प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी हम जो एक मूवी (फ़िल्म) देखकर के आ रहे हैं ‘चार्ली ट्रिपल सेवन’। उसमें एक व्यक्ति है, बन्दा है, करीबन शायद पैंतीस साल के अराउंड (आस-पास) होगा, तीस से पैंतीस साल के अराउंड। और उसका जो जनरल (सामान्य) पूरा बिहेवियर (व्यवहार), कैरेक्टर (चरित्र) दिखाया गया है वो बिलकुल ऐसा है, जैसे वो अकेले रहता है। ज़्यादा किसी से इतना कोई सोशलाइज (समाजीकरण) नहीं करता, न उसे किसी का इतना कोई मतलब रहता है।
लोग अगर उससे मदद माँगने भी आते हैं, तो वो उनकी मदद करने में कोई ख़ास ऐसा इंटरस्टेड (रुचि) नहीं रहता। अपना जैसा डेली (दैनिक) का जॉब (नौकरी) होता है वो उसका चल रहा है जहाँ पर जाता है; वो काम करता है, वापस आता है। और वहाँ पर भी जो लोग होते हैं, उनके प्रति उसका रुख कोई बहुत अपनेपन का या उस तरीक़े से नहीं होता है। एक जॉब है, उसको कर रहा है और वापस आ जाता है।
आचार्य प्रशांत: इमोशनलेस (भावनाहीन) दिखाया गया है।
प्र१: इमोशनलेस दिखाया गया है।
आचार्य: इमोशनलेस और रिलेशनशिपलेस (सम्बन्धविहीन)। न उसके पास इमोशन (भावना) है और न रिश्ते हैं। एकदम अकेले रहता है, किसी से कोई लेना-देना नहीं और कोई ज़्यादा बातचीत करे तो उसे पीट-पाट और देता है।
प्र१: राइट (सही)। तो और उसके बाद ये, इस पटरी पर उसकी ज़िन्दगी चल रही है। और तभी एकदम से उसकी लाइफ़ (जीवन) में एक ऐसा इन्सीडेंट (घटना) होता है जिसके कारण एक कुत्ता है, जो उसकी लाइफ़ में आ जाता है और उसके बाद जो उसकी लाइफ़ टर्न (जीवन का मोड़) होती है या जो इवेंट्स (वाकया) होते हैं और उसमें उसका जो रिस्पोंस (प्रतिक्रिया) होता है। वो धीर-धीरे, ग्रेजुअली (धीरे-धीरे) कैसे चेंज (परिवर्तन) होता रहता है। वो पूरा इस मूवी में दिखाया गया है। तो इतना कैसे इम्पैक्ट (प्रभाव) पड़ सकता है किसी एक जानवर का किसी व्यक्ति पर, वो भी ऐसे व्यक्ति पर जिसकी ज़िन्दगी बिलकुल एक इमोशनलेस हो या ड्राई (नीरस) हो?
आचार्य: देखो, हम सब प्रेम के प्यासे हैं। ठीक है! हमें प्रेम चाहिए, सबको। और प्रेम जब नहीं मिलता है न, तो इंसान प्रेम की ही तलाश में या प्रेम के न मिलने पर ज़िन्दगी से नाराज़ होकर सख़्त पड़ जाता है। अब प्रेम क्यों नहीं मिला होता है? ज़िन्दगी ने कहीं पर ठोकर दे दी, कोई जगह जहाँ आपने आशा बैठाई थी या जहाँ से आपको प्रेम मिल रहा था वो जगह बन्द हो गयी, नष्ट हो गयी। तो इंसान फिर जीवन से बहुत नाराज़ हो जाता है क्योंकि हम हैं ही क्यों?
इतनी बार बोला है न, ‘हम प्यासी चेतना हैं’। उस चेतना को मैं कई बार बोलता हूँ कि मुक्ति की प्यास है, बोध की प्यास है। उसी को ऐसे भी कह सकते हो, ‘उसे प्रेम की प्यास है’ क्योंकि प्रेम का मतलब ही होता है, वो जो तुम्हें मुक्ति की ओर ले जाए। तो ये कहना कि मुझे बोध चाहिए, बिलकुल बराबर की बात है कि कह दो कि मुझे प्रेम चाहिए। क्योंकि ‘प्रेम’ है ही वही जो आपको होश तक, बोध तक या मुक्ति तक ले जाए।
तो प्रेम चाहिए आपको और प्रेम मिलता नहीं है, तो आदमी प्रतिक्रिया करता है, वो सख़्त हो जाता है, कड़ा हो जाता है। और वो कड़ा होकर के उसने और कुछ नहीं किया है। वो सबकुछ जो वो पाना चाहता था, वो सबकुछ जो वो देना चाहता था उसको उसने अपने भीतर बन्द कर लिया है गुस्से में। समझ रहे हो? वो कह रहा है, ‘जब मुझे बाहर से प्रेम मिल नहीं रहा है तो मेरे भीतर जितना इकट्ठा है, जो मैं देना चाहता था मैं वो भी नहीं दूँगा। तो जितनी उसमें क्षमता होती है दूसरे को प्रेम देने की, उसको वो भीतर ही भीतर ताला लगा देता है, लॉक कर देता है। क्यों? क्योंकि वो नाराज़ है, वो नाराज़ है कि मुझे जब बाहर से नहीं मिल रहा, तो मैं भी किसी और को क्यों दूँ?
‘जब मुझे किसी से नहीं मिल रहा, तो मैं किसी को नहीं दूँगा’— ये नाराज़गी है। और ये नाराज़गी बहुत दिन तक बनी रहे, आप अपने प्रेम को लॉक (ताला) करके रख लो तो ये बीमारी बन जाती है। फिर आप भूल ही जाते हो कि ये आपने करा है। फिर आपको लगता है, आप ऐसे हो ही और वो आपकी ज़िन्दगी का ढर्रा बन जाता है। और वो एक मानसिक रोग है,न्युरोसिस (एक मानसिक बीमारी) है। फिर आप किसी भी तरह की हिंसा कर सकते हो, वही जो प्रेम है वो क्रूरता और हिंसा बन जाएगा फिर।
जैसा कि इस मूवी में भी हो ही रहा था न, ये व्यक्ति कहता है न कि कोई मेरे पास अगर मदद माँगने आता है, तो मैं कभी उसे खाली हाथ नहीं लौटाता, मैं उसे बेइज़्ज़ती साथ देकर लौटाता हूँ। (सब हँसते हैं)। तो आप जब बहुत दिन तक अपने प्रेम को लॉक करे रहते हो, तो वो एक तरह से वायलेंस (हिंसा) बनने लगता है, हिंसा बनने लगता है। क्यों लॉक करा था? क्योंकि आप कहते हो, ‘बाहर से नहीं मिला था या बाहर से मिला भी तो ऐसों से मिला जिन्होंने प्रेम के नाम पर कुछ और ही दे दिया।’ क्योंकि दुनिया ऐसी ही है।
प्र१: सौदा।
आचार्य: सौदा भी तब करेंगे जब हमारे पास कुछ हो! हमें प्रेम पता ही नहीं होता, तो हम प्रेम के नाम पर लूट-खसोट करते हैं या कि अटैचमेंट (आसक्ति) जैसा कुछ हो जाता है, है न! या कि किसी से किसी तरीक़े का हमको अट्रैक्शन (आकर्षण) हो गया, आकर्षण हो गया, उसको ही हम कह देते हैं ‘प्रेम’ है। तो इस तरीक़े के जब आपके प्रेम के अनुभव होते हैं, तो भीतर बड़ी चोट बस जाती है। और उसके कारण ही आपने अपने प्रेम को फिर ताला मार दिया होता है।
अब ऐसे में आपकी ज़िन्दगी में एक मासूम जानवर आ जाता है, वही ‘कुत्ता’। वो कुत्ता आपके सामने सबूत की तरह खड़ा हो जाता है कि हर व्यक्ति जो आपसे जुड़ रहा है, वो किसी स्वार्थ के लिए नहीं जुड़ रहा है। आपने अपने जीवन में ये अनुभव करा है कि लोग सब मतलबी हैं, स्वार्थी हैं, नालयक़ हैं, धोखेबाज हैं। लेकिन वो जो कुत्ता है उससे आपको जो मिल रहा है, वो एक अनूठी चीज़ है। वो कुत्ता साबित करे दे रहा है कि हर जीव दूसरे जीव से किसी मतलब की ख़ातिर ही नहीं जुड़ता, तो अब खेल पलट जाता है।
आपने अपनी जो क्षमता थी दुनिया से प्रेमपूर्ण रहने की, उसको लॉक करा था क्योंकि आपको बाहर से नहीं मिल रहा था प्रेम। अब आपको मिलने लग गया। अब आपको मिलने लग गया और आपके भीतर बहुत सारा प्रेम इकट्ठा है क्योंकि आपने जीवन में किसी को बाँटा तो है नहीं, तो वो सारा का सारा एक तरह से अब भंडार बन गया है, एक रिज़र्व बन गया है आपके भीतर। जैसे नदी पर बाँध बन गया हो और एक दिन उस बाँध के आप दरवाज़े खोल देते हो, तो अब क्या होगा? अब बाढ़ आयेगी।
तो आप जो अभी फ़िल्म देखकर आ रहे हो, उसमें वही बाढ़ दिखाई गयी है। एक आदमी, जो ज़िन्दगी में कभी किसी से प्रेम नहीं करता था, बचपन में उसके माँ-बाप, बहन की मृत्यु हो गयी थी, उनसे उसका प्रेम था। उसके बाद से वो दुनिया से खिन्न रहने लगा था, दुनिया से बेगाना रहने लगा था। उस आदमी के जीवन में ये कुत्ता आता है। वो इस कुत्ते को पहले तो रखना नहीं चाहता। कई महीनों तक वो चाहता है कि ये भाग जाए, ऐसा हो, वैसा हो, एडॉप्शन (गोद) के लिए देना चाहता है कुत्ते को। ये सब वो अपनी ओर से कोशिश कर लेता है।
लेकिन फिर धीरे-धीरे उसके भीतर जो बाँध बन गया है, उसके दरवाज़े खुलने लगते हैं। और जब वो दरवाज़े खुलते हैं, तो एकदम चमत्कार होने लग जाता है। इस आदमी के व्यक्तित्व का एकदम अलग रूप सामने आता है। जो आदमी मुस्कुरा भी नहीं सकता था। जो आदमी शब्दों से नहीं, घूसों और थप्पड़ों से बात करता था, वो आदमी बात-बात पर रोने लग जाता है। आप उसकी आँखों में आँसू देखते हो। जो आदमी इतना सख़्त था कि कोई भी चीज़ उसको हिला नहीं पाती थी। आप पाते हो कि उसमें बच्चों जैसी नरमी आ गई है।
जिस आदमी को ज़िन्दगी में कुछ भी नहीं चाहिए था, आप पाते हो कि वो एकदम व्याकुल होकर के अब कुछ माँग रहा है ज़िन्दगी से। उसकी आवाज़ में एक आर्द्रता आ जाती है, उसमें भाव आ जाते हैं, उसका चेहरा ही बदल जाता है। जिस नौकरी में वो कभी एक दिन की छुट्टी नहीं लेता था। वो उस नौकरी को छोड़कर के, जब वो पाता है कि उसके कुत्ते को कैन्सर हो गया है और उसके कुत्ते को बर्फ़ में खेलना बहुत पसन्द था। वो कहता है, ‘नौकरी वगैरह छोड़कर के मैं इस कुत्ते को अब ले जा रहा हूँ।’ दक्षिण भारत की कहानी है, तो वो दक्षिण भारत से उसको कहता है, ‘मैं हिमालय ले जा रहा हूँ। ये मर जाए, इससे पहले मैं इसको एक बार बर्फ़ में खेलने दूँगा।’
