प्रश्न असली हो तो ही लाभकारी || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

Acharya Prashant

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प्रश्न असली हो तो ही लाभकारी || आचार्य प्रशांत, श्रीमद्भगवद्गीता पर (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम, आचार्य जी। बहुत बहुत धन्यवाद। आपके कोर्सेज़ को मैं यूट्यूब पर भी सुने हैं। कुछ मैंने ऑनलाइन सत्र भी अटेंड किए है।

मेरा जो प्रश्न है वो ये है कि मेरा मोटिवेशन लेवल बहुत फ्ल्कचुएट (ऊपर-नीचे) होता है। दिन में ही कई बार बहुत डिप (नीचे) में भी चला जाता है। ऐसा लगता है कि मुझे किसी साइकैटरिस्ट (मनोचिकित्सक) या डॉक्टर की मदद लेनी चाहिए। पर कई बार मैं अपनेआप को बड़ा अच्छा पाता हूँ, जैसे कि मैं जब आपकी यूट्यूब पर सुनूंगा कोई चीज़। मैंने कुछ आपकी किताबें भी सब्सक्राइब की हुई हैं; उनको जब सुनता हूँ तो मोटिवेशन लेवल अच्छा हो जाता है। एक-दो घंटे रहता है फिर बहुत नीचे चला जाता है। और उसके जो तीन चार कारण हैं, जितना मुझे समझ आया। शायद वो कारण अभी ज़ाहिर लगते हैं। शायद वो नहीं हैं लेकिन फिर भी हैं।

जैसे मेरे को मेडिकल समस्याएँ आजकल बहुत ज़्यादा चल रही हैं, अपनी खुद की और मेरी मदर को भी हैं। तो उसको लेकर मैं कई बार बहुत डिमोटिवेटेड (हताश) हो जाता हूँ। और दूसरा, जैसे मेरी बेटी बाहर विदेश में पढ़ती है। तो मुझे ऐसा लगता है कि उसको अब भारत जल्दी से जल्दी वापस आ जाना चाहिए। इतनी दूर नहीं रहना चाहिए।

तो इस तरह से मैं कोई ना कोई विषय चुन लेता हूँ और डिमोटिवेट हो जाता हूँ। फिर मैं कुछ सुनता हूँ यूट्यूब पर आपका या आपकी पुस्तकें पढ़ता हूँ तो मैं अपना मोटिवेशन लेवल वापस कर पाता हूँ। लेकिन मैं चेतना का तल उतना नहीं बढ़ा पा रहा हूँ, साहस 24 * 7 नहीं रख पाता हूँ; नीचे कर जाता है। ऐसा लगता है कि मुझे मनोचिकित्सक से बात करने की ज़रूरत है क्या। तो ज़रा मार्गदर्शन करें इसमें।

आचार्य प्रशांत: आपने उसने कितना समय और कितनी ऊर्जा लगा ली कि चेतना का तल उठ जाए? इतना सस्ता है काम? मैं जो बातें आपसे बोलता हूँ वो बातें बोलने के लिए मैंने अपनी पूरी ज़िन्दगी लगाई है। आपने कितने दिन, हफ्ते या महीने या साल लगाए हैं?

प्र: आपको मैंने पिछले साल अक्टूबर से सुनना शुरू किया है। उससे पहले मैं ओशो को काफी सुनता था, लेकिन अक्टूबर से आपको काफी…

आचार्य: आप समझ ही नहीं रहे न मैं क्या कह रहा हूँ। हम नहीं जानते कि हम कितने पानी में हैं इसलिए हमें नहीं पता होता कि हमें बाहर आने के लिए कितनी ज़्यादा मेहनत की ज़रूरत है। अभी बहुत समय लगेगा और बहुत श्रम। ये खेल इतना नहीं आसान है। और अगर आप मुझसे पहले कुछ और पढ़ते थे, सुनते थे, किन्हीं और चीज़ों में विश्वास करते थे तो मेरा काम और कठिन हो जाता है। पहले तो पुरानी बातें रगड़ के साफ करनी पड़ती हैं, दूना काम करना पड़ता है फिर।

