प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी आपने बोला कि मैन इज़ नॉट इन द नेचर, ओनली मैन इज़ डिजाइन्ड फॉर लिबरेशन (मनुष्य प्रकृति में नहीं है, केवल मनुष्य को मुक्ति के लिए बनाया गया है) लेकिन मैन (मनुष्य) का जो शरीर है पूरा वो आया तो प्रकृति से ही है। तो प्रकृति ने ऐसा शरीर बनाया ही क्यों जिसे लिबरेशन (मुक्ति) की चाहत हो?
आचार्य प्रशांत: ख़ुफ़िया राज़ है ये।
इसका उत्तर ये है कि तुम्हें ये प्रश्न क्यों आया? तुम्हें क्यों आया ये प्रश्न, किसी जानवरों को क्यों नहीं आता? तुम्हें क्यों आ रहा है?
पता करो।
आदमी है ही ऐसा। क्यों है ऐसा ये मत पूछो। आदमी है ही ऐसा कि वो बेचैन है और वो सोचता है। जानवर नहीं सोचते। आदमी प्रश्न करता है, जानवर नहीं प्रश्न करते। आदमी को जवाब नहीं मिला तो वो विकल हो जाता है। जानवर को जवाब नहीं मिला, क्या फ़र्क पड़ता है।
प्र: तो ये जो जवाब पाने की इच्छा है क्या ये इंसान के शरीर में इसलिए है क्योंकि वो दो-लाख साल पार कर चुका है?
आचार्य: ऐसे भी कह सकते हो कि शरीर ऐसा है, ऐसे भी कह सकते हो कि लीला है। हम नहीं जानते कि शरीर की वज़ह से है या किसी और वज़ह से है। कारण खोजोगे तो कारण तुम कह सकते हो कि शरीर में निहित है।
बहुत लोगों ने कहा है कि कारण शरीर में निहित है। कारण ये बताए गए कि आदमी दो पाँवों पर चलता है, तो मस्तिष्क की ओर गुरुत्वाकर्षण के कारण कम खून जाता है। कम खून जाता है तो खून का दबाव कम रहता है। खून का दबाव कम रहता है तो महीन-महीन कोशिकाएँ विकसित हो पाई हैं।
भई, पानी का बहाव बहुत तेज़ हो तो सब कुछ बहा ले जाएगा न? आदमी के सिर पर खून का दबाव कम हो गया है तो महीन-महीन कोशिकाएँ विकसित हो पाईं। जैसे कि अगर नदी का बहाव हल्का हो तो उसमें घास वगैरह विकसित हो सकती है। तो आदमी के कुछ खास चीज़ें विकसित हो गई हैं। कहने वाले ऐसे भी बताते हैं। कहने वाले ये भी कहते हैं कि बात इसमें मस्तिष्क की है ही नहीं। ये कोई और बात है।
कारण खोजने की बात नहीं है, तथ्य स्वीकार करना ज़रूरी है। तथ्य ये है कि आदमी बेचैन है। चाहे वो मस्तिष्क की वजह से हो, चाहे वो मस्तिष्क के पार के किसी कारण की वजह से हो। और उसकी बेचैनी का इलाज मस्तिष्क में नहीं है। तुम मस्तिष्क के साथ कुछ भी कर लो, मस्तिष्क शांत नहीं हो जाने वाला। और अगर तुमने भौतिक उपायों से मस्तिष्क को शांत कर दिया तो वो शांति झूठी होगी।
भौतिक उपायों से भी मस्तिष्क को शांत किया जा सकता है। कई तरह के भौतिक उपाय हैं जो मस्तिष्क को शांत कर सकते हैं। कोई गोली खा लो, कोई इंजेक्शन लगा लो, या हथौड़ा, वो भी तो एक भौतिक उपाय ही है। एक हथौड़ा मस्तिष्क को बहुत शांति दे देगा हमेशा के लिए। लेकिन ये असली शांति नहीं होगी, कि होगी?