तो पूरा रूपांतरण हो जाता है। इंसान ही दूसरा हो जाता है, इंसान ही दूसरा हो जाता है। वो जो दूसरा इंसान है, वो हम सबके भीतर बैठा है। और हमने उसको लॉक (कैद) कर रखा है। हमने उसको लॉक (कैद) इसलिए कर रखा है क्योंकि बाहर से हमको चोट पड़ी है। हम ग़लती ये कर देते हैं कि हम प्रेम में एक तरह की रेसिप्रोसिटी (विनिमय), माने आदान-प्रदान चाहते हैं। हम कहते हैं, ‘मैं तभी दूँगा जब मुझे बाहर से मिलेगा।’ और बाहर से मिले, ऐसा कोई ज़रूरी होता नहीं है देखो। आदमी वो है, जिसको बाहर से मिले या न मिले वो बाँटता चले। इस फ़िल्म में जो हीरो था, उसकी क़िस्मत अच्छी थी कि उसको चार्ली (कुत्ता) मिल गयी।
प्र१: एक्चुअली (वास्तव में) इसको कोट (उद्धरण) भी बाद में किया गया है।
आचार्य: हाँ! कि अगर आप लकी (भाग्यशाली) होगे तो आपको चार्ली मिल जाएगी। तो ये तो इसकी क़िस्मत अच्छी थी कि इसको चार्ली मिल गई। नहीं मिली होती तो ये तो एक मुर्दा और सख़्त और बेजान ज़िन्दगी जीकर के मर जाता न। और ये खूब सिगरेट फूँक रहा था और दिखाया गया है कि सिगरेट पीने के कारण ये अब बीमार भी होने लग गया था। सिगरेट पी रहा है, शराब पी रहा है, ये तो ऐसे ही मर जाता कुछ दिन में। वो तो उस कुत्ते के जीवन में आने के कारण एक अच्छा संयोग हो गया कि ये बच गया। कुत्ते ने इसकी सिगरेट भी छुड़वा दी। आप इंतज़ार नहीं कर सकते कि ऐसा कोई संयोग आपके जीवन में भी होगा। आपको संयोगों पर नहीं, सिद्धान्तों पर चलना होगा।
और सिद्धान्त ये है कि प्रेम मिले चाहे न मिले, दुनिया चाहे कितनी भी आपके साथ अभद्रता करे, नाइंसाफी करे, हिंसा करे। आपको फिर भी प्रेमपूर्ण बने रहना है। दुनिया की ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर। क्योंकि वो ऐसी चीज़ है जिसको अगर आपने बाँटा नहीं, तो वो आपके भीतर ज़हर बन जाएगी। आप बाँट देंगे तो आपके लिए भी अमृत है, जिसको दिया उसके लिए भी है। और नहीं बाँटोगे तो आपके लिए भी ज़हर है, जिसको नहीं मिला तो उसके लिए भी ज़हर है। और जब मिलने लग जाता है, तो फिर जब बँटने लग जाता है आपके माध्यम से। तो देखिये कि व्यक्ति कितना बदल जाता है, कैसे उसकी पूरी ज़िन्दगी, उसकी पूरी व्यवस्था, उसके विचार, उसके भाव सब बदल जाते हैं। जैसे पत्थर में जान आ गई हो। जैसे-जैसे एकदम रेत में फूल खिलने लग गये हैं, ऐसा हो जाता है फिर इंसान।
प्र१: इसी से ही जुड़ता हुआ एक सवाल था मन के अन्दर कि जैसे इसमें लास्ट (आख़री) में ये लाइन (पंक्ति) कोट (उद्धृत) की गयी थी कि यदि आप लकी होंगे अपनी ज़िन्दगी में, तो आपकी ज़िन्दगी में भी कोई चार्ली जैसा ज़रूर आएगा। पर औसतन जनरली (सामान्यतः) इतने लकी होते नहीं या होते भी हैं तो शायद वो मौकों पर, उन पर एक्ट (कार्य) नहीं कर पाते। जैसे, यहाँ पर चार्ली एक ऑप्शन (विकल्प) था। हो भी सकता था कि वो नहीं एक्ट (कार्य) करता उसके ऊपर।
आचार्य: मतलब उसको अपने घर में नहीं आने देता।
प्र१: नहीं आने देता अपने घर में। तो बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं, जो एक विशियस साइकिल (दुष्चक्र) बन जाता है उनकी ज़िन्दगी में कि प्रेम नहीं मिल रहा, तो देंगे भी नहीं। और वो उसी में फँसे-फँसे-फँसे रह जाते हैं उन्हें कोई भी रास्ता नहीं मिलता।
आचार्य: ये चीज़ एक तरह से प्राकृतिक है। ये प्राकृतिक है और इसी दुष्चक्र को तोड़ने के लिए फिर अध्यात्म होता है न। मैंने कहा, ‘तो संयोग पर नहीं फिर सिद्धान्त पर काम करना होता है। आध्यात्मिक आदमी ये अच्छे से जानता है कि ये बात व्यापार की नहीं है। ये बात लेन-देन की नहीं है कि अगर तुम मुझे दो रुपया दोगे तो ही मैं तुम्हें दो रूपया दूँगा। ये चीज़ ऐसी है, जिसमें अगर आप नहीं देंगे तो अपना नुक़सान करा लेंगे।
प्रेम ऐसी सम्पदा होती है जिसको अगर आप बाँटोगे नहीं, तो आपका घाटा हो जायेगा। न बाँटने पर घाटा हो जाता है, तो उसको रोकना नहीं चाहिए। उसको कभी भीतर लॉक करके नहीं रखना चाहिए। भले ही आपको बाँटने में ऐसा लगे कि जिसको आपने दिया उससे कुछ मिला नहीं वापस, कोई बात नहीं, अपना नुक़सान उस अर्थ में सह लीजिए। पर कहीं ज़्यादा बड़ा नुक़सान है कि आप बाँटे नहीं।
कबीरा आप ठगाइए, आन न ठगिए कोय। आप ठगे सुख होत है, आन ठगे दुख होय।।
आपको कोई ठग भी ले गया, कुछ नहीं बिगड़ गया। ये चीज़ ऐसी है, इसकी प्रकृति ऐसी है कि ये बढ़ जाती है, दे दो बढ़ जाएगी। नहीं गिनने चाहिए कि उस बन्दे ने मेरे साथ ग़लत कर दिया। जब वो ऐसा है तो मैं उसके साथ अच्छा क्यों करूँ? वो मेरे साथ बुरा है, तो मैं उसके अच्छाई क्यों करूँ? उसकी ख़ातिर नहीं, अपनी ख़ातिर करो। पर ये बात सूक्ष्म है, लोगों को समझ में नहीं आती। लोग इसमें भी स्थूल सिद्धान्त लगा देते हैं। जो रूपए-पैसे का या दुनियादारी का, चीज़ों का सिद्धान्त होता है वो लोग प्रेम में भी लगा देते हैं। कि जब दुनिया में कोई दो रूपया देता है, तो फिर हम उसको दो रूपया लौटाते भी हैं। यहाँ भी हम यही कहते हैं कि जब वो मुझे प्रेम नहीं दे रहा है, तो मैं क्यों दूँ? ऐसे नहीं चलता।
प्र२: आचार्य जी, मेरा एक सवाल है। इस पूरी पिक्चर में, जो एक चीज़ जो मुझे बहुत ज़्यादा अचरज हुआ वो ये था कि इसमें इसको मजबूर बहुत दिखाया गया कि पिक्चर के दौरान जब ये पहाड़ की चढ़ाई करने निकला चार्ली के साथ, तो कभी पैसे नहीं हैं जेब में, कुछ नहीं है। तो बैठे-बैठे रो रहा है। ये हमें ताक़त देता है कि ये बेकार की इमोशनालिटी (भावनात्मकता) देता है कि आदमी बैठा है, रो रहा है, सुबक रहा है, कुछ काम करने को तैयार नहीं है। क्योंकि...
आचार्य: नहीं, बैठे-बैठे रो कहाँ रहा था। उसको तो जब आर्मी ने भी रोक लिया तो वो अपना रास्ता बनाकर के लम्बा जंगल पार करके बर्फ़ पर चढ़ ही गया। बैठे-बैठे नहीं रो रहा है। रो रहा है, पर उस रोने से उसको ऊर्जा मिल रही है। रोने से, ऐसा नहीं है कि वो लकवा खा गया है और रोने के कारण वो अब बिलकुल ढुलक गया है और कुछ कर नहीं पा रहा है। उसने जो करा है कर्म के तल पर वो अच्छे-अच्छे लोग नहीं करके दिखा सकते।
वो दक्षिण भारत से कश्मीर अपनी बुलेट (दुचाकी) लेकर के चढ़ गया, अपनी नौकरी छोड़कर के और चन्द पैसों के साथ। तुम बताओ, बड़े-बड़े कर्मठ लोग ऐसा कर लेंगे क्या? ये सब, ये जो ताक़त होती है न, ये प्रेम की ताक़त होती है। और प्रेम जितना निस्वार्थ होता है उसमें उतनी गहरी ताक़त होती है। प्रेम में जहाँ स्वार्थ जुड़ा होता है, तो वहाँ जब आप स्वार्थ देखेंगे कि पूरा नहीं हो रहा है, तो प्रेम का बल भी फिर गिर जायेगा। आप कहेंगे, ‘इससे कुछ मिल तो रहा नहीं है, तो अब मैं कुछ क्यों करूँ इसके लिए?’
लेकिन जब प्रेम निस्वार्थ होता है, तो उसमें बहुत ताक़त आ जाती है। किस मौके पर तुमने देखा कि वो बैठे-बैठे रो रहा है? उसने तो जो भी चुनौतियाँ सामने आयीं उनका माकूल जवाब दिया है। उसके पास पैसे ख़त्म हो गए, उसने अपनी बाइक बेच दी। जितने भी तरीक़े के उपाय हो सकते थे, जोड़-तोड़ हो सकते थे, उसने सारे कर दिए।
प्र२: मतलब, मेरे को ये समझ नहीं आया कि जो मुश्किल आन पड़ी है।
आचार्य: पहले तो मुश्किल आन नहीं पड़ी है। पहले तो ये स्वीकार करो कि उसने बड़ी चुनौती उठाई थी जिसकी उसको कोई ज़रूरत नहीं थी। वरना वो भी आराम से घर बैठा रह सकता था। कुत्ते को कैन्सर है। वो कहता, ‘कुत्ते को मैं आराम से घर में ही केअर (देखभाल) दूँगा। मुझे क्या ज़रूरत पड़ी है उसको, पता नहीं दक्षिण में कहाँ से, कर्नाटक से, तमिलनाडु से वो कह रहा है कि मैं उसको लेकर जाऊँगा हिमाचल, कश्मीर। क्यों करेगा वो ये? इतनी बड़ी चुनौती सिर्फ़ प्रेम उठा सकता है। आम आदमी के बस की नहीं होती क्योंकि आम आदमी उसमें खोजेगा कि इसमें मेरा क्या, मुझे क्या मिल रहा है? और फिर कहेगा, ‘मुझे तो कुछ भी नहीं मिल रहा है। एक कुत्ते के लिए मैं इतनी मुश्किल क्यों उठाऊँ?’ तो वो लेगा ही नहीं ऐसा चैलेंज (चुनौती)।
देखो, प्रेम तुम्हारे जो नियमित ढर्रे हैं न, उनको तोड़ देता है। रूखे, बेजान आदमी को आँसुओं से भर देता है, गूँगे को आवाज दे देता है, बहुत बोलने वाले को चुप कर देता है, जो बहुत होशियार होते हैं उनको भोला बना देता है, जो बिलकुल बुद्धू होते हैं उनको होशियारी सिखा देता है। प्रेम का काम है जैसे भी तुम्हारे ढर्रे हैं उनको तोड़ देना। जो कभी नहीं बोलते, उन्हें प्रेम हो जाएगा, वो गाने लगेंगे। जो बहुत बकवास करते है, उन्हें प्रेम हो जायेगा, वो मौन हो जायेंगे। बस प्रेम निस्वार्थ होना चाहिए, सच्चा, निष्काम होना चाहिए। बाक़ी प्रेम के नाम पर अगर आप अपनी सतही इच्छाएँ पूरी कर रहे हो तो उससे कोई फ़ायदा नहीं होगा।
प्र२: मुझे लगता है, अभी आप जो बता रहे हैं तो समझ में आ रहा है। एक जगह वो दिखाता भी है कि उसको डर लगता है ऊँचाइयों से।
आचार्य: हाँ।
प्र२: अपने ही कुत्ते के लिए वो..
