प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी, जैसा कि हम सबको पता है कि सावन का महीना चल रहा है और इस समय कावड़ यात्रा चल रही है। मेरा प्रश्न उसी पर है कि इस यात्रा में ढोल-नगाड़े, हेलीकॉप्टर से फूल वर्षा, यही है, या फिर कुछ धर्म-अध्यात्म भी है इस यात्रा में?
आचार्य प्रशांत: देखिए, कर्म के पीछे कर्ता कैसा है, सब कुछ इस पर निर्भर करता है। आप कितने बोध, कितनी स्पष्टता के साथ कोई भी धार्मिक कर्म कर रहे हैं, उस कर्म की गुणवत्ता उस बोध, उस स्पष्टता पर निर्भर करती है, उसके अलावा कुछ नहीं।
अगर आप ‘शिवत्व’ का अर्थ समझते ही नहीं, ‘बोध क्या है?’ जानते नहीं, तो उसके बाद आप कितना भी तीर्थाटन करें या कर्मकांड करें, उससे कोई लाभ मिलने वाला नहीं है। फिर आपका जो कृत्य है, वो बस एक बाहरी प्रतीक बनकर रह जाएगा। उससे लाभ कुछ नहीं होगा, बल्कि नुक़सान ज़रूर हो सकता है। हाँ, आप जो भी करने जा रहे हों—चाहे आप पहाड़ चढ़ने जा रहे हैं, चाहे आप मंदिर जा रहे हैं, चाहे आप पूजा-अर्चना करने जा रहे हैं और चाहे आप काँवड़ यात्रा करने जा रहे हैं—आप भलीभाँति जानते हैं कि उसके पीछे सत्य क्या है, ‘गंगा’ किसका प्रतीक हैं और गंगाजल लेकर के आना वास्तव में क्या महत्व रखता है; सिर्फ़ तब उस यात्रा के कुछ मायने होते हैं।
देखिए, मूल बात से हमेशा शुरू करना चाहिए — धर्म का पूरा क्षेत्र किसलिए है? धर्म, विशुद्ध धर्म, अध्यात्म होता किसलिए है? मन की सफ़ाई के लिए, मन को दुःख से मुक्त करने के लिए। इसके अतिरिक्त धर्म का कोई प्रयोजन नहीं है, ठीक? और जब वो आनंद मिल जाता है या जब दुःख से, बंधनों से मुक्ति मिल जाती है तो उसके बाद फिर धर्म का कोई प्रयोजन नहीं रह जाता। धर्म एक माध्यम है मन को उसकी सही मंज़िल तक लाने के लिए, ठीक? ये बात हममें से बहुत लोग समझते नहीं हैं। हम धार्मिक बन जाते हैं और ये नहीं जानते कि धर्म है ही क्यों। हमें लगता है, बस कोई चीज़ है जिसका सब पालन करते हैं तो हमें भी करना चाहिए, या हमें कोई पहचान मिल गई है तो उस पहचान को पकड़ कर रखना है, इसी का नाम धार्मिकता है। नहीं, धर्म न तो परंपरा का नाम है न पहचान का नाम है; धर्म मन को दुःख से, भ्रम से, बंधन से मुक्त करने का नाम है।
ये बात स्पष्ट हो रही है?
तो अब धर्म के साथ कई तरह की फिर परंपराएँ जुड़ी होती हैं, कर्मकांड जुड़े होते हैं, वो भी फिर किसलिए होंगे? अगर धर्म का ही मूल और कुल उद्देश्य है मन को भ्रम से, दुःख से मुक्ति देना—और भ्रम ही मन का दुःख है, भ्रम ही मन का बंधन भी है—अगर धर्म का कुल उद्देश्य यही है: मुक्ति, तो जितने भी फिर उसके साथ क्रियाकलाप और आचरण की बातें जोड़ी गई हैं, उनका भी फिर क्या उद्देश्य होगा? यही होगा न कि आपको आंतरिक स्पष्टता मिले, मन की शुद्धता मिले, मन पर जो कोहरा छाया रहता है, वो छटे। तो आप जब भी कोई धार्मिक कर्म करें या होता देखें तो प्रश्न यही होना चाहिए — 'ये मैं जो भी करने जा रहा हूँ, इससे मन साफ़ हो रहा है क्या?’ मन साफ़ हो रहा है तो दूने समर्पण के साथ करें और मन साफ़ नहीं हो रहा है तो तत्काल त्याग दें।
और धर्म का अर्थ ही बन गया है कई तरह के ‘काम’; फ़लाना कर्म करो तो तुम धार्मिक कहलाते हो, फ़लाने तरह का आचरण करो तो तुम धार्मिक कहलाते हो, फ़लानी बोली बोलो, फ़लाने तरह के परिधान पहनो तो तुम धार्मिक कहलाते हो, है न?
