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पुरानी मान्यताओं से आगे नया जीवन है || आचार्य प्रशांत (2023)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: नमस्ते, आचार्य जी। सर आज काफ़ी अच्छे सीख थे सत्र में। और मेरा प्रश्न भी इस सत्र से ही सम्बन्धित है। सर, आपने बताया था कि मान्यताओं का सम्बन्ध अनुभव से है। प्रारम्भ में हमने चर्चा की था। यानी कि जो विकार हैं, वो भी एक तरह से मान्यताओं से ही उठे हैं क्योंकि हमने कुछ माना है, उसी से हममें विकार उठे हैं। और हम ये भी कह सकते हैं कि जो डर है या और भी तरह की चीज़ें हैं, वो सब भी इसी से सम्बन्धित हैं क्योंकि हमने कुछ माना वो पूरा नहीं हुआ। तो वो विकार उठा उससे।

तो ये बात समझ आती है कि अगर मान्यताएँ हमारी बदल जाएँ तो एक तरह से हमारा जीवन भी बदल जाएगा। एक तरह से हम देख सकते हैं लेकिन मेरा प्रश्न यहाँ पर ये है कि मान्यताओं का बदल जाना सही है या मान्यताओं का ख़त्म हो जाना, उनको छोड़ देना सही है?

आचार्य प्रशांत: एक अन्त है, एक प्रक्रिया है। मान्यता का ख़त्म होना माने जो मानने वाला है वो ख़त्म हो जाए। वो तब ख़त्म होता है जब पहले उसने जो मान रखा है उसे उसकी निरर्थकता या झूठ दिखाया जाए। ठीक है?

तो मान्यता ख़त्म होती है वर्तमान मान्यता को एक-एक करके तोड़ने से, और वो एक प्रक्रिया होती है। आप अभी कोई चीज़ मानते हो, उसको तोड़ने के लिए आपको कोई और चीज़ बतायी जाएगी। पुरानी टूट जाती है, एक नयी आ जाती है। तो जो मानने वाला है उसको ‘मानी’ बोल लो। जो मान रखने वाला है वो बचा रह जाता है। तो एक-एक करके मान्यताएँ जब टूटती जाती हैं, तब अन्ततः मान्यता से फिर पूरी मुक्ति मिलती है।

तो मान्यताओं से मुक्ति मिल सके, इसके लिए भी ज़रूरी है कि मान्यताएँ बदलती रहें, बेहतर होती रहें। और इससे अच्छा तो कुछ हो ही नहीं सकता कि आप मान्यता पर आक्रमण करने की जगह जो मानी है, सीधे उसी का झूठ देख लो। फिर तो एक पल में काम तमाम हो जाएगा। पर उतना ज़्यादातर लोगों के लिए सम्भव नहीं होता। ज़्यादातर लोगों से बोलो, ‘तुम झूठे हो’, तो बिदक जाएँगे।

हाँ, अगर तुम बोलो कि आपकी बात देखिए झूठी है, तो शायद फिर भी बर्दाश्त कर लें। आपकी बात झूठी है बर्दाश्त कर लेंगे न? ‘आपकी मान्यता ग़लत है’, बर्दाश्त करा जा सकता है। ‘आप ही ग़लत हो’, तो लोगों के लिए थोड़ा मुश्किल हो जाता है बर्दाश्त करना। लोग माने मैं, आप, हम सब। तो इसलिए जो मान्यता रखने वाला अहंकार है उसको भी तोड़ने के लिए यही ठीक है कि उसकी मान्यताओं को तोड़ा जाए। सीधे उसको तोड़ोगे तो वो विद्रोह करेगा, बिदक जाएगा, आपको भगा देगा और आपकी बात नहीं सुनेगा।

मान्यताओं से मुक्त नहीं हो सकते तो कम-से-कम बेहतर मान्यताओं की ओर बढ़ो। ‘मैं कुछ हूँ, किसी वर्ण का हूँ’ — आप किसी वर्ण से अपनेआप को करते हो, मान लो, ‘मैं क्षत्रिय हूँ।’ उससे बेहतर है कि बोलना शुरू करो — ‘मैं मनुष्य हूँ।‘ अब ‘मैं मनुष्य हूँ’ है तो ये भी मान्यता ही। अध्यात्म में आप जब आगे बढ़ोगे तो आप पाओगे कि मैं मनुष्य हूँ ये भी कोई बहुत ढंग की बात नहीं बोल दी आपने। लेकिन ‘मैं क्षत्रिय हूँ’ बोलने से कहीं बेहतर है बोल दो ‘मैं मनुष्य हूँ।‘ ‘मैं स्त्री हूँ, मैं स्त्री हूँ’, ये बात तो झूठ है। तो बोल दो ‘मैं मनुष्य हूँ।‘ अब ‘मनुष्य हूँ’ कोई एब्सॉलूट (निरपेक्ष) सत्य तो ये भी नहीं है। लेकिन स्त्री बोलने से बेहतर है कि अपनेआप को मनुष्य बोल दिया। तो थोड़ी प्रगति हो गयी; तुलनात्मक प्रगति है।