आचार्य: हाँ, हाँ, हाँ।
प्र२: उस पर चढ़ता है।
आचार्य: अब ये बिलकुल, ये वो व्यक्ति है जिसको ऊँचाइयों से डर लगता है। पर उसका कुत्ता है, वो बड़ी आस से देख रहा होता है, क्या बोलेंगे उसको ये जो उड़ते है?
प्र१: पैराशूट ।
आचार्य: पैराशूट के साथ ।
प्र२: पैरा ग्लाइडिंग ।
आचार्य: हाँ, पैरा ग्लाइडिंग है न एक तरह। पर उसने साथ में वो भी लगा रखी है उन्होंने एक...
प्र१: चेयर (कुर्सी)।
आचार्य: तो एक तरह की पैरा ग्लाइडिंग है। उसका कुत्ता बड़ी हसरत से देख रहा है उनको। वो कहता है, ‘मैं भी करा दूँ।’ वो लोग कहते हैं कि अकेले कुत्ते को तो नहीं बैठायेंगे। अब इस आदमी को उड़ने से हमेशा से डर है, पर अपने कुत्ते की ख़ातिर बैठ जाता है। तो प्रेम आपसे वो सबकुछ करा देता है जो आप अन्यथा नहीं करते। आप अपने डरों को भी जीत लेते हो प्रेम की ख़ातिर, वरना वो डर आपकी ज़िन्दगी में हमेशा बना रहता।
प्र१: एक भीतर ही एक आन्तरिक लड़ाई उसके भीतर जो है जो कैरेक्टर (चरित्र) था, उसके भीतर छिड़ गई थी। जैसे, अभी आपने कहा कि वो पैरा ग्लाइडिंग के समय भी डर लगता था, लेकिन उसके बावजूद भी वो चढ़ गया। पैसा नहीं है जेब के अन्दर, उसके बावजूद भी जो अपने थोड़े-बहुत एसेट्स (सम्पत्ति) हैं, उनको भी वो बेच-बाचकर के आगे बढ़ता जा रहा है, कोशिश करता जा रहा है। और उसको एक्चुअली (वास्तव में) काफ़ी वो जो उन्होंने कहा अभी कि रो रहा है, तो दुख हो रहा है, वो महसूस हो रहा है अभी कि नहीं ये ख़त्म हो रही हैं चीज़ें। पर उसके बावजूद वो उसके आगे जो है पर्स्यु (अनुनय) करता जाता है।
आचार्य: तो, प्रेम में ऐसा पागलपन आता ही है। और आप जो, आपका सामान्य तरीक़े का होश है, जब आप उस बिन्दु से प्रेम को देखेंगे तो प्रेम आपको बहुत बेहोशी की और बेवकूफ़ी की चीज़ लगेगी। आप कहेंगे, ‘ये आदमी क्या कर रहा है? अपनी ज़िन्दगी ख़राब कर रहा है। अच्छी ख़ासी इसकी नौकरी चल रही थी, ठीक-ठाक जी रहा था। इसने तो अपनेआप को एक कुत्ते की ख़ातिर बर्बाद कर लिया।’ पर वो बर्बादी है या उसी में जीवन का उत्कर्ष है, उसी में एक ऐसा आनन्द है जो कि एक आम आदमी को कभी नसीब नहीं होगा, ये सोचने की बात है। हालाँकि सोचकर नहीं समझ में आता ये, ये तो जो जिएँगे उन्हें ही ये बात समझ में आएगी।
प्र२: उसको वैसे अपने कर्मों का फल भी मिलता है। चलता रहता है, चलता रहता है, कोई-न-कोई आकर के उसकी कहानी लिख देता है। उससे ही उसको मदद आगे मिल जाती है।
आचार्य: बिलकुल मिल जाती है। तो क्योंकि देखो, ये चीज़ ऐसी है जिसके लिए पूरी दुनिया पागल है और जब आपकी ज़िन्दगी में उतरेगी न, तो आपको कुछ लोग तो ज़रूर मिलेंगे जो आपकी कद्र करेंगे। क्योंकि इस चीज़ के लिए ही तो पूरी दुनिया जी रही है। हम जन्म ही इसके लिए लेते है। तो अगर आपकी ज़िन्दगी में प्रेम है, तो बहुत लोग होंगे जो आपको बेवकूफ़ कहेंगे, पागल कहेंगे। लेकिन आपको ऐसे भी लोग मिलेंगे, जो उस प्रेम के कारण ही आपकी कद्र करेंगे। तो काम फिर उतना आपका मुश्किल भी नहीं रह जाएगा। आप पर मुसीबतें पड़ेंगी, सांसारिक क़िस्म की, लेकिन इधर-उधर से आपको बीच-बीच में सहायता भी आती रहेगी और उतनी सहायता पर्याप्त होती है।
देखो, पर्दे पर निस्वार्थ प्रेम दिखाने का ही तो ये जादू है न। दक्षिण भारत की फ़िल्म है, हिंदी में डब्ड है और हिंदी में भी सुपरहिट है। न इसमें रोमांस है, न आइटम नम्बर है, न अंग प्रदर्शन है, न फिजूल के एक्शन सीन्स (लड़ाई के दृश्य) हैं, न इसमें कोई मसाला है। कुछ भी इसमें ऐसा नहीं है जो किसी फ़िल्म को हिट बनाता है। एकदम सीधी, एकदम साधी फ़िल्म है। एक बन्दा है, वो भी बिलकुल रूखा। एक कुत्ता है, एक छोटी सी लड़की है और दो-चार अन्य पात्र हैं जो बीच-बीच में आते हैं, चले जाते हैं।
संगीत भी इस मूवी का कोई ऐसा नहीं है कि बिलकुल दिमाग पर चढ़ जाए और आप गीतों को गुनगुनाना शुरू कर दें। एडिटिंग (सम्पादन) की दृष्टि से देखें तो फ़िल्म ज़्यादा लम्बी है, थोड़ी छोटी होनी चाहिए थी। तो बहुत कुछ है, जो इस फ़िल्म को फ्लॉप (नाकाम) करा सकता था। बहुत कम लोग होंगे जो इसके हीरो का नाम भी जानते होंगे, कम-से-कम उत्तर भारत में। हिरोइन (नायिका) इसमें कोई है नहीं, तो फिर फ़िल्म चल क्यों रही है?
ये प्रेम का जादू है। लोग यही चीज़ देखना चाहते हैं। लोगों को ये मिल नहीं रहा है। लोग इसको सिर्फ़ देखना नहीं चाहते, लोग इसको जीना चाहते हैं, ये मिल नहीं रहा है। और ये बात हम समझते नहीं हैं कि सांसारिक सफलता के लिए भी आपको तड़क-भड़क नहीं चाहिए। सांसारिक सफलता में मान लो यही ले लें, मूवी इंडस्ट्री (फ़िल्म उद्योग) ही ले लें। तो ये लोग सोचते हैं, फ़िल्म हिट (सफल) तब होगी जब उसमें हम हर तरह का फूहड़पन डाल देंगे। या कि पचास तरीक़े के हम उसमें एनिमेशंस डाल देंगे, ये कर देंगे, वो कर देंगे। वी.एफ.एक्स. के दम पर ही तो चलेगी मूवी , यही तो माना जाता है? या कि स्टारकास्ट ऐसी होनी चाहिए कि लोग बिलकुल एकदम चौंधिया जाएँ।
प्र१: आपकी सेंसेस (इन्द्रियों) को जकड़ दें।
आचार्य: आपके सेंसेस को जकड़ दिया जाए और ये करके तीन सौ करोड़ की लागत से पिक्चर बनाएँगे, तब वो चलेगी। ये एक लो बजट मूवी (कम बजट की फ़िल्म) थी और इसमें कुछ भी ऐसा नहीं था, जो किसी मूवी को हिट बनाता है। और मूवी चल रही है, मज़े में चल रही है। ये प्रेम का ही तो जादू है!
प्र२: तो ये बात है! ये बात सच में ग़ौर फ़रमाने लायक़ है। ये बात तो बिलकुल है कि इस पिक्चर में हर एक वो गुण हैं जो उसको फ्लॉप कर सकते थे लेकिन ये सुपरहिट है।
आचार्य: ये सुपरहिट है और इस तरह की फ़िल्म शायद बॉलीवुड में बनती भी नहीं।
प्र२: नहीं, बिलकुल नहीं।
आचार्य: बनेगी भी नहीं। कई बातें थी इस पिक्चर में जो कि बॉलीवुड में पायी ही नहीं जाती हैं। अब उदाहरण के लिए इसमें यह भी दिखा दिया कि ये जो व्यक्ति है, जो दुनिया से बिलकुल उचटा हुआ है, वो व्यक्ति अन्त आते-आते लगभग धार्मिक हो जाता है। मन्दिरों में बैठकर के रो रहा है। एक, एक हार्ड बॉय (कठोर लड़का), एक मसल मैन (सुदृढ़ माँसपेशी वाला आदमी), एक माचो मैन (ताक़तवर आदमी), वो जाकर के मन्दिर में बैठकर के रो रहा है।
अब धर्म ऐसी चीज़ है जिसको लेकर के बॉलीवुड में तो कोई ख़ास सम्मान है नहीं। हाँ, जो कन्नड़ मूवीज़ हैं या तेलुगु, या तमिल वहाँ ज़रूर धर्म का जो सही रूप है उसका सही स्थान देते हैं, वो लोग। एक तरह से देखो अगर तुम, तो ये पूरी पिक्चर ही धार्मिक है क्योंकि करुणा पर आधारित है और करुणा तो धार्मिक मूल्य ही है। सांसारिक मूल्य नहीं है, भौतिक मूल्य नहीं है, मटीरियल वैल्यू (भौतिक मूल्य) नहीं है ‘कम्पैशन (करुणा)’।
आप एक, आप पहली बात तो एक आप सड़क के कुत्ते को अपने घर लाओगे क्यों? दूसरी बात, जब उसको कैन्सर हो गया है तो आप उसके लिए अपनी पूरी ज़िन्दगी दाँव पर लगाकर क्यों उसके साथ सड़क पर घूमना शुरू कर दोगे? ये किसी भी तरीक़े से एक साधारण सांसारिक काम तो है नहीं! एक कोई वर्ड्ली वैल्यू (सांसारिक मूल्य) नहीं है ऐसा करना। ये एक आध्यात्मिक काम ही है।
तो मैं कह रहा हूँ, ‘एक अर्थ में तो ये पूरी पिक्चर (फ़िल्म) ही आध्यात्मिक थी। आध्यात्मिक माने ये थोड़ी होता है कि बस यही दिखा दो कि एक आदमी बैठकर के ग्रन्थों का पाठ कर रहा है या कि वो मन्दिर में बस गया। अध्यात्म तो सही जीवन जीने की बात है न। जहाँ कहीं भी एक सही ज़िन्दगी (जिसमें करुणा होगी, प्रेम होगा) दिखाई जाएगी, वो कहानी आध्यात्मिक ही होगी।
हम समझते नहीं, हमने धर्म को धर्म के प्रतीकों से जोड़कर रख लिया है। हम सोचते हैं, ‘जहाँ धर्म के सब प्रतीक वगैरह दिखाई दे रहे हैं बात बस वहीं पर धार्मिक है।’ नहीं, बात वहीं नहीं धार्मिक है। जहाँ कहीं भी एक सही सच्चा जीवन दिखाया जा रहा है जो कि रुपए पैसे से ज़्यादा, सांसारिकता से ज़्यादा, स्वार्थ से ज़्यादा महत्व प्रेम को, सच्चाई को, करुणा को देता हो; वहाँ पर वो पूरी कहानी, वो पूरा सन्दर्भ, वो पूरी घटना आध्यात्मिक ही है।
प्र१: इसमें, आचार्य जी! ये कैसे है कि जैसे कोई व्यक्ति है। वो भीतर से बहुत सख़्त हो गया है और जो कुत्ता है वो प्रकृति है, पशु है। पशु के करीब आने से, प्रकृति के करीब आने से, उसके भीतर वो जो प्रेम है जिसको हम आध्यात्मिक मूल्य कहते हैं वो कैसे जगता है?
