त्रैगुण्यविषया वेदा निस्त्रैगुण्यो भवार्जुन। निर्द्वन्द्वो नित्यसत्त्वस्थो निर्योगक्षेम आत्मवान्।।
हे अर्जुन! वेद तीनों गुणों (सत, रज और तम) के कार्यरूप समस्त भोगों एवं उनके साधनों का प्रतिपादन करने वाले हैं; इसलिए तू उन भोगों एवं उनके साधनों में आसक्तिहीन, हर्ष-शोकादि द्वंदों से रहित, नित्यवस्तु परमात्मा में स्थित, योग-क्षेम को न चाहने वाला और आत्म परायण बनो।
—श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय २, श्लोक ४५
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, नमन। श्रीकृष्ण अर्जुन से तीनों गुणों का त्याग करके अनासक्त होने के लिए कह रहे हैं। मेरा प्रश्न है कि एक तरफ़ तो श्रीकृष्ण सतोगुण की प्रशंसा करते हैं और दूसरी तरफ़ तीनों गुणों के त्याग के लिए कहते हैं। तो क्या सतोगुण का भी त्याग किया जाए, और कैसे? कृपया मार्गदर्शन करें।
आचार्य प्रशांत: तमोगुण तुम्हारे घर के बिस्तर की तरह है। तुम उस पर पड़े हुए हो, तुमने खिड़की-दरवाज़े सब बंद कर लिए हैं, तुम बीमार हो और तुम नशे में हो। बिस्तर बहुत उम्दा है और बिस्तर के किनारे खाने-पीने की व्यवस्था है और शराबी के लिए शराब की भी। कमरा सहूलियतों से भरा हुआ है, एयर कंडीशनर (वातानुकूलक) है, संगीत है, टीवी है, सब प्रकार के विलास की सारी सामग्री है और दरवाज़ा बंद है। ये तमोगुण है – तुम बीमार हो और तुम बीमारी में खुश हो।
तुम गलत जगह पर हो और जहाँ तुम हो, वहीं पर नशे में सोए पड़े हो, उस जगह से तुम हट भी नहीं पा रहे — ये तमोगुण है। हटने का कभी-कभार विचार आता है तो तुम आलस के मारे फिर सो जाते हो। कभी थोड़ी अनासक्ति उठती है, मृगतृष्णा उठती है, तो उससे ज़्यादा तुम्हे प्रमाद उठता है। यह प्रमाद, यह आलस ही तमोगुण की निशानी है। तमोगुण का मतलब है नशा, चेतनाहीनता, एक भारीपन चेतना का, एक शिथिलता। नींद से बोझिल पलकें, नशे से बोझिल चेतना, ये तमोगुण है।
तुम गलत जगह पर हो और तुम हिल भी नहीं पा रहे। तुम्हारे साथ दो-दो दुर्घटनाएँ एक साथ हुई हैं। क्या? पहली, तुम गलत जगह पर हो और दूसरी, तुम वहाँ से हटना चाहते भी नहीं क्योंकि उस गलत जगह पर तुम्हारे लिए भोग के, विलास के बहुत साधन हैं, तुम्हें उनकी आदत लग गई है। और तुम्हारे भीतर वो स्फूर्ति, वो चेतना, वो शक्ति, वो प्रेरणा बिल्कुल क्षीण हो गई है कि तुम बिस्तर छोड़ पाओ और दरवाज़ा तोड़ पाओ। ये तमोगुण है। साफ़ दिख रहा है तमोगुण कैसा है?
