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प्रयत्न करने का अर्थ क्या? || योगवासिष्ठ सार पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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अपने प्रयत्न के सिवा और कोई तुम्हें सिद्धि देने वाला नहीं है।

—योगवासिष्ठ सार

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रयत्न करने का क्या अर्थ है?

आचार्य प्रशांत: प्रयत्न से यही तात्पर्य है जिसकी हम बात कर चुके हैं – उचित कर्म। कोई कितना भी सिखा ले, अंततः जीना तो तुम्हे स्वयं ही है न? जीवन की तो तुम्हारी अपनी ही धारा होगी जो तुम्हारे ही ह्रदय से उठेगी और बहेगी। उस भाषा को पढ़ते वक़्त आप लगातार याद रखिए कि कौन बोल रहा है और किससे बोल रहा है, फ़िर उसमें दुविधा नहीं आएगी।

प्र२: किसी ज्ञानी ने ही कहा है कि सब कुछ मात्र हो रहा है, प्रवाहमान है। लेकिन वशिष्ठ कह रहे हैं कि जो उद्योग छोड़कर भाग्य पर भरोसा करते हैं, वे अपने ही दुश्मन हैं। इसमें विरोधाभास शायद नहीं है लेकिन मुझे क्यों नज़र आ रहा है?

आचार्य: जो होना है, वो तो हो रहा है। प्रश्न यह है कि क्या हम उस होने से सहमति में हैं? कोई स्वास्थ्य का विवरण दे सकता है आपको, कोई बता सकता है आपको कि बीमारियाँ सारी झूठी हैं, लेकिन उससे क्या आपने बीमारी की जो धारणा बना रखी है, वो हल हो जाएगी, शांत हो जाएगी?

सत्य का निष्पादन भर कर देने से असत्य में हमारी धारणा, हमारा विश्वास मिट तो नहीं जाता न? हाँ, नदी बह रही है, लेकिन नदी के भीतर जैसे छोटे-छोटे कंकड़-पत्थर हों, नन्ही धाराएँ हों जिनको यह यकीन हो कि उनका नदी के कुल विराट प्रवाह से बहुत लेना-देना नहीं है, उनकी तो अपनी ही किस्मत है, उनका तो अपना खंडित भाग्य है, वे अपने ही भरोसे हैं। तो उनकी धारणा तो उनके साथ है न?

जब आप कहते हैं कि एवरीथिंग इज़ जस्ट हैप्पनिंग (सब कुछ बस हो रहा है), तो क्या इस बात की पुष्टि आपके जीवन से होती है?

हमारा तो खेल उलटा है न? सत्य हमारे लिए धारणा है, सत्य हमारे लिए एक मान्यता है, कांसेप्ट है। हाँ, जीवन का एक विराट, विशुद्ध प्रवाह है, पर हम उसमें थोड़ी जीते हैं। वो प्रवाह हमारे लिए सिर्फ एक बात है, एक कहानी है, एक मान्यता है। और जो हमारी मान्यता है, हम उसमें जीते हैं, वो हमारे लिए सत्य है। हम तो आर्यवचनों को या महावाक्यों को किसी तरीके से अपनी सुविधा के लिए इस्तेमाल करते हैं।

आप खेल में उतरेंगे, आप पूरी कोशिश करेंगे कि आप किसी तरह जीत जाएँ। जब आप नहीं जीत पाएँगे तो अपने-आप को आप बहलाएँगे यह कहकर कि ये तो बस खेल है, ये तो बस यूँ ही रहा है? आप जीत गए होते तो भी क्या अपने आप को यही कहते? तब आप कहते कि एवरीथिंग इज़ जस्ट हैप्पनिंग ? तब तो आप कहते, "न, बड़ा काम हुआ है। जीत मिली है और मैंने हांसिल की है।” फ़िर जो हो रहा है, उसको आपने भाग्य से क्यों जोड़कर देख लिया?

