आचार्य प्रशांत: विश्व है, पूरा ब्रह्मांड ही है — ऐसा किसको लगता है? विश्व है भी इसका प्रमाण, या गवाह, या अनुभोक्ता कौन है? अहं है और मात्र अहं है उसके अलावा कोई नहीं है। आप ही हैं जिसके लिए ये विश्व है। यह तो छोड़िए कि आप नहीं रहेंगे तो भी दुनिया रहेगी क्या, आपकी ही अगर स्थिति बदल जाती है तो विश्व आपके लिए बदल जाता है, बल्कि लुप्त भी हो जाता है।
यह तो बहुत दूर की बात है कि अगर अहं नहीं है तो भी क्या संसार है, अहं की ही स्थिति बदल जाती है जब तो दुनिया बदल जाती है। आपको प्यास लगी हो आप पानी पी लीजिए, आपके लिए इन दीवारों का रंग बदल जाएगा। और अभी तो मैंने बहुत छोटे बदलाव की बात करी है। आप बाहर खड़े हों और कोई खुशखबरी आ जाए, आपके लिए पेड़ों के पत्ते ज़्यादा हरे हो जाएँगे। और जिस दिन मन ख़राब होता है, देखा है उस दिन पूरी दुनिया ही कितनी ख़राब लगती है। जो कुछ है आप ही के लिए है। और देखा है थोड़ा सा नशा कर लें तो दुनिया कैसे नाचने लगती है। और देखा है जब नींद बहुत आ रही हो तो घड़ी में ठीक से समय भी नहीं देखा जाता। जैसे घड़ी ही डोल रही हो। और देखा है कैसे जब सो जाते हैं तो संसार पता नहीं कहाँ जाता है। दुनिया जैसी भी है अहं के लिए है। यह बात साफ़-साफ़ समझिए और इस बात को अपने लिए जितनी बार दोहराएँ उतना कम है।
दुनिया का अपने-आपमें कोई अलग, निरपेक्ष, स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है। हमारी भाषा, हमारी धारणा ऐसी रहती है कि हमें लगता है दुनिया थी, और उस दुनिया में एक दिन हम पैदा होकर के आ गए। जैसे रेल का डब्बा था और उसमें एक दिन आप चढ़ गए। आपके चढ़ने से पहले भी वो रेल का डब्बा था, उस रेल के डब्बे की यात्रा थी, और उस रेल के डब्बे में सवारियाँ थीं। हमारे मन में कुछ ऐसा ही नक्शा रहता है। रहता है न? कि दुनिया पहले से थी, लोग पहले से थे, उसमें एक दिन मैं भी चढ़ गया रेल के डब्बे में। और फिर एक दिन उस रेल के डब्बे से मैं उतर जाऊँगा। मैं उतर जाऊँगा तो फिर डब्बा भी रहेगा, सवारियाँ भी रहेंगी और उनकी यात्रा भी रहेगी। हमारे मन में ऐसा नक्शा रहता है और यह बात हमको बहुत सीधी और प्रमाणित लगती है।
हमको लगता है ऐसा ही तो है। कैसे लगता है? कहते हैं — देखो, मैंने अभी देखा कि दुनिया चल रही है, चल रही है, और एक दिन मेरे भाई के घर में नया बच्चा आ गया। इससे क्या पता चलता है? कि बच्चे के पैदा होने से पहले भी तो दुनिया थी, और वो जो दुनिया पहले से थी, उसी में तो बच्चा आ गया न? वो जो दुनिया बच्चे के पैदा होने से पहले से थी, किसके लिए थी? बच्चे के लिए? आपके लिए थी न। और आप जिस दुनिया की बात कर रहे हैं वह आपके लिए किस दिन से शुरू हुई है? आपके पास कोई प्रमाण नहीं है कि आपसे पहले भी दुनिया थी। आपके पास जो भी प्रमाण हैं कि आपसे पहले दुनिया थी वह प्रमाण भी आपको आपके होने के कारण मिले हैं। आप ना हों तो वो प्रमाण भी कहाँ से मिलेंगे?
