प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मेरे हाथों, मतलब काम करते समय मुझसे ग़लती से एक घोड़े की हत्या हो गयी थी। उस बात को आज ४ साल हो चुके हैं पर आज भी रात को बेचैनी में जाग उठता हूँ उसके ख़्याल से। मैं उसे बहुत प्यार करता था, मेरे बच्चे जैसा था वो। मैं बिलकुल शाकाहारी हूँ, हिंसा भी कभी करता नहीं किसी से। पर उसकी पीड़ा का कारण मैं था। ऐसा क्यों हुआ?
आचार्य प्रशांत: प्राणी के प्रति प्रेम भली बात है, और उससे भी ऊंची बात है, प्राणी मात्र के प्रति प्रेम। तुम्हें एक पशु से प्रेम था। तुम्हें लगता है तुम्हरी लापरवाही से उसे कष्ट मिला, उसकी मौत हुई। ये बात तुम्हें व्यथित करती है, बेचैन रखती है। पर ये भी तो देखो कि दुनिया में कितने पशु हैं जिनको लगातार वेदना दी जा रही है। जिनकी लगातार हत्या की जा रही है। तुम गिनती नहीं कर पाओगे रोज़ कितने जानवर इंसान मार रहा है। तुम्हारी कल्पना से परे की बात है। जितने जानवर आदमी रोज़ मार रहा है वो करोड़ों में नहीं, अरबों में हैं। आदमी रोज़ अरबों जानवर मार रहा है। मैं सालाना या मासिक आंकड़े नहीं बोल रहा हूँ, मैं रोज़ की बात कर रहा हूँ। और मैं जब भी जानवर कह रहा हूँ तो उसमें मैंनें मछलियों की गिनती नहीं करी है क्योंकि मछलियों की तो संख्या गिनी भी नहीं जाती। उनका तो वजन गिना जाता है। किलो के भाव। जानवरों की संख्या गिनी जाती है। आदमी रोज़ अरबों जानवर मार रहा है।
शायद जिस जीव की मृत्यु तुम्हारे हाथों हुई, असावधानी-वश हुई। उसको तुम सम्यक और प्रेमपूर्ण श्रद्धांजलि यही दे सकते हो कि ये जो महापाप चल रहा है, किसी तरह इसको रोकने में, कम करने में योगदान दो। जितनी देर में हमने बात करी है, उतनी देर में उतने जानवर काट डाले इंसान ने। बस अभी ४ मिनट हमने बात करी होगी, इस ४ मिनट में इंसान ने इतने जानवर काट डाले कि ये जो बगल में पूरी झील है ये भर जाए उनकी लाशों से। इन चार मिनटों में आदमी ने अभी-अभी इतने जानवर काट डाले।
दुःख गहराई देता है। दुःख और सुख में समानता ये है कि दोनों ही आती-जाती लहरें हैं, पर दुःख एक मामले में सबसे भिन्न होता है — दुःख गहराई देता है। तो गहराई से जीवन को देखो; गहराई से संसार को देखो; गहराई से इन सब पशुओं की, पक्षिओं की वेदना को अनुभव करो। तुमने कहा कि तुम शाकाहारी हो। शाकाहारी होना काफ़ी नहीं है। जो शाकाहारी भी है, वो प्रत्यक्ष नहीं तो परोक्ष तरीके से हिंसा में साझीदार है। उसका अपराध माँसभक्षी जितना बड़ा नहीं है अगर, तो भी वो पूर्णतया निरपराध नहीं है। यहाँ बड़े-बड़े शहर आज बढ़े हैं। वहाँ कई पेड़ थे, उन पेड़ों पर पक्षियों के घोंसले थे। वन में पशु वहाँ वास करते थे। आदमी ने अपनी आबादी तो कर ली है ८०० करोड़ लोगों की। इन ८०० करोड़ लोगों का होना ही हिंसा है। इन्हें हिंसा करनी नहीं है। ये हैं, ये बात ही हिंसा है।
तुम जिस ज़मीन पर खड़े हो, उस ज़मीन पर भी खड़े होने का क्या वास्तव में हक है तुम्हारा? या उस ज़मीन पर तुमने बलात कब्ज़ा कर रखा है? आदमी ने कितनी ही प्रजातियाँ मार दीं, सैकड़ों प्रजातियाँ क्योंकि उसे ज़मीन चाहिए थी। और जितने लोग हैं, उतनी खेती आवश्यक हो गई न? और खेती करने के लिए ज़मीन चाहिए, वो कहाँ से आएगी?
तुम, जंगल है, तो काटोगे, और जंगल काटने का मतलब वृक्षों मात्र के प्रति हिंसा नहीं होती। वृक्ष किसी का घर होते हैं। ये जो तुम खेत देखते हो, ये सब पशुओं के, पक्षिओं के, तमाम तरह के प्राणियों के खून से सींचे हुए खेत हैं। खेत, खेत ही नहीं होता, खेत एक बड़ा वधस्थल होता है; शहर, शहर ही नहीं होता, शहर न जाने कितने जीवों का कब्रिस्तान होता है।
एक प्राणी की, पशु की मृत्यु ने तुम्हें द्रवित कर रखा है, इससे मालूम पड़ता है कि तुम्हारे भीतर मानवता है। पर क्या तुम्हारा प्रेम, तुम्हारी सारी करुणा एक ही प्राणी तक सीमित होकर रह जाएगी? तुम्हारा प्यार क्या एक तक ही सिमटा रहेगा? इसको ज़रा पसारो। अपने प्रेम को व्यापक करो। भूलो मत कि फ़िर अभी जितनी देर में मैंने तुमसे कहा, “अपने प्रेम को व्यापक करो”, उतनी देर में सैकड़ों नहीं, हजारों नहीं, लाखों जानवर कट गए। यथाशक्ति उनकी मदद करो। और ये करके तुम ये मत सोचना कि तुम पशुओं भर की सहायता कर रहे हो, ये करके तुम दुनिया के सारे इंसानों की सहायता कर रहे हो। अपने कुटुम्ब की सहायता कर रहे हो। और सर्वप्रथम तुम अपनी सहायता करोगे। जो गूंगे प्राणियों की सहायता कर रहा है, वो मानव मात्र की भी सहायता कर रहा है, और सर्वप्रथम अपना कल्याण कर रहा है।
इंसान ने जितना अत्याचार पशुओं पर सदा किया है और अब भी कर रहा है, आदमी का आतंक, आदमी का अन्याय दिन-ब-दिन चौगुना बढ़ रहा है। उस आदमी को माफ़ी थोड़े ही मिलेगी। इतने जीवों की विकराल वेदना, उनकी हाय, उनकी आह — तुम्हें क्या लग रहा है ये सब व्यर्थ जाएगी? अनुत्तरित जाएगी? वो भी इसी धरती से उठे हैं। तुममें और उनमें कोई विशेष अंतर नहीं है। इतनों की हाय अपने ऊपर लोगे तो क्या लगता है तुम्हें, तुम दुःख से बचे रह जाओगे?
