पत्नी पर शक और निगरानी

Acharya Prashant

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पत्नी पर शक और निगरानी

प्रश्नकर्ता: नमस्कार, सर। पिछले ही साल मेरी शादी हुई। मेरी पत्नी एक टीचर है। मैंने देखा है कि मैं उसके प्रति अविश्वास से भरा रहता हूँ, चोरी छुपे उसके फोन और अलमारी पर नज़र रखता हूँ। मुझे खुद अपने पर बहुत घिन आती है पर यह करने से खुद को रोकने में भी असमर्थ रहता हूँ। सर, अपने रिश्ते में विश्वास कैसे पैदा करूँ?

आचार्य प्रशांत: अब नरेश, मैं इसमें तुमको एक तो यूँ ही सस्ता, चलता-फिरता जवाब दे सकता हूँ, जिसको तुम यदि अपने जीवन में आज़माओगे तो कुछ समय के लिए फायदा भी हो जाएगा। पहले यही बताए देता हूँ कि वह सस्ता जवाब कैसा होता है।

सस्ता जवाब यह होता है कि तुम में और तुम्हारी नवविवाहिता पत्नी में अगर विश्वास की कमी है, तुम्हें उस पर शक़ वगैरह रहता है, तो एक दूसरे से दिल खोल कर बातें करो, अपनी पुरानी यादें साझा करो, दोनों साथ कहीं घूमने फिरने चले जाओ, एक दूसरे को खूब जताओ कि, "हम तो तुम्हारे लिए ही है जानम", तो जो एक दूसरे को लेकर के संदेह है वह कम हो जाएगा। और हो भी जाएगा।

दो-तीन महीने या दो-तीन हफ्ते बड़ा अच्छा-अच्छा लगेगा क्योंकि तुमने उससे कसम ले ली है कि वह अपनी ज़िंदगी में ऐसा कुछ भी नहीं करेगी जिससे तुम्हारे दिल को चोट लगे। बदले में तुमने भी कसम दे दी है कि, “हाँ, मैं भी कुछ ऐसा नहीं करूँगा कि बेवफा कहलाऊँ।”

तो एक तो यह तरीका है, और यह तरीका बहुत लोग आज़माते हैं। बहुत सारे तो मैरिज काउंसिलर्स होते हैं, भारत में कम होते हैं अमेरिका वगैरह में ज़्यादा होते हैं। वहाँ पर जब जाते हैं जोड़े कि, “हमारी शादी टूट रही है, हमें एक दूसरे में भरोसा नहीं है”, तो वहाँ जो बातें बताई जाती हैं, उनमें से एक यह भी प्रमुख होती है कि – एक दूसरे को ज़्यादा वक्त दीजिए, घूमिये-फिरिए, साथ खाइए, बहुत सारी बातें करिए। और ऐसा करने से कुछ समय के लिए तात्कालिक लाभ तो हो ही जाता है।

फिर दोबारा वही कहानी शुरू हो जाती है जो पुरानी थी क्योंकि जो मूलभूत कारण है संदेह का, वह तो मिटा ही नहीं न। अब वह मूलभूत कारण मैं तय नहीं कर पा रहा हूँ तुमसे कहूँ भी कि ना कहूँ। क्योंकि वह समस्या इतनी गहरी है इतनी गहरी है कि मुझे नहीं मालूम तुम उसकी ओर देखना चाहोगे भी या नहीं।

वो जो समस्या है जिसकी वजह से तुम अपनी पत्नी पर शक़ करते हो, उस समस्या का वास्तव में तुम्हारी पत्नी से कोई लेना-देना ही नहीं है। जिन देवी जी से अभी-अभी तुम्हारा विवाह हुआ है उनकी जगह कोई और भी होती तो तुम उन पर भी शक़ करते। तो ऐसा नहीं है कि अगर अभी तुम्हारी पत्नी का नाम मालती है तो तुम्हें मालती पर शक़ है। तुम्हारी पत्नी का नाम अगर माला होता तो तुम्हें माला पर भी शक़ होता।

तो बात एक व्यक्ति की नहीं है, और बात एक संबंध की भी नहीं है। ऐसा नहीं है कि तुम्हें पत्नी मात्र पर शक़ है, तुम्हें किस पर शक़ नहीं है यह बताओ? तुम्हें अपने आप पर शक़ नहीं है? तुम्हें नौकरी में अपने बॉस पर शक़ नहीं है? तुम्हें अपने ग्राहकों पर शक़ नहीं है? तुम्हें अपने भाईयों पर, अपने दोस्तों पर यहाँ तक कि अपने अभिभावकों पर भी शक़ नहीं है क्या? तुम्हें किस पर शक़ नहीं है? रात में अगर कोई दरवाज़ा खटखटा देता है तो तुम्हें शक़ नहीं हो जाता?