तो स्त्री से मनुष्य बने, मनुष्य से चेतना बने, ऐसे आगे बढ़ते-बढ़ते हो सकता है कि एक दिन सारे ही बन्धनों से मुक्त हो जाओ। ठीक है? तो ज्ञान का काम होता है आपकी मान्यताओं को चुनौती देना। हमेशा तैयार रहना चाहिए कि आपकी बात को कोई काट रहा है तो। “निंदक नियरे राखिए।” बात समझ में आ रही है?

आपका सबसे अच्छा दोस्त वही है जो आपकी बात को चुनौती देने के लिए ललकार रहा है। ‘तुम्हारी बात ख़राब है,’ उसकी बात सुनो क्या कह रहा है। जहाँ कहीं भी उसने आपकी कोई बात ग़लत सिद्ध कर दी, आपको एकदम अनुग्रहित हो जाना चाहिए कि आज मिला कोई, एहसान हो गया। “बिन पानी साबुन बिना, निर्मल करे सुभाय।“ ‘कुछ भी नहीं लिया इसने और एहसान कर दिया, हमारी एक बात इसने ग़लत साबित कर दी।’

आपकी बात जैसे-जैसे ग़लत साबित होती जाती है, आप वैसे-वैसे सही होते जाते हो।

ठीक है?

प्र: सर, इस पर एक और मेरा प्रश्न है कि जैसे अतीत में मेरे साथ कुछ हुआ और मैंने एक उसको दिमाग में बैठा लिया। अब होता क्या है कि अब जब भी कोई घटना होती है वर्तमान में, तो भी मैं उस अतीत को उससे जोड़कर करके देखता हूँ। एक तरह से जो मान्यता में बात है कि वो दिमाग में ऐसी छप गयी है जब-जब मैं उसको चुनौती देता हूँ, तो बहुत ज़्यादा डर या फिर इस तरह की स्थिति बन जाती है। एक तरह से मुझे बहुत लड़ना पड़ता है उससे उसको जीतने के लिए।

आचार्य: तो करो। कोई और तरीक़ा नहीं है, इसमें। इसमें कोई शॉर्टकट्स (छोटा रास्ता) या बहुत तरीक़े नहीं होते हैं। और ये बात हमारे लिए अच्छी है, क्योंकि आपको न कोई सस्ती विधि, कोई छोटा सा रास्ता बता दिया जाता है तो आप ये बात देखने से चूक जाते हो कि आपको उस सस्ती विधि की ज़रूरत थी ही नहीं। सामने वज़न रखा हुआ है, वज़न दस किलो का है, आपने पहले ही शोर मचा दिया ‘अरे! अरे! अरे! अरे! बहुत ज़्यादा है। कोई सस्ता तरीक़़ा बताओ।’ तो सस्ता तरीक़ा दे दिया किसी ने लाकर, एक किलो का वज़न दे दिया; बोले, ‘चलो यही कर लो, इससे हो जाएगा।’ अब हुआ कि नहीं हुआ वो तो पता नहीं, लेकिन एक बात जो आपको पता लग सकती थी पता नहीं लगी, जानते हैं क्या बात? आप वो दस किलो उठा सकते थे। आप चूक गये। आपकी मान्यता बरकरार रह गयी कि आप कमज़ोर हो।

तो शॉर्टकट से ये होता है कि आप ये जानने से वंचित रह जाते हो कि लम्बा रास्ता आप बड़े मज़े में दौड़कर जल्दी ही तय कर सकते थे। आपकी मान्यता बरकरार रह जाती है कि आप धीमे हो, सुस्त हो या कमज़ोर हो। तो जब मैं कह रहा हूँ कि कोई इसमें और तरीक़ा नहीं है, दर्द तो बर्दाश्त करना पड़ेगा या डर बर्दाश्त करना पड़ेगा, तो ये आपके लिए कोई दुर्भाग्य की बात नहीं हो गयी। इससे तो मैं आपको ये सूचित कर रहा हूँ कि आपमें डर और दर्द बर्दाश्त करने की पूरी क्षमता है ही। है ही तो, कर लो न।

शॉर्टकट क्यों माँग रहे हो? जो दस किलो उठा सकता है वो माँग ही क्यों रहा है कि एक किलो बता दो, एक किलो बता दो। और एक किलो दे दूँगा तो दस किलो उठाने की जो उसकी माँसपेशियाँ हैं, वो ख़त्म होने लगेंगी।

आ रही बात समझ में?