आज इंसान इतना दुःखी है जितना इतिहास में कभी नहीं था। आज इंसान जितना विक्षिप्त है, उतना कभी नहीं था। आज जितने लोग मनोरोगी हैं, उतने मानव के इतिहास में कभी नहीं रहे। और आज हम विनाश के जितने पास हैं, उतने पास विनाश के कभी नहीं थे। तुम्हें क्या लग रहा है, इन सब बातों का कोई लेना-देना नहीं है इंसान की हैवानियत से? तुम एक पक्षी को मारते हो, निर्दोष पशु को मारते हो, तुम्हें लग रहा है किसी ने नहीं देखा। तुमने तो देखा न! ये पाप भीतर कहीं तुम्हारे लिख गया। ये तुम्हें जीने नहीं देगा।
प्रश्नकर्ता: तो मुक्ति तो गई।
आचार्य जी:
मुक्ति कभी भी व्यक्तिगत नहीं होती। अपनी मुक्ति चाहिए तो इतने लोग जो बंधनों में हैं, उनको मुक्त करने में मदद दो।
ये तो बड़े स्वार्थ की बात है कि दुनिया जैसी है पड़ी रहे, मुझे मुक्ति मिल जाए। हम सब बंधे हुए हैं आपस में। हम सब संतृप्त हैं। तुम्हें मुक्ति चाहिए तो औरों को मुक्ति दिलवाओ। जितनों को मुक्ति मिलेगी, उतनी तुम्हारी मुक्ति की राह आसान होती जाएगी।
हम सिर्फ़ माँस के लिए थोड़े ही जानवरों को मार रहे हैं। जितने तरीके हो सकते हैं उनसे मार रहे हैं। कोई तरीका हमने नहीं छोड़ा है जानवरों को सताने का। उनकी हत्या करने का। उनका खून पीने का। और सिर्फ़ इसलिए क्योंकि उनमें हमारे जितना कपट नहीं है। नहीं तो हमारे पास और कौनसी योग्यता थी कि हम पशुओं पर राज कर लेते? कपट ज़्यादा है हमारे पास। उस कपट को ही बुद्धि का नाम दे देते है। बंदूक हमारे पास है, इसलिए हम राज कर रहे हैं। और अगर बंदूक तुम्हारे पास है, इसलिए तुम राज कर रहे हो जानवरों पर, फ़िर तुम ये क्यों कह रहे हो कि जानवरों के यहाँ तो जंगल का कानून चलता है। जंगल का कानून तो यही होता है न? — ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। जंगल का कानून अर्थात ‘बल प्रयोग’। जिसके पास बल है, वही राजा। तुम भी तो जानवरों पर बल से ही राज कर रहे हो न? या और कोई कारण है तुम्हारे स्वामित्व का? और कोई कारण है तुम्हारे अत्याचार का?
बस यही तो है कि तुम बंदूक बनाना जानते हो। तुम्हें दवाई पर शोध करना होता है। तुम जानवरों को पकड़ लेते हो और उन्हें घनघोर पीड़ा से गुज़ारते हो। तुम्हारी प्रसाधन सामग्री भी जानवरों के खून से नहाई हुई है। तुम्हारे घर में बच्चा पैदा होता है तो हम खुशी मनाते हैं। तुम्हें ये समझ में ही नहीं आता कि एक बच्चे का मतलब होता है कि एक साथ में लाखों पेड़ कटने हैं। तुम जब बच्चे पैदा करते हो तो क्या उसके साथ-साथ ज़मीन भी पैदा कर देते हो? कहाँ से आएगी उसके लिए ज़मीन? कहाँ से आएगा उसके लिए अन्न? कहाँ से आएगी उसके लिए हवा? क्या ये सब भी तुम पैदा करते हो?
