परमात्मा किस प्रकार सब में व्याप्त है? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

Acharya Prashant

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परमात्मा किस प्रकार सब में व्याप्त है? || श्वेताश्वतर उपनिषद् पर (2021)

एषो ह देवः प्रदिशोऽनु सर्वाः पूर्वो ह जातः स उ गर्भे अन्तः। स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्जनास्तिष्ठति सर्वतोमुखः॥

वही एक परमात्मा सम्पूर्ण दिशाओं — अवान्तर दिशाओं में संव्याप्त है, वही सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था, वही सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में अन्तःस्थित है, वही इस जगत रूप में उत्पन्न हुआ है और भविष्य में भी उत्पन्न होने वाला है, वही सम्पूर्ण जीवों में स्थित है और सम्पूर्ण पक्षों वाला है।

~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक १६)

आचार्य प्रशांत: ये पढ़ना आना चाहिए। पढ़ोगे नहीं ठीक से, सही विधि से, तो लाभ नहीं होगा। श्वेताश्वतर उपनिषद् प्रमुख उपनिषदों में से है, करोड़ो-अरबों लोगों ने इसका पाठ किया होगा, सबको नहीं लाभ होता क्योंकि एक विशेष दृष्टि से, एक विशिष्ट विधि से इसको पढ़ना होता है। समझो विधि क्या है — "वही सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था।" ठीक है?

अच्छा, तुम अपने-आपको क्या मानते हो? शरीर हो, ठीक है। तो तुम शरीर हो तो तुम किनसे आए हो? शरीरों से आए हो। वो किनसे आए? तो अगर तुम शरीर हो तो पहला भी कौन था? अपने ही तर्क पर चलो, एक तरह का *मैथेमैटिकल इंडक्शन*। तुम शरीर हो अगर तो तुम शरीर से ही आए हो, तुम्हारे माँ-बाप भी शरीर, वो शरीर तो उनके माँ-बाप भी शरीर और सब शरीर, शरीर, शरीर। तो जो पहला है वो भी शरीर। यहाँ कहा जा रहा है, 'नहीं, जो पहला है वही सर्वप्रथम हिरण्यगर्भ रूप में प्रकट हुआ था।'

उसको कह दिया कि वो पहला है कौन? जो अशरीरी है। तुम अगर अपने-आपको शरीर मानो तो ये ज़रूरी हो जाता है कि जो पहले है वो भी शरीर ही हो। यहाँ कह दिया गया है, 'नहीं, जो पहला है वो अशरीरी है।' अगर पहला अशरीरी है तो तुम भी क्या हुए? अशरीरी, ये है बात।

तुम्हें ये कल्पना करने के लिए नहीं प्रोत्साहित किया जा रहा कि हिरण्यगर्भ ब्रह्म का ही प्रथम साकार रूप था और तुम उसकी कल्पना करने लग जाओ कि कैसा रहा होगा हिरण्यगर्भ जिससे फिर सारा ब्रह्माण्ड उद्भूत हुआ। तुम्हारी कल्पना को माल-मसाला, हवा नहीं दी जा रही है। ये एक विधि है तुम तक एक सन्देश पहुँचाने की। वो सन्देश थोड़ा सा गुप्त है, उसको समझना पड़ता है।

जब कहा जा रहा है कि वही एक ब्रह्म है जो हिरण्यगर्भ बना—हिरण्यगर्भ माने समझ रहे हो? एक तरह से कह दो कि प्रथम पिता जिनसे फिर सब जीव-जंतु, पूरा ब्रह्माण्ड पैदा हुआ। ठीक है? हिरण्यगर्भ। तो ब्रह्मा को भी हिरण्यगर्भ कह देते हैं कभी-कभी। तो ब्रह्म, फिर ब्रह्मा, फिर ब्रह्माण्ड, तो वही ब्रह्म से हिरण्यगर्भ। तो ये कह करके कि जो पहला है जिससे सब आए हैं वो हिरण्यगर्भ है, वास्तव में तुमसे तुम्हारा ये विश्वास छीन लिया गया है कि तुम शरीर हो और तुमको ये सीख दे दी गई है कि अपने-आपको कभी भी दो देहों के मिलन से उत्पन्न मत मान लेना।