तो ये ऐसा कुछ नहीं है कि एक तरह की ज़िंदगी जी और फिर तीन चार महीने गीता का कोर्स कर लिया, एक-आध बार शिविर में आ गए तो जल्दी से लाभ हो जाएगा, और लाभ ना मिले तो कहें कि ‘साहब, बात बन नहीं रही है।’

पुरानी कहानियाँ पढ़ते हैं उसमें क्या रहता है? कि ऋषि ने तपस्या की। ऐसे ऐसे रहता है कि ढाई दिन तपस्या की, पौने तीन हफ्ते तपस्या की? क्या रहता है कहानियों में, क्या रहता है? कम से कम कितने साल रहते हैं?

किसी का बारह साल, किसी का ऐसे रहता है कि पौने तीन सौ साल। एक सहस्त्र वर्षों तक तपस्या करते रहे वो भी एक पाँव पर खड़े होकर। ये सब तो पढ़े होंगे बचपन में, घरों में चलती हैं ये सब, टीवी सीरियल में भी यही सब आता है। एक गए थे तपस्या करने तो उनके शरीर में दीमक चढ़ गई, बांबी बना ली। ये सब सुना है न? तब फिर कहते हैं कि नारायण प्रकट होते हैं और कुछ बात बनती है। तुम कह रहे हो पिछले साल अक्टूबर से!

लगे रहिए, धीरज धरिए और कोई तरीका नहीं है। समय अभी बहुत लगेगा क्योंकि काम कठिन है। बहुत पुराना मर्ज़ है, बहुत तकलीफदेह है, इसलिए बहुत धीरे-धीरे जाता है। इतना पुराना ना हो गया होता तो, क्रॉनिक (पुरानी) बीमारी समय लेती है न, तो अहम् वो क्रॉनिक बीमारी है।

प्र२: नमस्ते, आचार्य जी। मैं ईशावास्य उपनिषद् पढ़ रहा था जिसमें नौवां, दसवाँ, ग्यारहवां श्लोक था विद्या और अविद्या पर। तो उसमें यह लिखा था कि अविद्या इज ऑब्जेक्टिव नॉलेज एंड विद्या इज अविद्या विद सेल्फ नॉलेज (अविद्या भौतिक ज्ञान है और विद्या भौतिक ज्ञान के साथ-साथ आत्म-ज्ञान है)।

तो जितना मैं पढ़ा उससे ये समझ में आया कि विद्या और अविद्या दोनों को जानना ज़रूरी है। और अभी आप जब भगवद्गीता शुरू किए तब बोले कि सही जिज्ञासा करें। तो सही जिज्ञासा हो रही है यह कैसे पता चले कि क्या विद्या या अविद्या है, या जिज्ञासा सही है। इसको कैसे समझ सकते हैं?

आचार्य: सही जिज्ञासा में ‘मैं’ शब्द हमेशा सम्मिलित रहता है। सही जिज्ञासा विद्या संबंधित होती है। उसमें दुनियादारी की बात हो सकती है लेकिन ‘मैं’ फिर भी मौजूद रहेगा। हो सकता है आप कोई ऐसा संबंध पूछ रहे हों पूरी तरह, पूरा प्रश्न आपका सांसारिक ही हो लेकिन फिर भी ‘मैं’ उसमें मौजूद रहेगा। आपको पता होगा कि आप ये बात क्यों जानना चाहते हैं।

‘रूस और यूक्रेन के बीच क्या हो रहा है?’ ये एक प्रश्न है, और उससे कहीं बेहतर प्रश्न है, ‘रूस और यूक्रेन में क्या हो रहा है और उसका मुझसे क्या रिश्ता है और मेरी उसमें उत्सुकता क्यों है?’ ये उससे ऊँचा प्रश्न है।

तो आपने जैसे कहा न ‘ विद्या इज अविद्या प्लस सेल्फ नॉलेज ।’ तो रूस यूक्रेन की बात तो पूछनी ही है, साथ ही साथ एक नज़र इस पर भी रखनी है कि ‘मेरा उससे क्या नाता है?’ नाता तो है ही तभी आपने वो सवाल पूछा। वो नाता खोल के रखना है।