आपके शब्द कहते हैं कि जो उद्योग को छोड़कर भाग्य पर भरोसा करते हैं, वे अपने ही दुश्मन हैं। यह बात आपको विरोधाभासी लग रही है? आपकी बात को अगर समझें तो आप जीवन के सरल और निरंतर प्रवाह का सम्बन्ध भाग्य से जोड़कर देख रहे हैं। उसमें भाग्यवादिता थोड़े ही है। भाग्य का तो अर्थ होता है कि मनुष्य का जीवन पूर्वनिर्धारित है। न यह किसी ग्रन्थ ने कहा है, न किसी गुरु ने कहा कि आदमी का जीवन पूर्वनिर्धारित है। यह बात सिर्फ आदमी ने कही है और अपने भगोड़ेपन में कही है।

मैं पुनः खेल का उदाहरण लेता हूँ। आप जीत जाते हैं तो थोड़े ही कहते हैं कि जीत पूर्वनिर्धारित थी। जब कुछ बुरा हो जाता है आपके साथ, तब आप कहने लगते हैं कि भाग्य का फेर है, कर्मों का लेखा है, किस्मत में यही बँधा था, आज हारना लिखा था।

’एवरीथिंग इज़ जस्ट हैप्पनिंग’ का अर्थ होता है कि जो कुछ भी हो रहा है, उसका कोई अर्थ नहीं है; वो बस है। अर्थ आगे पीछे में निकाला जाता है, अर्थ कार्य-कारण में निकाला जाता है। जो है, वो बस है सामने। जो सामने है, या तो उसी में सत्य देख लो या उलझे रहो उसका कारण खोजने में। कारणों में सत्य को नहीं पाओगे।

फूल की सच्चाई तुम्हे फूल के इतिहास में जाकर नहीं पता चलेगी। या तो इतनी गहरी और प्रेमपूर्ण तुम्हारी दृष्टि हो कि फूल को देखा और एक नज़र में ही बात कौंध गई। वो कोई बात होती नहीं है, वो कोई सिद्धांत नहीं होता कि तुम्हे समझ में आ जाएगा। बस एक कौंधना होता है, बस जैसे आकाश में बिजली की एक तेज़ मार। तो या तो सामने समझ में आ जाएगा, अन्यथा तुम बैठे गणित लगाते रहो, हिसाब करो, गवेषणा करो, कोई राज़ खुल नहीं जाना है। उसका भाग्य से कोई लेना-देना नहीं है। कहीं का तुक कहीं से मत जोड़िए।

उद्योग शब्द, जैसा कि वशिष्ठ उसका इस्तेमाल कर रहे हैं, उसका सही अर्थ समझिए। आपका उद्योग यही है कि आप प्रवाहमान रहें। यह एक तरीके का अनुद्योग है। उद्योग जब कह रहे हैं वशिष्ठ तो उससे उनका आशय है उचित कर्म। और उचित कर्म वो है जिसमें आपकी कम-से-कम सहभागिता हो—कम-से-कम सहभागिता और ज़्यादा-से-ज़्यादा समर्पण।

प्र३: कई बार खूब प्रयत्न के बावजूद भी परिणाम नहीं निकलते, जैसे किसी परीक्षा में सफलता इत्यादि। इसके फलस्वरूप गहरी निराशा और आत्मग्लानि होती है। निराशा छा जाती है और आगे प्रयत्न करने का मन भी नहीं करता है। तब क्या करें?

आचार्य: जिन्हें मिलता है, उन्हें दोनों ओर से मिलता है। जो गँवाते हैं, वो दोनों ओर से गँवाते हैं।

हम जैसा प्रयत्न करते हैं, वो प्रयत्न निवेश होता है। उस प्रयत्न में जैसे आप कुछ खो रहे होते हैं, खो रहे होते हैं पाने की चाह में। आप कहते हैं कि "आज श्रम कर रहा हूँ, आज अपना चैन खो रहा हूँ, आज अपना विश्राम खो रहा हूँ, कल इसके बदले में अपेक्षित परिणाम मिलेगा।” तो जब परिणाम आपके मन के अनुकूल नहीं आता तो दोहरी चोट पड़ती है। ऐसा लगता है कि जैसे हाथ की पूँजी तो गँवाई और परिणाम के रूप में कुछ हाथ न आई।

परिणाम हज़ार बातों पर निर्भर करते हैं, इसीलिए उनमें हमेशा कुछ-न-कुछ अप्रत्याशित ज़रूर रहेगा। किसी छोटी-से-छोटी बात के परिणाम को ले करके भी आप कभी सौ प्रतिशत आश्वस्त नहीं हो सकते। इसका अर्थ यह है कि चोट खाने की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी अगर आप परिणामों पर निर्भर हैं। परिणाम कभी भी पलट सकता है। परिणाम सदा भविष्य में है और भविष्य अनंत कारणों की निष्पत्ति है। उन सब कारणों को आप कभी जान नहीं पाने वाले।