आज से पाँच-सौ साल पहले भी दुनिया थी, यह प्रमाण आपको पाँच-सौ साल पहले मिला था? यह प्रमाण भी आपको कब मिला? जब आप हो गए। बड़ी-से-बड़ी हमारी भूल रहती है दुनिया को वस्तुगत मान लेने की, दुनिया को स्वतंत्र मान लेने की, दुनिया को एक इंडिपेंडेंट आइडेंटिटी दे देने की। यही मूल द्वैत है, यही मूल दुःख का कारण है।
जैसे ही आपने दुनिया को अपने से अलग मान लिया, वैसे ही अहं ने अपने-आपको एक सत्ता दे दी। अहं अपने-आपको अलग समझता है न, हर चीज़ से; बहुत कुछ है उसमें मैं हूँ। और वो जो बहुत कुछ है मेरे इर्द-गिर्द वह मेरे लिए खतरा भी है, वही मेरे लिए अवसर भी है, संभावना भी है, उसी का मुझे डर भी है, उसी का मुझे लालच भी है। तो अहं है जो दुनिया का दृष्टा है, अहं है जो दुनिया का भोक्ता है। और अहं एक तरफ़ तो अपने-आपको दुनिया से अलग समझता है और दूसरी ओर दुनिया के बिना रह नहीं सकता है।
कोई आपको ऐसा नहीं मिलेगा जो बोले सिर्फ 'मैं'। वह हमेशा बोलेगा मैं 'कुछ', और वो जो 'कुछ' है वह दुनिया की कोई चीज़ है — मैं शरीर, मैं महिला, मैं पुरुष, मैं अमीर, मैं गरीब, मैं ज्ञानी, मैं अज्ञानी, मैं गृहस्थ। कोई नहीं कहेगा सिर्फ़ मैं। तो दुनिया किसके देखे है? अहं के, और अहं किस पर आश्रित है? दुनिया पर।
दुनिया अहं से है, अहं दुनिया से है। तो इससे यह तो पता चल ही नहीं रहा कि ये सबकुछ किससे है। अहं दुनिया का जन्मदाता नहीं है पर दुनिया का भोक्ता ज़रूर है। अगर अहं दुनिया का जन्मदाता होता तो हम ये कह पाते कि दुनिया जब नहीं थी तब भी अहं था। पर ऐसा है नहीं क्योंकि हमने अभी देखा कि दुनिया के बिना अहं हो नहीं पाता। तो माने दुनिया और अहं साथ-साथ ही आए। इसी तरीके से ऐसी कोई दुनिया नहीं हो सकती जिसमें अहं नहीं है क्योंकि अगर दुनिया है, संसार है, और अहं नहीं है तो फिर कहेगा कौन कि संसार है। अगर संसार है और अहं नहीं है, तो किसके लिए है संसार?
संसार किसी के लिए होता है न, कोई तो होगा न जो कहेगा कि संसार है। जब अहं ही नहीं है तो कहेगा कौन कि संसार है? अहं आश्रित संसार पर, संसार आश्रित अहं पर। यह दोनों तो एक जैसे ही लग रहे हैं। जैसे कि किसी चित्र में आपको दिखाई दे कि लहरें हैं, और लहरों के ऊपर दो लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे का हाथ थाम रखा है। पानी है, और पानी के ऊपर दो लोग हैं जिन्होंने एक दूसरे का हाथ थाम रखा है। वह खड़े हुए हैं और एक दूसरे का हाथ थाम रखा है। तो क्या आप ये निष्कर्ष निकालेंगे कि पहला व्यक्ति दूसरे को डूबने नहीं दे रहा है और दूसरा व्यक्ति पहले को डूबने नहीं दे रहा, कहिए? निश्चित रूप से एक चीज़ चित्र में छुपी हुई है या चित्र लेने वाले ने फ्रेम ऐसा लगाया है कि एक चीज़ काट दी है। कौन सी चीज़? आप एक चित्र देख रहे हैं, एक