कुछ याद आ रहा है? क्या याद आ रहा है? श्रीमद्भगवद्गीता, सोलहवाँ अध्याय, अर्जुन पूछ रहे हैं, 'असुर कौन है?' कृष्ण कह रहे हैं, 'वो सब लोग जो अपने-आपको एक स्त्री और एक पुरुष के कामजनित संसर्ग से पैदा हुआ मानते हैं वो असुर हैं।'

हर वो आदमी जो ये सोचता है कि, "मैं एक स्त्री और एक पुरुष के मिलन से पैदा हुआ हूँ", उसी का नाम असुर है। और ऐसा तो हर शरीरी सोचता है; पूछा जाए, "कहाँ से आए?" तो बोलोगे, "मम्मा-पप्पा।" लो, हो गई न गड़बड़। फिर हिरण्यगर्भ का क्या होगा? क्योंकि मम्मा-पप्पा से पूछेंगे तो वो भी यही बोलेंगे, "कहाँ से आए?" 'मम्मा-पप्पा'। हिरण्यगर्भ पाँव पटक रहा है, कह रहा है, "हमें भी कोई देख लो, हमारा तो फिर कोई योगदान ही नहीं बचा।"

लेकिन बात बड़ी ख़तरनाक है, अब समझ में आ रहा है कि गुप्त रूप से क्यों कही गई है? क्योंकि गुप्त रूप से ना कही जाए तो तुम्हारा संसार बिखर जाएगा। बच्चों को बात समझ में आ गई कि मम्मा-पप्पा से नहीं आए हैं तो दुनिया चलना बंद हो जाएगी, तो इसीलिए बात गुप्त रूप से कही गई है। इतना ही कह दिया है कि सब हिरण्यगर्भ से आए हैं। यदि बताया कि सब हिरण्यगर्भ से आए हैं तो मम्मा-पप्पा ही तुम्हें उपनिषद् नहीं पढ़ने देंगे। 'ह! इसको पता चल जाएगा कि हमसे नहीं आया है ये'। अरे कुछ नहीं पता चलेगा उसे, तुम्हारी ही औलाद है, तुम्हें आज तक नहीं पता चला उसे कैसे पता चलेगा? तुमसे कम घोंचू है कोई वो?

"वही एक परमात्मा सम्पूर्ण दिशाओं में संव्याप्त है।"

अब इसको कैसे पढ़ना है? तुम्हारे देखे सम्पूर्ण दिशाओं में क्या है? क्या है? अरे क्या है? खम्बा। तो यहाँ ये नहीं कहा जा रहा है कि तुम कल्पना करने लग जाओ कि वहाँ भी ब्रह्म खड़ा है, वहाँ भी ब्रह्म खड़ा है, वहाँ भी ब्रह्म खड़ा है। ये बात तुम्हारी बात को काटने के लिए कही गई है। तुम्हारे देखे तो इस दिशा में दीवार है, उस दिशा में कैमरा है, इस दिशा में खम्बा है, और पीछे पर्दा है। तुम्हारे देखे कहीं ब्रह्म है?

हैं! ये तो विचित्र बात हो गई। हम कहते हैं कि सबसे पुराना धर्म है सनातन धर्म और उनके पुराने-से-पुराने ग्रन्थ हैं वेद, और वो बता रहे हैं कि ब्रह्म सब दिशाओं में संव्याप्त है। उन्होंने तो बता दिया सब दिशाओं में ब्रह्म ही है तो फिर कोई-न-कोई झूठ बोल रहा है, क्योंकि तुम्हारे हिसाब से तो इधर खम्बा है, उधर बम्बा है, इधर दीवार है, पीछे तकरार है। तुम्हारे हिसाब से ये सब कुछ है और ऋषि बोल रहे हैं, "नहीं, कहीं कुछ नहीं है, ब्रह्म है।" तो कोई एक तो झूठ बोल रहा है। अब ये तुम जानो कौन झूठ बोल रहा है।