तो जिन्होंने मस्तिष्क की बेचैनी की वजह ढूँढी, उन्होंने कहा कि बेचैनी की वजह और चैन का स्रोत एक ही होंगे न। जिसके लिए बेचैन हो पता चल जाएगा उसका, अगर ये देख लो कि चैन कहाँ से आ रहा है। तो उन्होंने पाया कि अगर भौतिक वजह होती आदमी की बेचैनी की तो भौतिक वजह से फिर चैन भी आ जाता। लेकिन भौतिक वजहों से चैन तो मिलता नहीं। मिलता भी है तो वो क्षणभंगुर, थोड़ी देर को हल्का-फुल्का। तो माने आदमी की बेचैनी की वज़ह मस्तिष्क का जो ढाँचा है, उसकी जो संरचना है वो नहीं है, फिर कोई और ही बात है, वो क्या बात है?
वो हम कभी जान नहीं सकते। ये प्रकृति की पूरी व्यवस्था में आदमी का ही खोपड़ा ऐसा क्यों है जिसे मुक्ति चाहिए?
पता नहीं।
तो फिर कुछ लोगों ने एक और बात बोली। बोले, "तुम्हें क्या पता कि आदमी का ही खोपड़ा ऐसा है जिसे मुक्ति चाहिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि तुम अपने इसी सीमित खोपड़े से पूरी प्रकृति को देखते हो और तुम्हें लगता है हमें ही चाहिए मुक्ति, औरों को नहीं चाहिए? कहीं ऐसा तो नहीं कि पूरी प्रकृति तुम्हारे माध्यम से मुक्ति तलाश रही हो?"
हो सकता है कि जो मुक्ति तुम माँग रहे हो वो तुम्हारी व्यक्तिगत मुक्ति ना हो, पूरी प्रकृति की मुक्ति हो। हो सकता है कि जब एक को निर्वाण मिलता हो, तो उसके माध्यम से निर्वाण बहुत व्यापक हो जाता हो। तो ये भी नहीं कह सकते कि प्रकृति को वास्तव में मुक्ति नहीं चाहिए। हो सकता है प्रकृति ने इंसान को अपना प्रतिनिधि बनाया हो कि तुम आगे-आगे चलो, मुक्ति लेकर आओ पीछे-पीछे ये सब चील, कौएँ, खरगोश ये सब भी आएँगे, इन्हें भी मुक्ति चाहिए भाई। कुछ पता नहीं, लेकिन एक बात पक्की है, बेचैन तो हो और यही याद रखो।
प्र: आचार्य जी, जो सनातन मुक्ति थी वो किसकी मुक्ति थी जब इंसान था ही नहीं? जैसे खरगोश की चेतना रही हो पर उस समय इंसान की चेतना तो थी ही नहीं।
आचार्य: खरगोश भी किसको दिख रहा है? वो तुम्हारी चेतना में ही है। मैंने कहा तुम नहीं हो तो सूरज भी नहीं रहेगा तो तुमने कहा, "ठीक है। मैं नहीं हूँ तो सूरज भले नहीं होगा पर खरगोश तो होगा।"
जब तुम नहीं हो तो खरगोश कहाँ है?
ये विज्ञान जितने किस्से बताता है न कि आदमी नहीं था पर आदमी से पहले ये सब कुछ था, वो झूठे हैं क्योंकि कुछ भी होता है उसको देखने वाली चेतना के संदर्भ में। अरे भाई अगर उसको देखने वाली चेतना ही नहीं थी, तो कुछ भी कहाँ था।
तुम आज बैठ कर कह रहे हो कि इंसान नहीं था फिर भी पाँच-खरब वर्ष पहले ये सब कुछ था — आईओनिक रिएक्शन (आयनिक प्रतिक्रिया) चल रहे थे, ये हो रहा था वो हो रहा था। किसके लिए चल रहे थे, फॉर हूम ?
इसका तो जवाब ही नहीं देगा विज्ञान। अध्यात्म में ये पहला सवाल है कि जो कुछ भी होता है किसी के लिए होता है, किस के संदर्भ में होता है, फॉर हूम , किसके लिए, कोहम, कौन।
अगर कोई देखने ही वाला नहीं था तो वो घटना घट किसके लिए रही थी, वो फिनोमिना किसके लिए था? विज्ञान इस प्रश्न का जवाब ही नहीं देता। प्रश्न क्या है, समझ रहे हो?
हर फिनोमिना , हर भौतिक घटना किसी दृष्टा के संदर्भ में होती है। अगर उस समय इंसान नहीं था, तो वो घटना किसके लिए घट रही थी?