तो करा क्या जाए? करा यह जाए कि जो चैन आप परिणाम से पाना चाहते थे, वो चैन आप प्रयत्न में पाओ। जिस आनंद की उम्मीद आपको भविष्य से थी, वो आनंद आप वर्तमान से ही ले लो। अब आगे से माँगने की बहुत ज़रूरत नहीं है, जो चाहिए था, वो अभी ही मिल गया है। और अगर खेल ऐसा खेलोगे कि अभी जैसे पूँजी लगाते हो और आगे उससे कमाने की उम्मीद रखते हो, तो आगे कमाने वाली चीज़, आगे कमाने वाली बात, आगे कमाने वाली आशा, उम्मीद पूरी हो, न हो, इसका कभी कुछ पक्का नहीं रहने वाला।

तो ज़रा चतुर बनो, ज़रा होशियारी से खेलो। जो आगत से चाहते हो, वो वर्तमान से ही ले लो। प्रयत्न ऐसा रखो कि परिणाम से कुछ माँगने को बाकी न बचे। प्रयत्न में ही अपने आपको पूरा फूँक डालो, पूरा झोंक दो। वो जो खड़ा रहता, बाकी रहता, भिखारी की तरह हाथ पसारे रहता, आगे से उम्मीद बाँधे रहता, उसको पूरा प्रयत्न में ही भस्म कर डालो।

कोई शक्ति ही तो होती है न? कोई इच्छा ही तो होती है न? ऊर्जा ही तो बची होती है, मन ही तो बचा होता है जिसने अपने-आप को बचा कर रखा होता है, शेष रखा होता है भविष्य के लिए? उस ऊर्जा को, उस मन को भविष्य तक जाने ही मत दो। उससे कहो, "तेरे पास है अगर अभी कुछ बचा हुआ तो प्रयत्न में ही लगा दे न, परिणाम के लिए क्यों बचाकर रखता है?"

वो आनाकानी करे तो उसे तर्क दो, "प्रयत्न में जितना अपने आप को झोंक देगा, परिणाम की उम्मीद उतनी बढ़ेगी न? तो परिणाम के लिए बचा मत रह। उद्योग में, कर्म में अपने आप को आखिरी बूँद तक आहुति बना दे। सब कुछ झोंक दे।” वो पूछेगा, “क्यों?” तो उसको बोलो, "सब कुछ झोंकेगा तो परिणाम अच्छा आएगा।”

मज़ेदार बात यह कि अब सब कुछ झोंक दिया तो उसके बाद अब परिणाम कैसा भी आए, उस परिणाम को भोगने वाला, उस परिणाम से आशान्वित या हताश होने वाला अब कोई बचा ही नहीं। अच्छा परिणाम आया तो उससे खुश होने के लिए कौन बचा? बुरा परिणाम आया तो उससे निराश होने के लिए कौन बचा?

जैसे कोई रात भर मेहनत करे कि सुबह खूबसूरत हो। अब सुबह कैसी भी हो सकती है। खूबसूरत हो सकती है, बदरी भी छा सकती है, कोहरा भी हो सकता है, दुर्घटना भी हो सकती है। पर तुम रात भर इतनी मेहनत करो कि जब सुबह आए तब तुम थककर सो चुके हो। परिणाम देखा किसने? अंजाम देखा किसने?

हमें जो अंजाम से चाहिए था, वो हमें प्रयत्न में ही मिल गया। अंजाम अगर बुरा लग रहा है तो इसका अर्थ है कि प्रयत्न पूरा नहीं था। अंजाम अगर अच्छा लग रहा है तो भी इसका अर्थ यही है कि प्रयत्न पूरा नहीं था।

जो जमकर खेलते हैं, जो डटकर खेलते हैं, जो डूबकर खेलते हैं, वो जीत का उत्सव मनाने के लिए शेष नहीं बचते। अगर किसी को जीत का उत्सव मनाता पाओ तो जान लेना कि उसकी जीत सिर्फ संयोग है, ऐसा संयोग जो आज जीत बनकर सामने आ रहा है, सुख बनकर सामने आ रहा है, कल दुःख बनकर सामने आएगा।

प्र१: और जिस प्रयत्न में स्वयं को छोड़ने में कठिनाई हो, द्वंद हो, वो उचित कर्म है ही नहीं।

आचार्य: वो उचित कर्म है ही नहीं, बहुत बढ़िया।

प्र४: आचार्य जी, उचित कर्म में भी द्वंद हो सकता है, जैसे कई बार ऐसा लगता है कि सही कर रहा हूँ या नहीं।

आचार्य: द्वंद उचित कर्म थोड़े ही है, द्वंद तो तब है न जब उचित कर्म के सामने अनुचित कर्म खड़ा हो गया है। द्वंद के लिए तो दो चाहिए होते हैं।