अभी आपसे बोला जाए, दो चित्र दिखाकर कि इन दो व्यक्तियों में से धार्मिक कौन हैं; आप चित्र देख कर ही बोल दोगे कि धार्मिक कौन है, क्यों? क्योंकि धार्मिकता भी प्रतीकों तक सीमित होकर रह गई है। जिस व्यक्ति ने धार्मिक प्रतीक धारण कर रखें होंगे, उसके चित्र को आप बोल दोगे कि ये धार्मिक है। उदाहरण के लिए, आप पाओ किसी ने तिलक लगा रखा है, जनेऊ पहन रखा है, शिखा धारण कर रखी है, पीतांबर है उसके पास, तो आप कह दोगे कि ये व्यक्ति धार्मिक है। और आपको दूसरा व्यक्ति दिखाया जाए, उसने फ्रेंच कट रखी हुई है अपनी दाढ़ी और कॉर्पोरेट सूट में खड़ा हुआ है; आपके मन में भी नहीं आएगा कि ये व्यक्ति धार्मिक हो सकता है, आएगा क्या? नहीं आएगा न। या वो जो एक तीसरी फोटो आपको दिखा दिया जाए, जिसमें एक व्यक्ति बस ऐसे ही साधारण सी टीशर्ट और शॉर्ट्स पहन कर के किसी बीच (समुद्रतट) पर खड़ा हुआ है; आपके मन में आएगा ही नहीं कि ये व्यक्ति धार्मिक हो सकता है। और जो व्यक्ति पीतांबर धारण किए हुए है और तिलक-चोटी करे हुए है, उसको देखते ही कह दोगे कि यही तो धार्मिक आदमी है।
इसका क्या मतलब है? हमने धर्म का अर्थ ही बहुत गहराई से अपने मन में क्या बैठा लिया है? धर्म हमारे लिए क्या बन गया है? ये ऊपरी प्रतीक जो हैं, यही धर्म बन गए हैं। उसके पीछे क्या है, उससे हमें कोई अब प्रयोजन रह ही नहीं गया है। जबकि धर्म का अर्थ ही है, धर्म का उद्देश्य ही है कि जो पीछे बैठा है—पीछे जो बैठा है वो सूक्ष्म है, मन कहते हैं उसको। ऊपर-ऊपर से तो आपको तन वगैरह दिखाई देते हैं न, पीछे जो बैठा है वो मन है। तो धर्म का उद्देश्य ही है पीछे वाले मन की सफ़ाई करना। अब मन साफ़ है या नहीं, ये हमें चित्रों से, प्रतीकों से, छवियों से पता चलता नहीं और हम उस बात की कोई फ़िक्र भी नहीं करते; हम कहते हैं, ‘मन साफ़ हो चाहे न हो, अगर कोई व्यक्ति ऊपर-ऊपर से धार्मिक आचरण कर रहा है, तो उसे हम धार्मिक भी बोलेंगे, सम्मान भी दे देंगे इत्यादि-इत्यादि।’ धर्म के साथ ये खिलवाड़ है। ये धर्म के साथ खिलवाड़ है।
‘शिव’ परम सत्य का दूसरा नाम हैं। शिव-भक्त होना कोई आसान बात नहीं। शिव-भक्त होना बड़ा मूल्य देकर ही संभव है। आपको पूरा जीवन शिवत्व में जीना होता है तब आप अधिकारी होते हैं अपने-आपको ‘शिव-भक्त’ कहने के। और ‘क्या हैं शिव?’ ये जानना है तो शिवसूत्र थोड़ा पढ़ें या रिभूगीता थोड़ी पढ़ें। कितने ऊँचे से ऊँचे ग्रंथ हैं जो शिव से संबंधित हैं और शिवत्व का स्पष्ट अर्थ आपके सामने लाकर रख देते हैं।