ऋषि तुमको यही बताना चाहते हैं कि बेटा तुम्हें जो भी दिख रहा है सब झूठ है - जहाँ तुम्हें खम्बा दिख रहा है न, वहाँ खम्बा है नहीं। और अगर जितनी चीज़ें तुम्हें दिख रही हैं सब झूठ हैं तो तुम बहुत ही हुनरमंद आदमी हो, भाई। जिसे हमेशा सब कुछ झूठ-ही-झूठ दिखाई देता है, निश्चित रूप से ऐसा देखने वाला ख़ुद सबसे बड़ा झूठ है। तो बाकी सब को झूठ क्या बोलें, तुम ही झूठ हो।

ये अहंकार को पीछे से चपेट मार दी। यही पूरा इरादा है उपनिषद् का, सामने से मार नहीं सकते तो कभी इधर दाएँ से घुमा कर पीछे से कंटाप, क्योंकि अहंकार अकड़ू तो बहुत है पर मूरख भी अव्वल दर्जे का है। तो सामने-सामने उसको तुम बोलोगे कि 'तू है ही नहीं, तू मिथ्या है, तू पगलू है', तो भिड़ जाएगा, चिल्लाएगा, गाली देगा, काट ही लेगा तुमको। ऋषि ऐसी सीधी मुठभेड़ में विश्वास नहीं रखते थे। वो बहुत पके हुए लोग थे, तो वो इस तरह बोलते थे फिर, 'देखो, सब दिशाओं में ब्रह्म है'।

फिर अहंकार सुन लेता है, बोलता है, 'हाँ, ये ठीक बात, सब दिशाओं में ब्रह्म है'।

"और सुनो, वो जो प्रथम कारण है तुम्हारे होने का वो हिरण्यगर्भ है।" 'हाँ, ये बात ठीक है'। उसको समझ में भी नहीं आ रहा है कि उसने किस बात पर हामी भर दी है। उसने इस बात पर हामी भर दी है कि वो झूठा है, वो है ही नहीं।

लेकिन अपनी सारी मूर्खता के बावजूद, कुटिलता वो खेल जाता है। मान तो लिया उसने कि सम्पूर्ण दिशाओं में ब्रह्म व्याप्त है, पर जानते हो उसका वो आतंरिक चित्रण कैसे करता है? कैसे करता है? वो कहता है, "सम्पूर्ण दिशाओं में मुझे जो दिख रहा है वो तो है ही है, मुझे जो दिख रहा है वो है, साथ में ब्रह्म भी है।"

तो अब तुम अहंकार से पूछोगे कि 'भाई, उपनिषद् ने अभी-अभी बताया कि समस्त दिशाओं में ब्रह्म संव्याप्त है। तो इसको तुम कैसे दिखाओगे? चलो ज़रा सा एक कागज़ पर उकेर कर दिखाओ।' तो अहंकार जानते हो कैसे दिखाएगा? ये खम्भा है और खम्भे के भीतर से ब्रह्म झाँक रहा है। वो कहेगा ब्रह्म है लेकिन खम्भा भी है; खम्भे के अंदर ब्रह्म है। कुछ याद आ रही है? ये बात कि मेरे शरीर के भीतर आत्मा है, सुना है न हर किसी को? तेरी आत्मा और मेरी आत्मा, हम दोनों की आत्मा आपस में कुकू-कुकू करते हैं। ये वही है, खम्भे के अंदर ब्रह्म है।

तुम ये मानने को ही नहीं तैयार हो कि तुम हो ही नहीं, आत्मा मात्र सत्य है। तुमने क्या किया? आत्मा को भी अपने अंदर घुसेड़ लिया कि 'मेरी आत्मा', 'मैं आत्मा हूँ'। और एक-से-एक समुदाय हैं, वो बताते हैं, "हम सब आत्माएँ हैं, हम सब आत्माएँ हैं!" (हाथों से उड़ने का इशारा करते हुए), "अब मेरी आत्मा तेरी आत्मा को दही भल्ले खिलाएगी। तेरी आत्मा लॉन्डरी चलाती है वहाँ मेरी आत्मा धुलने जाएगी, साड़ी पहनती है वो।"