रजोगुण तब है जब तुम अपनी बेचैनी से परेशान हो करके उठो। नशे में हो लेकिन काँप गए हो भीतर से कि ये हो क्या रहा है मेरी ज़िन्दगी का। और दरवाज़ा तोड़-ताड़ करके बिल्कुल निर्बाध दौड़ लगा दो सड़कों पर। जो पहला आदमी मिले, उसी के पाँव पकड़ लो, बोलो, "बचाओ! कुछ भीतर बहुत ख़तरनाक हो रहा है, दम घुट रहा है।"
वो आदमी तुम्हे देखे और समझ जाए कि ये बेहोश भी है, बेवक़ूफ़ भी। वो तुमसे कहे, "हाँ, हम तुम्हारी मदद करेंगे पर पहले कुछ अग्रिम राशि देना थोड़ा।" और तुम्हारी जेब में जो कुछ भी है, वो निकाल कर रख ले और फिर तुमको कुछ बताए उपाय। वो उपाय तुम्हारे काम न आए। जब तक तुम आदमी को देखो, तब तक वो आगे निकल चुका है। तुम पहले की तरह ही परेशान।
तुम फिर भागो। तुम आगे जाते हो, वहाँ एक दुकान खुली हुई है। वहाँ जा करके तुम रो पड़ते हो, कहते हो, "मुझे बचाओ। मुझे कुछ चाहिए। मैं नहीं जानता कि मुझे क्या चाहिए। मेरा सिर घूम रहा है, मैं नशे में हूँ, मैं कुछ समझ नहीं पा रहा हूँ और मैं बहुत व्यथित हूँ। मुझे बचाओ।"
दुकानवाला कहता है, "अरे, हम हैं न। इसीलिए हैं बिल्कुल। लो ये चखो, ये हमारी ख़ास बूटी है, ये तुम्हारे काम आएगी।" तुम उसको चखते हो, वो तुमको सुस्वाद भी लगती है। कुछ लाभ भी लगता है हो रहा है। तुम कहते हो कि बिल्कुल ठीक जगह मिल गई। इसी की तो तलाश थी। तुम्हे ही चाहते थे हम। और ये जो कुछ भी आपने दिया, थोड़ा और दीजिए, हमें चाहिए।
वो कहता है, "देखो, जितना अभी दिया, उतना तो मुफ़्त था। आगे अगर और चाहिए तो दाम चुकाने पड़ेंगे। और देखो, ये चीज़ अच्छी है, ये तो तुम ख़ुद ही प्रमाणित कर चुके हो। काम आ रही है न?"
तुमने कहा, "हाँ, बिल्कुल काम आ रही है। अभी हमने इसको चखा और इससे हमें फ़ायदा हुआ।"
वो कहता है, "इससे आगे की चीज़ तो तब मिलेगी जब तुम मेरे यहाँ मजदूरी करना शुरू कर दो।"
"बिल्कुल मजदूरी करेंगे।"
"महीने भर मजदूरी करो। महीने भर के बाद दो किलो बूटी दूँगा तुमको।"
तुम कहते हो कि ठीक। तुम महीने भर वहाँ पर जान लगा करके मेहनत करते हो। महीने के अंत में तुम्हे बूटी मिलती है और जिस दिन बूटी मिलती है, उस दिन तुम बिल्कुल लाजवाब हो जाते हो। लगता है कि तर गए आज। छुट्टी मनाते हो। बूटी का प्रभाव चलता है दो दिन, चार दिन। फिर तुमको समझ में आता है कि ये तो हालत पहले ही जैसी हो रही है।
तुम जाते हो दुकानदार के पास, कहते हो, “कुछ बात बन नहीं रही है बूटी से।” वो बोलता है, "अरे, तुमने काम कम करा न इसलिए तुम्हे बूटी कम मिली है, तभी तो दो-तीन दिन ही चली। अब एक काम करो, तुम रगड़कर मेहनत करो इस महीने। तुम्हे और बूटी देंगे, तुम्हारी तरक्की करेंगे। और मेहनत करो।"
तुम और मेहनत करते हो लग करके। इस बार तुम्हें एक-दो किलो की जगह चार किलो बूटी देता है। इस बार बूटी का असर चलता है पाँच दिन। फिर तुम उसके पास जाते हो। वो कहता है, "ज़िन्दगी में ऐसे ही कुछ नहीं मिलता। नो गेन विदाउट पेन (कष्ट सहे बिना कुछ नहीं मिलता)। अरे, मेहनत तो करो। यहाँ सब लोग मेहनत करते हैं, तभी तो आगे बढ़ेंगे। तुम भी मेहनत करो।"
तुम कहते हो, “मेहनत करेंगे।” वो कहता है, "बढ़िया, तू परफॉरमेंस (प्रदर्शन) निकालकर दिखा।" तुम और रगड़कर मेहनत करते हो । इस बार वो तुमको पाँच किलो बूटी देता है। दो किलो दी थी तो दो दिन चली, चार किलो दी थी तो चार दिन चली, पाँच किलो दी तो पाँच-साढ़े पाँच दिन चली। ऐसे ही तुम करते जाते हो, करते जाते हो, करते जाते हो। ज़िन्दगी बीतती जाती है, साल गुज़रते जाते हैं। ये रजोगुण है।
फिर एक दिन कोई गुज़रता है दुकान के सामने से। वो तुमको देखता है कि जान दिए दे रहे हो, घिस-घिसकर लंगूर हो गए हो। वो कहता है, "कर क्या रहे हो ये? तुम्हे इस दुकान की नहीं अस्पताल की ज़रूरत है। मेरे साथ आओ।"
तुम्हारा भी दुकान से कुछ मोहभंग हो चुका है क्योंकि दस-बीस साल गुज़ार लिए हैं दुकान पर। और मेहनत कर-करके, ख़ूब तरक्की कर-करके दुकान के बड़े पद पर आसीत हो गए हो। लेकिन बूटी तुम्हे कितनी भी दे दी जाए, उसका असर चलता कुछ दिन ही है। तो तुम भी कहते हो कि कुछ और अगर आज़माने को मिल रहा है तो क्यों न आज़मा ही लें।
तुम बोलते हो, "कहाँ चलें?"