और नहीं बोलूंगा मैं अब कुछ। (हँसते हुए)। कुछ और हो पूछने को तो बताइए।

प्र२: जिज्ञासा से ही संबंधित था। रोज़ कुछ न कुछ क्यूरोसिटी (जिज्ञासा) रहती है जानने की, कुछ न कुछ जानने की।

आचार्य: तो अच्छी बात है क्यूरोसिटी रहती है पर उसमें साथ में ये भी पता होना चाहिए कि क्यों उस चीज़ के बारे में जानना चाहते हो। जिस चीज़ के बारे में जानना है, वो सांसारिक है तो ये अविद्या कहलाता है; और ‘मैं उस चीज़ के बारे में जानना चाहता हूँ’, ये विद्या के अंतर्गत आता है। ;मैं’, ‘मैं’ जानना चाहता हूँ।

प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। आज के सत्र से मैं कुछ नोट्स बना रहा था आप जो भी बता रहे थे। तो आप कृपया बताइएगा क्या ये सारी बातें सच हैं, मतलब ठीक हैं या नहीं।

जैसे आपने कहा कि धृतराष्ट्र तो अंधा व्यक्ति है लेकिन वो जन्म से अंधा है। तो अभी आप जैसे बोले कि हम जन्म से ही ठीक नहीं होते हैं। तो क्या यही बात बताने के लिए ये बताया गया है कि वो जन्म से ही अंधे हैं?

आचार्य: अब ये तो शायद ऐतिहासिक तथ्य है कि धृतराष्ट्र नाम का एक व्यक्ति हुआ है जो जन्मांध था। ये तो एक ऐतिहासिक तथ्य है शायद। लेकिन इस तथ्य का प्रयोग तुम प्रतीकात्मक करना चाहते हो तो ठीक है, कोई बुराई नहीं। कह सकते हो कि धृतराष्ट्र की अंधता केवल शारीरिक नहीं मानसिक भी है। ऐसे देखना चाहते हो तो देख सकते हो।

प्र३: हाँ, वही मैं कह रहा था। और दूसरा ये है कि जैसे आप पहले दिन समझा रहे थे कि ‘मैं’ अगर पर्याप्त नहीं हूँ तभी ‘मम’ (मेरा) पिक्चर में आता है। तो वही बात दु:शासन में मैंने देखी कि मैं पर्याप्त नहीं है इसीलिए वो मम, ‘मेरी सेना में ये है मेरी सेना में यह है’, वह मम गिना रहा था।

आचार्य: ठीक, बढ़िया।

प्र३: और ये बात है कि दु:शासन जब ये कह भी रहा था तो पहले वो बहिर्गामी था। वो पहले पांडवों की सेना की ओर देखा फिर अपनी सेना की ओर देखा। उसका दृष्टि बहिर्गामी था।

और आखिरी सवाल ये था कि दु:शासन तो भय ग्रस्त है। उसको कहीं न कहीं ये पता है कि मैं गलत हूँ। लेकिन वो ये बात कभी ऑनेस्टली (ईमानदारी से) मानता नहीं है। और अर्जुन, वो ये कह देता है कि ‘मैं डरा हुआ हूँ, भयभीत हूँ।’ वो ऑनेस्टली मानता है लेकिन दु:शासन ऑनेस्टली नहीं मानता है।

आचार्य: दुर्योधन। हाँ, बढ़िया।

प्र३: और आखिरी सवाल ये था कि गीता में बहुत सारे कैरेक्टर्स (चरित्र) हैं। सभी में ऐसे उसका नाम लिखा हुआ है उसके बाद उवाच लिखा हुआ है। जैसे “अर्जुन उवाच,” “दु:शासन उवाच,” “संजय उवाच।” लेकिन कहीं पर “कृष्ण उवाच” नहीं लिखा हुआ है। हर जगह लिखा हुआ है, “श्रीभगवान उवाच।” तो क्या ये बात ये बतलाने के लिए है कि कृष्ण निरव्यैक्तिक रूप से आत्मा है यहाँ पर। वो व्यक्ति मात्र नहीं हैं, आत्मा बोल रही है।