फ़ोटो देख रहे हैं जिसमें दो लोग पानी पर खड़े दिखाई दे रहे हैं और दोनों ने एक दूसरे का हाथ थाम रखा है। तो क्या ये निष्कर्ष निकालना उचित होगा कि पहला व्यक्ति दूसरे को डूबने नहीं दे रहा है और दूसरा व्यक्ति पहले को डूबने नहीं दे रहा? असली बात क्या होगी? दोनों के पांँव के नीचे कोई नाव है। परमात्मा उसी नाव का नाम है। और यह बहुत सीधी बात है कि दो ऐसे अगर खड़े हैं, जो दोनों एक दूसरे पर आश्रित हैं तो दोनों किस पर आश्रित हैं? दो लोग खड़े हैं बेशक। एक दूसरे का हाथ थाम करके। तो दोनों कहांँ से आ रहे हैं? क्योंकि पहला दूसरे से नहीं आ सकता, दूसरा पहले से नहीं आ सकता, दोनों जब आते हैं तो साथ-साथ आते हैं। दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं। तो दोनों निश्चित रूप से किसी और से आ रहे हैं। उनका स्रोत, साझा स्रोत कोई और है। उसको परमात्मा कहते हैं। इस अर्थ में कहा जाता है कि परमात्मा ने विश्व की रचना की। इसका वो बालकपने का अर्थ मत लगा लीजिएगा, जो परी कथाओं में हमने कई बार पढ़ा है। क्या? कि परमात्मा के पास करने को कुछ नहीं था, बूढ़ा आदमी है, सफेद कपड़ों को पहनकर बादलों के ऊपर कहीं बैठा रहता है। उबासी ले रहा था तो एक दिन बोला "चलो कुछ करते हैं। शुरू करो अंताक्षरी लेके मेरा ही नाम, समय बिताने के लिए करना है कुछ काम।" तो परमात्मा ने बोला, "शू!" और मिट्टी प्रकट हो गई। परमात्मा ने बोला, "भू!" और पानी प्रकट हो गया। और मिट्टी और पानी मिला कर परमात्मा ने एक औरत और एक आदमी बना दिया। यह बहुत किसी अल्पविकसित और अर्धविकसित मन की कल्पना हो सकती है। बच्चों के लिए अच्छी है ऐसी बातें। इन बातों में कोई परिपक्वता नहीं। इन बातों में कोई गहराई नहीं।
अध्यात्म अगर सच्चा है तो उसका विज्ञान से कोई विरोध नहीं हो सकता। कोई बात ऐसी नहीं मिलेगी सच्चे आध्यात्म में जिसको विज्ञान पहले ठुकरा सकता हो, आज ठुकराता हो या भविष्य में भी कभी ठुकरा पाएगा। आध्यात्म अगर सच्चा है तो वो भौतिक क्षेत्र के दावे करेगा ही नहीं।
अनेक रूप धारण करने वाला, यह भी हमने सुना है न? कि ईश्वर तो ना जाने कितने रूपों में प्रकट हो जाता है। ऐसे भी कहा जाता है कि कण-कण में भगवान है। इन बातों का अर्थ क्या है? कि ईश्वर कहीं बैठें हैं और जब उनका मन करता है तो अपनी चमत्कारिक शक्तियों से वह कोई भी रूप धारण कर लेते हैं? जैसे टीवी सीरियल्स में आप देखते थे कि कोई बेचारी महिला खड़ी हुई है उसको बचाने के लिए ईश्वर आँख बन्द करके उसके सामने प्रकट होगा और जब प्रकट हो रहे होते थे तो ऐसे गोल गोल प्रकाश का घेरा पहले आता था और उस घेरे में से फिर वो निकलते थे, क्या ये मतलब है? क्या मतलब है इस बात का कि वो जो परमात्मा है, सत्य है वह अनेकों रूप धारण करता है, क्या अर्थ है?
