प्रकृति और पुरुष क्या हैं? मन धन में क्या ढूँढता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

6 min
975 reads
प्रकृति और पुरुष क्या हैं? मन धन में क्या ढूँढता है? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रकृति और पुरुष को समझाने की कृपा करें।

आचार्य प्रशांत: पुरुष-प्रकृति की जो अवधारणा है, मूलतः वो सांख्य योग से आयी है। लेकिन जिस तरीके से ‘पुरुष' शब्द का प्रयोग फिर आध्यात्मिक साहित्य में हुआ है, वो आवश्यक नहीं है कि सांख्य योग के अनुसार ही हो। तो ‘पुरुष’ शब्द का प्रयोग दो तरीके से हुआ है – कभी-कभी तो अविनाशी, अक्षर, अचल आत्मा को पुरुष कह दिया गया है, और कभी पराप्रकृति को ही पुरुष कह दिया गया है। तो एक पुरुष तो वो है जो अद्वैत आत्मा है – इस अर्थ में भी ‘पुरुष’ शब्द का प्रयोग हुआ है। और दूसरा पुरुष वो है जो प्रकृति के द्वैत का ही दूसरा पक्ष है।

ये दूसरा पुरुष कौनसा है, समझाए देता हूँ। आत्मा के विषय में तो ना कुछ बोलने की ज़रूरत है, ना बोला जा सकता है। ये दूसरा पुरुष कौनसा है, समझना! कृष्ण कहते हैं भगवद्गीता में, कहते हैं कि ‘जिसको तुम पुरुष समझते हो, वो भी प्रकृति-मात्र ही है, बस वो पराप्रकृति है। जिसे तुम साधारणतया प्रकृति कहते हो, वो अपराप्रकृति है।‘ तो प्रकृति माने क्या? ये सबकुछ जो दिखाई पड़ता है, इसे कहते हो न प्रकृति? तो जो प्रकृति को देखे सो पुरुष, जिसे प्रकृति दिखाई पड़ती हो वो पुरुष। अब जिसे प्रकृति दिखाई पड़ती है – ग़ौर से समझना – वास्तव में वो भी प्रकृति ही है। मुझे बताना, प्रकृति के अलावा किसी को प्रकृति दिखाई पड़ सकती है क्या?

प्र: नहीं।

आचार्य: लेकिन प्रकृति के भी वास्तव में दो हिस्से हैं – एक वो जो दृष्टा है, और दूसरा वो जो दृश्य है। कभी-कभी ऐसा भी किया जाता है कि दृश्य-भर को कह दिया जाता है ‘प्रकृति’ और दृष्टा को कह दिया जाता है ‘पुरुष’। इसी बात को कृष्ण ने गीता में साफ़ भी करा है, उन्होंने कहा है, 'ना! जो दिखाई दे रहा है वो तो प्रकृति है ही, जो देख रहा है वो भी प्रकृति ही है।‘ ये जो दूसरी प्रकृति है, जिसको वो कह रहे हैं ‘पराप्रकृति’, इसको ही ‘पुरुष’ भी कह दिया जाता है। तो ये पुरुष आत्मा नहीं है, ये पुरुष अकर्ता नहीं है; ये पुरुष प्रकृति का ही एक रूप है, और इसीलिए ये प्रकृति के साथ उलझ जाता है। भई, प्रकृति के साथ प्रकृति ही तो उलझेगी न? तो बात ज़ाहिर है, कि वो पुरुष जो प्रकृति से उलझ जाता है बार-बार, वो भी प्रकृति ही है।