न कोई शॉर्टकट होता है, और उसके आगे की बात ये कि न ही आपको शॉर्टकट की ज़रूरत है। आपमें ताक़त भी है, आपमें धीरज भी है, आप सब झेल जाओगे। बस जब कल्पना करो आगत ख़तरे की तो कल्पना नाहक परेशान करती है। जो हो रहा है उसको जिए जाओ, उससे गुज़र जाओ। बेकार में सोचो मत कि आगे जब होगा तो हाय मेरा क्या होगा।

ये भी तो मान्यता ही है न कि डर गन्दी चीज़ है? सोचकर देखो। ये भी तो मान्यता ही है न कि जीवन में कोई कष्ट होना ही नहीं चाहिए? क्यों नहीं होना चाहिए? और जो जीवन का कष्ट है वो भीतर का दुख बन जाता है। जब वो कष्ट इस मान्यता से टकराता है कि कष्ट नहीं होना चाहिए। जीवन में तो सौ तरह कष्ट हैं ही, कि नहीं हैं?

अभी आप बैठे हो, किसी को भूख लग रही हो, किसी को नींद आ रही होगी, किसी को कुछ हो रहा होगा, किसी ने बाहर निकलकर देखा होगा, फ़ोन में कुछ सन्देश आया हुआ है; पचास। अब वो सब तो है ही है। जीवन तो माने ही यही सब होता है — पचास तरह की चीज़ें।

जीवन में जो कुछ चल रहा है जब वो आपकी मान्यता से टकराता है, मान्यता क्या बोलती है? कि जीवन में बिलकुल गुलाब की पंखुड़ियों वाला बिस्तर होना चाहिए। वो तो मान्यता है। और जीवन क्या है? जीवन ऐसे ही जैसा होता है। तो ये जो जीवन का तथ्य है जब आपकी मान्यता से टकराता है, तो क्या कहलाता है फिर? उससे दुख का निर्माण होता है, दुख का निर्माण।

लोग कहते हैं कि अरे बड़ी तकलीफ़ है। मैं पूछता हूँ, ‘आपसे कह किसने दिया कि तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए?’ और जैसे ये बोलो कि तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए—ये बात तो एक अज़म्प्शन है, मान्यता है, कल्पना है; ये क्यों मान रहे हो—तकलीफ़ तुरन्त कम हो जाती है। क्योंकि तकलीफ़ उस स्थिति के कारण नहीं थी, तकलीफ़ इस माँग के कारण थी कि तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए। ये माँग क्यों कर रहे हो कि तकलीफ़ नहीं होनी चाहिए? क्या चल रहा है? ‘तकलीफ़ चल रही है।’ कैसा चल रहा है? ‘कष्ट चल रहा है।’ ‘कष्ट चल रहा है’ विद अ स्ट्रेस्ड फेस (मुँह लटकाए हुए); ‘कष्ट चल रहा है।’ ये ठीक है।

‘कष्ट चल रहा है लेकिन नहीं चलना चाहिए’ — ये दुख है। ‘कष्ट चल रहा है’ यहाँ तक ठीक है। शरीर ही पचास तरह की बीमारियों का घर है, कष्ट काहे नहीं चलेगा? बहुत लोग कहते हैं, ‘आप पाँच घंटे, छः घंटे लगातार बैठा लेते हो। फिर खड़े होते हैं, खड़े ही नहीं हो पाते।’ किसी भी बात पर कष्ट हो सकता है शरीर का क्या है।

आप कोई बहुत बड़ा पाप थोड़े ही करोगे। एक दिन मर जाओगे। शरीर का क्या है? कोई आपको विशेष सज़ा थोड़े ही मिल रही है, लेकिन आप एक दिन मर जाओगे। शरीर ऐसी चीज़ है। लेकिन आपने उम्मीद कर रखी होगी, ‘मैं तो अमर रहूँगा’, अब बड़ा दुख होगा, अब बड़ा दुख होगा। ये प्रकृति है। शरीर ये-वो, इनके अपने तौर-तरीक़े, नियम हैं। ये जैसे हैं, चलने दो। इनके साथ अपनी उम्मीदें मत जोड़ो। उम्मीदें टूटेंगी।

