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दूसरों के ख़िलाफ़ जाना आसान है, अपने ख़िलाफ़ जाना मुश्किल || आचार्य प्रशांत (2019)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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दूसरों के ख़िलाफ़ जाना आसान है, अपने ख़िलाफ़ जाना मुश्किल

प्रश्नकर्ता: मेरा कॉलेज में जो अनुभव होता है वो कॉम्पीटिशन (प्रतिस्पर्धा) से, फ़ियर (डर) से और बहुत ज़्यादा प्रेशर (दबाव) से भरा हुआ होता है। इसके विपरीत जो अनुभव आपके वीडियो सुनने का होता है वो बहुत ही ज़्यादा शान्तिपूर्ण होता है। अक्सर मुझे ये विचार आते हैं कि कॉलेज इत्यादि में जो डर है और जो दबाव है उसको छोड़कर मैं पूरी तरह वीडियोज़ को सुनने में या संस्था के कार्य में ही समर्पित हो जाऊँ। क्या ये एस्केप (पलायन) है?

आचार्य प्रशांत: नहीं। ऐसा नहीं है कि संघर्ष या दबाव या भय या प्रतिस्पर्धा सिर्फ़ कॉलेज में या व्यवसाय में या सांसारिक मसलों में ही है। हम आमतौर पर बस ऐसे ही छवि भर बना लेते हैं। हमें लगता है कि एक तो सांसारिक तल है, इसमें बड़ा घर्षण है, बड़ी रस्साकशी है, बड़े संघर्ष हैं, भय का सामना करना पड़ता है, ज़ोर लगाना पड़ता है, मेहनत करनी पड़ती है।

इन सब बातों को हम जोड़ देते हैं बाहर की दुनिया से; चाहे वो कॉलेज की दुनिया हो, चाहे वो नौकरी की दुनिया हो, व्यापार की दुनिया हो। और इसके विपरीत हम छवि बना लेते हैं अध्यात्म की दुनिया की।

वहाँ हम कहते हैं कि बस प्रेम है, समन्वय है, सहिष्णुता है, आनन्द-ही-आनन्द है। तो कई दफ़े अगर बात को ठीक से समझा नहीं है, इन दोनों ही जगतों से पूरा परिचय नहीं है, तो हमें ऐसा लगने लग जाता है कि बाहर की दुनिया को छोड़कर आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करेंगे तो सब दबाब, तनाव, संघर्ष से निजात मिल जाएगी।

ऐसा बिलकुल नहीं है। दबाव और संघर्ष और श्रम अध्यात्म में भी उतने ही करने पड़ते हैं जितने कि संसार में। बल्कि अगर संसार में तुम थोड़ा सा ही श्रम करके काम चला लेते हो, तो अध्यात्म में तो बहुत सारे श्रम की ज़रूरत पड़ने वाली है। प्रतिस्पर्धा अगर संसार में है तो प्रतिस्पर्धा अध्यात्म में भी है। ये बात तुम्हें थोड़ी सी हो सकता है चौंकाए, लेकिन ऐसा ही है।

बस अन्तर इतना है कि संसार में तुम दूसरे के ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा करते हो और अध्यात्म में तुम अपने ही ख़िलाफ़ प्रतिस्पर्धा करते हो। संसार में तुम दूसरे के ख़िलाफ़ संघर्ष करते हो और अध्यात्म में तुम्हें अपने ही विरुद्ध संघर्ष करना होता है।

तो बात ये नहीं है कि बाहर की दुनिया में तो बड़ा तनाव और दबाव है और अध्यात्म के जगत में नहीं है। अध्यात्म के जगत में भी है, बस उसकी श्रेणी, उसकी गुणवत्ता अलग है। दबाव तुम बाहर भी झेलते हो और दबाव तुम्हें अध्यात्म में भी झेलना पड़ेगा। पर उस दबाव और इस दबाव की श्रेणी में, गुणवत्ता में अन्तर होता है।

बाहर तुम दबाव झेलते हो कुछ और अतिरिक्त हासिल कर लेने के लिए और अध्यात्म में तुम दबाव झेलते हो क्योंकि तुमने जो कुछ भी व्यर्थ हासिल कर लिया होता है उसे छोड़ना आसान नहीं होता है। तुम उसे छोड़ने की कोशिश कर रहे हो, वो छूटना चाह नहीं रहा है, वो तुम पर दबाव बना रहा है कि मुझे मत छोड़ो। बाहर दबाव रहता है कि मुझे पाओ, मुझे पाओ, मुझे पाओ। और अध्यात्म में वो जिसको तुमने नाहक पा लिया है वो दबाव बनाता है कि मुझे मत छोड़ो। ठीक है?

