा? बहू लाएगी। बहू ला नहीं रही, जला दो।
हत्या किसने करी? सास ने करी? वो एसी। वो एसी है जिससे आग की लपटें उठी हैं। और ये बात हमें दिखाई नहीं देती। हम सोचते हैं विज्ञापन ही तो आ रहा है। विज्ञापन ही तो आ रहा है।
और आजकल एक नयी चीज़ चली है, जानवरों की लाशें उछाली जाती हैं विज्ञापनों में। आप कुछ देख रहे हों, अचानक से एक मुर्दा जानवर का माँस आपके चेहरे पर उछाल दिया जाएगा, खाओ इसको। और धन्य है भारत की न्यायपालिका जो इसपर रोक नहीं लगा रही है, और दंड नहीं दे रही।
यह अहिंसा का देश है, यहाँ बहुत सारे समुदाय अभी भी ऐसे हैं जो माँस को हर प्रकार से अधर्म समझते हैं। वो कुछ भी देख रहे हों बैठ करके, उनके सामने अचानक उछलता हुआ माँस आ जाता है। कहते हैं— ‘डब्बा बंद स्वादिष्ट मटन, ये आपके घर पर हम डिलीवर करेंगे। और सिर्फ़ मुर्गा और बकरा ही नहीं; डक (बत्तख), रैबिट(खरगोश) ये सब हम आपके घर लेकर आएँगे’। और उसमें पूरा दिखाया जाता है— ‘यह बढ़िया—देखिए—लाल-लाल, गुलाबी-गुलाबी माँस है, खाइए।’
इन्हें कौन डालेगा जेल में? और सबसे पहले इनको जेल होनी चाहिए या नहीं? इन्हें कोई जेल में डालने की बात नहीं कर रहा। आप बड़े आराम से इन विज्ञापनों को देख लेते हैं। जिन चीज़ों की आपको ज़रूरत नहीं, आपको मजबूर किया जाता है कि आप वो चीज़ें भी खरीदें। और उन चीज़ों को खरीदने के लिए आपको हत्याएँ तो करनी पड़ेंगी, घूस तो खानी पड़ेगी न?
फिर आप पूछते है— अपराध कहाँ से आया? लालच से आया। लालच कहाँ से आया? लालच का संचार आपमें बेचने वाले ने किया। क्योंकि उसे अपना माल बेचना है क्योंकि उसको भी लालच है। उसको क्यों लालच है? क्योंकि उसकी शिक्षा-व्यवस्था ख़राब थी।
हर आदमी को जब तुम लगातार भोग, भोग और भोग की ही शिक्षा दोगे तो वो अपराध नहीं करेगा तो और क्या करेगा? तुम मुझे बताओ। उसकी मजबूरी समझो। वो टिंगू-सा होता है दो साल का, तब से लेकर के उसकी आखिरी साँस तक तुम उसको लगातार यही सिखा रहे हो— तो और भोगो और कंज्यूम करो, और ये चीज़ें घर में लेकर आओ, यहाँ घूमने जाओ’।
सोशल मीडिया से आप बच नहीं सकते, आज की ज़िंदगी का वो अनिवार्य हिस्सा है। और आप उसमें खोलिए, आपको दिखाई देगा फ़लाना फ़िल्मी स्टार (सितारा) जाकर मालदीव में बैठा है, मोरेशियस में बैठा है। वहाँ बीच पर लेटा हुआ है। आपमें कर दिया गया कामना का संचार, अब आपको भी जाना है।
और ये सबकुछ स्पोंसर कौन कर रहा होता है? टूर ऑपरेटर्स। ये बात हमें पता नहीं चलती। हमें लगता है वो अदाकारा तो वास्तव में ख़ुद ही घूमने-घामने गयी होगी। और वहाँ फ़ोटो अपनी नंगी-नंगी खिंचाकर डलवा रही है, सब लोग देख रहे हैं, बड़ा अच्छा लग रहा है। यहाँ किसी का माल बेचा जा रहा है।
आपको एक बार बता दिया गया किसी के माँस में ज़ायका है। आप क्यों नहीं खाओगे? आपकी शिक्षा ने आपको करुणा तो सिखाई नहीं है न? करुणा नाम का कोई विषय था आपके पाठ्यक्रम में? विज्ञान, भूगोल, गणित, भाषाएँ ये सब आपको बताए गये। करुणा सिखाई गयी? करुणा नहीं सिखाई गयी तो आपको क्यों ताज्जुब अगर एक आदमी दूसरे के सीने में खंजर उतार देता है तो? क्योंकि ये बातें, देखिए, सीखनी पड़ती हैं।
जानते हैं न? कि पैदा भी हम—हम भी बहुत हद तक पशुओं की तरह ही होते हैं। इंसान को उच्चतर मूल्य सिखाने पड़ते हैं। आप उसको सिखा नहीं रहे हैं, उसमें कहाँ से आ जाएँगे? करुणा प्राकृतिक नहीं होती, जन्मजात नहीं होती, वो विद्या से आती है। और विद्या हमें दी नहीं जा रही। अब हमारे बच्चे हैवान निकलें तो ताज्जुब क्यों?