आचार्य: कुछ बताने के लिए नहीं है। एक माहौल में कोई भी कृति जन्म लेती है, ठीक है? गीता का जो पूरा माहौल है उसमें कृष्ण पार के हैं। वो अन्य चरित्रों जैसे नहीं हैं। वो अन्य चरित्रों से पार के हैं। तो जिस तरीके से अन्य चरित्रों को संबोधित किया गया है या चित्रित किया गया है वैसे उनको नहीं किया जाएगा। तो यह एक बस जैसे, जैसे छोटा सा एक नमूना है, एक प्रमाण है कि गीताकार ने अपनी निष्ठा दर्शाने के लिए इस तरीके का एक अपवाद खड़ा करा है कि उनको नाम से नहीं बोल रहे। श्री भगवान कह रहे हैं। और इसमें कुछ बात नहीं है।

* प्र३: हाँ, यही मेरा एक था * ऑब्जरवेशन (अवलोकन) था सत्र का। बहुत अच्छा शुरुआत हुआ सत्र का। धन्यवाद सत्र के लिए।

* * प्र४: प्रणाम, आचार्य जी। आचार्य जी, जैसे आपने अभी जिज्ञासा की बात करी, सही सवाल उठाने की बात करी। तो मेरा प्रश्न है, आचार्य जी, पहले भी ये प्रश्न काफ़ी समय से था ही कि सही माँग क्या होती है। जैसे हम गुरबाणी में भी पढ़ते हैं कि ‘जो माँगे ठाकुर अपने ते, सोई सोई देवे,’ कि जो मांगा वो मिला। तो, आचार्य जी, सही मांग कैसे होती है और अगर उस ब्रह्म से माँगना है तो सही माँग माँगते कैसे हैं? यह प्रश्न है।

आचार्य: बहुत स्पष्ट सी बात है। देखो, शारीरिक तौर पर देख लो। ये है मेरे सामने, नारियल पानी, ठीक है? मेरा गला प्यासा है तो मैं माँग रहा हूँ कुछ पीने के लिए। माँग का निर्धारण माँगने वाली की स्थिति करती है न। मेरी स्थिति प्यासे की है। प्यासे ने तय कर दिया कि उसको क्या चाहिए। माने माँगने के लिए आत्मज्ञान जरूरी है।

अपनी हालत का संज्ञान लिए बिना अगर हम माँग करेंगे तो, पहली बात, जो माँगेंगे हो सकता है उसमें फ़िज़ूल समय उर्जा लगा दें, और दूसरी बात, वो लगाकर भी अगर मिल गया तो काम आएगा नहीं। मुझे लगी हो प्यास और मैं माँगूं तकिया, बात बनेगी नहीं न।

जो हमारी मूल प्यास है वो हो सकता है किसी बहुत साधारण वस्तु की हो, सर्व सुलभ वस्तु की हो, सर्वोपस्थित वस्तु की हो। लेकिन हम माँगते हैं विशिष्ट चीज़ें। जगत में जो कुछ होता है वो विशिष्ट होता है, स्पेसिफिक, पर्टिकुलर। और वो जो विशिष्ट चीजें होती हैं उनको अर्जित करने में बहुत समय लग जाता है। ज़िन्दगी ही लग जाती है। और उनको अर्जित करने के बाद भी पता चलता है कि इनसे बात तो बन नहीं रही है।

तो सही माँग माँगने से पहले माँगने वाले को आईने के सामने खड़ा होना पड़ेगा। ‘मैं हूँ कौन?’, ‘कहाँ पर अपूर्णता है मुझमें?’ अन्यथा जो आपकी माँगें होंगी वो बस समाज से अनुप्रेरित होंगी। ‘दुनिया ये माँगती है, ये कमाना चाहती है, ये इच्छा करती है तो मैं भी करता हूँ।’ वो अंधी चीज़ है, उससे कुछ लाभ नहीं होताl