तो वो सब गुण जो तुमको दुनिया में सफल होने के लिए चाहिए, वो सब गुण तुम्हें अध्यात्म में भी सफल होने के लिए चाहिए। हाँ, अध्यात्म में अगर सफल होना है तो तुम्हें कुछ और, कुछ अतिरिक्त गुण भी चाहिए होंगे।

बाहर सफल होने के लिए तुम्हें सिर्फ़ संघर्ष और श्रम करना पड़ता है और बुद्धि लगानी पड़ती है। भीतर सफल होने के लिए तुम्हारे पास सिर्फ़ संघर्ष और श्रम नहीं चाहिए, विवेक भी चाहिए। पता तो हो तुम किसके ख़िलाफ़ संघर्ष कर रहे हो। भीतर सफल होने के लिए तुम्हें सिर्फ़ बुद्धि नहीं चाहिए, तुम्हें ये भी पता होना चाहिए कि बुद्धि को संचालित कौन कर रहा है।

तो भीतर की दुनिया, अध्यात्म का जगत कोई आसान नहीं है। ऐसा नहीं है कि बाहर जो हारे हुए लोग होंगे, वो भीतर आकर जीत जाएँगे। बल्कि बाहर की दुनिया में सफल होना तो फिर भी आसान है, भीतर की दुनिया में सफल होना मुश्किल है।

बाहर सफल होने के लिए, मैंने कहा, आपके पास जो-जो योग्यताएँ होनी चाहिए, भीतर सफल होने के लिए वो सब योग्यताएँ तो चाहिए-ही-चाहिए, उन योग्यताओं के अतिरिक्त भी कुछ चाहिए। विवेक चाहिए, अन्तर्दृष्टि चाहिए, स्वयं की ओर देखने वाली आँख चाहिए, अन्तर्गमन चाहिए, चीज़ों को गहराई से समझने की नीयत चाहिए, सच के प्रति निष्ठा चाहिए। तो ये विचार बिलकुल मन से हटा दें कि बाहर नहीं जीत पाये तो भीतर जीत लेंगे।

बाहर लड़ना पड़ता है न दुनिया में? देखो, जिसको देखो वही संघर्षरत है। भीतर और ज़्यादा लड़ना पड़ता है। सच्चा आध्यात्मिक आदमी तो लगातार जूझ रहा होता है। उसके संघर्ष का तो कोई अन्त ही नहीं। क्योंकि उसे किसके ख़िलाफ़ लड़ना है? अपने ही ख़िलाफ़। बाहर तो तुम फिर भी अ-ब-स किसी से लड़ आये, हो सकता है जीत भी जाओ। हो सकता है सिर्फ़ दिनभर उतने ही वक़्त संघर्ष चलता हो जितने समय तुम काम में, दफ़्तर में, कारोबार में हो। अपने ख़िलाफ़ संघर्ष तो दिन के आठ-दस घंटे नहीं चौबीस-के-चौबीस घंटे चलता है।

बात समझ में आ रही है?

तो कमज़ोर लोगों के लिए अगर सफलता की सम्भावना दुनिया में नहीं है, तो आंतरिक जगत में तो बिलकुल ही नहीं है। ये तो फिर भी हो सकता है कि कुछ कमज़ोरियाँ बचाये रखकर के भी तुम दुनिया में सफल हो जाओ। होता है कि नहीं? बहुत लोग होते हैं जिनमें तमाम कमज़ोरियाँ होती हैं, फिर भी दुनिया में हमें सफल दिखायी देते हैं। दुनिया में सफलता का क्या मतलब होता है? अपना नाम बना लिया, पैसा कमा लिया, दस लोगों से सम्मान पा लिया, कोई ऊँची पदवी मिल गयी। यही सब दुनिया में सफलता की निशानियाँ होती हैं।