स्वार्थ शरीर में निहित है, स्वार्थ हम कोख से लेकर के पैदा होते हैं। डर हम कोख से लेकर पैदा होते हैं। हिंसा हम लेकर पैदा होते हैं। लेकिन प्रेम सीखना पड़ता है। करुणा सीखनी पड़ती है। बोध जागृत करना पड़ता है। निर्भयता प्रज्वलित करनी पड़ती है। ये अपनेआप नहीं हो जाते। हमारी शिक्षा-व्यवस्था ये सब सिखा रही है क्या? और नहीं सिखा रही तो आपमें कहाँ से आ जाएगा ये सब?
यह सब सिखाने की जगह इनसे बिलकुल विपरीत बातें सिखाई जा रही हैं। हमें पशुओं से भी नीचे गिराया जा रहा है। अब समाज का ये हाल क्यों न हो? मुझे बताइए। फिर हमें ताज्जुब होता है— ‘अरे! फलाने ने इतना विभत्स हत्याकांड कर दिया! किसी की पत्नी का किसी से प्रेम सम्बन्ध था तो पत्नी जी ने और उन नये प्रेमी जी ने मिलकर के पति जी की हत्या करी। फिर पति जी की लाश को काटा, उसके डेढ़ सौ हिस्से किए। और फिर वो जो डेढ़ सौ हिस्से थे उनको बोरे में भर के, उसी बोरे के बगल में उत्सव मनाते हुए पत्नी जी और प्रेमी जी ने सम्भोग किया।’
क्यों न करें? अगर जीवन है ही बस मज़े मारने के लिए। हमें आ रहा है इसी में मज़ा, हम मज़े मारेंगे। और आपको यही तो बताया जा रहा है न, कि जीवन किस लिए है? मज़े मारने के लिए है। अब किसी को इसी में मजा आ रहा है तो वो क्यों न मारे मज़े?
जीवन का कोई वास्तविक लक्ष्य होता है, ये आपकी शिक्षा आपको बता रही है? नहीं बता रही। तो फिर जीवन का जो पाशविक लक्ष्य हो सकता है, वो हमने पकड़ लिया है। कम अपराध आपको अगर अभी भी देखने को मिल रहे हैं तो वो सिर्फ़ खौफ़ की वजह से है; डंडे का खौफ़, पुलिस का खौफ़। इसलिए नहीं कि लोग अच्छे हैं।
इसलिए जिन जगहों पर डंडे का खौफ़ थोड़ा कम हो जाता है वहाँ आप तुरंत देखते हैं की कानून व्यवस्था की हालत ख़राब हो गयी है। देखते हैं कि नहीं? और फिर उसको ठीक करने का भी आपके पास एक ही तरीक़ा होता है— पुलिस चाहिए, कोई डंडे वाला चाहिए, जो आकर के पीटे दनादन-दनादन। तो लोग थोड़ा डर के मारे सही रहेंगे।
पर डर के कारण अगर आप अपराध करने से रुके हुए हैं तो आप कोई-न-कोई और तरीक़ा निकालेंगे अपराध करने का। क्योकि अपराधी तो बचा ही हुआ है। अपराधी कहीं चला नहीं गया। अपराधी बस दुबका हुआ है डर में। यही हालत पूरे पश्चिमी जगत की है।
आमतौर पर हम कहते हैं कि पश्चिम में न्याय व्यवस्था की हालत थोड़ी बेहतर है। नहीं ऐसा नहीं है। आबादी के अनुपात में बलात्कार पश्चिम में कहीं ज़्यादा होते हैं भारत से। और पश्चिम का आम नागरिक—हम कहते भले ही हैं कि वहाँ पर आज़ादी बहुत है, फ़्रीडम बहुत है, लिबर्टी बहुत है—लेकिन पश्चिम का आम नागरिक बहुत डरा हुआ रहता है। ये डर ही उसको कानून-परस्त बनाता है। सिर्फ़ इस डर के कारण वो कानूनों का पालन करता है, और कोई बात नहीं।