आचार्य: क्योंकि उसका अभी तक का अनुभव ये था कि दुनिया में जितने भी जीव हैं वो सब कपटी हैं और स्वार्थी हैं। ठीक है न। वो जिनसे भी मिल रहा है, देख रहा है कि वो किस तरीक़े के लोग हैं। ठीक है। और उनसे फिर किस तरह का व्यवहार मिल रहा है, कैसा व्यवहार मिल रहा है? छल का मिल रहा है, स्वार्थ का मिल रहा है।
अब आपको एक कुत्ता मिला है। कुत्ता बहुत ज्ञान नहीं जानता है, ठीक है। कुत्ते के पास कोई बहुत ऊँचे आदर्श या मूल्य नहीं है। लेकिन कुत्ते के पास कपट और छल भी नहीं है। तो दुनिया से आज तक आपको जो मिला है उसकी तुलना में कुत्ते से आपको जो मिल रहा है वो श्रेष्ठ है। तो फिर इसलिए आपके भीतर के ताले खुल जाते हैं।
उदाहरण के लिए, आप किसी इंसान को अपने घर लेकर आये हो अतीत में। और वो इंसान आपके घर रहा है और उसके बाद, उसके पास कोई अनुग्रह, ग्रेटिट्यूड (कृतज्ञता) नहीं है। इतना ही नहीं, वो आपके घर रहकर के किसी तरीक़े से आपसे और ज़्यादा लूटने या वसूलने की योजना बनाता रहा है। आपके ही घर में रहकर आपके साथ चालाकियाँ करता रहा है, तो आपका पुराना अनुभव ये रहा है। इस पुराने अनुभव ने आपको बना दिया है बिलकुल कठोर, सख़्त।
अब आप एक कुत्ता लेकर के आते हो। उस पुराने अनुभव की तुलना में अब कुत्ते के साथ आपका कैसा अनुभव है? कुत्ता आपके घर में रहता है, तो जैसे ही आप अपने घर में घुस रहे वो तुरन्त एकदम पागलों की तरह जाता है, आपके ऊपर चढ़ जाता है। ठीक है। कुत्ता आप पर सहज विश्वास करता है, आपकी गोद में सो जाता है, ठीक है न। कुत्ता आपसे छल-कपट नहीं कर रहा है। तो इस नए तरीक़े के व्यवहार से आपके सामने प्रमाण आ जाता है कि दुनिया में सब जीव कपटी ही नहीं होते। और उसी एक, उसी एक बिन्दु की तो हमें तलाश है न सबको, जहाँ कपट न हो, जहाँ गन्दगी न हो, जहाँ हर समय आपको डरा हुआ और सतर्क न रहना पड़ता हो।
प्र१: धोखे न हो।
आचार्य: जहाँ आपको हर समय ये डर न लगा रहता हो कि कोई धोखा कर जाएगा। वो जो कुत्ता है, वो आपको प्रमाणित कर देता है कि नहीं, हर रिश्ते में डरने की ज़रूरत नहीं है।
प्र१: कहीं-न-कहीं ये आपके भीतर जो श्रद्धा है, उसको इनवोक (आह्वान) करता है।
आचार्य: हाँ, हाँ, हाँ! अब जैसे, आपकी गोद में एक जानवर सो जाता है। अब वो जानवर कितना असुरक्षित है आपकी गोद में। सोचकर देखिए, वो छोटा जीव है, आपकी गोद में सो गया, कोई भी पशु हो सकता है। आप कुछ भी कर सकते हो उसके साथ, लेकिन उसको एक सहज विश्वास है कि आप कुछ ग़लत नहीं करोगे उसके साथ। ये आप जो देखते हो न, तो आपको एक सबूत मिल जाता है। आपके सामने वही चीज़ साकार हो जाती है, जो आप भी अपनी ज़िन्दगी में पाना चाहते हो।
कोई ऐसा, जिस पर आप पूरा विश्वास कर सको। अध्यात्म में उसको ‘नित्यता’ कहते हैं। कुछ ऐसा जो कभी बदलेगा नहीं। उस पर यकीन कर लो वो कभी धोखा देगा नहीं। तो उसकी झलक मिलने लग जाती है। मैं नहीं कह रहा हूँ कि कुत्ता आध्यात्मिक होता है, मैं नहीं कह रहा हूँ कि कुत्ता आपके प्रति नित्यता का व्यवहार रखता है।
प्र२: सिम्बोलिज्म (प्रतीकवाद) है, एक सन्देश है।
आचार्य: हाँ, लेकिन दुनिया जैसा आपके साथ रिश्ता रखती है, एक पशु उससे बेहतर रिश्ता रख सकता है आपके साथ क्योंकि पशु कम-से-कम छल कपट नहीं करता। और वही निश्चलता फिर आपके भीतर का ताला खोल देती है।
प्र२: एक और चीज़ जो आपसे सुनते-सुनते एकदम सामने आयी। कुत्ता उसकी ज़िन्दगी में आता है तो सबकुछ उलट-पुलट कर देता है। उसकी जो रोजमर्रा की ज़िन्दगी है। मतलब नाक में दम कर देता है। न सोने का रहता है, न खाने का रहता है, न पीने का रहता है।
आचार्य: और वो कितनी बार सोचता है कि मैं इस कुत्ते को अपने घर से निकाल दूँ। बहुत समय तक वो यही चाहता रहता है, कोई आकर के इसको ले जाए लेकिन कुत्ता टरने का नहीं होता। और ये जो चीज़ है, कि इसमें भी तुम देखो, बात क्या है? इसमें बात ये है कि तुम मुझे निकालना चाहते हो, मैं नहीं निकलूँगा, मैं नहीं निकलूँगा! बात रेसिप्रोसिटी (आदान-प्रदान) की या बराबरी की नहीं है। तुम मुझे अपने घर से निकाल रहे हो लेकिन मेरी ओर से तो साहब रिश्ता प्रेम का ही रहेगा। ये कुत्ता कह रहा है।
प्र१: हक़ का है।
आचार्य: हक़ का है। कुत्ता कह रहा है, ‘तुमने मुझे घर से निकाल दिया लेकिन मैं अपनी ओर से प्रेम कम नहीं करूँगा।’ समझ रहे हो! तो ये देखो, ये ऐसा युग है जिसमें आपको साधु सन्त तो मिलते नहीं, साधु सन्त अगर मिलते होते तो आपको और ऊँची कोटि के प्रेम का अनुभव होता। अब साधु सन्त तो मिलते नहीं, लेकिन आम दुनिया से आपको जो व्यवहार मिलता है उससे बेहतर प्रेम का अनुभव तो आपको एक कुत्ता दे देता है।
ये किसी और युग में बनी होती अगर फ़िल्म, तो इसमें ये दिखाते कि इस व्यक्ति को एक सन्त मिल गया और उस सन्त ने इस व्यक्ति में प्रेम जाग्रत कर दिया। ठीक है न। लेकिन सन्त दिखा कहाँ से देगा? ये तो कलयुग है। तो, लेकिन इस कलयुग में जो आम लोग हैं उनसे बेहतर एक कुत्ता है, ये बात है और कुत्ता उपलब्ध है। ठीक है। तो सन्त के माध्यम से आज आपमें प्रेम नहीं जाग्रत हो सकता, तो चलो कुत्ते के माध्यम से हो जाएगा। ये है कुल मिला-जुलाकर के बात।
प्र१: और ये काफ़ी खूबसूरत भी है क्योंकि ईवन (यहाँ तक की) जो इसका टाइटल (शीर्षक) ‘पुरंदर’ मैगज़ीन के अन्दर दिया गया था। वो काफ़ी मतलब सोच-समझकर के चीज़ें रखी गयी थीं। जैसे एंडिंग (समाप्ति) भी है, जहाँ पर मन्दिर पर एंडिंग हो रही है। या फिर जो उसका ट्रेवल गाइड (यात्रा मार्गदर्शक) था, उसका नाम भी था धर्मराज इन कलयुग (कलयुग में धर्मराज), तो हर एक चीज़...