आचार्य शंकर से जब पूछा उनके गुरु ने कि कौन हो तुम, तो उन्होंने अपना पूरा उत्तर नकार में दिया। कम उम्र के थे, गुरु के सामने गए, गुरु ने पूछा परिचय दो। उन्होंने अपनी एक-एक बात नकार में बोली। निर्वाणषट्कम् सुना होगा, हम उसे गा देते हैं। बस एक बात उन्होंने विधायक रूप से, सकारात्मक रूप से अफरमेटिव करके बोली, क्या बात? ‘शिवोहम्’। तो यहाँ से समझिए कि शिव कौन हैं। वो सच्चाई जहाँ मन का कोई कलुश नहीं है, वो सच्चाई जहाँ छवियाँ नहीं हैं, वो सच्चाई जो सब सांसारिक क्रियाओं-प्रक्रियाओं से बहुत अछूती है, एकदम अस्पर्शित इसीलिए एकदम पवित्र है, उसको कहते हैं ‘शिव’।
अब यदि तीर्थाटन आदि करने से आपके मन में वो सच्चाई और दृढ़ता से स्थापित होती है तो तीर्थयात्रा बहुत शुभ है। चाहे वो कावड़ यात्रा हो, चाहे वो अमरनाथ यात्रा हो, चाहे केदार यात्रा हो। लेकिन यदि उस पवित्रता से प्रेम ही नहीं, यदि शिव का अर्थ बस मानसिक तल पर कुछ लगा लिया है, तो फिर तो क्या ही लाभ। इतना समझाया है न संतो ने कि ‘गंगा गयो ते मुक्ति नाही, सौ-सौ गोते खाइए’। आप जाइए और सौ बार आप गंगा में नहा लीजिए तो भी मुक्ति मिलेगी नहीं। जैसे गंगा की मछली होती है, रहती गंगा में है पूरी ज़िंदगी लेकिन बाहर निकालो तो बदबू ही दे रही होती है। आप भी वैसे ही रहोगे। ये मैं नहीं कह रहा, ये सब हमारे आदरणीय संतो ने कहा है।
समझ में आ रही है बात?
तो ‘शिवोहम्’ कहने का अधिकार सिर्फ़ तब है जब छह बार पहले नकार दो। पहले नकार, फिर अधिकार। ‘नहीं मैं देह नहीं, नहीं मैं मन नहीं, नहीं मैं पंचभूत नहीं, नहीं मैं पंचेेंद्रियाँ नहीं, मैं विचार नहीं, मैं भावना नहीं, मैं इन सब में से कुछ नहीं हूँ’ — जब ये सब बोल दो तब कह सकते हो कि शिव से मेरी कुछ निकटता हुई। अगर अभी मन में इंद्रियाँ ही घूम रही हैं, विचार ही घूम रहे हैं, तमाम तरह की सांसारिक पहचानें ही घूम रहीं हैं, तो फिर शिव से आपकी निकटता कहाँ बनी है। फिर तो शिव को भी हमने बहुत नीचे गिरा लिया। फिर तो जो अंतिम है, अनंत है, जो सबसे ऊँचा है, उसको भी हमने अपनी निचली दुनिया का ही हिस्सा बना लिया। उसके बारे में फिर हम किस्से-कहानियाँ गढ़ना शुरू कर देते हैं। और आजकल ये भी एक बड़ा दुर्भाग्यपूर्ण चलन हो गया है। इतने किस्से गढ़े जा रहे हैं शिव के बारे में कि पूछो नहीं। किस्से गढ़े जा रहे हैं, चित्र बनाए जा रहे हैं। आप इंस्टाग्राम वगैरह पर चले जाइए वहाँ पर आपको शंकर-पार्वती के कामोत्तेजक चित्र मिल जाएँगे और उसको बनाने वाले लोग कहते हैं कि ये आर्ट है, कला है। उसमें कला क्या है भाई? जब हमारा मन ही पूरा कामुक है, तब हम अपने आराध्यों को भी कामुक अवस्था में ही देखना चाहते हैं। तो पार्वती को लगभग अर्धनग्न कर दिया जाएगा और शंकर के आलिंगन में हैं वो और ऊपर चाँद है, बिलकुल रूमानी रात है और नीचे दो-तीन लाख लाइक्स हैं, और हर-हर महादेव!