वो जो बच्चा पैदा हुआ है, उसके लिए ज़मीन आएगी जानवरों की हत्या करके, उसके लिए अन्न आएगा जानवरों की हत्या करके, और कोई तरीका ही नहीं है। कपड़े कहाँ से आएँगे, बताओ मुझे? घर कहाँ से आएगा? बच्चा पैदा हुआ है तो घर भी बनाएगा न? घर की सामग्री और घर के लिए पहले ज़मीन कहाँ से आएगी? तो ऐसा नहीं है कि शाकाहारी हिंसा नहीं कर रहा।
आदमी इस मुकाम पर पहुँच गया है जहाँ पर आदमी का होना ही हिंसा है।
जाओ, अभी देखो उत्तराखंड में। वाहनों के चलने के लिए सड़क चौड़ी की जा रही है। उसके लिए देखो कितने लाख पेड़ काट रहे हैं। देखो जाकर के। और तुम कहोगे हमने क्या किया! हमने तो किसी जानवर को मारा नहीं। और ये सड़क निकली जा रही है। तुम्हें कुछ ख़्याल है कि इससे कितने जानवर मर जाएंगे, कितनों का घर तबाह हो रहा है? और तुम कहोगे कि साहब हम शाकाहारी हैं। हमने तो किसी जानवर की हत्या नहीं करी। तुमने प्रत्यक्ष रूप से नहीं करी, पर परोक्ष रूप से तुम भी शामिल हो इस रक्तपात में। और बहुत पाप लग रहा है। इसीलिए आदमी के आज चेहरे पर नूर नहीं है। इसीलिए हम ज़िंदा तो हैं पर हम में प्रेम नहीं है।
अब तो ये उद्योग है। कभी जो मछली पकड़ने वाले बड़े-बड़े जलयान होते हैं उनको देखो, तो तुम्हें पता चले। वो क्विंटलों मछलियाँ एक बार में उठा लेते हैं। अब ये नहीं गिना जाता कि एक मछली मारी, दो मछली मारी, तीन मारी। कितने टन? कितने क्विंटल? ऐसे गिना जाता है। उद्योग है! तुम्हारे सामने तो डब्बा आता है, डब्बा। माँस का डब्बा आता है और तुम्हें बुरा भी नहीं लगता क्योंकि वो माँस का डब्बा वैसा ही है जैसे किसी आलू को छीलकर के डब्बे में भर दिया हो। उबला हुआ आलू। जैसा उबला हुआ आलू तुम्हें लगता है, वैसा ही तुम्हें माँस लगता है। वो आता है, तुम उसको रोटी के साथ लगाते हो, उसका व्यंजन बनाते हो, खा जाते हो।
हिंसा का औद्योगीकरण हो चुका है। अब किसी को कोई अपराधभाव अनुभव नहीं होता। कोई ग्लानि नहीं अनुभव होती। तुम्हें अपने हाथ से कोई बकरा काटना होता, कोई मुर्गी काटनी होती, तो तुम्हें बुरा लगता। तुम उसकी आँखों में झांकते। उसकी तड़प देखते। तुम्हें बुरा लगता। अब तुम्हें उसकी गर्दन नहीं काटनी है, अब तुम्हें बस डब्बा खोलना है।
डब्बा खोलोगे, माँस निकाल लोगे। जैसे डब्बा खोलकर कोई बिस्कुट निकालता है। जैसे डब्बा खोलकर के कोई तेल निकालता है। जैसे ही डब्बा खुला, माँस बाहर आया। तुम फ़िर ये थोड़े ही कहते हो कि कोई जानवर है या जानवर का माँस है। तुम कहते हो ‘बेकन’ है। उसको लगाया सैंडविच में और खा गए। स्वाद भी ठीक है। पूरा ध्यान रखा जाता है कि उसका स्वाद अच्छा रहे। तुम इतनी बुद्धि भी नहीं लगाते कि किसी पेड़ से अगर तुम फल तोड़ो तो ये एक सुंदर अनुभव होता है क्योंकि पेड़ ने फल तुम्हारे लिए ही तैयार किया है।
तुम पेड़ से फल लेते हो, ये बात पेड़ के हित में है। तुम उससे फल लोगे तो फल के बीज दूर-दूर तक फैलेंगे और पेड़ अनगिनत फल पैदा करता है। तुम नहीं खाओगे तो वो फल ज़मीन पर गिरेंगे। और तुम जानते हो कि पेड़ के नीचे नया पेड़ नहीं पैदा हो सकता। वो बीज व्यर्थ जाएंगे। तो सुंदर बात है जब तुम पेड़ से फल ले लेते हो। कुछ हद तक तब भी ठीक है जब तुम पेड़ से पत्तियाँ ले लेते हो। नई पत्तियाँ आ जाएंगी। पुरानी तो वैसे भी झड़ती हैं। लेकिन जब तुम किसी प्राणी की हत्या करते हो, तो ये बिलकुल दूसरी बात है।
तुम्हारे सामने अगर डब्बाबंद सेब आए, तो उससे बेहतर बात होगी कि अगर तुम अपने हाथों से सेब के पेड़ से सेब तोड़कर खाओ। होगी कि नहीं? तुम्हारे सामने डब्बा बंद सेब आए, उससे बेहतर होगा कि तुम पेड़ पर जाओ और अपने हाथों से ताज़ा सेब तोड़कर खाओ। लेकिन तुम्हारे सामने माँस आया है। डब्बे में बंद। मान लो सूअर का माँस आया है। और तुमसे कहा जाए, “साहब, छोड़िए, क्यों आप डब्बाबन्द सूअर का माँस खा रहे हैं? ये लीजिए हम आपको एक ताज़ा सूअर देते हैं। इसको अपने हाथों से मारिये और खाइए। जैसे पेड़ से ताज़ा सेब तोड़कर खाया जाता है, वैसे ही मैं आपको ये ताज़ा ज़िंदा सूअर दे रहा हूँ। इसको अपने हाथों से मारकर खाइए।“ बोलिए, कितने लोग मारकर खाने को राज़ी होंगे? पहली बात तो आप राज़ी नहीं होंगे, दूसरी बात आप अगर राज़ी हो भी गए तो सूअर को मारना इतना आसान नहीं। जितने भी माँसाहारी पशु हैं, जो प्रकृतीगत रूप से माँसाहारी हैं, उन पशुओं को प्रकृति ने ही लंबे दाँत दिए हैं, बलशाली हाथ दिए हैं, चौड़े और नुकीले नाखून दिए हैं जिनसे वो वध कर सकते हैं। ये प्राकृतिक व्यवस्था है कि जिन्हें माँस ही खाना है, उनके पास देह ऐसी है कि वो वध भी कर पाएँ। क्योंकि माँस आपको खाना है तो वध भी करना पड़ेगा न।