वो बोलता है, "आओ, एक अस्पताल है, वहाँ चलो।"
तुमको ले जाया जाता है, अस्पताल में दाख़िल करा दिया जाता है। अस्पताल में तुम्हारा उपचार होने लगता है। बिस्तर मिलता है, दवाएँ मिलने लग जाती हैं। बड़ी राहत मिलने लगती है। क्या दवाएँ, क्या राहत देती हैं, आहाहा! बढ़िया लग रहा है, ज़िन्दगी चल रही है। यहाँ के लोग भी ज़ालिम और कमीने जैसे नहीं दिखते। लोग भी मृदु हैं, नर्म हैं, मददगार जैसे दिखते हैं। तुम कहते हो कि बढ़िया जगह मिल गई है। खाने-पीने की बढ़िया व्यवस्था है। प्रेमी लोग हैं।
अब समय बीतता है। छः महीने, साल भर तुम्हारा उपचार चलता है। दो साल, चार साल तुम्हारा उपचार चलता है। चिकित्सक तुमको अब थोड़े-थोड़े इशारे देना शुरू करता है कि भाई, आपका उपचार हो गया है। बिस्तर खाली करें और लोगों के लिए भी। और तुमको यहाँ की भी आदत लग गई है।
तुम कहते हो, "नहीं, देखिए, बढ़िया जगह है और बड़ी मेहनत से ये जगह मिली है।"
चिकित्सक कहता है, "देखो, बाहर जाओ। और तुमको एक राज़ की बात बताते हैं। जो तुमको उस दुकान से इस बिस्तर तक ले करके आया, वो तुमसे पहले इसी बिस्तर पर था। तो इस बिस्तर पर होने की ज़िम्मेदारी समझो। जो इस बिस्तर पर आज है, उसकी ज़िम्मेदारी ये है कि इस बिस्तर से उठे और दुनिया के बाज़ारों और दुकानों में निकले। वहाँ से लोगों को ले करके आए और इस बिस्तर पर डाले। तो बहुत समय तक हम तुमको इस बिस्तर पर लेटे रहने नहीं दे सकते। अब बाहर निकलो, काम करो, मिशन बढ़ाना है।"
तुम कह रहे हो, "नहीं, नहीं, हम यही रहेंगे।" ये सतोगुण है। तुमको सत की लत लग गई है, और सत की लत बहुत गहरी लगती है, ख़ासतौर तब जब तुम्हे अतीत में अनुभव रहा हो तम और रज के नर्कों में सड़ने का। उस अनुभव के बाद जब सत मिलता है तो लगता है कि अमृत मिल गया, और सत अमृत है भी। लगता है कुछ मिल गया ज़िन्दगी में।
लेकिन चिकित्सक भी एक कदम आगे का ही है। एक दिन वो तुमको उठाता है और दरवाज़ा दिखा देता है। कहता है, "चलो, बाहर निकलो।" उस दरवाज़े के बाहर जो है, उसको कहते हैं त्रिगुणातीत। सबसे मुक्त हो गए, अब तुम सत से भी मुक्त हो गए। अब तुम दुनिया के बाज़ारों में निकलो और दान करो, मदद करो, प्रेम बरसाओ, काम करो।
तीनों में अंतर क्या है? तुम्हारा कमरा तुम्हें कभी बाहर भेजने को राज़ी न होता। कमरे ने सारी व्यवस्था कर रखी थी तुमको आजन्म बंधक रखने की। तमोगुण कभी तैयार नहीं होता तुम्हें रिहा करने के लिए। रजोगुण में जो दुकानदार था, वो भी कभी तैयार नहीं होता तुम्हें रिहा करने के लिए। सतोगुण में ये ख़ूबी होती है, ये ख़ासियत होती है कि वो तुम्हें ख़ुद ही रिहा करना चाहता है। यही ज्ञान की ख़ूबी है।
सतोगुण माने ज्ञाननिष्ठा। वो ख़ुद ही तुम्हें रिहा करना चाहता है। वो ख़ुद ही तुमसे कहेगा कि अब हो गया, अब आगे बढ़ो। तीनों गुणों के आगे भी संसार है। इन गुणों से आगे जो है उसे सत्य कहते हैं। तुम यहाँ तक आ गए, अब और आगे जाओ।