ये अहंकार के काम हैं। वो बात इसलिए बताई गई है ताकि तुम अपनी झूठी धारणाओं से बाहर आ सको। तुमने उस बात को भी अपनी झूठी धारणाओं में मिश्रित कर लिया। जैसे कोई बेहूदा लफ़ंगा सड़ा हुआ खाना खा रहा हो चार दिन पुराना, एकदम वो बजबजाया हुआ है, दिख रहा है इसमें फ़ंगस लगी हुई है। ऊपर से ही दिखाई दे रही है बढ़िया हरी नीली और तब भी उसको खाने के चक्कर में है। और तभी उसकी माँ आए और बिलकुल ताज़ा पका हुआ उसको दाल चावल दे दे कि 'ले ये खा ले, वो मत खा।' तो वो क्या करे? वो दाल चावल को फ़ंगस में मिला ले, माँ का आदेश तो मानना-ही-मानना है। 'मेरी माँ बड़ी साध्वी है उपनिषदों के स्तर की, तो उसकी बात तो माननी-ही-माननी है लेकिन अपनी बात में मिला करके। अपनी बात से पीछे नहीं हटूँगा मैं।'

मैं तो शरीर ही हूँ, तो अगर बोला गया है कि आत्मा हर जगह है तो मैं मान लूँगा मेरे भी अंदर आत्मा है। ये नहीं मानूँगा कि मैं हूँ ही नहीं, मेरा शरीर भाव ही ग़लत है। सब दिशाओं में ब्रह्म है इसका मतलब ये नहीं है कि तुम दीवार में पूजना शुरू कर दो कि यहाँ ब्रह्म है। ये तुमने क्या कर डाला? तुमको दवा दी गई थी, तुमने उसको अपने ज़हर में मिला डाला।

इतनी सारी दवाई हो, उसको थोड़े से ज़हर में मिला कर पी लो, ज़ोर किसका चलेगा, दवा का कि ज़हर का? तो तुम सब एक-सौ आठ उपनिषद् लो और उनको अपनी धारणाओं में मिला लो, और एक-सौ आठ उपनिषदों में से कुछ भी छोड़ना मत ताकि ये दावा कर सको कि एक-सौ आठ के एक सौ आठ मैंने घोंट कर पीये हैं, पर किस चीज़ में मिला कर के पीये हैं? अपनी धारणाओं में मिला कर के पीये हैं। उपनिषदों में तुमने कोई कमी नहीं छोड़ी, सब एक-सौ आठ के एक-सौ आठ अपने अंदर लिए हैं। उनको अंदर तो लिया है पर अपने ज़हर में मिला कर के लिया है। उसको छोड़ने को राज़ी नहीं। लाभ क्या होगा? यही काम सबने किया है, पूरी मानवता ने करा है।

याद रखो, बार-बार याद रखो, बार-बार याद रखो कि सत्य अप्रमेय है, साबित नहीं किया जा सकता, प्रमाणित नहीं किया जा सकता। तो भाई ये ग्रन्थ कुछ साबित करने के लिए नहीं है, कम-से-कम सत्य को साबित करने के लिए तो बिलकुल ही नहीं है। सच को साबित करा ही नहीं जा सकता, तो उपनिषद् सत्य की सत्ता स्थापित करने के लिए थोड़े ही हैं।

उपनिषद् कुछ और उद्देश्य लेकर के हैं, क्या? उन्हें झूठ काटना है, उन्हें सच की गवाही नहीं देनी, भाई। सच की कोई गवाही नहीं दे सकता। सच तो स्वयं साक्षी होता है, सच का साक्षी कौन हो गया? जब कोई साक्षी नहीं तो गवाही देने कौन आएगा? ना सच का कोई साक्षी हो सकता है क्योंकि सत्य स्वयं साक्षी है, ना सच का कोई प्रमाण हो सकता है क्योंकि सच अप्रमेय है, वो अपना प्रमाण स्वयं है बस।

तो उपनिषदों का काम ये नहीं है कि तुम्हें सच के बारे में बताएँ, उनका काम ये है कि तुमको काट डालें। तो जो इन तक आए उसमें मिटने का, लय हो जाने का, क़ुर्बान हो जाने का जज़्बा होना चाहिए। उस जज़्बे के बिना जो इन तक आ रहा है वो व्यर्थ ही आ रहा है। जिसने अभी तक अपनी निस्सारता नहीं देखी वो व्यर्थ ही उपनिषदों के साथ अपना समय ख़राब कर रहा है। उसे कुछ नहीं मिलेगा, या ऐसा कह लो उसे उपनिषद् तो मिल जाएँगे पर वो कायम रहेगा।

उपनिषदों का मिलना बाद की बात है, प्रमुख उद्देश्य है तुम्हारा विलोप। तुम्हें मिटना है, तुम नहीं मिट रहे तो ख़ुद में उपनिषद् को जोड़ करके तुम और बलवान ही हो गए न, कि नहीं?