क्या तुम्हारा शरीर ऐसा है कि तुम वध कर सकते हो? बोलो, किसी सूअर को मार सकते हो? या अभी मैं यह पर एक गाय छोड़ दूँ, या सांड छोड़ दूँ, या एक मस्त बकरा ही छोड़ दूँ, मार लोगे उसे नंगे हाथों से? मार लोगे क्या? न तो तुममें मारने की ताकत है, न ही तुम्हारा मारने का जी करेगा। हाँ, जब माँस डब्बाबंद होता है, तो तुम खा लेते हो। सिर्फ़ इसलिए खा रहे हो क्योंकि सब काम छुपा-छुपी में चल रहा है। वो हत्याएँ तुम्हें दिखाकर नहीं की जा रहीं हैं; वो हत्याएँ किसी बन्द फ़ैक्टरी में की जा रही हैं।
ये सब रुकना चाहिए। इसे रुकना होगा। जो तुम्हारे भीतर, मैं कह रहा हूँ, जीव मात्र के लिए अगर ज़रा भी करुणा है, तो योगदान दो इन सब बातों के बारे में जागरूकता फैलाने में, लोगों को चैतन्य करने में और ये महापाप रोकने में। यह महापाप नहीं रुका तो बस महाविनाश है।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अगर हम किसी को बताते हैं कि माँस नहीं खाना चाहिए, तो कुछ लोग कहते हैं कि नहीं खाएंगे तो गलियों में बकरे और सांड घूम रहे होंगे।
आचार्य जी: उनसे पूछो कि तुम रीछ का माँस खाते हो? जो लोग कहते हैं कि अगर हम नहीं खाएंगे तो गली-गली में बकरे और सांड घूमेंगे, उनसे पूछो कि तुम रीछ का माँस नहीं खाते हो तो गली-गली में रीछ घूम रहे हैं? बोलो, ऐसा होता है क्या? प्रकृति अपनी सुंदर व्यवस्था खुद बनाकर रखती है। आदमी तो कुछ मुट्ठीभर जानवरों का ही माँस खाता है। वहीं उसके पसंदीदा हैं, कि इनको खाऊंगा। १०-१५, ३०, ४०, ५० उसने प्रजातियाँ पकड़ रखी हैं, उन्हीं को मारकर खा रहा है। मारे जा रहा है, मारे जा रहा है।
जिन प्रजातियों को तुम नहीं मार रहे, क्या उनकी संख्या अनियंत्रित हो रही है? क्या वो हर जगह घूमती दिखाई देती हैं? क्या उन्होंने तुम्हारे घरों पर धावा बोल दिया है? क्या वो भीड़ बनकर तुम्हारे ऊपर टूट पड़े हैं? हिरण तो नहीं खाते तुम, तो क्या हिरण गली-गली घूम रहे हैं?
प्रकृति का सुंदर संतुलन है। किसी भी प्रजाति की संख्या एक सीमा से प्रकृति स्वयं ही नहीं बढ़ने देती। आदमी शेर तो नहीं खाता न, तो गली-गली शेर घूम रहे हैं? पेड़ों पर शेर लटके हुए हैं? घरों के अंदर शेर दुबके हुए हैं? जहाँ जाओ वहाँ शेर नज़र आ रहे हैं क्या? तो ये अपने उपद्रव को छुपाने वाले मूर्खतापू्ण तर्क हैं कि अगर मैं नहीं खाऊंगा तो उनकी तादाद बढ़ जाएगी। जानते हो न मुर्गे कैसे खाते हो तुम? मुर्गे कृत्रिम रूप से पैदा किए जाते हैं ताकि तुम उन्हें खा सको। इतने मुर्गे तो अस्तित्व में स्वयं पैदा भी नहीं होते, जितने मुर्गों को खाने की तुम्हारी भूख है। फार्म हैं मुर्गों को पैदा करनेवाले। यहाँ तो हालात ये है कि तुम इतना खा रहे हो कि जितने प्राकृतिक रूप से पैदा हो ही नहीं रहे, और तर्क तुम उल्टा दे रहे हो। तुम कह रहे रहो कि अगर हम नहीं खाएंगे तो उनकी भीड़ बढ़ जाएगी। भीड़ तो छोड़ दो, तुम इतना खा रहे हो कि उन बेचारों की प्रजाति समाप्त हो जाए। और कितने जानवर आदमी ने खा-खा कर के उनकी प्रजाति ही ख़त्म कर दी। तुम्हें मुर्गा खाना होता है तो अरबों मुर्गे रोज़ फर्मों में पैदा किए जा रहे हैं। सिर्फ़ इसलिए कि तुम उन्हें खा सको, उनकी हत्या कर सको। तो ये बेवकूफ़ी वाला तर्क है। अनैतिक तो है ही, और अतार्किक भी है। उसे तर्क देना भी नहीं आता; निर्बुद्ध है।
ऐसे ही ये तर्क दिया जाता है, कहते हैं, “देखो साहब, गाय का दूध अगर नहीं पीया तो गाय को इतना दूध हो जाएगा कि वो परेशान हो जाएगी। तो इसलिए गाय का दूध पीना ज़रूरी है।” जब भी मैं बताता हूँ कि गाय का दूध पीना अपराध है। और गाय के दूध का उद्योग और गाय के माँस का उद्योग बिलकुल मिले-जुले हैं। और जो लोग न चाहते हों कि गाय कटे, जो लोग न चाहते हों कि गाय का माँस खाया जाए, उन्हें सर्वप्रथम गाय का दूध पीना छोड़ना होगा क्योंकि ये दोनों परस्पर संबंधित और परस्पर आश्रित उद्योग हैं — दूध का उद्योग और गो-माँस का उद्योग। कुछ कहते हैं, “देखिए साहब, दूध पीना तो ज़रूरी है। दूध कोई अपने स्वार्थ के लिए नहीं पीते क्योंकि अगर हमने गाय का दूध नहीं पिया तो गाय उस अतिरिक्त दूध का करेगी क्या?”