तो सतोगुण तमोगुण और रजोगुण से ऐसे अलग है। वहाँ पर जो चिकित्सक है, वो स्वयं ही तुमको रिहा करना चाहता है। रजोगुण में जो दुकानदार है, वो स्वयं तुमको कभी रिहा नहीं करना चाहेगा। वो जो दवाइयाँ दी जा रही थीं अस्पताल में, वो कौन सी दवाइयाँ थीं? यही सब (ग्रन्थ) था मामला। जो पढ़ते हैं आप शिविरों में अपने, वही दवाइयाँ हैं। और जो विधियाँ और सब काम करते हैं।
प्र२: त्याग के बारे में आपने जो कहा, उस बारे में एक सवाल है, आचार्य जी। आपने अष्टावक्र गीता के एक श्लोक में बताया हुआ है कि अगर तुम दो रूपए के नोट को ही अपनी पूरी संपत्ति समझकर बैठे हो, तो तुम उसे भींचकर पकड़े रहोगे, उसे नहीं छोड़ोगे। तो जब तक तुम्हें उससे बहुत बड़ा कुछ नहीं मिलता, तब तक उसे छोड़ने का कोई औचित्य नहीं है क्योंकि तुम फिर कुछ और पकड़ लोगे। इस तरह का आपने एक उदाहरण दिया था।
तो इसी तरह हमारा अहम् होता है एक तरह से। हमारे पास जो भी घिसा-पिटा है, हम उसे ही पकड़कर बैठे हैं क्योंकि हमें सिर्फ़ वही पता है, उसके आगे कुछ पता नहीं है। तो किस तरह शुरुआत करें कि वो पिघल जाए, कि हम उसे छोड़ पाएँ ताकि कुछ बड़ा मिल सके?
आचार्य: दो चीज़ें होनी चाहिए, एक तो अपनी हालत के प्रति थोड़ा क्षोभ और दूसरा — किसी तरह की कोई आहट, कोई इशारा, कि जो हालत मेरी है, उससे हटकर भी जीवन हो सकता है। उससे बहुत दूर का, उससे बहुत ज़्यादा बेहतर भी जीवन हो सकता है। ऐसी कुछ आहट होनी चाहिए, ऐसा कम-से-कम कुछ झीना-सा प्रमाण होना चाहिए। ये दोनों चीज़ें जब मिल जाती हैं तो बदलाव आ जाता है।
ये दो चीज़ें समझ गए हैं आप? अपनी हालत के प्रति क्षोभ, और ये प्रमाण कि जैसी मेरी हालत है, वैसी हालत आजन्म रहे और सबकी रहे, ये ज़रूरी नहीं। मुझे प्रमाण दिख रहा है कि जैसे मैं जी रहा हूँ, इससे हटकर भी जिया जा सकता है। ये दोनों अगर हो गए तो काम बनने लगेगा।
प्र२: तो धीरे-धीरे दोनों तरफ़ से होगा?
आचार्य: दोनों तरफ़ से होगा और दोनों एक दूसरे को सहारा देते हैं। अपने प्रति जितना क्षोभ होगा, उतना ज़्यादा अपने से बाहर किसी प्रकाश की, किसी प्रमाण की तलाश करोगे। और बाहर तुम्हें जितना दिखाई देगा कोई जो तुमसे बहुत अलग और तुमसे बहुत आगे का होगा, उतना तुम्हारे मन में अपने प्रति क्षोभ बढ़ता जाएगा।
प्र३: प्रणाम, आचार्य जी। एक छोटा सा सवाल है। उससे पहले आभार व्यक्त करूँगा। गत कुछ वर्षों में वृत्तियों के बारे में आपने जो बताया है, उसको काफ़ी समझने का प्रयास किया। और उसकी वजह से, उसको समझते-समझते पिछले कुछ दिनों में जानबूझकर कुछ चुनौतियाँ ले लीं। ये जानबूझकर लिया और क्षमा चाहता हूँ कि बिना आपकी आज्ञा के ऐसी चुनौतियाँ लीं, लेकिन जब जीत मिलती है वृत्तियों से तो मन की स्थिति अवर्णनीय होती है।
तो सवाल सिर्फ़ यह रहेगा, आचार्य जी, कि ऐसी चुनौतियाँ जानबूझकर लेते रहें या फिर इंतज़ार करें, क्योंकि वो तो हमेशा आती रहती हैं, और फिर उनके साथ जूझें?