अरे भाई, जब उससे ही अहं है और संसार है — इसी संसार को हम और किन नामों से बुलाते हैं? प्रकृति — जब उससे ही पुरुष है और प्रकृति है तो प्रकृति में जितने भी रंग-रूप हैं वह भी तो उसी से हुए न। मैं कहूँ, "यह घर मेरा है।" एक बार कह दिया यह घर मेरा है तो प्रकट सी बात है कि घर में जो सैकड़ों चीज़ें रखी हैं या घर की दीवारों में जो एक-एक ईंट लगी है या घर को बनाने में एक-एक जो बालू का कण लगा है वह भी मेरा है। तो एक बार आपने कह दिया कि परमात्मा प्रकृति का आधार है, उसके बाद प्रकृति में जो छोटे-से-छोटा कण भी है, उसका आधार कौन हो गया? परमात्मा हो गया। एक बार आपने कह दिया कि प्रकृति परमात्मा से आती है, तो फिर आपने कह ही दिया न कि प्रकृति में जो नदी है, जो पेड़ हैं वह सब परमात्मा के ही रूप हैं। जब समूची प्रकृति, माने समूचा संसार ही परमात्मा से आया है, तो प्रकृति में जो नदी है वह कहाँ से आई है? घर मेरा है तो ये खंबा किसका है? मेरा ही तो हुआ न और इस पूरे घर को क्या बोलते हैं? संसार या जगत या प्रकृति। मैं कौन हूँ? जो इस घर में रहता है और इसकी हर एक चीज़ को देखता है, अनुभव करता है, जानता है, सूँघता है, भोगता है और उन्हीं सब चीज़ों से संबंध स्थापित करता है। एक बार यह बात समझ में आ गई कि यह घर, यह पुर— पुर मानें नगर — और उस पुर के भीतर रहने वाला पुरुष यह दोनों किसी मुक्त स्रोत से आएँ हैं तो उसके बाद जो भी यहाँ पर खेल चल रहा है उस पूरे खेल का अधिष्ठाता, आधार कौन हो गया? वही जिससे सब कुछ आया है।
तो जब भी इस तरह की बातें आप के कान में पड़ें या जब भी आपको इस तरह के विचार आएँ कि, "हे भगवान दुनिया तो तेरी ही है।" तो बहुत सतर्क रहिएगा क्योंकि मन की प्रवृत्ति होती है तुरंत ऐसी कल्पना कर लेने की, कि कोई भगवान है जो दुनिया को चला रहा है। और इस तरह की बातें हमनें कहानियों में भी खूब पढ़ लीं। जो हमारे धार्मिक पोस्टर वगैरह होते हैं वह भी तो ऐसे ही होते हैं न। उसमें क्या होगा? उसमें नीचे दुनिया का कारोबार दिखाया जा रहा होगा, कि लोग हैं अपना काम-धंधा कर रहे हैं, बच्चे हैं, बड़े हैं, और नीचे की अपनी पूरी एक व्यवस्थता चल रही है। जैसे इतना लंबा पोस्टर है उसमें ऊपर क्या दिखा दिए जाते हैं, कौन बैठे हैं? भगवान जी बैठे हैं। भगवान जी कैसे बैठे हैं? हाथ से आशीर्वाद देते हुए बैठे हैं और उनके हाथ से रौशनी निकल रही है।
तो हमारे मन में इस तरह की बात बिलकुल घर कर गई है कि नीचे ज़मीन है और ऊपर आकाश है वहाँ भगवान जी बैठे हैं और वो अपने हाथ से सब चला रहे हैं और वहीं ऊपर बैठे-बैठे वो सब का हिसाब-किताब भी लिखे जा रहे हैं। "बंटू ने दो रुपए चुराए हैं, लिखो।" ऐसी ही धारणा है न? ऐसी ही धारणा है भी और ऐसी ही धारणा हम आगे अपने बच्चों में भी डाल देते हैं। कोई कुछ ग़लत करे तो कहेंगे भगवान सब देख रहा है और जैसे ही आप कहते हैं कि भगवान सब देख रहा है, तो मन यही करता है कि धीरे से देखे कि ऊपर छत में कोई छेद है क्या। कभी ऐसा हुआ है कि आप कहें कि भगवान सब देख रहा है तो तत्काल किसी ने नीचे फर्श की ओर देखा हो कि भगवान कहीं फर्श के नीचे से ना देखता हो? आप प्रार्थना में भी क्या करते हो, कभी ऐसे करते हो कि नीचे को प्रार्थना कर रहे हो? प्रार्थना भी कैसे करते हो? ऊपर। यह वही है हमारी परी कथा का अध्यात्म जिसमें आसमानों पर कोई भगवान बैठा है। अब ये बात तो वैज्ञानिक दृष्टि से भी ग़लत है न। आसमान कोई वास्तव में आपके ऊपर थोड़े ही है। यह ऊपर नीचे तो आपके द्वारा परिभाषित दिशाएँ हैं।