भारत में एन्फोर्सिंग मैकेनिज़्म (प्रवर्तन तंत्र) की कमी है। वहाँ पर आपने अगर लाल बत्ती पर गाड़ी आगे निकाल दी, ऑटोमेटिक सिस्टम्स (स्वचालित प्रणाली) हैं जो सबकुछ—आपको पकड़ लेते हैं, तुरंत आपका टिकट कट जाता है। तो बंदा डरा हुआ रहता है। फिर आप कहते हैं, ‘देखो, वहाँ के लोग कितने ज़्यादा सभ्य हैं, और व्यवस्थाप्रिय हैं, कानूनों का उल्लंघन नहीं करते!’ अरे! उल्लंघन करेंगे तो बहुत पीटेंगे, इसलिए नहीं करते।
भारत में भी तुम तानाशाही चला दो, जब इमरजेंसी लगी थी पिचहत्तर में तो भारत में भी कानून व्यवस्था की हालत काफ़ी सुधर गयी थी। आप में से जो लोग उस समय पर रहे होंगे वो जानते होंगे। ट्रेनें समय पर चलती थीं, दफ़्तरों में घूस कम ली जाती थी। काफ़ी चीज़ें बिलकुल ठीक थी। डंडा लगा दो ठीक हो जाएँगे। पर डंडे के ज़ोर पर कितना ठीक रखोगे? डंडे के ज़ोर पर ठीक रखोगे तो तुम्हारी शांति और अहिंसा वैसे ही होगी जैसे पश्चिम की है। ऊपर-ऊपर से शांति है और नीचे-नीचे आणविक ज़ख़ीरा।
इंसान इंसान के साथ शांति से सिर्फ़ एक तरीक़े से रह सकता है, आध्यात्मिक मूल्यों द्वारा। और उदारवाद के नाम पर और धर्म निरपेक्षता के नाम पर हमने अपने बच्चों को वंचित कर दिया इन उच्चतर मूल्यों से। हमने कह दिया— ‘स्कूलों के पाठ्यक्रम में वेदांत कैसे हो सकता है! संतों की सीख कैसे हो सकती है! भाई, हम धर्म निरपेक्ष देश हैं। मत सिखाओ बच्चों को ये सब।’ फिर छाती पीटो कि ये क्या हो गया! ये क्या हो गया!
एक तो घिनौनी हरकत तब है जब पति पत्नी पर अत्याचार करे या पत्नी पति पर करे। एक तो वो है। और मुझे समझ में नहीं आता, क्या ये बराबर की घिनौनी बात नहीं है जब पति-पत्नी में प्रेम नहीं लेकिन चालीस साल से साथ रहते हैं, साथ सोते हैं? ये बराबर की घिनौनी बात नहीं है क्या? बोलिए, ये अपराध नहीं है? तो ये अपराध तो हर घर में हो रहा है।
जब प्रेम हमें सिखाया ही नहीं गया तो पति-पत्नी में कहाँ से आ जाएगा? शारीरिक संपर्क को प्रेम बोलते हैं क्या? उस अपराध की कोई बात नहीं करेगा। प्रेम नहीं है, बच्चे चार हो गये। ये अपराध की पैदाइश नहीं है? बलात्कार से किसी को गर्भ हो जाए तो हम कहते हैं, ‘बड़ा बुरा हुआ!’ और पत्नी ने इसलिए शादी कर ली क्योंकि पति के पास अच्छी नौकरी थी—‘लड़का अच्छा है, बढ़िया है, ख़ूब कमाता है, सरकारी नौकरी है, इतना पाता है। शादी कर लेते हैं’।
और पति देव ने उस पत्नी को इसलिए चुन लिया क्योंकि कद-काठी उसकी आकर्षक थी। ‘बढ़िया, एकदम मस्त है! गरमा-गर्म!’ प्रेम कहीं नहीं। इन दोनों ने एक-दूसरे को चुन लिया और चार बच्चे पैदा कर दिये। ये चार बच्चे बलात्कार की पैदाइश नहीं हैं? बस इसमें बलात्कार दोनों तरफ से हुआ है; पत्नी ने पति का किया है, पति ने पत्नी का किया है। प्रेम कहाँ है?