कोई प्रजाति है स्तनधारियों की जिनको अतिरिक्त दूध होता हो? हर प्रजाति में उतना ही दूध होता है तकरीबन, कुछ अपवादों को छोड़कर के कि जितना बच्चे को चाहिए। जितना बच्चे को चाहिए उतना उसकी माँ को दूध होता है। हिरण के छौनों को जितना दूध चाहिए उतना दूध हिरनी को हो जाएगा। हाथी के शावक को जितना चाहिए उतना दूध हथिनी को हो जाएगा। ऊँट के बच्चे को जितना दूध चाहिए उतना दूध ऊँटनी को हो जाएगा। और हर प्राणी का दूध अलग-अलग होता है क्योंकि हर प्राणी के बच्चे की आवश्यकता अलग-अलग होती है। ऊँटनी के बच्चे को वही दूध चाहिए जो ऊँटनी को होता है। ऊँटनी के बच्चे को हाथी के बच्चे का दूध पिलाओगे तो बात नहीं बनेगी। इसीलिए तो दूध अलग-अलग तरीके के हैं। आदमी अकेला है जिसे हर दूसरी प्रजाति का दूध पीना है। और ज़्यादातर लोग दूध पीते हैं भैंस का, इसलिए ज़्यादातर लोगों की बुद्धि हो जाती है भैंस जैसी!
आदमी के बच्चे को जितना दूध चाहिए उतना उसकी माँ को आता है। आदमी का बच्चा कितना दूध पीता है? हद-से-हद २ साल तक, कम-से-कम ४-६ महीने तक। ६ महीने से २ साल तक आदमी का बच्चा दूध पीता है। उतने दिन तक तो उसकी अपनी माता को दूध आता है। और तुम कह रहे हो कि गाय का दूध नहीं लिए तो गाय परेशान हो जाएगी। गाय को उतना ही दूध आता है जितना उसके बछड़े को चाहिए। तुम जो दूध पी रहे हो वो उस बछड़े के हिस्से का है। तुम उस नन्हे बछड़े के मुँह से छीनकर के दूध पी रहे हो। और यहाँ बड़े-बड़े ७०-७०, ८0-८० साल के लोग बछड़े के हिस्से का दूध छीनकर के पिए जा रहे हैं। और वो अपनेआप को धार्मिक भी बोलते हैं और पुण्यात्मा भी बोलते हैं।
तुम इससे बड़ा कोई पाप कर सकते हो कि महीने भर की उम्र का बछड़ा है और तुम हो पचास साल के हुड़दंग, तुम उस नन्हे बछड़े के मुँह से दूध छीनकर के पी रहे हो? वो गाय जब जंगल में होती है, जब तो तुम उसकी सेवा करने नहीं जाते न? कि “इसका दूध निकालकर तो मैं उसकी सेवा करता हूँ, बेचारी की। मैं उसका दूध न निकालूँ तो ये परेशान हो जाएगी।” तो फ़िर तो जितनी गाय होती होंगी जंगल में, वो सब बहुत परेशान हो जाती होंगी क्योंकि वहाँ तो उन्हें तुम्हारी सेवा की प्राप्ति हो ही नहीं रही। तुम बड़े सेवक हो गायों के। और ये बड़ा तर्क सुनने को मिलता है कि गाय का दूध लेकर के तो हम गाय की सेवा करते हैं, नहीं तो गाय तकलीफ़ अनुभव करेगी। इतने सारा दूध का करेगी क्या? जंगल की गाय क्या करती है इतने दूध का? बांटती है? नहीं। बांटने की जरूरत ही नहीं पड़ती क्योंकि अतिरिक्त दूध होता ही नहीं है। जितना दूध है वो सब का सब बछड़े का है।
प्रश्नकर्ता: भगवान श्री कृष्ण को बोलते हैं कि वो माखन चोर हैं। क्योंकि वो माखन बहुत खाते थे।
आचार्य जी: उनकी १६००० रानियाँ भी थीं, उन्होंने उंगलियों से पर्वत भी उठा लिया था — तुम वो सब भी करो। गीता का कितना ज्ञान है? कृष्ण की गीता की दुहाई तो कभी नहीं करते तुम?
अरे भाई! ग्वालों के कुल में उनकी परवरिश हुई थी, तो और क्या संस्कार मिलेंगे? ज़माना ही उस समय यही था। वो उसी घर में पैदा हुए थे जहाँ दूध-दही, यही सब चलता था, तो वही उनको भी मिल गया। कृष्ण से तुम मक्खन सीखोगे कि गीता सीखोगे? या चुन लोगे कि, “नहीं! कृष्ण से तो एक ही चीज़ सीखनी है कि मक्खन चबाना है।” गीता कभी सीखोगे? उसकी तो हमने कोई बात नहीं करी। वो बिलकुल छिपा गए? गोपियाँ नहा रही थीं। कृष्ण गए और नहाती स्त्रियों के कपड़े लेकर भागे और छुपा दिए। तुम भी करो ये, जेल पहुँच जाओगे!
ये तो देखा करो न कि कौन-सी बात ऐसी है जो उस काल से ही संबंधित है। उस काल के बाद उस बात का कोई महत्व नहीं रह गया। और कौन-सी बात ऐसी है जो सर्वकालीन है, कालातीत है। जो हर समय में उपयोगी है। कृष्ण मक्खन खाते हैं, ये उस काल की बात है। ये उस समय, उस स्थान, उस परिस्थिति की बात है, उस समाज की बात है।
ये एक समय ऐसा था कि वो मुरली बजाते थे। ये एक समय ऐसा था कि वो रथ चलाते थे। तुम भी रथ पर जाया करो। कहाँ से आए हो तुम? कहाँ के रहने वाले हो? इस हॉल तक कैसे आए? रथ पर आए? अरे, कृष्ण तो रथ पर चलते थे!