और वह शक़ क्यों है? वह शक़ इसलिए है क्योंकि कुछ पता नहीं। अगर तुम्हें पता होता है तो तुम्हें शक़ थोड़े ही होता है। तुम्हारे सामने गणित का कोई सवाल रखा है, तुम्हें उसका जवाब पता है तो तुम यह थोड़े ही कहते हो कि, “मुझे शक़ है कि तीन और पाँच आठ होते हैं।” तब तुम शक़ करते हो क्या? “मुझे संदेह हो रहा है कि शायद तीन और पाँच आठ होते हैं”, तुम ऐसा कहते हो क्या? तुम्हें पता होता है न।

तो जहाँ पता होता है, माने जहाँ ज्ञान है वहाँ संदेह नहीं होता। इसीलिए तो ज्ञान इतनी बढ़िया चीज़ होती है। वह तुम्हें संदेह के दुःख से मुक्ति दिला देती है और संदेह बहुत बड़ा दुःख होता है। एक आदमी लगातार संदेह में घिरा हुआ है, वह सोचो कैसा दुखी जीवन जी रहा होगा।

हमें ज्ञान नहीं है। यह नहीं कह रहा हूँ कि हमें अपनी पत्नी का ज्ञान नहीं है, या हमें दुनिया का ज्ञान नहीं है। बाहर वालों के प्रति तो तुम्हें ज्ञान हो भी कितना सकता है। दुनिया असीम है, असीम ज्ञान तुम कहाँ इकट्ठा करते फिरोगे?

सबसे पहले अपना ज्ञान करना होता है। संदेह किस पर हो रहा है उसकी बात नहीं है, संदेह करने वाला कौन है उसकी बात है।

जब तुम खुद को नहीं जानते, तुम्हें शायद यही नहीं पता कि तुमने शादी की क्यों है, तो तुम अपनी पत्नी को लेकर के आश्वस्त कैसे रह सकते हो?

इसी तरह से ज़्यादातर पत्नियाँ भी अपने पतियों को लेकर आश्वस्त नहीं रहती क्योंकि उनको पता ही नहीं है कि उनकी ज़िंदगी में यह व्यक्ति कर क्या रहा है। यूँ ही चलते-फिरते, नशे में एक दिन अचानक तुम पाते हो कि कोई तुम्हारी दाईं तरफ या बाईं तरफ चिपक गया है, और तुम्हें बिलकुल नहीं पता वह क्यों चिपक गया। अधिक-से-अधिक तुम्हें यह पता है कि सबके चिपकते हैं इसलिए मेरे भी चिपक गया। अब जब तुम कुछ जानते नहीं, कुछ समझते नहीं, तो तुम कैसे आश्वस्त रहोगे इस चिपकी हुई चीज़ के प्रति?

उसी तरीके से तुम चले जा रहे थे, चले जा रहे थे, तीन साल के हुए तो एक स्कूल तुम्हारे सर पर चिपक गया, एक स्कूल का बस्ता एक तुम्हारी पीठ पर चिपक गया। स्कूल की यूनिफॉर्म तुम्हारे शरीर पर चिपक गई, तुम्हें समझ में थोड़े ही आया कि तुम्हारे साथ यह क्यों किया गया।

किसी स्कूली बच्चे से पूछो, “स्कूल क्यों जाता है?” वह तुम्हारा मुँह ताकेगा। उसको वाकई नहीं पता वह स्कूल क्यों जाता है। और मैं तीन-चार साल के बच्चे की बात नहीं कर रहा। तुम दस-ग्यारह साल, पंद्रह साल वाले से भी पूछो जो अब हाई स्कूल में आ गया हो कि स्कूल हमें क्यों जाना होता है, तो वो तुम्हें कोई सुंदर, गहरा और असली जवाब नहीं दे पाएँगे।

कोई बोलेगा सब जाते हैं, कोई बोलेगा एजुकेशन इज इंपोर्टेंट (शिक्षा आवश्यक है), कोई बोलेगा कैरियर के लिए, कोई बोलेगा ऐसे ही नॉलेज (ज्ञान) होना चाहिए। पर शिक्षा क्या है और हम शिक्षा क्यों पा रहे हैं, हमें नहीं पता। जबकि हम अपने जीवन के कम-से-कम बीस अमूल्य वर्ष शिक्षा पाने में ही लगा देते हैं, लगा देते हैं न?