जहाँ प्रेम नहीं है फिर भी शारीरिक संपर्क है, वो या तो बलात्कार है या वेश्यावृत्ति है। कहीं मैं पढ़ रहा था मुझे ग़लत नहीं लगा—‘जब कोई स्त्री पैसे के लिए बिकती है तो उसको वेश्या बोलते हैं। लेकिन जब कोई पुरुष पैसे के लिए बिकता है तो उसको दूल्हा बोलते हैं।’
या तो बलात्कारी हैं या ग्राहक हैं। और सबसे बड़ा अपराध यही नहीं है? मैं इसको सबसे बड़ा इसलिए बोल रहा हूँ क्योंकि इसी से तो लोग पैदा हो रहे हैं न? ये ऐसा अपराध है जिससे लोग पैदा हो रहे हैं। पूरी आबादी खड़ी हो रही है जिससे।
जिन्होंने हमें सिखाया, “प्रेम-प्रेम सब करें, प्रेम न चीन्हें कोय। जा मारग साहब मिले, प्रेम कहावे सोय।” उनका नाम नहीं जानते आज के बच्चे। उनका नाम नहीं जानेंगे बच्चे तो प्रेम भी फिर कहाँ से जानेंगे, भाई?
नहीं समझ में आ रही बात? इतनी सीधी है पर समझ में नहीं आ रही?
मैं माओं से कह रहा हूँ, चूँकि प्रश्न एक महिला द्वारा उठाया गया है, आपके घर में जो आपके सुपुत्र हैं न, उनको अगर आप आध्यात्मिक शिक्षा नहीं दे रही हैं तो या तो आप एक बलात्कारी पैदा कर रही हैं, बड़ा कर रही हैं या महिला देह का ग्राहक। कैसा लग रहा है सुनने में यह? बहुत भद्दा लग रहा है न? बिलकुल अश्लील लग रहा है न?
यह सुनने में इतना बुरा लग रहा है, जब हो रहा है तब बुरा नहीं लग रहा? मैं बार-बार व्यक्ति के व्यक्ति से सम्बन्ध पर आता हूँ। क्योंकि घर में जो हो रहा है, समाज वहीं से चलना है। घर इकाई है। घर में जो हो रहा है, देश की राजनीति वहीं से चलनी है। फिर पूरा संसार वहीं से चलना है। तो इसीलिए मेरी मूल रुचि व्यक्ति से व्यक्ति के सम्बन्ध में है। वो यदि ठीक है तो पूरी दुनिया ठीक चलेगी। और वही अगर विकृत है तो फिर अमेरिका और रूस में लड़ाई हो, आपको क्या आश्चर्य है।
आप सोचेंगे अमेरिका और रूस लड़ गये। नहीं, अमेरिका और रूस की बात नहीं है; ये विकृत व्यक्तियों की करतूत है। अमेरिका क्या है? मुझे अमेरिका लाकर दिखाओ। अमेरिका क्या है? अमेरिका क्या है? अमेरिका तो एक सिद्धांत है, एक कॉन्सेप्ट है। ये जो लड़ बैठे हैं, ये व्यक्ति हैं। मैं जानना चाहता हूँ इन व्यक्तियों को विकृत किसने किया? और ये सवाल आपको भी पूछना चाहिए। इन व्यक्तियों को इतना ख़राब किसने कर दिया?