जिन्होंने भी खुद को जानने का श्रम करा है उन्होंने फिर एक ही चीज माँगी है, उसी के विषय में गुरुबानी कहती है। उसी के विषय में जितने भी योग्य ग्रंथ हैं, सब कहते हैं। और इसीलिए तुम पाते हो कि शायद ही तुम्हें ऐसा कोई ग्रंथ मिलेगा पूरे विश्व में जो कह रहा हो कि राज्य माँगो, सल्तनत माँगो, बहुत सारा रुपया-पैसा माँगो। ऐसा कोई नहीं मिलता।

शायद इसलिए कि जो हमारे भीतर बैठा है माँगने वाला उसको ये सब चीज़ें चाहिए ही नहीं हैं, या उसको अगर ये सब चीज़ें चाहिए भी हैं तो बस माध्यम की तरह, साधन की तरह। ये चीज़ें अगर उसके हाथ में होनी भी चाहिए तो इसलिए कि इनका उपयोग करके वो कुछ और पा सके, या इनका उपयोग करके वो कुछ और हटा सके, काट सके, मिटा सके।

बहुत अच्छा प्रश्न है। सौ बार सोचे व्यक्ति माँगने से पहले, क्योंकि जो मांगा है वो मिल जाता है। गीता में इतनी बार कहते हैं श्री कृष्ण, ‘जिसकी जो सकाम कामना होती है मैं वो भी पूरी कर देता हूँ।’ तो सकाम होने से पहले डरना। कामना सोच समझ के करना, कहीं पूरी न हो जाए।

तीन दिन से हम उन्हीं का दर्द सुन रहे हैं जिनकी कामनाएँ पूरी हो गईं। चौथे अध्याय का शायद ग्यारहवां श्लोक है जिसमें वो कहते हैं, ‘जो मुझे जिस रूप में भजता है मैं उसे उसी रूप में प्राप्त हो जाता हूँ।’ तो आप कोई भी कामना करो वो रूप कृष्ण का ही है। पर सही रूप में माँगो ना उनको। उस रूप में माँगो जिस रूप में वो तुम्हारे काम आएँगे।

अब पानी ही है लेकिन नहाना है तो बर्फ थोड़े ही माँगोगे। ये थोड़े ही कहोगे कि ‘सब रूप तो उसी के ही हैं, क्या फर्क पड़ता है?’ जाड़े में नहाने जा रहे हो और कोई बर्फ दे दे तुमको और कहे ‘ये तो उसी का तो रूप है जो तुम्हें चाहिए।’ ठीक है, सब कुछ वही हैं। लेकिन तुम सीधे उनको ही माँग लो। उनके इधर-उधर के रूपों को क्यों माँगते हो?

सीधे वो जो एक ओंकार है उसको ही माँग लो न। एक शब्द इसीलिए बड़ा महत्वपूर्ण है, एक कह दिया न। और रूप कितने हैं उसके? अनंत। नहीं कह रहे कि तुम अनंत जगह भटकते फिरो। कह रहे हैं एक, एक। अनंत सब उसके नीचे नीचे ही है। अनंत भी उसी के हैं पर उनमें जाकर के काहे को समय खराब करना?

बिल्कुल संभव है कि किसी भी रूप को पकड़ लो और उसके माध्यम से तुम पहुँच जाओ उस एक तक, हो सकता है ऐसा। इतना लंबा रास्ता लेकिन क्यों लेना? रमण महर्षि कहते थे बिल्कुल सीधा रास्ता लो। द स्ट्रेट पाथ – सीधा रास्ता, क्योंकि ये तो निर्विवाद है कि सारे रास्ते जाने उसी तक हैं। पर तुम क्या दस हज़ार साल जीने के लिए आए हो? इतना समय है तुम्हारे पास बर्बाद करने के लिए?