प्र४: अगर हम नहीं जानें कि ये उचित कर्म है या नहीं है।

आचार्य: द्वंद तो तब है न जब मन खड़ा हो गया है रास्ते में। उचित कर्म तो द्वंद का कारण नहीं है न? उचित कर्म के प्रति आपका जो विरोध है, वो द्वंद है। वो विद्रोद कहाँ से आता है? विरोध यहीं से आता है कि कर्म यदि ये हो गया, तो कर्म तो हो जाएगा, पर मेरा क्या होगा? काम तो ये बढ़िया है, पर अगर ये हो गया तो इस कर्ता का क्या होगा?

प्र१: उचित कर्म व्यक्तिगत जैसा कुछ नहीं हो सकता?

आचार्य: व्यक्तिगत होता भी है, नहीं भी होता है। एक तल पर तो वो व्यक्तिगत लगेगा ही क्योंकि उसका माध्यम तो व्यक्ति ही है, लेकिन व्यक्ति की आमतौर पर जो अपेक्षाएँ होती हैं, कर्म को ले करके जो धारणाएँ होती हैं, वो आपको उस कर्म में नहीं दिखेंगी।

करता हुआ तो व्यक्ति दिखेगा, लेकिन उस कर्म के होने से व्यक्ति को कोई वैसा लाभ नहीं हो रहा होगा जिसे आप व्यक्तिगत कह सकें। ऐसे कह लीजिए कि कर तो हम रहे हैं, पर इसको करने से हम न बढ़ रहे हैं, न बच रहे हैं। हाँ, यह ज़रूर हो सकता है कि इसके होने से हम घट जाएँ, लेकिन ये तो पक्का है कि इसके होने से हमारी बढ़त नहीं है, हमारा बचाव नहीं है।

दूर से देखेंगे तो व्यक्तिगत ही लगेगा। संतों पर भी लगातार ये आक्षेप तो लगे ही हैं कि वो अपनी व्यक्तिगत महत्वकांक्षा के लिए बोले हैं, गाए हैं या लोगों को समझाएँ हैं। उन पर भी आरोप तो लगे ही हैं कि तुम अपना नाम बढ़ाना चाहते हो, अपना नया समुदाय, अपना नेतृत्व चमकाना चाहते हो। तुम जो कुछ कर रहे हो, व्यक्तिगत है। दूर से देखो तो व्यक्तिगत ही लगता है।

प्र१: इसको अगर संसार की दृष्टि से समझना चाहें, जैसे एक काम है ‘अ’ और एक काम है ‘ब’। ‘अ’ में व्यक्ति को बड़ा आनंद है, डूबा हुआ है, वो नहीं विचार कर रहा कि क्या हो रहा या नहीं हो रहा है। किन्तु ‘ब’ कार्य के करीब भी जाता है तो थोड़ा रुकता है, उसमें डूब नहीं पा रहा है। कह सकते हैं कि ‘अ’ कार्य उस व्यक्ति के लिए वाकई उचित कर्म है?

आचार्य: देखिए, आदमी दुनिया में कभी भी अकेला नहीं होता। आदमी लगातार सम्बंधित है, आदमी की साँस-साँस संसार से जुडी हुई है। तो ऐसा तो कुछ होता ही नहीं है कि जिसमे आपका कोई पूर्णतया, विशुद्ध व्यक्क्तिगत आनंद हो। आप जो भी कुछ कर रहे हैं, वो संसार से जुड़ी हुई चीज़ है।

अब आप अगर वाकई जाग्रत हैं, आप वाकई निर्भीक हैं, तो आप अपने व्यक्तिगत आनंद के लिए भी जो कुछ करेंगे, उसका संसार पर भी उचित ही प्रभाव पड़ेगा, भले ही आप संसार का ख्याल न कर रहे हों; क्योंकि संसार से जुड़े हुए तो आप हैं ही, संसार का आपको विचार थोड़े ही करना है। ये सोचने की ज़रूरत थोड़े ही है कि मेरे कर्मों का संसार पर क्या असर पड़ेगा।

प्र१: एक उदाहरण लेते हैं, जैसे एक व्यक्ति सॉफ्टवेयर इंडस्ट्री (उद्योग) में है और उसको कोडिंग बड़ी अच्छी लगती है, उसका ध्यान ही नहीं रहता कि उसके आसपास क्या चल रहा है। और एक दूसरा व्यक्ति है जो सीख भी लेता है पर उसको कोडिंग इतनी अच्छी नहीं आती।