ये महादेव का तुम सम्मान कर रहे हो? बोलते हैं, ‘उनकी तो भूतों की सेना है न, तो हम भी भूत बनकर नाचेंगे।’ और कुछ और नहीं पता है शिवत्व के बारे में, एक बात पता है कि वहाँ गाँजा-भाँग चलता है, धतूरा चलता है। तो डीजे होना चाहिए और धतूरा होना चाहिए और बगड़-बम-बबम, बगड़-बम-बबम। ये शिवत्व का सम्मान है या अपमान है? ‘नाचो’; शिव का संबंध नाचने से कैसे जुड़ गया, समझ में नहीं आया! हर चीज़ को मनोरंजन बना लेना है? महाशिवरात्रि होगी, लगेंगे नाचने और नाच भी भूतों जैसा। महाशिवरात्रि पाशविक वृत्तियों से मुक्ति का प्रतीक है या पशु बने रह जाने का? तो मुक्ति कहाँ है? मुक्ति कहाँ है? ‘शिवोहम्’ कहाँ है?
मैं चाहूँगा कि प्रश्नकर्ता आज जाकर निर्वाणषट्कम् को अर्थ सहित बहुत ध्यान से सुनें। और अर्थ कहीं और न उपलब्ध हो रहा हो तो मैंने ही उस पर कई बार बोला है, खोज लें, मिल जाएगा। जब धर्म में विकृतियाँ बहुत बढ़ जाती हैं तब फिर सुधारकों को आना पड़ता है। और समय-समय पर इसीलिए संतों ने धर्म का पुनरुद्धार करना चाहा है। और ये सनातन धारा में बहुत बार हुआ है। कितनी भी ऊँची बात कह दी जाए धर्म में, हमारा भीतर का जानवर उसे बहुत निचले तल पर गिरा देता है। आपको ऊँची से ऊँची बात उपलब्ध होगी लेकिन आप उसको विकृत कर देंगे, आप उसको अपने जैसा बना लेंगे; ये हमारा काम है। देवासुर संग्राम लगातार चलता ही रहता है भीतर।
वेदांत हमने समझा नहीं, हमने बिलकुल नष्ट-भ्रष्ट कर के रख दिया पूरे वैदिक वाङ्मय को तो फिर बुद्ध और महावीर को आना पड़ा। और उसके बाद भी समय-समय पर हर दो सौ, चार सौ सालों में हम धर्म को इतना गंदा करते गए कि उसको सफ़ाई की ज़रूरत पड़ती ही रही। ये आम आदमी और आम दिमाग न जाने कैसा होता है कि ये जिस चीज़ को छूता है, उसको ही गंदा कर देता है। ये उस चीज़ को भी गंदा कर देता है जो सफ़ाई के उद्देश्य से रची गई हो। यही सब पोंगा-पंडितवाद, गप्पबाज़ी, कपोल-कल्पना, खोखली और भ्रष्ट मान्यताएँ, अर्थहीन परंपराएँ।
सिख गुरुओं को भी इतनी मेहनत क्यों करनी पड़ी? सब सिख गुरु जन्म से तो सनातनी ही थे न। इतनी मेहनत उन्हें क्यों करनी पड़ी? क्योंकि धर्म को हमने बड़ा मलिन कर दिया था। जब मलिन कर देते हो तो फिर उसको साफ़ करना पड़ता है। और मलिन कैसे किया जाता है? इन्हीं तरीकों से तो, जो तरीके हम आज भी देखते हैं अपने चारों ओर। इसके बाद तुम कबीर साहब को ले लो, संत रविदास हैं। भक्ति काल के संतों की एक पूरी परंपरा है जो वास्तव में धर्म में सुधार का ही काम कर रहे थे। कितने हैरत की बात है न ये कि इतने सारे मनीषियों को, ज्ञानियों को जान लगानी पड़ती है सुधार के लिए, सफ़ाई के लिए। इतने बड़े-बड़े लोग मिलकर अगर सफ़ाई कर रहे हैं तो सोचो कि गंदगी कितनी गहरी होगी! इतने सारे गुरु-ज्ञानी मिलकर के अगर सफ़ाई कर रहे हैं और तब भी पूरी सफ़ाई नहीं कर पा रहे तो सोचो गंदगी कितनी गहरी होगी, नहीं?