तो तुम बिल्कुल सीधा रास्ता लो, सीधा रास्ता। टेढ़ी चाल चलने की सोचो भी मत। खुद को देखो, साफ जानो तुम कौन हो, कहाँ खड़े हो और फिर जो बात सामने आए उस पर डटकर अमल करो। कुछ दाएँ-बाएँ छितराना नहीं, कहीं भटकना, बहकना नहीं। ज़माने को लेकर के बहुत सोच विचार नहीं।

प्र४: आचार्य जी, मतलब मैंने एक तरह से आज थोड़ा प्रीएम्प्ट करा ही था। पर, आचार्य जी, मतलब फिर हर जगह इतना घुमा-घुमा कर यही चीज़ क्यों लिखी हुई है कि फलाने ने यह चीज मांगी और…

अचार्य: मजबूर हो जाते हैं, मजबूर हो जाते हैं। बताने वाले भी मजबूर हो जाते हैं। ये मजबूरी उनकी विवशता से नहीं आ रही है, ये उनकी करुणा से आ रही है। वो समझाना चाहते हैं, सुनने वाला राजी नहीं है। तो फिर एक बिंदु आता है जहाँ उन्हें सुनने वाले के तरीके से सुनाना पड़ता है।

तो आपको दोनों तरह के ग्रंथ मिलेंगे। कई बार एक ही ग्रंथ में आपको दोनों तरह के उल्लेख मिलेंगे। एक, जहाँ बिल्कुल सीधी बात बोल दी गई है, एकदम सीधी। चार शब्दों में, चौदह शब्दों में बात खत्म। वो उनके लिए है जो तैयार हैं सीधी बात को समझने के लिए। और दूसरे ग्रंथों में या कई बार उसी ग्रंथ के किसी दूसरे अध्याय या विभाग में आपको वही बात इतनी घुमा फिरा करके मिलेगी कि सर चकरा जाए।

आप बिल्कुल जैसे आप सोच रहे हैं वैसे बहुत लोग सोचेंगे कि इतनी लंबी कहानी क्यों रची? ये जो सामने बैठा है वो विचित्र नमूना है। जब तक उसको इतनी बड़ी कहानी न बताओ, वो कान ही नहीं खोलता।

लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि अगर आप सीधी बात समझ सकते हैं तो भी आप कहानी का आसरा लें। उस कहानी की कोई विशेष जरूरत नहीं है, बल्कि कहानियों के साथ खतरा जुड़ा रहता है। सीधी बात के बहुत विकृत अर्थ नहीं किए जा सकते लेकिन कहानियाँ बहुत तोड़ी-मरोड़ी जा सकती हैं। उनमें हज़ार तरीके के मनमाफिक रंग और अर्थ भरे जा सकते हैं और ऐसा हुआ भी खूब है, जैसे पौराणिक कहानियाँ।

लेकिन क्या करें? या तो वो स्थिति ले लें जो कि कुछ विद्वानों ने ली जिसमें उन्होंने कह दिया कि अध्यात्म विद्या सबके लिए है ही नहीं। ठीक है, ऐसी बात भी बोली गई है। तो उन्होंने बड़ी लंबी-चौड़ी शर्तें रख दीं। उन्होंने कहा अगर आप इतने अधिकारी हैं, आप इतनी शर्तों को पूरा कर पाते हैं तो ही आप ग्रंथ में प्रवेश करें। और ऐसी लंबी-चौड़ी शर्तें कि लाख में से एक आदमी ही योग्य निकले।

तो एक तो रास्ता वो होता है। वो शंकराचार्यों का रास्ता है। और दूसरा रास्ता संतों का होता है जहाँ वो अयोग्य व्यक्ति को भी योग्य बनाने की कोशिश में लग जाते हैं। यह एकदम दुष्कर काम है। अगर आसान होता तो दूसरों ने भी कर दिया होता। उन्होंने बहुत मजबूर होकर के शर्तें लगाई थीं।