तुम उदाहरण दे रहे हो एक पुराने व्यक्तित्व का तो ये भी देखो न कि वो जो कुछ कर रहा था वो समय-सापेक्ष था। वो उस समय की बात थी। वो मोर-मुकुट लगाते थे। तुम चलो मोर-मुकुट पहनकर और मक्खन खाते हुए। अभी नेकलेस लगाकर, हाथों में बाँसुरी ले लो, सर पर मोर-मुकुट। और रथ तुम्हारे लिए मैं तैयार करता हूँ।
सीधे म्यूज़ियम पहुँचोगे, अजायबघर। क्या अजूबा है!
हाँ, तुम गीता का पाठ करोगे तो तुम कभी अजायबघर नहीं पहुँचोगे। गीता समय के पार की बात है। गीता हर समय के लिए है। गीता आज से हज़ारों साल बाद भी नई, अनूठी, पूजनीय रहेगी। मक्खन वगैराह सब पीछे छूट जाएगा। इसकी बात बस उस समय की थी। समझो, जैसे कि रथ उस समय का था — आज का कृष्ण क्या रथ पर चलेगा? सुदर्शन चक्र चलाएगा? बोलो? आज अगर कृष्ण किसी अर्जुन से बात करेंगे तो वो अर्जुन क्या धनुष-बाण वाला अर्जुन होगा? तो ये सब बातें समय के साथ बदलती हैं। उस समय धनुष बाण थे, आज बंदूकें हैं, कल कुछ और होगा। इन चीज़़ों पर ध्यान नहीं देते कि तुम कहने लग जाओगे कि धनुष-बाण में बहुत पवित्रता है और धनुष-बाण तब चलते थे तो आज भी चलने चाहिए और भविष्य में भी चलते रहने चाहिए न। ये चीज़ें तो वक्त के साथ बदलती हैं। जो चीज़़ वक्त के साथ बदलती है उनके ऊपर ध्यान नहीं देते; ध्यान उसपर देते हैं जो वक्त के साथ नहीं बदलता। गीता है जो वक्त के साथ नहीं बदलेगी। गीता पर ध्यान दो। बाकी सब आनी-जानी चीज़ें हैं। समय सापेक्ष हैं। उनको छोड़ो पीछे।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैंने दूध छोड़ना चाहा। इससे पहले ओशो जी का भी प्रवर्चन सुना था। मेरी मम्मी मुझे डाँटती रहती हैं। समझ नहीं आता कि उन्हें कैसे समझाऊँ।
आचार्य जी: मम्मी से बोलो, “मम्मी, माँ हो न? किस माँ को पसंद होता है कि उसका दूध उसके बच्चे के अलावा किसी और के लिए चला जाए? तुम भी तो माँ हो। कभी तुम्हें भी दूध आता था। और तुम्हारा दूध मेरे अतिरिक्त पड़ोसी को चला जाता तो? और वो बोलता कि लाख रुपए दूँगा। तुम दे देतीं क्या?” कौन-सी माँ ये चाहती है कि उसका दूध बिके, बोलो? कौन-सी माँ ये चाहती है कि उसका दूध उसके बच्चे के अलावा किसी और को चला जाए, बोलो? तो स्त्रियाँ ही ये बोलें कि बेटा दूध पियो, किसी गाय का दूध पियो, तो ये बात तो बड़ी विसंगत है, बड़ी भयानक है। एक माँ अच्छी तरह जानती है दूध की कीमत। और एक माँ अपने बच्चे से बोले कि जाकर के गाय का दूध पी, और बच्चा भी क्या २५ साल का तंदुरुस्त नौजवान, तो ये बात तो बड़ी अजीब है। माँ से ये पूछना कि तुम भी तो माँ हो, तुम किसी दूसरी माँ का दूध पीने की बात कैसे कर सकती हो?
प्रश्नकर्ता: इसका समाधान क्या निकालूँ कि — “दूध ही मुख्य स्त्रोत्र है सब खाने-पीने का”? कभी ऐसे दूध नहीं होता घर पर तो सभी सूख जाते हैं। मानसिकता ऐसी है कि दूध नहीं हुआ तो जैसे जीवन ही नहीं है।
आचार्य जी: बहुत चीज़़ें मानसिकता पर चलती हैं। एक समय मानसिकता ये भी थी कि पति मर जाए तो पत्नी सती हो जाए, तो? जो चीज़ गलत है उसको हटना पड़ेगा। तुरन्त हटना पड़ेगा।
प्रश्नकर्ता: बच्चों के विज्ञापनों में दिखाते हैं न कि दूध में कैल्शियम है, नहीं तो हड्डियाँ आपकी कमज़ोर हो जाएंगी।
आचार्य जी: ये सारा अत्याचार करने में दो का बहुत बड़ा हाथ रहा है — पहला, चिकित्सकों का, और दूसरा, फिटनेस इंडस्ट्री का। जो कोई आदमी माँस न खाता हो, दूध न पीता हो, उसे ये दोनों हैं जो ज़रूर माँस खिला देंगे और दूध पिला देंगे — एक डॉक्टर और दूसरे फिटनेस ट्रेनर।
तुम जाओ डॉक्टर के पास। पहली ही चीज़़ — “आप चिकन सूप पीजिए”। और तुम जाओ किसी स्पोर्ट्स इंस्ट्रक्टर के पास या जिम ट्रेनर के पास, तुरन्त कहेगा, “अरे, तुम चिकन नहीं खाते, तुम क्या खेलोगे? तुम क्या शरीर बनाओगे? सबसे ज़्यादा तुम चिकन खाओ।” शरीर बने-न-बने, एक चीज़़ पक्की हो जाएगी कि तुम्हारा मुर्गा खाना शुरू हो जाएगा। शरीर तो बहुत कम लोगों का बनता है। हाँ, बकरे का कटना हो जाता है।