"वही सम्पूर्ण विश्व-ब्रह्माण्ड में अन्तःस्थित है।"

अब हमारे हिसाब से पूछो तो ब्रह्माण्ड में अन्तःस्थित क्या है? एक गेंद है मान लो। गेंद पदार्थ है तो गेंद का केंद्र भी फिर क्या होगा? पदार्थ। गेंद को कितना भी खोदोगे भीतर से क्या निकलेगा? पदार्थ। माने जिस प्रकृति का पिंड होता है उसी प्रकृति का उसका केंद्र होता है, ठीक? अब अगर तुम मान रहे हो कि जगत पदार्थ है - और तुम इसलिए मानते हो क्योंकि तुम अपने-आपको पदार्थ, यानी देह मानते हो - अगर जगत पदार्थ है तो तुम्हारे हिसाब से जगत का केंद्र भी क्या होना चाहिए? पदार्थ। यहाँ कहा जा रहा है कि जगत का केंद्र क्या है? ब्रह्म। अगर जगत का केंद्र ब्रह्म है तो फिर जगत का पूरा विस्तार और जगत की परिधि भी फिर क्या हुए? ब्रह्म, माने अभौतिक, अपार्थिव। वो भी पदार्थ नहीं हो सकते।

यहाँ लग गया न झटका, क्योंकि अगर जगत पदार्थ नहीं है तो हम बैठे किस चीज़ पर हैं? ये देखो देह तो इसी पर बैठी है, पदार्थ पर ही; देह तो पदार्थ पर ही बैठी है। पर अगर जगत पदार्थ नहीं है तो जगत का दृष्टा, 'मैं', भी पदार्थ नहीं हो सकता। देह तो पदार्थ ही है, इसका मतलब 'मैं' देह नहीं हो सकता।

सीधे-सीधे अहम् से बोला जाएगा कि तुम देह नहीं हो तो वो रट लेगा इस बात को और गाने-वाने बना लेगा, भजन बनाएगा और खूब गाएगा, 'मैं देह नहीं हूँ, मैं देह नहीं हूँ' ताली बजा-बजा कर के। कहेगा 'देखो, बिलकुल ठीक से थाप देना, (हथेलियों से थाप देते हुए) मैं - देह - नहीं - हूँ'। तो इसीलिए बात को थोड़ा गुप्त तरीके से कहा जाता है कि इस जगत में अन्तःस्थित जो है वो ब्रह्म है।

अरे, जो अन्तःस्थित है वही तो सब जगह अवस्थित है। केंद्र परिधि से अलग थोड़े ही हो जाएगा, कि हो सकता है? तत्व तो एक ही रहेगा न? सेब के फल के भीतर शुतुर्मुर्ग का अंडा निकलेगा क्या? फल अगर सेब का है तो उसके केंद्र में भी क्या होगा? सेब का ही तो बीज होगा। या ऐसा हुआ है कभी कि सेब खा रहे थे और बीच में से अंगूर निकल पड़ा? एक ही जाति के होंगे न दोनों, परिधि और केंद्र?

तुम्हें बताया जाए कि तुम्हारी जाति ब्रह्म है, जैसा कबीर साहब बोलते हैं कि हमारी जाति ब्रह्म है, बोलते हैं 'हमारी जाति राम है', तो तुम मानोगे नहीं। बल्कि ऐसा कह लो कि तुम बहुत आसानी से मान लोगे और लगोगे क्या करने? (ताली बजाते हुए) भजन करने, एकदम पचा लोगे बात को 'मज़ा आ गया, क्या बात बोली गई है! जाति हमारी ब्रह्म है।'