आचार्य: उसमें भी ये गौर करना होगा कि क्यों चुनौती लेने की नीयत उठ रही है। थोड़ा समझिएगा।
पप्पू को उसकी माँ ने बोला कि चाय बना ला। उसे चाय बनानी ठीक से आती नहीं अभी, लेकिन इतनी आती है कि बना दे। वो जाएगा रसोई में, वहाँ उसको साफ़-साफ़ पता भी नहीं चल रहा है कि दूध कहाँ है, पानी कहाँ है, अदरक कहाँ है, शक्कर कहाँ है, और वो काम ख़राब कर देगा। इस काम के ख़राब होने से पप्पू को बड़ी राहत मिल जाएगी। क्या? माँ आइंदा उसे चाय बनाने को बोलेगी नहीं।
“चल, ये जितनी मूर्तियाँ रखी हैं, इनकी सफ़ाई कर दे।” एकाध टूट गई मूर्ति तो? अब कोई नहीं बोलेगा सफ़ाई करने को।
चुनौतीपूर्ण काम भी देख लीजिएगा कहीं ऐसा न हो जिसमें विफलता मिलने पर आगे कोई चुनौती उठाने की सम्भावना ही न रह जाए। अहम् बड़ा ज़बरदस्त होता है। वो जीतना तो चाहता ही है, कई बार वो हारना भी चाहता है। उसकी हार में उसकी बहुत बड़ी जीत छुपी होती है। वो जानबूझकर बहुत बड़ी कोई चुनौती उठा सकता है। किसलिए? ताकि हार जाए। और हार गया तो? अब राहत मिल गई आगे और कोई भी चुनौती उठाने से। राहत मिल गई न?
चुनौती उठाते वक़्त बिल्कुल ख़याल रखिए कि चुनौती किस उद्देश्य से उठाई है। जीतेंगे या हारेंगे, इस पर कभी अपना निश्चित अधिकार तो होता नहीं। लेकिन कई बार हारने पर बड़ा निश्चित अधिकार होता है।
आप कितनी भी कोशिश कर लें, बड़े खिलाड़ी बन जाएँ, बड़ा अभ्यास कर लें, बड़े कुशल हैं आप। लेकिन कभी आप शत प्रतिशत विश्वास के साथ ये नहीं कह सकते कि मैच मैं जीतूँगा-ही-जीतूँगा। लेकिन आप कैसे भी खिलाड़ी हैं, अच्छे, चाहे बुरे, आप शत-प्रतिशत विश्वास के साथ ये ज़रूर कह सकते हैं अन्य स्थितियों में कि आज मैं हारूँगा-ही-हारूँगा। कब कह सकते हैं? जब हारने की नीयत हो।
ये बात समझिएगा। जीत अपने हाथ में नहीं होती, लेकिन हार अपने हाथ में होती है। जो जीतने की कोशिश करे, पक्का नहीं कि वो जीत ही जाएगा। जो हारने की कोशिश करे, वो पक्का है कि हार जाएगा। और अहम् हारने की भी कोशिश कर सकता है। हार, मैं कह रहा हूँ, बहुत राहतकारी होती है।
बहुत लोग आते हैं, "आचार्य जी, आप ये जितनी बातें बोल रहे हैं न, ये सब हमने अपनी जवानी में आज़माई हुई हैं और हमें इनका अंजाम कुछ ठीक नहीं मिला। तो इसलिए हमने कहा ये सब अच्छी-अच्छी बातें बेकार की हैं, हम बुरा बनकर दिखाएँगे।"
ये आप समझ रहे हैं न इन लोगों ने क्या करा था? तुम जानबूझकर हारते हो ताकि तुमको अधिकार मिल जाए, एक प्रकार का लाइसेंस मिल जाए बुरा बन जाने का। ये ख़याल रखिएगा। ये ख़तरा रहता है, इसके प्रति सचेत रहिएगा।
बहुत बड़ा वज़न उठा लिया। अब यहाँ दर्द हो रहा है, यहाँ दर्द हो रहा है, कुछ चटक भी गया है। अब सालभर तक कोई नहीं कहेगा कोई वज़न उठाने को। और अपनी नज़रों में ईमानदार भी बने रहेंगे। क्या? “अजी, तुम लोग तो छोटे-मोटे खिलाड़ी हो, वज़न तो हमने उठाया था। तुम ये क्या उठा रहे हो बीस-चालीस किलो, हमने एक बार में दो सौ उठाया था।” और दो सौ उठाकर फिर क्या किया था? हड्डी चटका ली थी और फिर दो साल तक कुछ नहीं उठाया।