आपके लिए जो इस वक़्त अभी ऊपर है वह अमेरिका में बैठे किसी व्यक्ति के लिए नीचे है। लेकिन दिमाग को तो यह सोचने में भी तकलीफ़ होती है कि अगर पृथ्वी गोल है और भारत अभी यहाँ ऊपर है और हम खड़े हैं, तो अमेरिका वाले वहाँ नीचे खड़े हैं तो नीचे गिर क्यों नहीं जाते? आप सोचिए बड़ी तकलीफ का काम होगा ये कि अमेरिका में सब उल्टे लटके हुए हैं। वो नीचे गिर क्यों नहीं रहे? तो अपनी इसी तरह की प्राकृतिक बुद्धि से हम परेशान रहते हैं। इसमें कोई हमारा दोष नहीं है। यह प्रकृति का खेल है। प्रकृति हमें एक सीमा से आगे सोचने-समझने देना ही नहीं चाहती। क्योंकि अगर आपने एक सीमा से आगे सोच लिया, समझ लिया तो आप प्रकृति से आज़ाद हो जाते हैं। आप प्रकृति से आज़ाद हो गए तो आप प्रकृति के खेल को आगे नहीं बढ़ाएँगे। तो प्रकृति आपको बुद्धि देती है, पर सिर्फ़ उतनी जितनी आपके ज़िंदा रहने के लिए और प्रजनन करने के लिए ज़रूरी है।
प्रकृति की जो मंशा रहती है वो यह रहती है कि आपमें बुद्धि रहे, खूब रहे, पर एक सीमा से ज़्यादा ना रहे। इतनी तो रहे कि आप दुनिया में भोग सको, जीवित रह सको, सुविधा से रह सको, सुख पा सको, और संतानें पैदा कर सको लेकिन उससे ज़्यादा हो गई अगर बुद्धि तो? जैसे किसी जेल में क़ैदियों को खूब पुष्ट किया जा रहा हो खाना खिला-खिला कर। तो क़ैदियों की जो सेहत बनाई जा रही है जेल में वो इसीलिए बनाई जा रही है ताकि वो जेल में और पत्थर तोड़ सकें, और काम कर सकें। उनसे जो भी श्रम करवाया जा सके जेल के भीतर, वो श्रम कर सकें। पर अगर कोई क़ैदी इतना मजबूत हो गया कि वो जेल की सलाख़ें ही तोड़ कर भाग जाए तो यह बात जेलर को नहीं सुहाएगी। प्रकृति वो जेलर है। वो आपको ताक़तवर रखना चाहती है, किस सीमा तक? जिस सीमा तक आप प्रकृति के इरादों में सहयोगी हो सकें। जिस सीमा तक आपको जेल में जो श्रम करने को कहा जाए, आप वो कर सकें। श्रम करने के लिए ही तो मेहनत चाहिए तो प्रकृति आपको खिला-पिला कर रखती है। खिलाएगी-पिलाएगी नहीं तो मेहनत कैसे करोगे? लेकिन वो यह नहीं चाहती कि आपकी ताक़त एक सीमा का उल्लंघन कर जाए। समझ में आ रही है बात?
प्रश्नकर्ताः आचार्य जी, अभी आपका वीडियो एक देखा था, उसमें आपने कहा था कि प्रकृति तब तक ही लोगों को जीवन देती है जब तक उसे उम्मीद रहती है कि ये मुक्ति के रास्ते पर हैं। तो यह एक नई बात सुनी थी उस वीडियो में लेकिन आज इस बात का विरोधाभास सा प्रतीत हुआ।
आचार्य: देखो अगर प्रकृति को सिर्फ़ मुक्ति ही चाहिए होती तो मुक्ति हो गई होती न। यहाँ पर खेल माया का है, प्रकृति को ही माया कहते हैं। माया का अब क्या मतलब होता है? माया का मतलब होता है - चाहिए भी है और नहीं भी चाहिए है। चाहिए भी है पर अपने तरीके से चाहिए है, अहं के साथ चाहिए। समझ रहे हो?