तो फिर उसको थोड़ा सा घुमा करके कहा जाता है ताकि तुम्हें पचाने में सहूलियत ना रहे, तुम्हें किसी जानकार के पास बैठ करके सुनना पड़े। नहीं तो तुम ख़ुद ही पचा जाओ, घर में जाओ, पढ़ो, बोलो समझ में आ गई पूरी बात। अब ये बात ऐसी है कि तुमको सुनना पड़ता है, 'बताइए क्या है?' जब किसी और से सुनते हो तो सम्भावना थोड़ी कम हो जाती है कि तुम बात को पचा डालोगे।

"वही इस जगत रूप में उत्पन्न हुआ है और भविष्य में भी उत्पन्न होने वाला है, वही सम्पूर्ण जीवों में स्थित है और सम्पूर्ण पक्षों वाला है।"

वही है, वही है, सिर्फ़ वही है; माने तुम्हें जितनी विविधताएँ दिखती हैं वो नहीं हैं, नहीं हैं, बिलकुल नहीं हैं। वही भूत में है, वही भविष्य में है; वही इस पक्ष में है, वही उस पक्ष में है; वही सम्पूर्ण जीवों में है। वही वही है अगर, तो ये सब कुछ जो अलग-अलग दिखाई देते हैं लाल, नीले, पीले, काले ये क्या हैं? ये फिर नहीं हैं, या ये सिर्फ़ भासित होते हैं, प्रतीत होते हैं। इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है।

क्यों कहा जा रहा है कि जितनी विविधताएँ होती हैं, जितने भेद हैं वो बस प्रतीत होते हैं, वास्तव में नहीं है, क्योंकि बेटा जितने तुमको भेद दिखाई देते हैं दुनिया में उतना ज़्यादा तुम्हारा दुःख बढ़ता है। भेद माने समझते हो? अलग-अलग चीज़ें, विविधता, अंतर। विविधता का मतलब ये होता है कि तुम्हारे पास ये (हाथ में कलम लेते हैं) है तो जो कुछ इससे भिन्न है, वो फिर तुम्हारे पास फिर नहीं है। जहाँ विविधता आयी वहाँ तुम्हारी कामना ने चोट खायी।

तुम्हारे पास नीली कमीज़ है, माने तुम्हारे पास पीली कमीज नहीं है। तो नीले और पीले में जो ये भेद है, ये तुम्हारी फिर कामना बन जाएगा। तुम पाँच-फ़ीट-आठ-इंच के हो, माने तुम पाँच-फ़ीट-दस-इंच के नहीं हो। तो ये जो आठ और दस का भेद है ये तुम्हारी फिर कामना बन जाएगा। तुम्हारे पास चालीस रुपए हैं, माने पचास रुपए नहीं हैं, तो ये जो दो संख्याओं का भेद है ये तुम्हारी कामना बन जाएगा। जहाँ कहीं भी कुछ है जो दूसरे से अलग है, वो तुम्हारी कामना बन जाएगा।

अगर एक ही है तो कामना किसकी करोगे, बाबा? जो एक है वही तुम भी हो तो अब कामना करोगे कैसे? मान लो तुम उससे भिन्न भी हो अगर, भिन्न भी हो तो कामना एक की ही कर सकते हो, पचास तो नहीं कर सकते।

पहली बात तो अगर एक ही है तो जो एक है, तुम उससे अभिन्न हो गए। तो कामना एकदम मूल से ही नष्ट हो गई। पर अगर ये मान भी लो तुम अलग हो और जो वो एक है वो अलग है तुमसे, तो भी अधिक-से-अधिक अब कामना कितनों की कर पाओगे? उस एक की। पचास कामनाएँ तो नहीं कर सकते न। तो तुम्हें कामनाओं से मुक्ति दिलाने के लिए है ये, कि वही है, वही है, वही है। तुम क्या माँग रहे हो बार-बार?