तो ये तो हो सकता है कि तुममें दस-बीस कमज़ोरियाँ हैं फिर भी तुम्हें दुनिया में सफलता मिल जाए, ऐसा बिलकुल हो सकता है। ऐसा होता ही है। लेकिन दस-बीस छोड़ दो, तुममें अगर अभी एक भी कमज़ोरी बाक़ी है, दुर्बलता ज़रा भी तुममें अभी शेष है तो तुम भीतर के जगत में सफल नहीं हो सकते।

अध्यात्म तो इतनी कड़ी शर्त रखता है। कहता है कि जब तक तुमने अपनी आख़िरी कमज़ोरी भी जीत नहीं ली, मिटा नहीं दी, तब तक तुम विजेता नहीं माने जा सकते। तो अध्यात्म इसीलिए बड़े सूरमाओं के लिए है, बड़े हिम्मतवर लोगों के लिए है।

तुम कह रहे हो, ‘मेरी वीडियोज़ सुनकर तुम्हें तनाव से शान्ति मिलती है।’ अच्छी बात है। पर अभी तुमने पहला क़दम लिया है। मैं जिस शान्ति की बात करता हूँ, मैं जिस शान्ति की तरफ़ तुमको प्रेरित करता हूँ, वो कोई सस्ती शान्ति नहीं है, बहुत महँगी शान्ति है। वो पाने के लिए बड़े पापड़ बेलने होंगे। उसको पाने के लिए बहुत संघर्षों से गुज़रना होगा।

वो दूर से देखने में हो सकता है तुमको बड़ी सुलभ लगे, बड़ी आकर्षक लगे। पर जैसे-जैसे तुम उसके निकट आओगे, जैसे-जैसे तुम कहोगे कि मुझे ये शान्ति सिर्फ़ स्क्रीन पर नहीं देखनी, सिर्फ़ आचार्य जी के मुँह से नहीं सुननी, मुझे ये शान्ति अपने जीवन में लानी है, तुम पाओगे तुम्हारा रास्ता मुश्किल होता जाएगा।

ये मेरी बातें सिर्फ़ बातें नहीं हैं कि जिनको सुनकर तुम थोड़ी देर के लिए तनावमुक्त हो जाओ, तुम्हें थोड़ी राहत, थोड़ा सुकून मिल जाए। मेरी ये बातें शान्ति से पहले क्रान्ति का आवाहन हैं। ये आंतरिक युद्ध का शंखनाद है। और कोई इन्हें अगर ध्यान से सुनेगा तो उसे क्रान्ति में कूदना ही पड़ेगा। और जब क्रान्ति में कूदोगे तब मैं पूछूँगा कि दुनिया में जितना संघर्ष कर रहे थे, दुनिया में जितनी लड़ाई चल रही थी, अब बताओ बेटा, उससे कम चल रही है कि ज़्यादा चल रही है। और तुम कहोगे, ‘दुनिया में तो कुछ भी नहीं था। अब जो मार-पीट शुरू हुई है, ये तो कई गुना ज़्यादा है।’

दूसरों के ख़िलाफ़ लड़ना कहीं ज़्यादा आसान है अपने ख़िलाफ़ लड़ने से। दूसरों को कुछ सिद्ध कर देना, जता देना, साबित कर देना कहीं ज़्यादा आसान है अपनी ही साक्षी दृष्टि के सामने अपनी सत्यता प्रमाणित करने से। दूसरों को तो बहुत होता है न, कि जता आते हो कि हम बड़े आदमी हैं, हम बड़े सच्चे आदमी हैं, हम बेहतर, बढ़िया आदमी हैं। ये आसान है। ख़ुद को ये प्रमाणित करो तो जानें। अध्यात्म का मतलब है किसी और के सामने कुछ नहीं प्रमाणित करना। तुम अपने निर्णेता स्वयं हो।

साक्षी आत्मा ही न्याय करेगी और वो सब जानती है, सब देख रही है। उससे क्या छुपा है! जब उससे कुछ भी नहीं छुपा तो उससे तुम्हारा छोटे-से-छोटा दोष भी छुपा है क्या? दूसरों के सामने तो अपने दोष छुपा जाओगे, ख़ुद से कैसे छुपाओगे? तो ज़्यादा मुश्किल क्या है — दुनिया के सामने बड़े बन जाना या वास्तव में बड़े हो जाना? बोलो। तो अध्यात्म का ताल्लुक वास्तविकता से है, दुनिया के सामने कुछ सिद्ध करने से नहीं।