जब उन्होंने कहा, उदाहरण के लिए, कुछ विवेक हो तो ही अगले पन्ने पर आना, मन को और इंद्रियों को संभालने का माद्दा हो, शमन और दमन जानते हो तो ही आगे बढ़ना। जब उन्होंने ये शर्तें लगाई थी तो, मैं देख पा रहा हूँ, कि उन्होंने भी डूबते हुए दिल के साथ लगाई होंगी क्योंकि उन्हें पता है कि इन शर्तों पर बहुत कम लोग खरे उतरेंगे। लेकिन उन्होंने देखे होंगे दुष्परिणाम कि जब अयोग्य आदमी के हाथ में ये श्लोक पड़ जाते हैं तो फिर कैसा उनका घिनौना अर्थ होता है और उनका उपयोग करके कितने तरीके के अनाचार होते हैं। एक तरीके से उन्होंने ठीक ही किया कि शर्तें लगाईं।

लेकिन संतों का मन दूसरे तरह का होता है। वो सब कुछ जानते हुए भी ये स्वीकार करने को तैयार नहीं होते कि कुछ लोगों के लिए ब्रह्म विद्या है ही नहीं। वो कहते हैं ‘कोई कैसा भी हो, हम कोशिश करेंगे। क्या पता बात बन जाए!’ और एक बटा एक लाख संभावना तो होती ही है कि पत्थर से भी पानी निकल आए। तो वो पत्थर से पानी निकालने की कोशिश में लगे रहते हैं।

शायद यही वजह है कि भारत ने संतों को ज़्यादा प्रेम दिया है, ऋषियों की अपेक्षा। मैं आपसे कहूँ संतों के नाम बताइए आप तत्काल बता देंगे। मैं आपसे ऋषियों के नाम पूछूं, आपको दो-चार बताने में भी समस्या हो जाएगी। कारण सीधा है। चूंकि संतों ने बहुत प्रेम दिया है इसीलिए फिर लोगों ने भी संतों को बराबर का प्रेम दिया है।

हम ऋषियों को सम्मान बहुत दे देते हैं लेकिन प्रेम तो हम संतो को ही देते हैं। और संतों का प्रेम ऐसा ही रहा है कि उनके सामने एक लकड़ी का ठूंठ भी आ जाता है तो वो कहते हैं चलो हम इसको भी बंदा बना देते हैं। ‘तू आ बैठ, तुझसे भी हम ज़रा भगवत चर्चा कर लेते हैं, हरि नाम कर लेते हैं।’ तो कोई भी मिल जाए, कोई फर्क नहीं पड़ता। सब आ जाओ।

तो ऋषियों ने क्या किया?

ऋषि चले गए दूर जंगल में घुस गए। वो बोले ‘जो सुपात्र वो खुद ही हमें खोजता हुआ आ जाएगा।’ उनकी बात ठीक थी, जो सुपात्र है वो खोजता हुआ आ जाएगा।

संतो ने क्या करा? वो आपके गलियों में, मोहल्लों में, शहरों में, घरों में घुसे। वो बोले ‘नहीं फर्क पड़ता तुम कौन हो। अपराधी हो, शराबी हो, जुआरी हो, कबाबी हो। तुम कोई हो, तुम महामूर्ख हो। आओ फिर भी बैठो, हम तुमसे बातें करेंगे और तुम्हारी भाषा में बात करेंगे।’

अब ये भावना तो बड़ी सुंदर और बड़ी उदात्त हैं कि तुमसे बात करेंगे, तुम्हारी भावना में बात करेंगे लेकिन अब बात करें कैसे? वो जो सामने बैठा है वो अलग ही ग्रह से है। तो फिर कभी गीत लिखे जाते हैं, कभी मिथक रचे जाते हैं, कभी ऐसी बात, कभी वैसी बात; कभी भगवान जी उतरे, फिर बड़े भगवान जी से छोटे भगवान जी ने ये कहा, फिर ये हुआ, फिर वो हुआ, क्योंकि उस आदमी को यही बात समझ में आती है तो उसको फिर इस भाषा में बोल दिया जाता है। ये संतों का प्रेम है। लेकिन अगर आप समझ सकते हो तो जैसा रमण महर्षि ने कहा, जो सबसे सीधा रास्ता है वो लो। घूमो फिरो नहीं।

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