जो प्रतीत होते हैं वो भी सब एक हैं, उनका एक साझा नाम है, याद रखना। और वो सब कुछ जो प्रतीत होता है, उसके पीछे जो सत्य है वो भी एक है, उसका जो साझा नाम है वो याद रखना। जो सब विभिन्नताएँ प्रतीत होती हैं उस पूरे वैविध्य का एक नाम रखना है, भले ही उसके नाम हज़ार हों।

ये राघव है, वो मोबाइल फ़ोन है, वो पंखा है, ये पीछे मूर्ति है, ये पर्दा है, ये छत है, कितने नाम, ठीक है। जगत में कुछ भी ऐसा है जिसका नाम ना हो? और अगर तुम्हारे सामने कुछ भी आ जाता है जिसका नाम ना हो तो तुम तत्काल उसका नाम गढ़ लेते हो, कुछ बना लेते हो अपनी ओर से नाम। तुम्हारे हाथ का मैल है, जब चाहो झाड़ दो। नाम का क्या है, कर दिया नामकरण।

तो इतने सारे नाम, इन सब नामों को याद रखने का झंझट कौन उठाए? तो जो मुक्त पुरुष होता है वो इतनी सारी चीज़ों को अलग-अलग याद रखने, याद रखने माने उन्हें मन में जगह देने, महत्व देने से बच जाता है। वो हर चीज़ का एक साझा नाम रख देता है।

चीज़ अगर अलग है दूसरी चीज़ से तो उस चीज़ का और उस दूसरी चीज़ का भी एक ही नाम होगा, क्या? चलो अलग-अलग नाम रख देते हैं, तुम इससे अलग हो न? तुम्हारा नाम 'मा' इसका नाम 'या', दोनों मिल कर क्या हो गए? तुम्हारा दिल भी रख लिया। अपने-आपको अलग बोलते थे तो इसका नाम 'मा' हो गया, इसका नाम 'या' हो गया। पर ले-दे कर के वो सब कुछ जो किसी दूसरे से अलग प्रतीत होता है उसको सच मत मान लेना।

कोई भी चीज़ दिखे, उससे पूछना, 'क्या तू किसी दूसरी चीज़ से अलग है?' वो कहे, 'हाँ हूँ', तो कहो, 'फिर तू बिलकुल उस दूसरी चीज़ जैसी ही है।' जो कुछ भी किसी दूसरी चीज़ से अलग दिखता हो वो अलग दिखने के कारण ही बिलकुल उस दूसरी चीज़ जैसा ही है। दोनों क्या हैं? बस भासित होते हुए दृश्य, मायावी प्रक्षेपण हैं। तुम जितना दूसरे से अलग दिख रहे हो उतना तुम दूसरे जैसे ही हो। लो बच गए, अब कामना को कहाँ स्थान मिलेगा?

इसी तरीके से वो सब कुछ जो अलग-अलग दिख रहा है, उसके केंद्र में जो बैठा है उसका भी एक साझा नाम है। उसको क्या बोलते हैं? उसी को सत्य बोलते हैं, उसी को आत्मा, उसी को ब्रह्म बोलते हैं। वो जो केंद्र में है वो क्या है? उसका नाम बस 'ना' है, 'ना', 'ना'। ना, किस चीज़ को ना? वो जो प्रतीत हो रहा था उसी को ना। एक तरह से कह दो एक खालीपन। उसी खालीपन को शुद्धता जानो, जैसे कचरे से खाली हो गया हो कुछ, तभी तो कहते हैं शुद्ध हो गया।

बाहर-बाहर जो दिखाई दे रहा है, कचरा है, और ये जो कचरा है ये नाना प्रकार का है, बड़े विविध तरीकों का कचरा है, बाहर-बाहर। भीतर क्या है उस कचरे के, उसके अन्तःस्थल में क्या बैठा है, केंद्र में क्या बैठा है? कचरे का अभाव, और क्या होगा? भाई, कचरा हटेगा तो क्या बचेगा? कचरे का अभाव। उसी कचरे के अभाव को ही आत्मा कहते हैं।

और यही सबसे ईमानदार तरीका है आत्मा की बात करने का, कि बस कचरे को नकार दिया और कह दिया, 'जहाँ कचरा नहीं है वहाँ आत्मा है।' आत्मा के बारे में कुछ नहीं बोला, किसके बारे में बोला है? कचरे के बारे में बोला है। कचरा है तो कचरा है, और कचरा नहीं है तो आत्मा कह दिया। आत्मा के बारे में कुछ बोलने की जुर्रत नहीं करेंगे। वो बिलकुल ही अनधिकृत चेष्टा हो जाएगी। इतना हमको अधिकार है नहीं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant.
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