स्वर्ग भी देखना है और मरना भी नहीं है। मुक्ति भी चाहिए लेकिन ज़ंजीरें टूटनी नहीं हैं। यह प्रकृति की शर्तें रहती हैं। तो इसीलिए तो मुक्ति मिलती नहीं। नहीं तो मुक्त होने में क्या दिक़्क़त है? अहं का वास्तविक स्वरूप तो मुक्ति ही है। कोई बाधा नहीं है। अगर मुक्ति नहीं मिल रही तो उसका कारण स्वयं अहं है न। तो वो मुक्ति माँगता है पर अपने तरीके से माँगता है। "मुक्ति तो चाहिए पर मेरे वाली चाहिए, मेरे रास्तों से चाहिए।"
जैसे कि बहुत होता है, लोग आते हैं कुछ पूछने के लिए मुझसे या कुछ दिनों तक संस्था में भी रहते हैं। फिर कुछ पूछा उसका उत्तर उनको भाया नहीं, या संस्था में साथ हैं वहाँ पर भी उनको नाराज़गी हो गई। और उनका तर्क क्या रहता है? तर्क रहता है — नहीं, आप हमें समझाइए, या आप हमें सुधारिए, पर हमारे तरीके से। ये अहं है। "हमें समझ में आ रहा है कि हम ग़लत हैं तभी तो हम आपके पास आए हैं। हमें समझ में बिलकुल आ रहा है कि हम ग़लत हैं। हमें सुधार की ज़रूरत है, हमें बेहतर होना है तभी तो हम आपके पास आए हैं। पर आपके तरीके हमको पसंद नहीं हैं। आप जोर बहुत डाल देते हो। आप जल्दी बहुत कर देते हो। तो मुझे बेहतर होना है पर मेरे ही तरीकों से।" बाबा, तुम्हारे तरीके ही तो तुम्हारी समस्या हैं। और तुम्हारे तरीकों पर जो तुम्हारा ज़ोर है उसी को तो अहंकार बोलते हैं। तो ये बात दो-तरफा है।
ऐसा नहीं है कि प्रकृति मुक्ति मात्र को व्याकुल है, और कोई और आ कर के उसको रोक रहा है। प्रकृति ही प्रकृति है। अगर प्रकृति मुक्ति मात्र को ही व्याकुल होती, मात्र मुक्ति मात्र को ही, तो उसे कौन रोक पाता? फिर समय की इतनी धारा क्यों बहती रहती। तो कोई तो बाधा भी होगी न? उस बाधा का क्या नाम है? स्वयं प्रकृति। प्रकृति को मुक्ति चाहिए भी लेकिन उस मुक्ति के रास्ते में वो बाधा भी स्वयं ही है। और जब मैं प्रकृति कहूँ तो उसको सुन लेना इन्सान। इन्सान को मुक्ति चाहिए भी और उस मुक्ति के रास्ते में वो बाधा भी स्वयं ही है। यही हम सब की हालत है, हम बँटे हुए लोग हैं। एक तरफ़ तो हर किसी को ऊँचाई चाहिए, आज़ादी चाहिए, और दूसरी ओर हमें बहुत मोह है हमारे बंधनों से। तो प्रकृति की जो कहानी है वो वास्तव में हर एक मनुष्य की कहानी है। हममें से हर एक की कहानी है।
प्र: आचार्य जी, प्रकृति के नाम से मन में ऐसा चित्र आता है कि जो बाहरी शक्तियाँ हैं या आसपास का जो धरातल है, वो प्रकृति की सरंचना है। जिस तरह से जीव बढ़ रहा है, इसके प्रजनन होते हैं। प्रकृति के नाम से इस तरह नहीं आता कि हमारे अंदर कुछ है।
आचार्य: क्योंकि अहं प्रकृति से अपने-आपको अलग मानता है। उस अलगाव का नाम ही तो अहं है। प्रकृति बाहर तो बाद में है, भीतर तो पहले है न। बाहर तुमने देखा ये हाड़-माँस के लोग बैठे हैं। उनको तुमने देखा किससे भाई? हाड़-माँस की आँख से ही तो। पर ये जो हाड़-माँस की आँख है ये कहेगा हाड़-माँस की प्रकृति बाहर है। बाहर होती तो उसे तुम देख कैसे पाते? माँस को देखने के लिए क्या चाहिए? माँस। माँस ही माँस को देख सकता है। तो बाहर होगी लेकिन पहले कहाँ है? भीतर है। और भीतर जिस दिन नहीं रहेगी उस दिन बाहर बचेगी क्या? ये आँख का माँस हटा दो, तो ये बाहर का माँस दिखाई देगा? तो प्रकृति भीतर-बाहर सब जगह है।