आचार्य: जो अन्तिम दृश्य है, जिसमें बर्फ़ पर मन्दिर है और उसी मन्दिर में, मन्दिर के सामने बैठकर के, उसके हाथों में, उसके कुत्ते की मौत होती है। वो बड़ा आध्यात्मिक दृश्य है। वो यही बता रहा है कि ये जो आख़िरी... निर्देशक ने यही सन्देश देना चाहा है कि ये जो दृश्य है, ये अध्यात्म का है। धर्म की ओर इशारा कर रहा है। जैसे पूरी फ़िल्म ही धार्मिक है। तो आख़िरी दृश्य तो ये होना-ही-होना था कि मन्दिर में उसके हाथों में उसके कुत्ते की मौत होती है। और फिर कैमरा त्रिशूल की ओर चला जाता है। त्रिशूल जिसका इशारा आसमान की ओर है, आकाश की ओर है।
प्र१: ऐसी मूवीज़ (फ़िल्में) देखने के बाद एक थोड़ा सा भीतर से, अन्दर से जैसा आपने कहा कि आपको एक मॉडल मिल जाता है, या अन्दर एक होप (आशा) जग जाती है। क्योंकि हर एक व्यक्ति जो है, सख़्त तो होता ही है, डिग्रीज में वैरी (अलग होना) करता है। कुछ-न-कुछ आपके भीतर होता है जो आप जकड़े हुए या पकड़े हुए रहते हो और वो आपके व्यक्तित्व को एकदम बिलकुल दबाकर के रखता है।
आचार्य: आप उसे भीतर जकड़कर, रोककर इसलिए रखते हो क्योंकि आपको डर होता है कि अगर अपनेआप को आपने खोल दिया, अगर अपनेआप को आपने दूसरे को दे दिया कुछ। देखो, क्या होता है न जब तुम अपने दरवाज़े खोलते हो किसी को कुछ देने के लिए, तो दरवाज़ा दोनों ओर से खुलता है। आप एक दरवाज़ा खोलोगे, आपने दरवाज़ा खोला है कि आप अपने भीतर का प्रेम दूसरे को देना चाहते हो। लेकिन अब वो बाहर की दिशा से भी दरवाज़ा खुल गया है न। अब बाहर से भी उसमें कुछ भीतर आ सकता है।
आपको ये डर होता है कि मैं तो दरवाज़ा खोलकर के अपना प्रेम दूँगा और बाहर वाले ने अगर छल दे दिया, धोखा दे दिया तो? इस डर के कारण आप अपने द्वार बन्द ही कर लेते हो। वो नहीं बन्द करने चाहिए। ये जो चोट लग सकती है, वो चोट खाने को तैयार रहना चाहिए। तुम शब्द इस्तेमाल कर रहे थे ‘वल्नरेबिलिटी (भेद्यता),’ वो रहनी चाहिए, उसमें कोई बात नहीं। तू धोखा दे दे कोई बात नहीं, हमारी ओर से निस्वार्थ प्रेम है तो है। और यही बात फिर परम प्रेम पर लागू होती है।
देखो, जब आप सच्चाई को प्रेम करते हो न, जब आप ऊँचाइयों को प्रेम करते हो ज़िन्दगी की, तो आवश्यक नहीं है कि उससे आपको सुख मिले, दुख भी मिल सकता है। और ज़्यादातर लोग जब वो कोई ऊँचा काम करने निकलते हैं और उसमें चोट लगती है, दुख मिलता है, तो उस ऊँचे काम को छोड़ देते हैं। अपनेआप को बन्द कर लेते हैं। वो कहते हैं, ‘सच्चाई-ऊँचाई की तरफ़ बढ़ोगे तो चोट लगती है। तो अब हम कभी सच्चाई, ऊँचाई को आदर, महत्व नहीं देंगे।’ ये ग़लत है।
सही काम में कितनी भी चोट लगती रहे अपने दरवाज़ा बन्द मत करना। चोट खाते रहना, अपना प्रेम कायम रखना और सही काम में देखो चोट तो लगेगी ही लगेगी। क्योंकि सही काम का मतलब ही ये होता है कि उसकी ओर बढ़ोगे तो तुम्हारे पुराने ढर्रे टूटेंगे, तो तुम सही काम करो और उसमें सुख मिल जाए, ऐसा तो होना नहीं है। जो सही काम करेगा, उसको तो ज़्यादा सम्भावना यही है कि आघात ही मिलेगा। हाँ! फिर धीरे-धीरे वही आघात आनन्द बन जाता है।
प्र१: ताक़त बन जाता है।
आचार्य: आपकी ताक़त बन जाता है। वो है न कि, “मुश्किलें इतनी मिलीं कि आसान हो गईं”। वो चोट खाते-खाते आपको चोटों का अनुभव होना ही बन्द हो जाता है। आप चोट खाते-खाते पाते हो कि आपके भीतर की शक्ति जाग्रत हो गई है। जैसे कि शक्ति को जाग्रत करने का और कोई तरीक़ा ही नहीं था, चोट खाने के अलावा। और ये एक, एक उसूल है, ये एक सिद्धान्त है कि शक्ति को अगर जाग्रत करना हो भीतर की, तो अपनेआप को चोटों के सुपुर्द कर दो।
आप में कितना बल है, आप जानते ही नहीं। वो बल लेकिन जाग्रत ही तभी होता है, जब आप सही काम के लिए चोट खाने को तैयार हो जाते हो। देखो, ग़लत काम के लिए चोट खाओगे तो वो चोट आपको तोड़ देगी। सही काम के लिए चोट खाओगे तो वही चोट आपको बना देगी। लेकिन ये कुछ समय बाद पता चलता है। कुछ समय तक तो ऐसा ही लगता रहता है कि अरे यार! घाटे का सौदा हो गया। देखो नेकी करने निकले थे और?
प्र२: मुँह काला करा लिया।
आचार्य: मुँह काला करा लिया या घाटा करा लिया या जो भी नुक़सान हो सकते हैं, वो नुक़सान हो गए। तो फिर इंसान इस तरह के दो-चार जब अनुभव ले लेता है, चोट खाने के। तो फिर वो कहता है कि अब मैं ज़्यादा होशियारी दिखाऊँगा।
प्र२: रूठ जाता है।
आचार्य: वो ज़िन्दगी से रूठ जाता है, अपने भीतर-भीतर वो कुटिल हो जाता है। उसको वो कहता है, ‘होशियारी’। ये कौनसी होशियारी है जिसमें तुम ज़िन्दगी से रूठे हुए हो, जिसमें तुम्हारे पास अब कोई भीतरी नमी नहीं बची। मुर्दा सा जीवन जी रहे हो। हाँ, और इस मुर्दा से जीवन का लाभ ये मिल रहा है कि तुम्हें अब सांसारिक सफलता मिलने लग गयी क्योंकि अब तुम बाक़ी लोगों से ज़्यादा चालाक हो गए हो।
प्र२: ऐसा लग रहा है, जैसे आप 00:40:42 की बात कर रहे हैं।
आचार्य: हाँ! आप ज़्यादा चालाक हो गए हो, तो अब आप दुनिया के आगे बढ़ने लगे हो, दुनिया पर राज करने लग गए हो। तो लेकिन वो पूरा सौदा है नुक़सान का ही। उससे कहीं बेहतर है कि ऊपरी नुक़सान करा लो, अन्दरूनी मुनाफ़ा मिलता रहेगा।
प्र२: लेकिन ये डगर काफ़ी मुश्किल लगती है। डर लगता है, ऐसा लगता है कि छोटी सी ज़िन्दगी है, इसमें निकल तो गए बर्फ़ की ओर!
आचार्य: और बर्फ़ पर ही मर गए तो?
प्र२: “न माया मिली न राम।” अनसर्टेनिटी (अनिश्चितता) बहुत है, आचार्य जी।
आचार्य: हाँ! देखो, राम की तलाश में अगर माया के तल पर नुक़सान होता है, तो समझ लो वो नुक़सान ही राम का प्रसाद है। ‘राम’ तुम कब कहोगे कि मिले? कह रहे हो न, “माया मिली न राम”। कैसे जानोगे कि राम मिले? जब माया मिलनी बन्द हो जाए, तो जान लो राम मिल गए। तो ‘माया मिली न राम’, इसमें ‘माया’ नहीं मिली, यही तो ‘राम’ का मिलना है। जब माया का मिलना कम होने लग जाए, तो जान लो ये अब राम का मिलना शुरू हो गया है। राम का अनुग्रह है कि अब माया तुम्हारी ओर आती नहीं।
प्र१: उसकी कामनाएँ अन्दर से वो भी...
आचार्य: हाँ! देखो, कई बार ऐसा होता है, कामना मिट गयी माया की, इसलिए माया नहीं आ रही। और कई बार ऐसा भी होता है कि माया ताड़ लेती है कि अब तुम्हारा दिल राम के साथ लग रहा है।
प्र२: तो वो तुम्हारे पास ख़ुद ही नहीं आती।
आचार्य: तो माया तुमको अस्वीकार करना शुरू कर देती है। माया जब तुम्हें अस्वीकार करना शुरू कर दे, तो इसको अपना सौभाग्य मानना कि अब ये मेरी तरफ़ आती नहीं है।
प्र२: ये सुनने में बहुत सही शब्द शायद नहीं है, ‘सेल्फ अशोरिंग (स्वयं आश्वस्ति)’ है ये। लेकिन जब सामने जीवन खड़ा होता है और डर का सामना करना पड़ता है, पैर थरथरा रहे होते हैं, गला सूख रहा होता है, तो लगता है- भैया (अस्पष्ट) [43:00], तो कोई बात नहीं।
प्र१: तभी शायद श्रद्धा की ज़रूरत होती है।
आचार्य: श्रद्धा की ज़रूरत होती है और तभी तो उसने कहा न कि ख़ुद तुमसे होगा नहीं। तुम्हें लकी होना चाहिए कि तुम्हारे जीवन में चार्ली जैसा कोई आ जाए और वो तुमसे ज़बरदस्ती प्रेम उगाह ले।
प्र१: मजबूर हो जाओ।
आचार्य: तुम मजबूर हो जाओ प्रेम करने के लिए। तभी तो उसने कहा कि लक (भाग्य) चाहिए। अगर तुम्हारे हाथ में रही चीजें, तो तुम तो नारियल जैसे ही बने रहोगे सख़्त-सख़्त। तुम्हारे भीतर का पानी सूख ही जाना है तुम्हारे भीतर ही। तो एक फिर लक चाहिए कि जीवन में कुछ ऐसा अपनेआप आ जाए, अनायास आ जाए जिसके सामने तुम बेबस हो जाओ।
प्र२: बाहर से कोई फोड़ दे।
आचार्य: हाँ! जिसको फ़िल्म में वो लक कह रहे थे, उसी को अध्यात्म में ‘ग्रेस (अनुग्रह)’ कहते हैं, अनुकम्पा।
प्र२: लेकिन ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे पिक्चर काफ़ी ज़्यादा मीठी लगी। मुझे ऐसा लगा कि वो ज़्यादा ही भावनाएँ इस पिक्चर में थीं। तो थोड़ी सी कभी-कभार...
