पूर्णता माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

Acharya Prashant

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पूर्णता माने क्या? || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, दीक्षा में पढ़ते हुए जो पहला श्लोक था, “ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते,” तो इसमें पूर्ण का क्या मतलब है?

आचार्य प्रशांत: जिसकी तुम्हें तलाश है।

प्र: पूर्ण किससे पूर्ण है?

आचार्य: पूर्ण किसी से पूर्ण नहीं होता। पूर्ण मात्र पूर्ण होता है।

प्र: क्या उसमें संसार का भी कार्य है, संसार भी पूर्ण है? जहाँ से आये वो भी पूर्ण है, तो फिर संसार किससे पूर्ण है?

आचार्य: जो पूर्ण है, उसके लिए संसार पूर्ण है। जिसकी चेतना पूर्णता को उपलब्ध हो गयी, उसके लिए संसार भी पूर्ण है। उसे अब संसार में कुछ जोड़ना नहीं है। और चूँकि वो स्वयं पूर्ण है, इसीलिए उसे संसार से कुछ पाना नहीं है।

तो जो तुमने शांति पाठ पढ़ा, “पूर्णमदः पूर्णमिदं”, ये सिर्फ़ आकाश का तारा है तुम्हारे लिए, बहुत दूर, पर दृष्टव्य है। बहुत छोटा, पर प्रकट और उपलब्ध। कि है तो, पर मुझसे बहुत दूर है। ऐसे श्लोक तुम्हें बस याद दिलाने के लिए हैं कि यह पूर्णता तुम्हें भी कभी उपलब्ध हो सकती है। पर ऐसे श्लोकों को पढ़ कर यह मत समझ लेना कि तुम ही पूर्ण हो। क्योंकि तुम्हारा जो रोज़मर्रा का जीवन है, वो कहीं से भी पूर्णता की गवाही नहीं देता।

अब जियो तो बेचैनी में और कहो ख़ूब कि मैं पूर्ण हूँ, यह बात दोगलेपन की हो जाती है। जी रहे हैं लगातार अपूर्णता के भाव में, बार-बार कह रहे हैं, “यह कमी है, यह कमज़ोरी है, यह खालीपन है,” ऐसे ही भावों से मन लगातार भरा हुआ है। लेकिन साथ-ही-साथ ज़बानी तौर पर यह दावा कर रहे हैं कि मैं तो पूर्ण हूँ। तो यह बात फिर पाखंड की हो जाती है। इसीलिए मैं कह रहा हूँ कि तुम तो यही याद रखो कि तुम अपूर्ण हो।

पूर्णता लक्ष्य है तुम्हारा, अपूर्णता तथ्य है तुम्हारा।

प्र: ‘पूर्णता’ जो लक्ष्य आपने बताया, क्या वो इससे होकर जाएगा कि मैं क्या नहीं हूँ?

आचार्य: जो तुम हो, उसके प्रति विरक्ति से। और वो विरक्ति सिखानी नहीं पड़ती। जब तुम साफ़-साफ़ देखते हो, बिना किसी लाग-लपेट के, कि कैसे जी रहा हूँ, क्या खा रहा हूँ, क्या कर रहा हूँ, क्या सोच रहा हूँ, तो उस देखने में ही इतनी ताक़त होती है कि वो तुम्हें मजबूर कर देता है बदलने को। कोई आख़िरी प्रश्न?

प्र: पूर्णता की ओर बढ़ने के लिए हमें क्या प्रयास करना चाहिए?

आचार्य: अपूर्णता के तथ्य को अभिस्वीकृति दो, एक्नॉलेज करो। यह नहीं चलेगा कि एक तरफ़ तो तुम बोलो कि मैं पूर्ण ही हूँ और साथ-ही–साथ बोलो कि मुझे पूर्णता की ओर बढ़ना है। अगर कह रहे हो कि पूर्णता की ओर बढ़ना है, तो पहले ईमानदारी से मानना पड़ेगा कि जीवन में, कर्म में, सम्बन्धों में सब अपूर्ण-ही-अपूर्ण है। यह मानना अखरता है, अहम् पर चोट पड़ती है; हम नहीं मानना चाहते।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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