पुराणों की कथा तो कपोल कल्पित होती हैं, फिर इनका क्या महत्त्व है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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पुराणों की कथा तो कपोल कल्पित होती हैं, फिर इनका क्या महत्त्व है? || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

प्रश्नकर्ता: दुर्गासप्तशती के प्रथम चरित्र में दो असुर मधु और कैटभ के बारे में बात हुई है, क्या वो एक तरीके से वृत्ति के ही रूप हैं?

आचार्य प्रशांत: आप अगर निद्राग्रस्त हो, कौन सी निद्रा? चेतना की निद्रा, तो आपके शरीर का मैल ही असुर है। जब आप माया के आधीन होकर सो जाते हो तो आपका शरीर ही असुर है। शरीर माने शारीरिक वृत्तियाँ, वही असुर हैं।

यह बड़ी उपलब्धि का काम है। बड़ी विशेषज्ञता का काम है कि जो अस्तित्वगत सिद्धांत हैं, उनको किस तरीके से कथा के माध्यम तक जनसामान्य तक लाया जाए। तो आप पुराणों में जितनी कथाएँ पाते हो, वह वास्तव में यही प्रयत्न कर रही हैं। जनसामान्य तक तुम अगर बिल्कुल श्रुति के श्लोक लाओगे तो वे समझ नहीं पाएँगे, तो श्रुति के ही सिद्धांतों को कथाओं के माध्यम से लोगों तक लाया जाता है। अब लेकिन फिर यह ज़रूरी होता है कि उन कथाओं का उपयोग सिद्धांतों तक पहुँचने के लिए किया जाए, उन कथाओं को ही सत्य न मान लिया जाए।

कथा इसलिए है कि तुम सिद्धांत तक पहुँचो, सिद्धांत इसलिए है कि तुम सत्य तक पहुँचो। तुमने अगर उलटी गंगा बहा दी और कथा को ही सत्य मान लिया तो फँस जाओगे। भारत में दुर्भाग्य से यह हुआ है कि कथा को ही ऐतिहासिक मान लिया गया या सत्य मान लिया गया, कथा का जो सम्यक उपयोग है, वह नहीं किया गया।

एक विशेषज्ञ चाहिए सिद्धांत को कथा का रूप देने के लिए, कथाबद्ध करने के लिए। और फिर एक दूसरा विशेषज्ञ भी चाहिए उस कथा के मर्म में जो सिद्धांत बैठा है, उसको उद्घाटित करने के लिए। एक चाहिए कोडर और एक चाहिए डिकोडर और दोनों में बराबर की विशेषज्ञता होनी चाहिए। जिन्होंने कोडिंग करी थी, जिन्होंने उच्चतम सूत्रों को कथाबद्ध करा था, उन्होंने इस आशा में कथाएँ रची थीं कि ऐसा कोई होगा या ऐसे लोग होंगे आगे जो इन कथाओं के मर्म में जो सूत्र हैं, उनको अनावृत कर पाएँगे, उद्घाटित कर पाएँगे। पर यह एक आशा होती है, यह एक प्रार्थना होती है कि जो हम यहाँ पर कथा लिख रहे हैं, उस कथा में जो सिद्धांत छुपा हुआ है, उसको खोलकर निकालने वाला आगे कोई होगा, यह बस एक आशा होती है।

वह आशा फलीभूत भी होती है। लेकिन कब होगी, किस जगह होगी, कितना समय लेकर के होगी, यह किसी को नहीं पता होता। तो फिर बहुत बार ऐसा हो जाता है कि जो पौराणिक कहानियाँ हैं, लोग उनको बस कहानी ही समझते रहते हैं, उनके मर्म में जो बात है, वह उन लोगों को समझ में नहीं आती, न समझाने वाला कोई होता है।

अब पूछो कि समझाने के लिए क्या चाहिए? वह जो बात है, वह समझाने के लिए भी क्या चाहिए? वह समझाने के लिए वेदांत चाहिए‌। यदि आपने वेदांत की आराधना की है तो पुराणों की सब कथाएँ फिर आपका अपने मर्म स्थल में स्वागत करती हैं। वह अपने-आपको खोल देती हैं और कहती हैं कि आओ और हमारे मर्मस्थल में प्रवेश करो। लेकिन अगर आपने वेदांत की आराधना नहीं की है तो पुराणों की कथाएँ आपके लिए बस कथाएँ रह जाएँगी। पुराण भी अपने-आपको उपलब्ध कराते हैं बस किसी वेदांत मर्मज्ञ को ही, अन्यथा नहीं उपलब्ध कराते।

मैं कहता हूँ कि वेदांत वह कुंजी है जिसका उपयोग करके तुम अन्य सभी धार्मिक ग्रंथों के मर्म तक पहुँच सकते हो, अन्यथा ताला लगा ही रहेगा।

प्र: क्योंकि वेदांत की उस कुंजी का इस्तेमाल सामान्यतः नहीं किया जाता और उसके बिना ही कहानियों को, कथाओं को, पुराणों को ज़्यादा तवज्जो दी जाती है और ज़्यादा पढ़ा जाता है, इस कारण समाज में अंधविश्वास भी बहुत फैलता है। क्योंकि पहले जो ये कथाएँ हैं, इनमें जैसे असुर का विवरण हो गया, कुछ शक्तियाँ है उनके, इस वज़ह से अंधविश्वास भी बहुत ज़्यादा फैलता है और लोग फिर उन शक्तियों को पाना चाहते हैं या फिर अलग-अलग तरीके की चीज़ों में उलझ जाते हैं। तो उसको समझने का तरीका फिर वही है कि पहले उपनिषद् को आप पढ़े-समझे और फिर आप कथाओं के पास आएँ।

आचार्य जी: देखो, फिर तो अगर पूछ ही रहे हो तो राजा को और वैश्य को भी देवी महात्म्य तक ले जाने के लिए मेधा मुनि की आवश्यकता पड़ेगी-ही-पड़ेगी। तो भले ही ग्रंथों ने बहुत सारी कुंजियाँ दे दी हों, सारे उपाय आपको उपलब्ध करा दिए हों, लेकिन गुरु की आवश्यकता तो पड़ेगी-ही-पड़ेगी। गुरु भी समर्थ गुरु, नाम का गुरु नहीं। दोनों चाहिए होते हैं: ग्रंथ और उन ग्रंथों का सम्यक अर्थ करने में सक्षम गुरु। मात्र ग्रंथ हैं, गुरु नहीं हैं तो अपनी वही तुम पशुओं वाली बुद्धि ग्रंथों पर भी लगा दोगे, पता नहीं क्या अर्थ कर लोगे उनका। और गुरु हैं पर गुरुदेव ऐसे हैं जो खुद ग्रंथों को नहीं जानते, कभी ग्रंथ पढ़े ही नहीं, इतना ही नहीं ग्रंथों से दूर रहने को बोलते हैं तो भी मारे जाओगे। क्योंकि यह गुरु, गुरु है ही नहीं, गुरु घंटाल है। तो गुरु ऐसे चाहिए जो श्रुति से तुम्हारा परिचय ही करा दें। जो श्रुति के बिल्कुल मर्म में तुमको स्थापित कर दें। गुरु भी चाहिए, श्रुति भी चाहिए। श्रुति माने? वेदों की पूरी परंपरा को श्रुति कहते हैं।

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