वैसे ही लोग ग्रेजुएशन , पोस्ट ग्रेजुएशन कर रहे हों, उनसे भी पूछो जो कर रहे हैं वो क्यों कर रहे हैं, उन्हें भी ना पता हो। पीएचडी स्कॉलर को ना पता हो कि क्यों लगे हुए हैं पीएचडी करने में। डॉक्टर कहलाएँगे पगले।

करे जा रहे हैं, पता नहीं है कि क्यों कर रहे हैं। बस एक चीज़ चिपक गई, कुछ दिनों में क्या चिपक जाएगा उनके नाम के साथ? नाम था झल्ला सिंह, अब वो कहलाएँगे डॉक्टर झल्ला सिंह। अब डॉक्टर चिपक गया है। उन्हें इस डॉक्टर पर भी शक़ रहेगा कि, "यह मेरे साथ क्यों चिपका हुआ है और यह आधे चांद जैसा क्यों दिखता है 'डी' पूरा क्यों नहीं है? शक़ हो रहा है मुझे इस पर। बाकी आधा कहाँ छुपा कर आया है तू?"

जहाँ ज्ञान नहीं, वहाँ संदेह है। बात खत्म!

और वैसे ही फिर शादियाँ हो जाती हैं, वैसे ही नौकरियाँ हो जाती हैं। गए कहीं पर नौकरी कर आए, गले से पट्टा चिपक गया है। अब गले में पट्टा लटकाए घूम रहे हैं वह जो कार्ड होता है स्वाइप करने के लिए। क्यों लटका रखा है यह गले में बताओ तो सही? यह तुम्हें क्यों चाहिए?

पर नहीं, बड़े उत्साह में, बड़े आत्मविश्वास में फुदक रहे हैं इधर से उधर। नई-नई नौकरी लगी है हाथ में ऑफर लेटर चिपक गया है, होठों पर मुस्कान चिपक गई है। थोड़े दिनों में पाते हैं कि कानों से बॉस की गालियाँ चिपक गई हैं। पता कुछ भी नहीं है यह क्यों हो रहा है मेरे साथ।

जानते हो, वेदांत यही तो कहता है कि जीव की दशा ही यही है कि मुक्त आत्मा पर तमाम तरह की मूर्खताएँ चिपका दी जाती हैं, और जब मुक्त आत्मा पर मूर्खताएँ चिपक जाती हैं तो आत्मा फिर कहलाती है जीवात्मा। यह जो मूर्खताएँ हैं यह वास्तविक नहीं हैं, नकली हैं। आत्मा से वास्तव में तो कुछ चिपक ही नहीं सकता; आत्मा तो असंग है। लेकिन फिर भी ऐसा भ्रम खड़ा हो जाता है जैसे बहुत कुछ है जो चिपक गया है और जिसका चिपके रहना आवश्यक है, अनिवार्य है।

हम वह जीवात्मा हैं जिसने अपने ऊपर बहुत कुछ ओढ़ रखा है, पहन रखा है, चिपका रखा है। और जो कुछ चिपका रखा है वह चिपका इसीलिए हुआ है क्योंकि हमें उसका कुछ भी पता नहीं है। जितनी चीजों को तुम अपने साथ ले कर के चल रहे हो, अगर तुम्हें उनका पता हो जाए कि वो क्या हैं चीज़ें, तो तुम उनको तत्काल त्याग दोगे। इसका मतलब यह नहीं है कि तुम रिश्ते छोड़ दोगे या नौकरी छोड़ दोगे, इसका मतलब यह है कि तुम फिर सही रिश्ते को जान जाओगे, सही नौकरी में पाए जाओगे।

तो अगर तुमको वास्तविक इलाज करना है इस समस्या का जो तुम्हारे और तुम्हारी पत्नी के बीच में है, तो फिर एकमात्र रास्ता अध्यात्म ही है। अब यह जवाब हो सकता है तुमको उबाऊ लगे, बोरिंग लगे। तुम कहोगे, "ये क्या कर दिया? हम तो एक क्विकफिक्स (जल्दी वाली) विधि चाहते थे कि जल्दी से बता दीजिए।"

तो क्विकफिक्स विधि के लिए बहुत हैं, चले जाओ। यूट्यूब पर ही बहुत हैं। वो तुमको बताएँगे कि अपनी अगली सालगिरह पर किसी सात सितारा में एक ज़बरदस्त लग्ज़री वाला कमरा बुक कर लेना और उसके लिए अभी से ही एक लाख रूपए जोड़ना शुरु कर दो। या तुम्हारा जन्मदिन आ रहा हो, पत्नी का जन्मदिन आ रहा हो, तो कहीं घूमने निकल जाना। पता नहीं कैसे जाओगे, कोरोना फैला हुआ है पर चले जाना। कोरोना लगेगा तो लगेगा, मौज तो आ जाएगी। यह सब सलाहें तुम्हें खूब मिल जाएँगी।

तो एक तो यह तरीका है कि ऐसे कर लो। और नहीं तो अगर तुम मूलभूत समाधान चाहते हो, तो वेदांत की तरफ आओ, अध्यात्म की तरफ आओ। जीवन को समझने की कोशिश करो। उसके बाद इस एक छोटी बीमारी से नहीं, जीवन की बहुत सारी और गहरी बीमारियों से मुक्ति पा जाओगे।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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