धर्म हमारी एकमात्र आशा है। धर्म वो शक्ति है जो पशु को मनुष्य बनाती है। अपनी एकमात्र आशा को ही भ्रष्ट और विकृत कर देना समझदारी का काम तो नहीं है न, या है? आप धर्म को ख़राब कर रहे हो अगर तो बताओ आपको अब बचाएगा कौन? जो आपको बचा सकता था, जो आपको बचाने वाली आखिरी उम्मीद थी, अगर आपने उसको ही ख़राब, बर्बाद, बेकार कर दिया तो अब आपको कौन बचाएगा? ये ऐसी सी बात है जैसे आप अपनी दवाई की बोतल में नशा भर दें। आपको दवाई दी गई है और आप बड़े पुराने और गहरे रोगी हो। आपको दवाई दी गई और आपने क्या करा? दवाई की बोतल तो बाहर-बाहर से वैसे ही रखी, उस पर जो लेबल चिपका था वो वही पुराना ही रहने दिया। बाहर से देखो तो क्या लिखा है उसमें? ‘दवाई’, पर दवाई आपने उड़ेल दी और उसमें आपने क्या भर दिया है? नशा।
धर्म के साथ भी यही हुआ है। धर्म की बोतल में बाहर-बाहर से तो लिखा हुआ है ‘दवा’, लेकिन भीतर से हमने नालायकी करके उसमें भर दिया है नशा। और हम सोचते हैं देखो हम बड़े चतुर हैं हमने नशा कर लिया। कर तो लिया नशा, पर अब तुम्हें बचाएगा कौन? वो एकमात्र दवाई थी जो तुम्हें बचा सकती थी, तुमने उसको भगा दिया, तुमने नशा भर लिया। तुम चतुर हो बहुत?
और इन सब चीज़ों का फिर नतीजा ये होता है कि जो जानने-समझने वाले लोग हैं, जिनकी बुद्धि थोड़ी चलती है, वो धर्म से और दूर हो जाते हैं। वो सोचते हैं धर्म का मतलब ही यही है — मारपीट, सड़कों पर बदतमीज़ी, नारेबाज़ी, आक्रमकता, शोर मचाना। तो कहते हैं कि अगर धर्म ऐसा है तो हमें धार्मिक होना ही नहीं। वो फिर किसी दूसरी दुनिया में चले जाते हैं। और इतना ही नहीं, फिर उनको अध्यात्म की ओर मोड़ना और मुश्किल हो जाता है।
एक वरिष्ठ पत्रकार थे, मुझसे मिले थे। ये तब की बात है जब मैक्लॉडगंज में एक बड़ा लंबा शिविर चला था। तो उन्होंने मुझसे कहा कि आई नेवर एक्सपेक्टेड दैट इनस्पाइट आफ बिंग आचार्य, यू विल हैव सम इंटेलिजेंस एंड डेफ्थ (मैंने कभी आशा नहीं की थी कि आचार्य होने के बावजूद आपमें बोध और गहराई होगी)। ये हमने अभी धर्म की स्थिति कर दी है! वो आचार्य शब्द देखकर ही बिदक जाते हैं। ‘मैंने सोचा नहीं था कि आचार्य होने के बावजूद आपमें कुछ बोध होगा, कुछ गहराई होगी, तो मैं तो चकित हूँ!’ और मुझसे बहुत लोगों ने कहा है कि आप अपने नाम से ‘आचार्य’ हटा दीजिए, बहुत सारे ढंग के लोग आपको सुनना शुरू कर देंगे, ये ‘आचार्य’ हटा दीजिए बस। लोग बिदक रहे हैं, लोग धर्म से ही बिदक चुके हैं क्योंकि धर्म का इतना गंदा स्वरूप पिछले एक-दो दशक में हमारे सामने लाया गया है। गंदगी पुरानी है, वो और पहले से भी चल रही है पर अभी तो कोई इंतहा ही नहीं है।