तो एक तरफ़ मैं निश्चित रूप से प्रेरित करता हूँ और पक्षधर हूँ कि वज़न उठाओ। दूसरी ओर मैं ये भी कहता हूँ कि देख तो लो कि किसलिए उठा रहे हो। कहीं ये न हो कि इतना उठा लिया कि अब आगे उठाने की नौबत ही न आए।
निश्चित रूप से जीत पर अधिकार नहीं है हमारा, कर्म पर ही है, कर्मण्येवाधिकारस्ते, लेकिन जब योद्धा लड़ता है, जब अर्जुन लड़ता है तो हार के लिए तो नहीं लड़ता न कम-से-कम। अंतर समझिएगा। जीत पर अर्जुन का अधिकार नहीं है, लेकिन हार भी तो उद्देश्य नहीं है न। ये सूक्ष्म बात समझनी ज़रूरी है।
खेलो तो इसीलिए कि जीतना है। हाँ, जीत मिले कि हार, उसमें समभाव रहो। और ये बात बहुत महीन है। आप ये नहीं कह सकते कि जब जीत-हार पर हमारा नियंत्रण ही नहीं है तो हम जीतने की कोशिश क्यों करें? नहीं, साहब, चुनौती जब भी उठाइए, ये देख-समझकर उठाइए कि जीतना है। चुनौती जब भी स्वीकार करें, इसी दृष्टि से स्वीकार करें कि मैदान में उतरा हूँ, मुझे जीतना है।
हाँ, साथ में ये भी पता है कि जीतने पर अपना पता नहीं है कि नहीं। तो जीत मिलेगी, चाहे हार मिलेगी, हम उसमें निश्चल रहेंगे। हम उद्विग्न नहीं हो जाएँगे, हम रो नहीं पड़ेंगे। हम हतोत्साहित नहीं हो जाएँगे, न हम झाड़ पर चढ़ जाएँगे। हम समभाव रहेंगे। लेकिन फिर भी खेलेंगे तो हम जीतने के लिए ही। अपनी तरफ़ से तो जीतने की ही पूरी कोशिश करनी है न। तो चुनौतियाँ उठाते वक़्त इस बात का पूरा ख़याल रखिएगा।
जो लोग आत्मा के सेवक हो गए हों, वो अच्छी तरह याद रखें कि उनका सबकुछ अब आत्मा की ही सेवा में लगना चाहिए, और सबकुछ में बुद्धि भी शामिल है। बुद्धि का भरपूर इस्तेमाल करिएगा। लक्ष्य आत्मा निर्धारित करे, राह बुद्धि बताएगी। लक्ष्य है चुनौती को जीतना, लेकिन वो चुनौती निर्बुद्धि हो करके नहीं उठानी है। पूरी अक्ल लगा दीजिए। अपना पूरा जो उपकरण है, आतंरिक संसाधन हैं, सबका प्रयोग कर डालिए, और पूछिए कि इस चुनौती को अभी उठाएँ या दो महीने बाद। ऐसे उठाएँ कि वैसे उठाएँ? इन सब बातों पर बहुत ध्यान रखिए।
मैंने देखे हैं आध्यात्मिक साधक जो धर्मयुद्ध के नाम पर बिल्कुल बावले हो जाते हैं। वो कहते हैं कि ये जो हम कर रहे हैं, ये तो धर्म के लिए है, सत्य के लिए है, कृष्ण के लिए है। चलो, आँख बंद करो और कुँए में कूद पड़ो। कृष्ण ने ये सीख दी थी अर्जुन को कि अर्जुन, तू आँख बंद कर ले और घूम-घूमकर किसी भी दिशा में तीर चला? जिसको लगे सो लगे। अर्जुन आँख बंद करके किधर को भी तीर छोड़ रहा है। एक जाकर लगा युधिष्ठिर को। ऐसा तो नहीं है न? युद्धभूमि पर किस योद्धा को चुनना है, ये बात भी विवेक से और बुद्धि से निर्धारित करते हैं न?