मोहल्ले बनते हैं, सड़कों का नामकरण होता है, स्टेडियम बना के नाम दिया जाता है उन्हें। कितनी चीज़ें होती हैं! अधिकांश किनके नाम पर? राजनेताओं के नाम पर। मुझे बताइएगा संत रैदास के नाम पर आपने कितने पुल, कितने मोहल्ले, कितनी सड़कें, कितने स्टेडियम देखे हैं? बताइएगा।
लेकिन कोई छुटभैया भी राजनेता होगा, उसके नाम पर भी कम-से-कम एक गली तो रख ही दी जाती है— ‘राजा भैया स्ट्रीट’। इस इतने बड़े देश में जिद्दू कृष्णमूर्ति के नाम पर एक पुस्तकालय नहीं है। उनकी अपनी फाउंडेशन कुछ काम कर रही है अच्छा, वो अलग बात है। पर इस देश ने ज़रा भी अनुग्रह नहीं दिखाया।
आपके अख़बारों में, मुझे बताइए, संतों और ऋषियों का कितनी बार उल्लेख आता है? ये जो टीवी लगातार चलता रहता है एक के बाद एक ब्रेकिंग न्यूज़, ब्रेकिंग न्यूज़ ! इसमें कभी मानस की एक-आध चौपाई, कबीर साहब का एक-आध दोहा, गीता का एक-आध श्लोक ये भी सुनने को मिलता है?
और शक्लें देखी हैं? वो जो टीवी पर बैठे रहते हैं, और आकर भौंकते रहते है। उनकी औकात है? उन्हें पता भी है एक भी चौपाई? एक से एक अंधे, मूर्ख, नाकाबिल लोग! आप इनकी शक्लें देखते हैं चौबीस घंटे। इनके प्रभाव से कैसा हो जाएगा आपका मन? सोचिए।
और लगातार आपको देखनी पड़ रही हैं, इन्हीं की शक्लें। ये कुछ भी भौंक रहे हैं। और आप सुन रहे हैं। और ये सम्बन्ध हमें सीधे-सीधे स्पष्ट होता नहीं कि सारे अपराध यहीं से निकल रहे हैं। हमको लगता है अपराध तो चाकू ने किया है, अपराध तो पिस्तौल ने किया है। अपराध उस अज्ञान ने करा है जो आपके दिमाग में ठूसा जा रहा है। ये बात आपको स्पष्ट ही नहीं होती।
आप बैठकर देख लेते हैं, कहते हैं, ‘अच्छा, हमारी सेवा की जा रही है। हाँ, भाई! ज़रा चाय लेकर आओ और एक समौसा’। चुस्कियाँ लेते हुए देख रहे हैं, वो बता रहा है, वहाँ पर वो खड़ी हुई है। ‘हाँ, हाँ, बिलकुल। बिलकुल।” वो चार बातें बोलती हैं। चार-पाँच तो वहाँ टिकर चल रहे हैं। उसके नीचे, ये खरीदो, वो खरीदो, ऐसा है, वैसा है।
फिर पाँच विज्ञापन आ जाते हैं। और वो फिर आ जाती है अपने बाल-वाल फैला करके। और फिर बोलती है, अब ये हो गया, वो हो गया। क्या हो गया? ‘फ़लाने गाँव में फ़लाना पुल ढह गया, उसके नीचे एक भैंस और एक मुर्गी फँसी हुई है’। मुख्यमंत्री ने जल्द राहत का ऐलान किया है। और कलेक्टर ने कहा है— ‘अभी दौरा लगता हूँ '।
थोड़ी देर में पता चलेगा कि भैंस की ज़्यादा बात हो रही है, मुर्गी की कम बात हो रही है। भैंस की ज़्यादा बात क्यों हो रही है? क्योंकि भैंस अल्पसंख्यक वर्ग के किसी व्यक्ति की थी। मुर्गी? ‘ना, ना। इसका कुछ नहीं।’ और ये सब हम खाते-पीते रहते हैं। ये हमारा आहार है। हमारी इंद्रियों को ये आहार मिल रहा है और हम इसको ले रहे हैं।
ज़िंदगी को ही आदत डाल दी गयी है बेहोशी की! कुछ पता नहीं कि हमें क्या खिला दिया गया, क्या पिला दिया गया।