इसमें कोई ताज्जुब की बात भी नहीं क्योंकि इन दोनों का ही लेना-देना शरीर मात्र से है। इन्हें शरीर के पार किसी चीज़ का कुछ पता नहीं। इन्हें आत्मा से कोई लेना-देना नहीं। चिकित्सक के पास जाओ, उसे किस चीज़़ से लेना देना है? शरीर से। और तुम जिम ट्रेनर के पास जाओ, उसका भी किस चीज़़ से लेना-देना है? शरीर से। जिसका शरीर से लेना-देना होगा, वो तो सब कुछ शरीर की तरह ही देखेगा। उसके लिए तो सब पदार्थ-ही-पदार्थ है। उनके लिए क्या धर्म और क्या अधर्म? तो तुरंत बोलेंगे कि जाओ माँस खाओ।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, कुछ महीने पहले तक मैं माँसाहारी था। ऐसा मैं इसलिए कर रहा था क्योंकि जैसे आपने कहा कि फिटनेस के लिए ऐसे तर्क दिए जाते हैं कि प्रोटीन के लिए इन्हें खाना आवश्यक है। बौद्धिक रूप से इस तर्क का खंडन नहीं कर पा रहा था।
आचार्य जी: क्यों नहीं खंडन कर पा रहे थे? क्योंकि बौद्धिक रूप से भी ये बात झूठ है और फरेब है कि माँस में प्रोटीन होता है। तुम ज़रा-सा शोध करोगे तो तुम्हें पता चलेगा कि एक ग्राम प्रोटीन के लिए माँस पर जितना ख़र्च करना पड़ता है, उससे कहीं कम ख़र्च करके वो प्रोटीन दाल से या ब्रोकोली से मिल जाएगा। जो प्रोटीन का तर्क दिया जाता है माँस खाने के तर्क में, ये तर्क महा-झूठ है। वो बौद्धिक रूप से भी एक फ्रॉड है, फरेब है।
प्रश्नकर्ता: तो फ़िर उसके बाद कुछ आपके वीडियोज़ थे जिसमें आपने ऐसा बताया है कि शारीरिक तौर पर भी काम अच्छा चल रहा है और मानसिक स्तर व बौद्धिक स्तर पर भी काम अच्छा ही चल रहा है।
लेकिन मेरा मन नहीं करता अब खाने के लिए। ऐसा आपका कुछ एक वीडियो था इसपर। एक या दो मैंने शायद देखे थे। तो उसके बाद से अचानक से कुछ ऐसा हुआ कि उसका मन चला गया और मैंने अगले दिन जान के कुछ मंगाया देखने के लिए कि खा पाऊंगा या नहीं और मैंने देखा कि मुझसे खाया नहीं गया। तो मैंने फेंक दिया। कुछ दो रात फ़िर से वो प्रयोग किया अपने साथ और फ़िर से अपने सामने उसको रखा और नहीं खाया।
आचार्य जी: पशुओं के साथ थोड़ा और समय बिताओ, फ़िर ये प्रयोग करने की भी ज़रूरत नहीं पड़ेगी। किसी भी जानवर के साथ थोड़ा वक़्त बिताया करो, तुम्हारे लिए माँस खाना असंभव हो जाएगा।
पर ये आदत लौटकर वापिस आ सकती है। कुत्ते के साथ, खरगोश के साथ, किसी पक्षी के साथ समय बिताओ। पक्षी के साथ मत बिताना क्योंकि पक्षी के साथ समय बिताने के चक्कर में तुम उसे कैद कर लेते हो। पक्षिओं को माफ़ ही करो। किसी भी पशु के साथ थोड़ी दोस्ती करो, तुम्हारे भीतर कुछ ऐसा जागेगा जो बहुत दिनों से सोया पड़ा है।
मैं तो मानता हूँ इंसान की इंसानियत पूरी ही नहीं हुई जब तक उसकी किसी जानवर से दोस्ती न हो। जब तक कोई जानवर तुमको बहुत ही प्यारा न हो जाए, तब तक समझ लो कि तुम्हारी इंसानियत में अभी खोट है। जब तक किसी जानवर से तुम्हारा रिश्ता ऐसा न हो जाए कि तुम उसके लिए रो सको, तब तक समझ लेना कि तुम पूरे इंसान नहीं हो।
ये सब याद आना ही बन्द हो जाएगा। ये बात तर्क की या किसी तरह के विवाद की भी नहीं बचेगी कि माँस खाना ठीक है कि नहीं; ये बात बिलकुल निर्विवाद हो जाएगी। तुम निर्विकल्प हो जाओगे। तुम्हें ही ख़्याल आना बंद हो जाएगा कि माँस जैसी चीज़़ खाई भी जा सकती है। बस किसी पशु से थोड़ी दोस्ती कर लो। और सबसे अच्छा तो ये है किसी मुर्गे से दोस्ती कर लो।
हमारे पास होता था बोधस्थल में ‘जी-तू’ मुर्गा। वो सबको परेशान करे। लेकिन उस बिचारे ने सैकड़ों हज़ारों मुर्गों की जान बचा दी क्योंकि बहुत लोग आए बोधस्थल में और सबका उससे कुछ रिश्ता बन जाता था। और सब को दौड़ाए, फ़िर धीरे-धीरे दोस्ती कर ले। बड़ा सामाजिक प्राणी था। जो भी देखता था कि नया आदमी आया, वो उसी की ओर भागता था। पहले तो उसके जूते में चोंच मारे। फ़िर अगर उसको तुम्हारी शक्ल थोड़ी ठीक लग गई और अगर तुम कुर्सी पर बैठे हो तो उड़ कर तुम्हारे ऊपर बैठ जाए। और बड़ा भारी मुर्गा था। इन्होंने उसका वजन लिया और बोलते थे ये तो ८-१० किलो का मुर्गा है। इतने बड़े मुर्गे तो होते ही नहीं।
ये पीछे तुम्हारे अंशु शर्मा हैं। इनकी तो उससे खास नातेदारी थी। इतना दौड़ाया है उसने। जब भी देखे, झग झग झग झग.. और ये दौड़ रहा है और ये पीछे-पीछे दौड़ रहा है। लेकिन बहुतों का माँस खाना उसने छुड़वा दिया। जिनका भी उससे रिश्ता बन गया, वो फ़िर मुर्गा नहीं खा पाए दोबारा।