आचार्य: कड़वेपन की इतनी आदत नहीं डालनी चाहिए। कड़वेपन की इतनी आदत नहीं डालनी चाहिए कि जीवन के रस, जीवन के रस की सहज मिठास भी बिलकुल अझेल लगने लगे। भाव अगर निष्कामता से आ रहा है, तो भाव बहुत ऊँची बात होती है। इमोशंस (भावनाओं) में बुराई तभी है, जब वो इमोशन तुम्हारी छिछोरी, उथली, पापी, स्वार्थी वृत्ति से उठ रहे होते हैं, तब भाव ख़तरनाक हो जाते हैं। वही बार-बार कहता हूँ कि ऐसे भावों से बचना चाहिए और ज़्यादातर हमारी भावनाएँ वैसी ही होती हैं।
प्र२: सर, यही बात मुझे अखर रही थी कि भावनाएँ बहुत-बहुत ज़्यादा थीं।
आचार्य: ज़्यादातर हमारी भावनाएँ वहीं से आती हैं, लेकिन भाव एक शुद्ध केन्द्र से भी आ सकता है। भाव एक निस्वार्थ केन्द्र से भी आ सकता है और भाव अगर एक निस्वार्थ केन्द्र से आ रहा है, तो बहुत ऊँची, बहुत पूज्य बात होती है। भाव जब निस्वार्थ केन्द्र से आता है तो पूरी दुनिया का भला करता है। जब उस कुत्ते की मौत भी हो गई तो उसके बाद देखो, उस भाव का परिणाम क्या है? कि फिर उसने एक एनिमल रेस्क्यू सेंटर (पशु संरक्षण केन्द्र) खोल दिया। समझ रहे हो न! देखो, आगे चलकर के उससे कितनी रोशनी फैल रही है।
तो भाव हमेशा भीतरी अन्धेरे से नहीं निकलते, भाव भीतरी रोशनी से भी उठ सकते हैं, फिर वो बाहर भी रोशनी फैलाते है। लेकिन वैसे भाव विरल होते हैं, बहुत कम होते हैं। तो सतर्क रहना पड़ता है भावनाओं से। लेकिन एक, एक ज्ञानी है, एक आत्मज्ञानी है; क्या उसके पास भावनाएँ नहीं होती हैं? बहुत होती हैं।
सन्तों ने तो जितने आँसू बहाए हैं, उतने आम संसारी के लिए सम्भव ही नहीं हैं। रूखा है एक आम संसारी। उसके पास उतनी नमी है ही नहीं। रोए तो सन्त हैं और सन्त ही आत्मज्ञानी भी है। तो ज्ञान से भी आँसू निकल सकते हैं, जब ज्ञान से आँसू निकालते है, तो उन आँसुओं की उपेक्षा नहीं करनी चाहिए, न उन आँसुओं को हेय मानना चाहिए।
जब ज्ञान से आँसू निकलते हैं तो वो बहुत ऊँची बात होती है। और वास्तव में, बेटा अगर आपका ज्ञान ऐसा है कि उससे जीवन में नमी नहीं आ रही है। आपका ज्ञान ऐसा है कि उसने आपकी आँखों को बंजर कर दिया है, उनमें कभी आँसू नहीं आ पाते। तो ये आपका ज्ञान बड़ा गड़बड़ है, ख़तरनाक है ऐसा ज्ञान। वास्तविक ज्ञान जीवन को हरीतिमा से भर देता है।
कबीर बादल प्रेम का, हम पर बरसा आई। अंतरि भीगी आतमा, हरी भई बनराई।।
बड़े से बड़े जिस ज्ञानी को मैं जानता हूँ। वो बात कर रहे हैं, ‘प्रेम के बादल के बरसने की‘। पर फिर जाहिर सी बात है, ये वो प्रेम नहीं है जिसको हम आमतौर पर ‘प्रेम’ कहते हैं। वो जिस प्रेम की बात कर रहे हैं वो दूसरा प्रेम है। वो उस प्रेम से भी ऊँचा है, जो आप अभी इस फ़िल्म में देखकर आ रहे हैं। उससे भी ऊँची कोटि का प्रेम है वो। ख़ैर वो तो फिर बहुत दूर की कौड़ी हो जाती है।
हमारे लिए तो अभी इतना ही प्रेम बहुत बड़ी बात है कि जिसमें आप एक जानवर को भी निस्वार्थ होकर चाह सको। हम इतना गिर गए हैं कि आज हमें प्रेम सीखने के लिए भी पशुओं के पास जाना पड़ेगा। क्योंकि एक जानवर का प्रेम हमारे प्रेम से कहीं बेहतर है। एक जानवर का प्रेम हमारे प्रेम से ऊँचे तल पर होता है। उसमें छल, कपट, स्वार्थ ज़रा कम होता है।
प्र१: एक यह चीज़ काफ़ी बार देखी है कि जानवरों के करीब आने से जनरली (सामान्यतः) लोगों में सेंसिटिविटी (संवेदनशीलता) थोड़ी बढ़ जाती है। चीजों के प्रति, अपने काम के प्रति, उनके (जानवरों) प्रति स्पेसिफिकली (विशेष रूप से), तो जानवरों के प्रति ही। तो शायद यह काफ़ी ज़रूरी भी है कि लोग अपने जीवन में जानवरों के साथ थोड़ा समय जो है बिताया करें।
आचार्य: और जब आप जानवरों के साथ समय बिता रहे हो, तो थोड़ा सा आप यह भी ख़याल कर लो कि प्राण एक ही जानवर में नहीं होते हैं। जीव, तो जीव है न! अब यहाँ पर ये फ़िल्म भी चूक गई है। इसमें कई जगहों पर दिखाया है कि कुत्ते मछली खा रहे हैं या चिकन खा रहे हैं, ये सब हैं।
प्र१: वो ख़ुद व्यक्ति भी खा रहा है।
आचार्य: वो ख़ुद व्यक्ति भी खा रहा है। ये अब यहाँ पर आकर के, जो जिस कोटि का यहाँ प्रेम दिखाया है, वो फिर रुक जा रहा है। फिर इसके आगे और ऊँचे प्रेम की बात होती है जिसमें आपमें इतनी संवेदना जागृत हो गयी है कि आप कहें कि मैं ये कैसे कर सकता हूँ? कि मैं एक पशु से तो इतना प्रेम दिखा रहा हूँ और दूसरे पशु को मारकर खा रहा हूँ।
कुछ दिनों पहले वो वीडियो हुआ था न अपना प्रकाशित कि ‘प्यारे डॉगी (कुत्ते) को चिकन खिलाओ’। वो एक चीज़ है। फिर उसके आगे, फिर जो काम है वो सन्तों का, ऋषियों का होता है कि वो आपको और ऊँचे प्रेम की ओर ले जाएँ, जहाँ पर ऐसा ही न हो कि एक जीव से तो आपको प्रेम है और दूसरे जी को आप मारकर खा रहे हो।
प्र१: और ये था भी क्योंकि स्टार्टिंग (शुरुआत) में उस तरीक़े से उसको दिखाया गया था, बट (लेकिन) एंड (आखिरी) में आते-आते, जब वो एनिमल रेस्क्यू सेंटर (पशु संरक्षण केन्द्र) ओपन (खोलना) करता है, तो वो स्पेसिफिकली डॉग्स (विशेष रूप से कुत्तों ) के लिए नहीं था।
आचार्य: हाँ! हाँ, उसमें सब तरह के जीव थे, तो प्रेम ऐसे ही करता है। वो आपको चेतना की एक ऊँचाई से दूसरी तक ले जाता है। जैसे-जैसे आपका प्रेम गहराता है न, वैसे-वैसे वो फैलता भी है। जैसे-जैसे उसमें गहराई आती है, वैसे-वैसे फैलाव भी आता है। एक जीव से भी अगर आप गहरा और सच्चा प्रेम कर सकें, तो आप पाओगे कि जो दुनिया भर के बाक़ी जीव हैं, आपके लिए सम्भव नहीं रह जाएगा उनके प्रति भी हिंसक रहना। एक कुत्ते से भी अगर आपको सच्चा प्यार हो जाए, तो दुनिया भर के बाक़ी जीवों के लिए भी आपमें फिर करुणा आ ही जाएगी।
प्र२: 00:52:18 दबकर देखो तो अगर जानवरों की ही बात करो तो ज़्यादा कोई पास जाता है, तो वो उसको भी डाँट देता है। तुम्हारे पास रोटी नहीं है तो बहुत समय बाद कुत्ता भी आना बन्द कर देता है। दुनिया तो ताक़त पर ही चलती है। यहाँ पर ताक़त नहीं है तो उसको कोई लाभ मिलता ही नहीं।
आचार्य: हाँ! पर कुत्ते का प्रेम बिलकुल आख़िरी, अल्टीमेट (अन्तिम) बात नहीं है। जो बात है, वो ये है कि कुत्ते का प्रेम उन लोगों के प्रेम से तो बेहतर हैं न, जिनको अगर रोटी डाल भी दो वो तब भी तुम्हारे साथ कपट करते हैं।
प्र२: हाँ, उनसे तो बेहतर ही है।
आचार्य: दूसरी बात, कुत्ता आपसे बहुत कुछ नहीं माँगता, बहुत कुछ नहीं माँगता। मालिक अगर भूखा है तो वो मालिक के साथ भूखा भी सो लेता है बहुत समय तक। ऐसा नहीं है कि आपने उसे रोटी नहीं दी दो दिन, तो वो आपको छोड़कर भाग ही जाएगा। फ़िल्म में दिखा रहे थे न कि उसे वो नए घर में भेज देते हैं, ठीक है! नए घर में तो हो सकता है कि बेहतर खाना-पीना मिलता हो उसको।
प्र१: बेहतर सुविधा भी मिलती हो।
आचार्य: नहीं, पर ऐसा होता भी है। आप अपने कुत्ते को किसी दूसरी जगह भेज दो, इतनी आसानी से वो वहाँ पर एडजस्ट (समायोजित) होता नहीं है। भले ही वहाँ उसे बहुत अच्छा खाना-पीना मिल रहा हो।
प्र२: यह भी तो हो सकता है कि वो बस एक कंडीशनिंग (संस्कार) है जिसको बाहर करने में थोड़ा समय लगेगा।
आचार्य: ऐसी कंडीशनिंग जो निस्वार्थ हो, भली है न। कुछ समय के लिए भी अगर वो, कुछ समय के लिए भी अगर वो निस्वार्थ प्रेम को याद रख रहा है, तो वो उस स्थिति से तो बेहतर है न जहाँ पर वो, जैसा कि इंसानों में होता है। कि कोई आपको दो दिन न याद रखे। या कि दो दिन याद रखने की बात तो छोड़ो कि कोई आपके द्वारा किए गए उपकार के बदले में आपको?
प्र२: आपको शुक्रिया भी न बोले।
आचार्य: आप, शुक्रिया बोलना भी छोड़ दो, आपको छुरा ही मार दें। तो उस स्थिति से तो कहीं बेहतर है न कुत्ते का प्रेम। हम नहीं कह रहे हैं कि कुत्ते का प्रेम परम प्रेम है या कि जो आध्यात्मिक प्रेम होता है उस तल का है। हम ये तो नहीं कह रहे हैं लेकिन जैसा आपको संसार में लोग मिलते हैं, उससे बेहतर दर्शाया गया है इस फ़िल्म में कुत्ते के प्रेम को, बस इतनी सी बात है।
अब उदाहरण के लिए, आप किसी को अगर रोटी देते हो तो इससे उसके लिए आवश्यक थोड़ी हो जाता है कि वो पूरे तरीक़े से अपनेआप को असुरक्षित छोड़कर आपकी गोद में सो जाए! वो ये भी तो कह सकता है कि चलो रोटी मिल रही है तो मिल रही है लेकिन मैं अपनी सिक्योरिटी (सुरक्षा) का तो ध्यान ख़ुद ही रखूँगा न। ये जो मुझे रोटी दे रहा है इसका क्या भरोसा है। ये कोई ग़लत आदमी हो तो!
प्र२: असल में हम देखते हैं कि दुनिया चलती है ताक़त पर। तो फिर ऐसा लगता है कि ताक़त पर ही चलकर...
आचार्य: देखो, अगर ये ऐसे करने लगोगे न, कि मैं जहाँ बहुत सारा स्वार्थ देखूँगा और जहाँ थोड़ा सा स्वार्थ देखूँगा, मैं उन दोनों को एक बराबर करके बोल दूँगा, ‘अरे! सभी स्वार्थी हैं, पूरी दुनिया ही स्वार्थी है।’ तो तुम्हारा ही फ़ायदा नहीं होगा। क्योंकि तरक़्क़ी तो थोड़ा-थोड़ा करके तुलनात्मक रूप से ही की जाती है। जहाँ तुम्हारा बहुत गहन और बड़ा गन्दा स्वार्थ हो, उसको छोड़कर के अपने स्वार्थ को कम किया जाता है। जो कम स्वार्थी है, उसको अपना आदर्श बनाया जाता है। ये नहीं करा जाता कि आप स्वार्थ की दलदल में नीचे गहरे धँसे हुए हो और उसके बाद आप सिर उठाओ और देखो कि एक आदमी है, वो पूरा साफ़ है।
प्र२: आइडियलिज्म (आदर्शवाद) हो गया ये तो।
आचार्य: आइडियलिज्म कहाँ से हो गया? आप ख़ुद तो धँसे हुए हो दलदल में। आप आइडियलिस्ट (आदर्शवादी) होते तो ख़ुद क्यों धँसे होते? ये आइडियलिज्म नहीं है, ये बेवकूफ़ी है।
प्र२: ये बेवकूफ़ी है। वही मैं कह रहा हूँ कि आप सिर्फ़ और सिर्फ़ ऐसा कह रहे हो कि मैं तो साफ़ से साफ़ हूँ। ऐसा नहीं हो सकता।
आचार्य: और आप ख़ुद कैसे हो?