सुनते हो न तुम कि पुरुष को प्रकृति रिझा ले गई, कि प्रकृति ने पुरुष को रिझा लिया। अब आत्मा तो किसी पर रीझ सकती नहीं, और ना आत्मा किसी के लालच में आ सकती है, ना आत्मा में काम-क्रोध-मोह का संचार हो सकता है। तो ये प्रकृति ने किसको रिझा लिया? खूब सुनते हो न, संतों ने भी कहा है, कि ‘अरे पुरुष! तुझे प्रकृति रिझा ले जाएगी, बचके रहना!‘ ये किसको चेतावनी दे रहे हैं? आत्मा को तो नहीं दे रहे होंगे। आत्मा पर तो संकट नहीं आ जाता, कि प्रकृति आयी है लुभाने, पैसा दिखा रही है, या कोई सुंदर युवती आ गई है वो रिझा रही है, तो अब आत्मा काँप रही है, कि ‘अरे कहीं मैं बहक ना जाऊँ!‘ आत्मा के साथ तो ऐसा कुछ होगा नहीं।

तो समझ लो दो हैं जिनके तीन कर दिए जाते हैं, वास्तव में दो ही हैं – आत्मा और प्रकृति – पुरुष कुछ है ही नहीं। जब दो ही हों, आत्मा और प्रकृति, तब ‘आत्मा’ को कभी-कभार कह दिया जाता है ‘पुरुष'। जिस अर्थ में कबीर साहब ‘पुरुष’ शब्द का इस्तेमाल करते हैं, वो आत्मा को ही पुरुष बोलते हैं। और जो दूसरा अर्थ है वो भी समझ लो, कि आत्मा है और प्रकृति है और इस प्रकृति के ही दो हिस्से हैं, जिसमें से एक को कह दिया गया प्रकृति और दूसरे को कह दिया गया पुरुष। तो जब भी तुम पढ़ो कि ‘प्रकृति ने पुरुष पर आक्रमण कर दिया और उसको फँसा करके ले गई और पुरुष बेचारा बहक गया', तो जान लेना कि ये आत्मा की नहीं बात हो रही, ये प्रकृति की ही बात हो रही है, ये अपराप्रकृति और पराप्रकृति की बात हो रही है।

प्र२: आचार्य जी, पराप्रकृति और आत्मा में एक साधक कैसे भेद करेगा? इसमें क्या इशारे होंगे?

आचार्य: तुम अपने हाथ के बारे में सोचते हो, हाथ अपराप्रकृति है। जो सोच रहा है हाथ के बारे में, वो पराप्रकृति है। हाथ दृश्य हुआ न? तुम्हारा ही हाथ है, पर वो तुम्हारे लिए क्या है अभी एक? दृश्य है। तुम अपने ही हाथ के क्या हो? दृष्टा हो। और सोच रहे हो अपने ही हाथ के बारे में, तो वो अपराप्रकृति हुआ। और फिर इस सब मूर्खता से वैराग्य हो जाता है, ये आत्मा का काम है, ‘ये कर क्या रहे हैं, अपने ही हाथ को देखकर के सोचे जा रहे हैं!’

बहुत लोगों को अपने ही तन को देखने से बड़ा लगाव होता है। आईने में ख़ुद को देखते रहेंगे, अपना हाथ देखते रहेंगे, अपने ही बारे में सोचते रहेंगे – ये और क्या चल रहा है? प्रकृति ही प्रकृति की दृष्टा बनी बैठी है। कि जैसे कोई सुंदरी अपनी आँखों में काजल करे और फिर आईने में देखे; अब आँख ही किसको देख रही है? आँख को। तो दिख गया न कि देखने वाला और देखा जाने वाला एक हैं? तुमने ख़ुद ही अपनी आँख में काजल करा, और अब अपनी ही आँख से अपनी सुंदर आँख को देख रही हो; प्रकृति ही तो प्रकृति को देख रही है! पर तुम ये मानोगे नहीं, तुम कहोगे, ‘नहीं, हम अपनी आँख को देख रहे हैं।‘ ये 'हम' कौन है? प्रकृति ही तो है!

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
Comments
LIVE Sessions
Experience Transformation Everyday from the Convenience of your Home
Live Bhagavad Gita Sessions with Acharya Prashant
Categories