तो क्या उस एक व्यक्ति के लिए कोडिंग वाकई उचित कर्म हो सकता है? मैं इसको सांसारिक दृष्टि से समझना चाह रही हूँ क्योंकि किसी-न-किसी कार्य में तो हम सभी रहते ही हैं।

आचार्य: देखिए, आप कोडिंग करने बैठते हैं, कंप्यूटर स्क्रीन आपके सामने है। आपको लगता है कि आपने एक समस्या सुलझा ली। यही तो हो रहा है, आपको यही तो लग रहा है न कि आपने एक समस्या सुलझा ली? कुछ था पहले जो कोड की शक्ल में नहीं था, आपने उसे एक कोड की शक्ल दे दी, या पहले कोई कोड था जिसमे कोई चूक थी, कोई बग (दोष) था, आपने उसमें वो हटा दिया।

कहीं ऐसा तो नहीं कि आप ज़्यादा बड़ी समस्याएँ, और ज़्यादा सन्निकट और वास्तविक समस्याएँ न सुलझा पा रहे हों, या सुलझा पाने के प्रति आपने एक कृत्रिम असमर्थता पहन रखी हो, तो इस कारण आप कंप्यूटर स्क्रीन पर समस्याएँ सुलझा रहे हैं?

कंप्यूटर स्क्रीन के सामने छः घण्टे-आठ घण्टे ही तो बैठते हो। समस्याएँ तो लगातार ही हैं। तुम्हें यदि समस्या सुलझाने में इतना रस होता वाकई तो फ़िर तो वही रस समाधि का रस था। तुम्हें समाधि की ओर बड़ा आकर्षण होना चाहिए था। तुम पूर्ण समाधान माँगते, पर तुम छोटे समाधान माँग रहे हो।

जैसे कि कोई लड़का गली में पिटकर आता हो और उसके बाद वीडियो गेम में राक्षस की पिटाई करने लगता हो। गली में पिटाई हो रही है आपकी तो इसीलिए स्क्रीन बड़ा अच्छा विकल्प है। वहाँ पर एक राक्षस आता है और आप उसको लात, घूसें मारते हैं, बिलकुल फोड़ देते हैं।

एक-से-एक बुद्धिजीवी हैं, वो लगातार स्क्रीन पर समस्याएँ सुलझाते ही रहते हैं। और दुनिया समस्यायों के गर्त में गिरती ही जा रही है। ये देख नहीं रहे क्या हो रहा है। अपने निर्बल पौरुष को, अपनी आतंरिक नपुंसकता को सहारा देने के लिए हम झूठी-झूठी, छोटी-छोटी समस्याएँ रचते हैं ताकि उनको सुलझाकर अपने-आप को साबित कर सकें कि हम में भी कुछ दम है, हम भी किसी समस्या का समाधान निकलना जानते हैं।

तुम्हारे घर की समस्याएँ तो तुमसे हल होती नहीं—और इतनी बड़ी समस्या है घर में—और तुम कंप्यूटर स्क्रीन पर समस्याएँ सुलझा रहे हो। किसको धोखा दे रहे हो?

कंप्यूटर स्क्रीन से मुझे कोई बैर नहीं है। आप सुलझाओ बौद्धिक तल पर समस्याएँ। आप गणितज्ञ हो सकते हो, आप अन्वेषक हो सकते हो, लेकिन यह भी तो देख लो न कि वो कंप्यूटर स्क्रीन तुम्हारे लिए है क्या। अधिकांश मौकों पर वो जीवन का विकल्प होती है।

क्रिकेट का मैच चल रहा होता है। कितने ही लोग होते हैं जो बैठकर उस पर राय दे रहे होते हैं, “अब ऐसा होना चाहिए था, वैसा होना चाहिए था, बाँई ओर ज़रा पहले डाइव मार देनी चाहिए थी।” इनके हाथ में गेंद देकर देखो। बहुत बुरा लगेगा, बड़ा अपमान सा मालूम होगा। तो ऐसे लोगों के लिए फ़िर क्रिकेट के वीडियो गेम बनते हैं जिसमे वो अँगूठे से छक्के मारते हैं। “मैंने भी मारा। मैं भी मार सकता हूँ।” ऊँगली दबाकर दौड़ पूरी हो जाती है, तीन रन ले लिए ऊँगली दबाकर।

असली समस्याओं से जब पलायन करना हो तो नकली समस्याएँ बहुत काम आती हैं।

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