प्र२: आप ख़ुद इतने मलिन हो। आप बस ये देखो कि आपसे साफ़ कौन है?
आचार्य: आप बस ये देखो कि जो आपसे साफ़ है, वो आपके लिए ठीक हो गया। अब आप इतने गन्दे हो कि जो आपसे साफ़ है उस पर तोहमत लगाना आपको शोभा देता नहीं है।
प्र२: बल्कि ये चालाकी है गन्दा रहने की।
आचार्य: हाँ! ये चालाकी है गन्दा रहने की, कि जो मुझे मिल गया, जिसके कपड़ों पर मुझे कीचड़ का एक छोटा छींटा भी दिख गया तो मैं कहूँगा, ‘गन्दा तो मैं भी हूँ, गन्दा तो वो भी है।’ यह वैसी सी बात है कि परीक्षा हो, किसी के तीस प्रतिशत नम्बर आएँ और किसी के निन्यानवे प्रतिशत नम्बर आएँ। तो तीस प्रतिशत वाला तर्क दे, ‘सौ प्रतिशत तो न मेरे आए हैं, न उसके आए हैं, तो हम दोनों बराबर हैं क्योंकि न उसके सौ प्रतिशत आए, न मेरे सौ प्रतिशत आए। हम दोनों ही अपूर्ण हैं। मेरे तीस आए, उसके निन्यानवे आए। सौ तो किसी के नहीं आए न। तो तीस और निन्यानवे बराबर हैं। ये तर्क कैसा लगा?
प्र२: ये मतलब बेवकूफ़ी है ये तो।
आचार्य: हाँ! ये तर्क तीस को तीस पर ही रखेगा, बल्कि उसे पच्चीस पर ले आ देगा। तो इसलिए जो अपने से ऊपर हो उस पर आक्षेप लगाने की वृत्ति नहीं रखनी चाहिए। ये करना चाहिए कि उससे सीखो। हाँ, ये याद रख लो उसमें भी कुछ दोष हैं। और उन दोषों को अगर याद रखोगे तो उस निन्यानवे वाले के प्रति तुममें सम्मान बढ़ेगा ही।
तुम कहोगे, इसका मतलब दोषों से वो भी जूझा है, इसका मतलब जैसे मुझे दोषों से परेशान होना पड़ता है, वैसे उसे भी परेशान होना पड़ा है। मगर उन दोषों के रहते हुए भी वो निन्यानवे तक पहुँच पाया। ये बात उसको और सम्माननीय बना देती है। ये बात तो उस व्यक्ति के महत्व को कम नहीं कर देती। ये बात उसका महत्व बढ़ा देती है।
प्र२: आचार्य जी, एक और सवाल मन में उठा है कि प्रेम का मतलब मात्र मीठापन तो नहीं होता न। ऐसा तो नहीं है कि आपके सामने राक्षस आए या फिर कोई सन्त आए, तो आप एक समान व्यवहार दीजिये कि भैया, इसके भी पैर छुए, उसके पैर छुए। जैसे कह रही हैं कि एक गाल पर थप्पड़ पड़े तो दूसरा भी आगे कर दो। तो प्रेम में विवेक का क्या स्थान है?
आचार्य: नहीं, प्रेम का मतलब यह नहीं होता है कि तुम सबसे मीठा-मीठा व्यवहार कर रहे हो। प्रेम वो है, जो सच्चाई की ओर ले जाए, मुक्ति की ओर ले जाए। ठीक है।
जो सामने वाले की अशुद्धि दूर करके उसकी सच्ची भलाई कर दे, वो प्रेम है।
तो आपके सामने अगर कोई आ गया है दुष्ट आदमी, तो उसकी बुद्धि ठिकाने लगाना ही उसकी तरफ़ प्रेम है। आपके सामने कोई आ गया है जो बिलकुल बुद्धि-भ्रष्ट है, तो ऐसे आदमी को दंड देना भी ‘प्रेम’ कहला सकता है। क्योंकि दंड देकर ही उसका भला होगा। प्रेम क्या है? सामने वाले के प्रति वो व्यवहार, जिससे सामने वाले का भला होता हो। अगर उसका भला उसको दंड देने से होता है, तो ये भी प्रेम है। समझ रहे हो? तो प्रेम का मतलब यहीं नहीं होता कि मीठा-मीठा कर रहे हो।
रूखा हो जाने का क्या मतलब है? प्रेमहीन हो जाने का क्या मतलब है? अब ये बात बहुत ध्यान देने की है। प्रेमहीन हो जाने का मतलब होता है कि अगर मेरे सामने दुष्ट आ रहा है, तो मैं उसको दंड भी नहीं दूँगा। मेरे सामने अगर कोई ग़लत बात बोल रहा है, तो मैं उसको ठीक नहीं करूँगा। मैं कहूँगा, ‘मरे, इसकी मर्ज़ी! अगर ये ज़िन्दगी में कोई ग़लत दृष्टिकोण रख रहा है तो अपनी ज़िन्दगी ख़राब करे, मुझे क्या लेना-देना।
तो तीन चीज़ें होती हैं कि आप सामने वाले से मीठा व्यवहार करो। एक होता है, आप सामने वाले से कड़वा व्यवहार करो और एक होता है कि आप सामने वाले को देखो और बोलो, ‘मुझे क्या, मैनू की?’ इनमें जो सबसे घटिया चीज़ होती है, वो ये होती है, ‘मैनू की, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है, मुझे क्या फ़र्क़ पड़ता है’ ये रूखेपन की पराकाष्ठा है। अगर आप सामने वाले को सुधारने के लिए उससे कड़वा व्यवहार भी कर दो, तो ये भी प्रेम है। लेकिन अगर आप सामने वाले को बिगड़ा हुआ देखो और आप बोल दो, ‘मेरा क्या जाता है, मैं इससे क्यों उलझूँ, मैं क्यों अपना समय बर्बाद करूँ उसको सुधारने में भी?’ तो ये है अप्रेम, गहरा अप्रेम, गहरा रूखापन, ये है हिंसा। लेकिन लोग ये समझते नहीं। लोग सोचते हैं कि प्रेम सिर्फ़ तब है, जब आप…
प्र२: जीओ और जीने दो।
आचार्य: जीओ और जीने दो, या फिर मीठा बोलो। वो कहते हैं कि अगर मीठा बोल रहे हो, तो प्रेम है। साथ ही साथ अगर आप किसी को उसकी मनमर्ज़ी करने दे रहे हो, तो वो भी प्रेम है। लेकिन अगर आपने किसी को कड़वा बोल दिया, तो वो प्रेम नहीं है। बात बिलकुल उल्टी है, ये बिलकुल सम्भव है कि कड़वा बोलने में सबसे ज़्यादा प्रेम हो और ज़्यादातर जैसे लोग हैं दुनिया में, उनको ज़रूरत ही यही कि उनके साथ कोई कड़वा बोले।
और ये प्रेम का बड़ा ऊँचा प्रदर्शन होगा, कि आपको कोई मिल जाए जो ये परवाह न करे कि आपसे उसका रिश्ता ख़राब तो नहीं हो जाएगा या आप कहीं उससे नाराज़ होकर कोई बदला वगैरह तो नहीं लेने लगेंगे, आप कहीं चोट खाकर पलटकर उस पर वार तो नहीं कर देंगे, उसको भी चोट तो नहीं दे देंगे? वो ये सब परवाह ही न करे। वो कहे कि साहब जो सामने व्यक्ति खड़ा है उसके प्रति मेरी ज़िम्मेदारी यही है कि अगर वो कुछ ग़लत कह रहा है या ग़लत जी रहा है, तो मैं उसको टोकूँ, सुधारने की नीयत से टोकूँ। ये प्रेम हुआ, ये प्रेम हुआ।
और जो सबसे, सबसे ज़्यादा रूखी, कठोर और हृदयहीन बात होती है वो यही होती है कि मैनू की? मेरा क्या जाता है, मैं क्यों किसी के फटे में टाँग अड़ाऊँ। ये सबसे गड़बड़ बात है। दुर्भाग्य से इसी गड़बड़ बात को अब हमने नाम दे दिया है ‘पर्सनल फ्रीडम (व्यक्तिगत स्वतन्त्रता)’ का। हम कहते हैं, ‘साहब ये उसका प्राइवेट स्पेस (निजी स्थान) है, पर्सनल लाइफ़ (व्यक्तिगत जीवन) है। मैं उसमें हस्तक्षेप क्यों करूँ?’ ये जो बात है न कि सामने वाले की पर्सनल लाइफ़ है, मैं उसमें क्यों कुछ बोलने जाऊँ। ये बात बहुत अप्रेम की है, ये लवलेसनेस (प्रेमहीनता) है। मैं ये नहीं कह रहा कि सामने वाले के मुद्दों में इसलिए टाँग अड़ाओ क्योंकि तुम अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहते हो या तुम चाहते हो कि वो तुम्हारी तरह बन जाए। समझ रहे हो न!
लेकिन अगर आप सामने वाले को पाएँ कि वो अपना नुक़सान कर रहा है और आपको साफ़ दिख रहा है कि वो जो कुछ कर रहा है वो ठीक नहीं है, उसी के लिए ठीक नहीं है। और फिर आप जाकर उसको टोक दें, ज़रूरत पड़े तो डाँट भी दें, तो ये बात प्रेम की ही है। प्रेम का रूप न तो इसमें है बहुत कि आप मीठा-मीठा बोलो, न ही प्रेम इसमें है कि आप गिरे हुए को गिरने दो, बिगड़े हुए को मनमर्ज़ी करने दो या उसकी कामनाएँ पूरी कर दो बिगड़ी हुई।
प्रेम तो देखो सामने वाले की चेतना को उठाने में है। सामने वाले का भला इसी में है कि उसके मन का स्तर उठाया जाए। उसकी बुद्धि ज़रा साफ़ की जाए, उसकी चेतना को ऊपर खींचा जाए। तो अगर आपका सामने वाले से ऐसा व्यवहार है जो उसकी चेतना को ऊपर उठा देता है, सिर्फ़ तभी आप कह सकते हैं कि आपको उससे प्रेम है। नहीं तो आप प्रेम के और मिठास के नाम पर उसको हो सकता है, ज़हर ही दे रहे हों, आपको सावधान रहना होगा।
प्र२: आचार्य जी, आपको सुनकर एक अजीब सा डर पैदा हो रहा है कि आजकल भला करने वालों की कमी नहीं है। और हर कोई अपनी दुनिया में अपने हिसाब से भलाई का एक मापदंड लेकर चलता है। तो जिस हिसाब से आपने जो बताया कि आप दूसरे के जीवन में उतरें, उसके जीवन में हस्तक्षेप करें, उसके लिए मेरे हिसाब से ये बहुत ज़िम्मेदारी का काम है।
आचार्य: बहुत ज़्यादा ज़िम्मेदारी का काम है। और ज़िम्मेदारी दूसरे के प्रति तो क्या है, सबसे पहले तो अपने प्रति है न! आपके भीतर आपकी दोनों तरह की ताक़तें हैं। ठीक है! आपको अन्धेरे में खींचने वाली भी ताक़त है और आपको उठाने वाली भी ताक़त है। सबसे पहले तो आपको ये निर्णय साफ़-साफ़ करना होगा कि भीतर की किस ताक़त को आपको ऊपर बढ़ाना है, किसको नीचे बढ़ाना है। जब आप ये जान जाएँगे कि आपके भीतर कौन-सी चीज़ समर्थन देने लायक़ है और कौन-सी चीज़ दबाने लायक़ है, तभी तो आप सामने वाले के मामले में भी ये निर्णय कर पाएँगे न कि क्या है उसके भीतर, जिसको मैं समर्थन दूँ और क्या है जिसका मैं विरोध करूँ?