अभिमन्यु वध का अगला दिन था। अर्जुन ने प्रण कर रखा था कि सूर्य ढलने से पहले अगर जयद्रथ का वध नहीं कर दिया तो आत्मदाह कर लूँगा। अब कौरवों को पता चल गया कि अर्जुन ने तो ख़ुद ही कह दिया है कि आज मर जाएगा। तो उन्होंने कहा कि आज बस इतना करना है कि जयद्रथ को बचाकर रखो और अर्जुन का समय ख़राब करो। सूरज ढल जाए बस, ये ख़ुद ही मरेगा।
तो अब सांझ होने वाली है और अर्जुन ढूंढ़ रहे हैं जयद्रथ को। और दुर्योधन ने मौका देखा, सामने किसको खड़ा कर दिया? द्रोण को। बोला, इसको उलझाइए, इसके घंटे-दो घंटे ख़राब कर दीजिए। ओवर निकालने हैं। श्रीकृष्ण बोले, "अर्जुन, द्रोण क्या हैं?" अर्जुन बोला, “गुरु।” "गुरु को प्रणाम करते हैं और आगे चले जाते हैं। लड़ते हैं क्या गुरु से? गन्दी बात।"
सब चुनौतियाँ सब समय ग्रहण करने योग्य नहीं होतीं। उस दिन अगर अर्जुन द्रोण से उलझ गया होता तो रात देखने के लिए बचा नहीं होता। उलझना है, निश्चित रूप से उलझना है, जीतने के लिए उलझना है। ये बात विरोधाभासी लग रही होगी। एक ओर तो हम निष्काम कर्म की बात करते हैं कि सोचो ही नहीं कि फल क्या आएगा, बस करो।
निष्काम कर्म का मतलब बुद्धिहीन कर्म नहीं होता, निष्काम कर्म का मतलब होता है कि तुम सत्य से प्रेरित होकर, सत्य को केंद्र में रखकर सही कर्म करो। फिर जो भी परिणाम आए, नतमस्तक रहो।
लेकिन कर्म तो सही ही करना है न। और इस वक़्त सही कर्म है कि द्रोण को प्रणाम करो और आगे बढ़ो। ये चुनौती स्वीकार नहीं करनी है। और दूसरे मौके हैं जहाँ कृष्ण अर्जुन को बड़ी-से-बड़ी चुनौतियाँ लेने को कहते हैं, “अर्जुन यही समय है, चुनौती स्वीकार कर, लड़ जा।”
तो बुद्धि और विवेक को पीछे मत छोड़ दीजिएगा। प्रेरणा और उत्साह बहुत अच्छी बात है लेकिन ये याद रखना है कि ऐसी चुनौती नहीं स्वीकार करनी है जो हमें ही तोड़ दे। क्यों हमें टूटने से बचना है? क्योंकि कुछ ही दिनों बाद हमें बड़ी चुनौती स्वीकारनी है। छोटी चुनौती गलत तरीके से स्वीकार ली और उस चुनौती ने हमें तोड़ डाला, तो फिर तो हम टूट गए न। फिर तो सब बड़ी चुनौतियाँ कौन लड़ेगा?