भूलिएगा नहीं, प्रकृति में आत्मा को खोजना ही अहंकार का दुख है।

प्रकृति से क्यों बड़ी-बड़ी उम्मीदें लगाते हो? वहाँ छोटा-छोटा जो है वो अच्छा है। फूल खिल गया, अच्छी बात है। अब तो उम्मीद लगा लो कि क्या रहे ये फूल? ये अमर हो जाए। और तब भी अमर रहे जब मैं इसको तोड़ लूँ। हमको इतनी थोड़े ही चाहिए कि फूल अमर हो जाए। कोई फूल अमर हो, उससे आपका कोई रिश्ता न हो, आपको कोई प्रसन्नता नहीं होगी। हम चाहते हैं कि फूल को ले लें, अपने बाल में लगा लें तो ‘मेरा फूल’ बन जाए। वो फूल नहीं है। क्या बन गया? ‘मेरा फूल’। और बाल में लगकर वो अमर हो जाए, अब कभी वो कुम्हलाए भी नहीं।

अब किसी ने ठेका ले रखा है आपकी उम्मीदें पूरी करने का? और ये जब उम्मीद न पूरी हो तो कहो, ‘हाय! हाय! बड़ा दुख है जीवन में!’ ये सब जो आशाएँ हैं, ये खड़ी करने के लिए कौनसे फरिश्ते ने आपको कान में फूँका था कि फूल को पहले तो ‘मेरा फूल’ बनाओ, फिर कहो कि कम-से-कम दो साल तक खिला रहे? ये किसने कहा था?

प्रकृति के अपने सहज सुख होते हैं। कुछ लोगों ने तो यहाँ तक कहा है कि प्रकृति अपनेआप में सुखधर्मा ही है, बस तुम उसके प्रति तथाता भाव रखो। जैसी है वैसी है। उसमें कुछ और खोजने मत चले जाना।

प्रकृति में क्या नहीं खोजनी है?

श्रोता: आत्मा।

आचार्य: हाँ। प्रकृति नित्य नहीं है; वहाँ भरोसे का कुछ भी नहीं है, वहाँ सब क्षण-भंगुर है। तो जो क्षण-भर की प्रसन्नता है प्रकृति से मिल जाएगी, लेकिन ये मत चाहना कि वो जो इस क्षण मिला था वो अगले क्षण भी मिलता रहे। जैसे ही ये कह देंगे आप कि जो अभी मिला वो अगले क्षण भी मिले, तुरन्त आपने दुख माँग लिया अपने लिए। अब तो दुख आएगा-ही-आएगा। एक क्षण की चीज़ प्रकृति दे देती है। हम तुरन्त आगे भी कहने लगते हैं, कहते हैं, ‘अभी दिया, अब कल भी देना।’ कल वो नहीं देगी। कल वो नहीं देगी। हाँ, कल वो कुछ और दे देगी।

जो चीज़ सामने है, बस ठीक है। तकलीफ़ भी एक तरह का सुख है। अरे! मेहमान है, दो दिन को आया है। उसका भी ले लो स्वाद। चला जाएगा। क्या हो गया? मेहमान का अनादर करते हैं जो थोड़ी देर के लिए आया हो? उसको क्या बोलते हैं? “अतिथि देवो भवः।” तो कष्ट भी कौनसा नित्य होता है। दो दिन को आता है, फिर भग जाता है। तो वो भी अतिथि ही तो है, उसका भी स्वागत करो, ‘आइए-आइए महाराज! आप आए। आज घुटना फूट गया है।’ घुटना रोज़-रोज़ तो फूटा रहेगा नहीं। जितने दिन घुटना फूटा हुआ है, उस अनुभव से गुज़र लो।

प्र: सर, मैं इस बात से ये समझूँ कि एक द्रष्टा भाव रखना है प्रकृति की तरफ़?

आचार्य: आपको उसको उस भाषा में रखना है तो वैसे भी रख सकते हैं। आप लोग मेरे लिए बहुत सरल कर देते हैं। अब मुझे लग रहा है कि मैंने इतना क्यों बोला। मैं इतना ही बोल देता इनको कि द्रष्टा भाव रख लो। (श्रोतागण हँसते हैं)

मैं आपको सरल करके समझाना चाह रहा हूँ, और आप उसको (कठिन)। मैंने जितना कहा मैं वापस खींच रहा हूँ। उत्तर मैं दिये देता हूँ — ‘द्रष्टा भाव रख लो, भाई। ख़त्म।‘ शब्दों में खोना ज़रूरी है, है न? दे दिया द्रष्टा भाव। क्या करोगे द्रष्टा भाव को? खाओगे? वो शब्द तो सबके पास है। वो शब्द तो आपने मुझसे प्रश्न पूछा उससे पहले से ही आपके पास था। उस शब्द से आपका दुख मिट गया था क्या? लेकिन ज्ञानी होने का भाव आ जाता है न — ‘मैं जानता हूँ।’

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