और एक और घातक चीज़ इन सब में हो रही है, उस पक्ष की भी बात करना थोड़ा ज़रूरी है। वो ये है कि धर्म हमेशा से रहा है आपको ऊपर उठाने के लिए पर अभी धर्म बन गया है उन लोगों के हाथ का खिलौना जो ऊपर उठना नहीं चाहते। जो बिलकुल हठी हैं, जिन्हें अपनी नालायकी पर कायम रहना है, जिन्हें दुनिया में कोई जगह, कोई सम्मान, कोई ताक़त कभी मिल नहीं सकती। उन्हें एक सस्ता उपाय मिल गया है, क्या? धर्म।
एक पच्चीस साल का होगा किसी कस्बे का युवक, उसने ज़िंदगी में कुछ जाना नहीं, कुछ सीखा नहीं, तमाम तरह की उसकी अज्ञानताएँ हैं, कुछ बुरी आदतें भी उसने पाल रखी हैं, रोजगार उसको मिल नहीं रहा है। इस व्यक्ति को दुनिया में कोई पहचान नहीं है, कोई जगह नहीं है, कोई आदर नहीं है। तो ये एक तरकीब निकालता है, ये कहता है कि मैं धार्मिक हूँ। ये कभी कह देता है, ‘जय श्रीराम’, कभी कह देता है, ’बम बम भोले’। और ये पाता है कि अचानक ही इसको आदर भी मिल रहा है और इसको ताक़त बहुत मिल गई है।
बहुत सारे लोग जो अन्यथा वर्थलेस (मूल्यहीन) हैं, वो धार्मिक बनकर ताक़त पाए जा रहे हैं। उनको सम्मान मिलने लगता है, आप उनके लिए रास्ता छोड़ देते हो। आप देखेंगे तो ये बात आपको बहुत दिखाई देगी। और उसकी वजह से एक बड़ी उल्टी गंगा बह रही है; वो ये है कि धर्म का क्षेत्र जो ऊँचे से ऊँचे लोगों के लिए होना चाहिए था, उससे ऊँचे लोग कटते जा रहे हैं और जितने मूल्यहीन लोग हैं, वो उसमें और घुसते जा रहे हैं। और वो घुस इसलिए नहीं रहे कि उनकी वर्थलैसनेस , उनकी मूल्यहीनता कम हो, वो घुस इसलिए रहे हैं ताकि वो मूल्यहीन बने रहते हुए भी सम्मान और शक्ति पाने लगे।
ये बहुत ख़तरनाक बात है क्योंकि धर्म आपको उठाने के लिए होता है। धर्म इसलिए नहीं होता है कि आप जैसे हैं वैसे ही रहें और फिर भी आपको सम्मान भी मिले और शक्ति भी मिले। और जब आप एक नालायक व्यक्ति को शक्ति और सम्मान यूँ ही पाता देखें, तो उस प्रक्रिया को, उस फिनॉमिना को कहते हैं — गुंडागर्दी। क्योंकि व्यक्ति है तो नालायक, फिर भी उसको सम्मान मिला है, इसका मतलब वो क्या होगा?
मैं दोहरा रहा हूँ — धर्म ऊँची से ऊँची बात है और धर्म इस संक्रमण काल में, जब हम महाविनाश के बहुत निकट हैं, धर्म हमारी आख़िरी आशा है। धर्म को गंदा मत करिए। मानवता को आज कुछ बचा सकता है तो वो विशुद्ध धर्म ही है। वैसा धर्म नहीं जो हम सड़कों पर देख रहे हैं, विशुद्ध धार्मिकता ही है जो हमें बचा सकती है। दवाई को नशा और ज़हर मत बनने दीजिए, प्रार्थना करता हूँ!