और मैं ये जब बोल रहा हूँ तो मुझे ये भी पता है कि मेरी बात बहुतों के लिए बहाना बन जाएगी चुनौतियों से बचने का। वो कहेंगे, "आचार्य जी ने ही तो कहा था कि जब चुनौती सामने आए तो उसको प्रणाम करके आगे बढ़ जाओ और कहो कि अभी तुम्हारा वक़्त नहीं आया है।"
अब ये बात तो देखिए नीयत की है। इसमें मैं बहुत ज़्यादा सफ़ाई दे नहीं पाऊँगा। ये बात तो आतंरिक ईमानदारी की है। आपको पता होना चाहिए कि कब कौन सी लड़ाई लड़नी है और कब कौन सी लड़ाई आगे के लिए स्थगित करनी है। नीयत लेकिन एक ही होनी चाहिए। क्या? जीतना है, भाई। जीतना है। ये लड़ाई जीतने लायक है। फिर आगे क्या होगा, वो (परमात्मा) जाने, जिसके लिए लड़ रहे हैं, वो जाने। हमें तो ये पता है कि जिसके लिए लड़ रहे हैं और जैसी ये लड़ाई है, हम तो जीतने के लिए ही लड़ेंगे। अंजाम ऊपरवाला जाने।
प्र४: सर, कृष्ण कहते हैं कि कर्म करो, फल की इच्छा न करो। अगर फल की इच्छा नहीं करेंगे तो कर्म ही क्यों करेंगे? फल की इच्छा ही तो प्रेरित करती है कर्म करने के लिए। और दूसरा, अभी आपने कहा कि चुनौती लो तो फिर जीतने के उद्देश्य से लड़ो। जीतना भी तो अपने-आपमें एक इच्छा ही है। और जो भी परिणाम आए, जीत हो या हार हो, उसको सामान भाव से देखो। सामान भाव से कैसे देखें? एक बार जो प्रण लिया था, वो पूरा नहीं हुआ तो दिल टूटेगा।
आचार्य: दिल इसलिए नहीं टूटता कि जीत नहीं मिली, दिल इसलिए टूटता है क्योंकि लड़ाई में मक्कारी करी थी। जो कोई दिलोजान से लड़ा हो, उससे पूछना, “क्या हारने पर दिल टूटता है?” जिसने लड़ाई में अपना सर्वस्व झोंक दिया हो, कभी उससे पूछना कि हारने पर दिल टूटता है क्या। उसका कोई दिल नहीं टूटता।
हारने पर दिल उनका टूटता है जिन्होंने लड़ाई में ही कामचोरी और मक्कारी करी होती है। उनका दिल यही याद कर-करके टूटता है कि काश! थोड़ा और ढंग से लड़े होते, थोड़ा और ईमानदारी से लड़े होते तो क्या पता जीत ही जाते। निष्काम कर्म का अर्थ होता है कि फल की चिंता में ऊर्जा मत गँवाओ अपनी। सारी ऊर्जा लगाओ अपनी तुम कर्म में ही। जब कर्म में ही सारी ऊर्जा लग गई तो अब रोने के लिए ऊर्जा कहाँ बचेगी? जो रोता, उसको तो तुमने कर्म में ही झोंक दिया पूरा। वो रोने के लिए बचा ही नहीं, न वो हँसने के लिए बचा। अब जीत हो या हार हो, वो गायब है। कौन रोएगा, कौन हँसेगा?
पर हम कभी भी अपने-आपको कर्म में पूरा झोकते नहीं। क्यों? जब फल आएगा तो उसका मज़ा लेने के लिए हमें तो बचे रहना होगा न। लड़ाई सिर्फ़ लड़नी थोड़े ही है, लड़ाई के बाद जीत का मज़ा भी तो लेना है। तो ख़ुद को बचाकर लड़ो। जब ख़ुद को बचाकर लड़ोगे तो क्या होगा? हारोगे। लो, जीत का मज़ा माँग रहे थे, मिल गई हार। लड़ आधे-अधूरे तरीके से रहे थे क्योंकि अपने-आपको बचाना चाहते थे लड़ाई के बाद जीत का मज़ा लेने के लिए। पर चूँकि आधे-अधूरे तरीके लड़ रहे थे, इसीलिए हार गए। अब ले लो जीत का मज़ा। अब रोओगे।
असली योद्धा निष्काम लड़ता है। निष्काम का मतलब है कि उसे युद्ध से ही प्रेम होता है। वो कहता है कि आगे की किस चीज़ के लिए अपने-आपको बचा रहा हूँ। यदि में जिस प्रयत्न में हूँ, वो असली है, तो मैं उसको अपना सौ प्रतिशत अभी दे दूँगा न। आगे के लिए मैं क्या बचाकर रखूँ, भाई। और अगर आगे के लिए बचाने की बात है, इसका मतलब अभी जो लड़ाई है, वो बहुत आवश्यक नहीं है। अगर अभी की लड़ाई आवश्यक है तो पूरा मुझे लड़ने दो न।
जो पूरा लड़ लिया, वो लड़ने के बाद सो जाता है। परिणाम का तो उस पर बहुत असर ही नहीं पड़ता। वो कहता है कि अब और हो क्या सकता था। जो अधिकतम हो सकता था, वो हो गया। अब उसके बाद जो कुछ है, वो वही है जो होना है, उस पर हमारा अब कोई अधिकार नहीं।