तुम मुर्गा खा ही इसलिए पाते हो क्योंकि तुम जानते ही नहीं कि ये जीवित मुर्गा चीज़़ क्या है। तुमने कभी उसकी आँखें नहीं देखीं। तुमने कभी उसकी शान नहीं देखी। जब वो चलता है, अपनी अकड़ में रहता है। तो तुम्हें पता चलता है कि इसमें भी कुछ खास बात है। मुश्किल हो जाता है।
आदमी कट गया है न बिलकुल प्रकृति से। हर चीज़ एक डब्बाबंद पदार्थ है उसके लिए।
प्रश्नकर्ता: कुछ जानवरों से तो हम प्यार करते हैं। पर जानवर हैं जैसे मकड़ी इत्यादि, उनके प्रति भी बहुत हिंसा होती है।
आचार्य जी: ये जानवर तुम्हारे ऊपर आक्रमण करें तो तुम्हें हक मिल जाता है कि सबसे पहले उसे हटाओ, भगाओ, अपनी रक्षा करो। और वो फ़िर किसी भी तरह का बचाव हो। तो तुम्हें फ़िर भी हक है कि उसका वध भी कर दो। ठीक वैसे ही जैसे कोई आदमी तुमपर टूटा ही पड़ता हो। तुम्हें नुकसान पहुँचाने की नीयत से, तुम्हें मारने की नीयत से, तो तुम्हें हक मिल जाता है कि तुम उसे नुकसान पहुँचा सकते हो। कोई मच्छर अगर बार-बार तुमपर आक्रमण कर रहा है तो अपनी रक्षा में तुम्हें हक है कि तुम पलटवार कर दो।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, लेकिन जानवर निर्दोष हो तो?
आचार्य जी: तुम भी तो निर्दोष हो। और तुम मच्छर के पास मच्छर का नुकसान पहुँचाने नहीं गए थे। तुमने कुछ अपराध किया था क्या कि मच्छर तुमपर आक्रमण कर रहा है? तुम चुपचाप बैठे हो और वो सता रहा है। वो आकर तुम्हें परेशान कर रहा है तो फ़िर तो तुम्हें हक मिल गया न कि उसको हटाओ, भगाओ और किसी भी तरीके से न माने, तुम्हें परेशान करता ही जाए तो फ़िर तुम उसे मार भी सकते हो।
कोई कुत्ता तुम मारो, इसकी सलाह मैं तुम्हें कभी नहीं दूँगा। पर कुत्ता पगला गया है और तुम्हें काट खाने के लिए बिलकुल आतुर है, तो एक बिलकुल अति की स्थिति जब हो जाए तो मैं कहता हूँ कि मार सकते हैं उसको। क्योंकि अब जो कुछ भी तुम कर रहे हो, वो तुम अपनी प्राण रक्षा में कर रहे हो। अब तुमने जो किया वो ग़लत नहीं है।
प्रश्नकर्ता: मकड़ियों को मार देते हैं।
आचार्य जी: क्यों मारते हो उनको? अधिक-से-अधिक बाहर ले जा दो। मकड़ी, छिपकली — ये सब मारने की ज़रूरत क्या है? तुम्हें उनसे बहुत तकलीफ़ हो रही है तो उनको भगा दो। उनको वैसे भी कोई शौक नहीं है कि तुम्हारे ही घर में रहेंगे। वो तो कहीं भी घर बना लेती हैं। मारने की क्या आवश्यकता है?
दूसरी बात, उनको पता भी नहीं कि वो घर तुम्हारा है। क्योंकि उनके संसार में कोई जगह किसी की व्यक्तिगत संपत्ति होती ही नहीं। उनके लिए तो पूरा संसार ही घर है। उनको तो पता भी नहीं था कि जिस दीवार पर वो आकर बैठ गईं उसको तुम अपना घर बोलते हो। उसको भगा दो। बोलो, जा, वो चली जाएगी। और मारने की क्या आवश्यकता है? मच्छर को भी मारने की क्या आवश्यकता है? जहाँ तक हो सके, उसको भगा दो। उसको भगाने के भी तो बहुत तरीके हैं। भगा दो उसको।
प्रश्नकर्ता: कई बार ऐसा होता है कि झाड़ू लगा रहे हैं और चीटियाँ आ गई हों।
आचार्य जी: जितना हो सके — बचाओ। जहाँ पर तुम्हारा बस ही नहीं चलता, वहाँ कोई बात नहीं। तुम सो रहे थे, तुम्हारे हाथ पर मच्छर बैठा था, तुमने करवट ली और वो मार गया — इसका कोई पाप नहीं। तुम क्या जानते थे? तुम्हारी आंतों में न जाने कितने करोड़ बैक्टीरिया हैं — कभी वो पैदा हो रहे हैं, कभी वो मर रहे हैं — उसका तुम्हें थोड़े ही कोई पाप लगेगा। तुम साँस ले रहे हो और श्वास के साथ छोटे-छोटे जीव तुम्हारे भीतर जा रहे हैं, वो तुम्हारी नाक के बाल में उलझकर मर गए, वो तुम्हारे म्यूकस में उलझकर मर गए, ये तुमने पाप थोड़े ही कर दिया कोई। क्योंकि इसमें तुम्हारा कोई योगदान नहीं है। तुम्हारी कोई नीयत नहीं है। बात ये है कि जितना बचा सकते हो, यथाशक्ति उतनी हिंसा बचाओ।
किसी दूसरे पर उपकार नहीं कर रहे, अपने लिए अच्छा कर रहे हो अगर उसके प्राण बचा दिए। ये न कह देना कि अगर जानवर को बचाया तो उसपर एहसान किया — अपने ऊपर एहसान कर रहे हो उसको बचाकर।