तुम लेकिन कल्पना कर लेते हो, आँख बंद करते हो कहते हो, "देखो इंसान नहीं है पर मुझे दिखाई दे रहा है। वो तारा है और तारा दस करोड़ डिग्री के तापमान पर है और उसमें विघटन हो रहा है और ये हो रहा है। इंसान नहीं है तो भी वो सब तो हो सकता है न?"
ये सब भी अभी कौन देख रहा है? तुम देख रहे हो न?
ये बात हमारे गले से उतरती नहीं, आसानी से पचती नहीं पर इस बात को समझो। जो कुछ भी हो रहा है वो उसको देखने वाली चेतना के संदर्भ में हो रहा है। देखने वाली चेतना अगर अनुपस्थित है तो कहीं कुछ नहीं हो रहा है।
प्र: ये बात तो समझ में आ रही है। तो फिर इतनी जो स्पीसीज एक्स्टिंक्ट (प्रजाति विलुप्त) हो रही हैं, उसमें भी बोल देंगे कि भई जबतक इंसान देख रहा है, उसके लिए हो रही है।
आचार्य: बिलकुल हो रही है।
प्र: तो फिर लोग तर्क भी देते हैं कि हम फिर क्यों एक्ट (कार्य) करें, मैं तो आगे नहीं रहूँगा।
आचार्य: ये तर्क सिर्फ़ आत्मा दे सकती है। अगर तुम आत्मा होकर ये तर्क दो कि ये सब तो लीला मात्र है और प्रलय में तो सबको नष्ट ही हो जाना है तो नष्ट हो जाए, तो ठीक है। जो ये तर्क देते हैं कि, "जो नष्ट हो रहा है हो, क्या फ़र्क पड़ता है।" उनसे मैं कहूँ, "अगर तुम्हारा बेटा अभी नष्ट हो जाए फिर यही तर्क दोगे?"
ये तर्क सिर्फ़ वो दे सकता है जो अब आत्मा मात्र हो गया है, जिसे अब कोई आसक्ति नहीं है। पर लोग आते हैं, कहते हैं, "देखिए साहब, तमाम तरह की प्रजातियाँ तो खुद भी विलुप्त होती ही रहती हैं और एक दिन तो ऐसा आएगा ही न जब पूरी पृथ्वी विलुप्त हो जाएगी। तो आज अगर कुछ जानवर मर रहे हैं, विलुप्त हो रहे हैं तो क्या फ़र्क पड़ता है?"
तो मैं कहता हूँ, "ठीक है, तुम्हारा बेटा भी आज ही मर जाए क्या फ़र्क पड़ता है।" तो कहते हैं, "हैं!" तो अब क्यों अचकचा गए?
जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें अपने बेटे के मरने से भी कोई फ़र्क ना पड़ता हो, उस दिन कहना कि अगर जंगल पूरे ख़त्म हो रहे हैं तो क्या फ़र्क पड़ता है। मुझे इस तर्क से बिलकुल कोई आपत्ति नहीं है कि ये सब तो मिथ्या ही है। मिथ्या अगर मिट गया तो क्या ग़ज़ब हो गया? बिलकुल मान रहा हूँ।
पर तुम ये नहीं कर सकते कि पड़ोसी का घर मिथ्या है लेकिन मेरा बेटा असली है। ये बेईमानी हो गई। जिस दिन तुम ऐसे हो जाओ कि तुम्हें सब कुछ मिथ्या लगे, अपना बेटा भी मिथ्या लगे, अपना शरीर भी मिथ्या लगे, तुम जंगल के मिटने के लिए ही नहीं अपने मिटने के लिए भी तैयार हो जाओ, उस दिन ये तर्क दे देना कि स्पीसीज एक्स्टिंक्त हो रही हैं तो क्या हो गया।
जैसे ही कोई तुमसे बोला करे कि प्रजाति मिट रही हैं तो क्या हो गया, उसको बंदूक दिखाया करो, बोलो, "फिर तुम भी मिट जाओ तो क्या हो गया। जब सब मिथ्या ही है तो तुम्हारे मिटने से भी क्या हो गया?"
नहीं, अपने मिटने से तो बड़ी घबराहट है। वो बेचारा जानवर है, वो मिट रहा है तो फिर घबराहट नहीं है। ये बेईमानी हो गई।