इसीलिए तो तुम समझ रहे होगे कि ज़्यादातर लोग अध्यात्म से घबराते क्यों हैं, असली अध्यात्म से। नकली अध्यात्म तो बड़ा आकर्षक होता है, उसकी ओर तो बहुत भाग जाते हैं। असली अध्यात्म से लोग घबराते क्यों हैं? क्योंकि मुश्किल है, कठिन है, ईमानदार है। वहाँ चोरी नहीं चलती, वहाँ बेईमानी का कोई काम नहीं, वहाँ दिखावे से बात नहीं बनेगी। वहाँ वास्तविकता सामने आती है। है न?

तो जो लोग दुनिया की लड़ाइयों में खप-पच रहे हैं, उनसे मैं कहता हूँ कि भाई लड़ तो रहे ही हो, असली लड़ाई लड़ लो। हाँ, असली लड़ाई थोड़ी और मुश्किल ज़रूर पड़ेगी। पर कम-से-कम तुम्हें उसमें कुछ असली लाभ भी होगा।

नकली लड़ाई लड़ो या झूठी और ओछी लड़ाई लड़ो जिसमें मेहनत तो कम लगे लेकिन हासिल कुछ न हो और समय भी बर्बाद हो जाए, ये बेहतर है या असली लड़ाई लड़ना, जिसमें श्रम ज़्यादा लगेगा, अनुशासन ज़्यादा लगेगा, दर्द भी ज़्यादा होगा, लेकिन जो हासिल होगा वो सच्चा होगा, ये बेहतर है? बोलो।

पाँच रुपये में ज़हर मिल रहा हो और पचास रुपये में अनार का रस, तो अनार का रस ये कहकर ठुकरा दोगे कि महँगा है? भाई वो पाँच ही रुपये का है लेकिन वो तुम्हें बर्बाद कर देगा। बाहर की लड़ाई लड़ने में आसान है, सस्ती है, पाँच रुपये वाली है, लेकिन तुम्हें बर्बाद कर देगी। ज़हर है। उसमें पाँच रुपये भी गँवाओगे और बदले में ज़हर पाओगे। असली लड़ाई महँगी है पर उसमें वास्तविक लाभ होगा।

और तुम ये नहीं कह सकते कि न पाँच न पचास, हम एक रुपया खर्च नहीं करेंगे। जो कह दे, ‘न पाँच न पचास’, वो समझ लो पाँच वाले क्षे‌‍‍‍त्र में ही है। जो भीतर अपने नहीं देख रहा उसे बाहर उलझना ही पड़ेगा। उसके लिए एक विवशता बन जाएगी, अनिवार्यता बन जाएगी। क्यों? क्योंकि अगर तुम भीतर नहीं देख रहे तो आँखें ख़ुद ही लगातार किधर को देख रही हैं? कान ख़ुद ही लगातार किधर को सुन रहे हैं?

तो बाहर वाला काम तो बिना तुम्हारे संकल्प, बिना तुम्हारी इच्छा के भी ख़ुद-ब-ख़ुद चल ही रहा है न। भीतर उतरने के लिए मेहनत करनी पड़ती है। बाहर उतरने के लिए कुछ नहीं करना पड़ता। हमारा जैसा निर्माण हुआ है, हम बाहर के तो हैं ही, बाहर वाला काम तो स्वयमेव चलता है। भीतर वाला काम मेहनत से चलता है। उसके लिए कुछ अतिरिक्त प्रयत्न करना पड़ता है।

बाहर वाला तो चलता ही रहेगा, भीतर वाला काम करो। जब भीतर वाला काम सही चलता है, तो तुम पाते हो कि बाहर वाला काम बहुत आसान हो गया। जो बड़ी लड़ाई लड़ रहा है और बड़ी लड़ाई जीत रहा है उसके लिए अब छोटी लड़ाई कैसी हो जाएगी? बच्चों का खेल। उसको तो बहुत आसानी से जीत लेगा न। भीतर वाली लड़ाई जीत लो, बाहर की सब लड़ाइयाँ तुम पाओगे कि तुम्हारे लिए बहुत आसान हो गयी हैं।

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