देखो, भीतर और बाहर कहाँ होते हैं? आकाश में, स्पेस में। तुम स्पेस में ही कोई रेखा खींच देते हो, कोई दीवार खींच देते हो, और कह देते हो इसके एक तरफ है उसको मैं बोलूँगा 'भीतर' और इस दीवार के उस तरफ है उसको मैं बोलूँगा 'बाहर'। भीतर बाहर सब प्रकृति ही है क्योंकि ये जो पूरा ये विस्तार ही है आकाश का, ये समूचा प्रकृति ही है। उसमें तुम कुछ चाहो तो भीतर कह लो, तुम कुछ चाहो तो बाहर कह लो। वो तुम्हारी यूँ ही मनमर्ज़ी की परिभाषा है। तुमने ये पकड़ ली दीवार, ये दीवार है। ये त्वाचा, ये खाल, ये क्या है? ये एक दीवार है। इस दीवार के अंदर वाले को तुम बोल देते हो — अहं। इस दीवार के बाहर वाले को तुम बोल देते हो — संसार। पर ये दीवार यूँ ही है, सांयोगिक है। इसका वास्तव में कोई महत्व नहीं है। इसका महत्व है भी तो किसके लिए है बस? अहं के लिए है। क्योंकि वो इस शरीर से जुड़ा हुआ है। तो वो इसको बोल देता है, "नहीं नहीं, ये थोड़े ही प्रकृति है, प्रकृति तो यही बाहर सब कुछ है।"
प्र२: प्रणाम आचार्य जी, अगर पुरुष और प्रकृति दोनों ही परमात्मा के अंश हैं। तो दोनों एक दूसरे से मुक्ति क्यों चाहते हैं?
आचार्य: पूरे आज के वक्तव्य में अंश शब्द का प्रयोग मैंने एक बार भी नहीं किया। सिर्फ़ उतना ही सुनो जितना कहा है। यह भी वही धार्मिक पोस्टरों वाला काम है कि परमात्मा का एक अंश हैं हम। अंश वगैरह कुछ नहीं है।
प्र२: पहले जो श्लोक जिस पर हमने चर्चा किया था उसमें ये चीज़ आई थी कि पूरा जगत परमात्मा से ही आया है।
आचार्य: तो अंश कहाँ से हो गया?
प्र२: जैसे अद्वैत में भी बोला जाता है कि पुरुष और प्रकृति एक ही हैं। अलग नहीं हैं दोनों।
आचार्य: अन्तिम बिंदु पर। जो मुक्त हो गया उसके लिए। जब तुम कहते हो दो चीज़ें एक हैं तो प्रश्न उठता है, "किसके लिए?" क्या तुम्हारे लिए? नहीं तुम्हारे लिए नहीं।
प्र३: लेकिन हम सन्तुष्ट नहीं हो पाते प्रकृति से कभी। हैं दोनों लेकिन परमात्मा के ही।
आचार्य: प्रकृति परमात्मा से है, परमात्मा तो नहीं है न। क्या कहते हैं कृष्ण भगवद्गीता में? "मैं इन सब भूतों में नहीं हूँ, यद्यपि ये सब भूत मुझमें है।" भूत माने क्या? भूत माने ये भौतिक सब। तो प्रकृति परमात्मा से है पर प्रकृति में तुम्हें परमात्मा नहीं मिल जाएगा। हाँ, प्रकृति माध्यम हो सकती है। प्रकृति वास्तव में एकमात्र माध्यम है। पर तुम कहो कि, "मुझे प्रकृति में ही परमात्मा मिल गया" तो बहकी हुई बात है। क्योंकि प्रकृति में तो फिर धन, दौलत, आदमी, औरत यही होते हैं। तुम्हें इन्हीं में मिल जाएगा क्या परमात्मा?