अगर आपको अपनी ही ज़िन्दगी में कुछ होश नहीं है, आपको ख़ुद को लेकर कोई आत्मज्ञान नहीं है, तो आप दूसरे को आप क्या सीख दोगे। फिर तो आप दूसरे के प्रति प्रेम का ही प्रदर्शन करोगे, तो वो घातक हो जाएगा। तो ले देकर देखो फिर बात तो इस पर आ गयी न कि तुममें आत्मज्ञान है या नहीं है; और वही पहली बात और आख़िरी बात होती है। प्रेम तो आत्मज्ञान की पदचाप है, प्रेम आत्मज्ञान की छाया जैसा है। आत्मज्ञानी के पीछे-पीछे प्रेम आ जाता है। और अगर आप आत्मज्ञानी नहीं हैं और फिर भी आप प्रेम दर्शाना चाहते हैं, तो ऐसा प्रेम बड़ा ज़हरीला हो जाता है।
दुनिया में ऐसे प्रेमियों की कमी नहीं है। वो माँ-बाप हो सकते हैं, वो पति-पत्नी हो सकते हैं, दोस्त-यार हो सकते हैं, जो कहते हैं, ‘साहब, हमें बहुत प्रेम है इस बन्दे से।’ लेकिन उनके प्रेम ने उस बन्दे का सत्यानाश कर दिया होता है। तो इसलिए प्रेम ज़रा बाद में आता है, होश थोड़ा पहले आता है। साथ-ही-साथ यह भी सही है कि अगर अनुकम्पा हो और आपको कोई मिल जाए जो आपसे सच्चा, निस्वार्थ प्रेम करता हो, तो आपमें होश जग भी जाता है।
प्रेम होश जगाने का काम कर सकता है लेकिन उसके लिए फिर आपको बहुत—जैसा फ़िल्म कह रही थी— लकी होना पड़ेगा। आप उसका इंतज़ार नहीं कर सकते, तो ज़्यादा जो सटीक तरीक़ा है, वो ये है कि आप अपनेआप को जगाएँ पहले, पहले होश में आएँ, फिर इधर-उधर प्रेम के पाँव पसारें। क्योंकि अगर आपको होश नहीं है और आप ज़्यादा प्रेम की उड़ान ले रहे हो, तो वो जो प्रेम है वो सबके लिए घातक हो जाता है।
प्र२: नरक है।
आचार्य: हाँ! क्या है न, बहुत लोगों को लगता है, ‘प्रेम तो प्राकृतिक है साहब, प्रेम सीखना थोड़ी पड़ता है’। और दुनिया में इससे बड़ा झूठ नहीं हो सकता कि प्रेम प्राकृतिक बात है। जिसको आप प्राकृतिक प्रेम बोलते हो वो नर्क है। जो असली प्रेम है वो चेतना की ऊँचाई से आता है, वो सीखना पड़ता है। जिसको आप प्राकृतिक प्रेम बोलते हो वो तो एक केमिकल रिएक्शन (रासायनिक अभिक्रिया) है। वो प्रेम नहीं है, वो गहरा स्वार्थ है और उसमें कष्ट ही कष्ट है, दोनों पक्षों के लिए नर्क है।
जो प्रेम आपको वास्तव में उठाता है वो प्रेम तो बहुत, बहुत सीखने के बाद आता है, बड़े अनुशासन से आता है, बड़ी साधना से आता है। वो प्रेम ऐसे बैठे बिठाए नहीं आ जाएगा कि साहब हम अब एक उम्र के हो गए हैं, तो इसलिए अब हममें प्रेम उठने लग गया है। ये प्रेम जो उम्र के साथ आता है, ये तो बड़ी नारकीय चीज़ है। ये तो घटिया है, इसमें दुर्गन्ध आए ऐसी चीज़ है ये। वास्तविक प्रेम, वास्तविक प्रेम जिससे चेतना की सुगन्ध उठती है वो अनुशासन से, मूल्य चुकाकर के, कष्ट सहकर के सीखनी पड़ती है।
प्र२: वैसे आप नेकी की बात कर रहे थे, तो एक निजी सवाल है, जो लगातार मेरे मन को कचोटता है और बहुत बार कचोटता है। वो यह है कि कहाँ तक किसी के जीवन में आप उतर सकते हैं? क्योंकि आपके पास भी ऊर्जा और समय सीमित है और आपको लगातार यह लगता रहता है कि शायद इस ऊर्जा और समय का और बेहतर इस्तेमाल हो सकता था। कभी-कभार यह भी अन्दर से एक आशंका उठती है कि शायद तुम्हारा ये निजी रिश्ता है इसीलिए तुम चाह रहे हो कि...
आचार्य: देखो, अगर कोई ऐसा मिल गया है जो भले ही चेतना के तल पर बहुत नीचे है, पर ऊपर उठने में उत्सुकता दिखा रहा है। तो उसको ये कहकर नहीं छोड़ना चाहिए कि इससे ज़्यादा सुपात्र मुझे दूसरे लोग मिल जाएँगे जो ज़्यादा तेज़ी से सीखेंगे और मैं अपनी ऊर्जा उन पर लगाऊँगा। ठीक है! कोई अगर मिल गया है और वो किसी भी गति से ऊपर उठ रहा है, तो उसको छोड़ना नहीं चाहिए।
हाँ! अब वो ऊपर उठना ही न चाह रहा हो बिलकुल, एकदम ही न उठना चाह रहा हो बल्कि वो अपने साथ-साथ औरों को भी नीचे धँसाना चाह रहा हो, तो फिर उसका त्याग कर सकते हो। कह सकते हो कि ये व्यक्ति अभी इस समय योग्य नहीं है। आगे हो सकता है इसका समय आए। जब आगे इसका समय आएगा तो हम इसको फिर से सिखा देंगे या फिर से इससे व्यवहार करेंगे। अभी इस व्यक्ति का समय नहीं आया है। तब उस समय के लिए तुम उसको त्याग सकते हो।
तो ये तो पहला सिद्धान्त हुआ कि जो व्यक्ति तुम्हारा हाथ पकड़कर के थोड़ी भी गति से ऊपर उठ रहा हो, उसका हाथ मत छोड़ो और दूसरा सिद्धान्त ये है कि जो व्यक्ति अभी तुम्हारा हाथ नहीं पकड़े है, दूर है, लेकिन पूरी निष्ठा दिखा रहा है, पूरा भाव दिखा रहा है, समर्पण दिखा रहा है कि उसे ऊपर उठना है। तुम्हारा हाथ कितना भी घिरा हुआ हो, कितना भी बँधा हुआ हो, उसका हाथ ज़रूर पकड़ लो। ये तर्क मत दो कि मैं पहले ही छह लोगों को ऊपर खींच रहा हूँ, ये सातवें के लिए मैं ऊर्जा और समय कहाँ से लाऊँगा? वो सातवाँ अगर सुपात्र है, तो उसको ले आओ। तो जिनका हाथ तुमने पहले से पकड़ रखा है, उनके लिए सिद्धान्त ये है कि जाँचो कि ये थोड़ा बहुत भी ऊपर उठ रहे हैं या नहीं उठ रहे हैं? उनके साथ ये सिद्धान्त लगाना है।
प्र२: थोड़ा बहुत उठ रहे हैं या नहीं उठ रहे हैं।
आचार्य: थोड़ा बहुत उठ रहे हैं या नहीं उठ रहे हैं। अगर उठ रहे हैं, तो उन्हें छोड़ना मत। और जो नए लोग तुम्हारे सामने आ रहे हैं, उनमें ये जाँचो कि क्या इनमें ऊपर उठने की निष्ठा है। और अगर पाओ कि उनमें ऊपर उठने की निष्ठा है, तो तुम कितने भी व्यस्त हो, तुम्हारी ऊर्जा कितनी भी कम बचती हो, छह का हाथ अगर तुमने पहले पकड़ रखा है, तो सातवें का भी पकड़ लो। लेकिन ये, ये जो शर्तें हैं, इनको पहले लगाकर के फिर निर्णय करना।
प्र२: बार-बार ऐसा लगता है कि एक व्यक्ति एक इकाई ही तो है। मात्र एक माटी का ढ़ेला जैसा मैं हूँ, वैसे ही वो है। फिर ये बात भी याद आती है कि [1:11:38] मूसा (अस्पष्ट) अपने हाथ में पकड़ा होता, अपने हाथ में पकड़ा होता तो शायद मैं भी कहीं किसी कीचड़ में रोल (लुढ़क) रहा होता। लेकिन फिर शायद आपकी जो बात कही है, पहले शायद उस पर अमल करके फिर मेरे पास वापिस आना ज़्यादा उचित रहेगा। जो मैं आगे बोलूँगा उस पर मैंने काम किया नहीं है।
आचार्य: ज़िन्दगी में और कुछ नहीं है जो इसे जीने लायक़ बना सके। प्रेम ही है जो ज़िन्दगी को ज़िन्दगी बनाता है। और प्रेम ही है जो ज़िन्दगी को मौत से भी बदतर बना देता है। सब निर्भर इस पर करता है कि तुम्हारे प्रेम की गुणवत्ता कैसी है। निर्भर इस पर करता है कि तुम प्रेम के नाम पर क्या कर रहे हो। कि तुम्हारी ‘प्रेम’ शब्द की परिभाषा क्या है? सही और ऊँची परिभाषा है, तो प्रेम जीवन को अमृत कर देगा। और तुम्हारे प्रेम की ही परिभाषा अगर ग़लत हो गई, तो प्रेम जीवन को हम कह रहे हैं, मृत्यु से भी बदतर बना देगा।
जीवन में यदि एक चीज़ है जिसके लिए तुम्हें बहुत आतुर होना चाहिए, दीवाना होना चाहिए वो है ‘प्रेम’। और जीवन में यदि एक चीज़ है जिसके विरुद्ध तुम्हें बहुत सतर्क होना चाहिए, जिससे तुमको बहुत बचकर रहना चाहिए वो भी है ‘प्रेम’। जितना तुमको आतुर होना चाहिए प्रेम के लिए, उतना ही तुमको सतर्क भी होना चाहिए प्रेम के विरुद्ध। सही है तुम्हारा प्रेम, तो जी उठोगे और ग़लत हो गया प्रेम, तो ज़िन्दगी के नाम पर मौत चल फिर रही होगी।
दीवानों की तरह चाहो और ज्ञानियों की तरह परखो। दोनों बातें एक साथ ज़रूरी हैं।
वास्तव में, दीवानगी के बिना जीने में कोई मजा नहीं है। लेकिन अगर दीवानगी है बस और ज्ञान नहीं है, तो ये दीवानगी अभिशाप बननी है, खा जाएगी तुमको। ऐसा दीवानापन चाहिए जो ज्ञान से उठता हो।
प्र२: प्रेम के पारखी हों, जैसे कोई हीरा तलाश रहा हो।
आचार्य: हाँ! उस हीरे के बिना जी नहीं सकते, लेकिन उस हीरे के नाम पर अगर कंकड़ पत्थर बटोर लिए तो मौत भी माँगोगे तो मिलेगी नहीं।
प्र२: रूखे और हो जाओगे।
आचार्य: हाँ, रूखे और हो जाओगे।