परम लक्ष्य है लक्ष्यहीनता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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परम लक्ष्य है लक्ष्यहीनता || आचार्य प्रशांत, युवाओं के संग (2013)

प्रश्न: क्या इंसान का एक ही काम होता है – रहना और सोना? लेकिन सर, योजना आयोजित तो करनी पड़ती है। हर इंसान को खाना चाहिए, और इंसान खाने के लिए किसी की हत्या तक कर देता है। ज़िन्दगी में एक उद्देश्य तो है – खाना। जानवर तक को अगर खाना है, तो किसी का वो शिकार करेगा। तो इसमें भी तो उसने योजना आयोजित की। तो कैसे कह सकते हैं कि ज़िन्दगी निरुद्देश्य है?

वक्ता: अगर कोई ऊँचाई है जीवन की, तो वो ऊँचाई लक्ष्यहीनता की है – निरुद्देश्य होने की। पर हम जैसे हैं, हम उस ऊँचाई पर नहीं हैं। हमारी ज़िंदगी तो उद्देश्यों से ही भरी हुई है। हर काम हम उद्देश्य के लिए ही करते हैं; ठीक से समझना, निरुद्देश्य होना परम अवस्था है, जिसमें हमें कुछ पाना नहीं; हमें जो पाना था, वो हममें है ही, अब क्या पाना? कोई लक्ष्य हो ही नहीं सकता क्योंकि लक्ष्य होता है पाने के लिए।

परम अवस्था है कि मुझे कुछ पाना नहीं – “मैं भरा हुआ हूँ, कुछ चाहिए नहीं और”। कभी बहुत खुश भी होती हो, बिल्कुल आनंद-मग्न, क्या उस समय योजना आयोजित कर रही होती हो? यानि जब भरी हो, तो योजना आयोजित नहीं करती हो न? योजना आयोजित करना इस बात का सबूत है कि ‘अभी दुखी हूँ। अभी पूरी नहीं हूँ’। बात को समझो। प्रेम के क्षणों में भी क्या योजना आयोजित कर रहे होते हो? कि और क्या-क्या सम्भव है, क्या से क्या हो जाये। ऐसा तो नहीं होता? जो परम अवस्था है मन की, चित की, वो लक्ष्य-हीन अवस्था है। उसमें जो है, वो पूरा है; और कुछ चाहिए नहीं। लेकिन हम उस अवस्था में होते नहीं। हमारा जीवन उद्देश्यों से ही भरा हुआ है। हमारा जीवन कुछ न कुछ पाने के लिए ही भटकता रहता है, ठीक है न?

इसे चाहिए (मन को संबोधित करते हुए) । ये और माँगता है – ‘ये मिल जाये, वो मिल जाये। वो पालूँ। ये कर लूँ।’ तो अगर इसको भटकना ही है पाने के लिए, तो उचित है कि वो उस लक्ष्य-हीनता को ही लक्ष्य बना ले। एक ही उचित लक्ष्य है – लक्ष्य-हीनता।

एक ही उचित उद्देश्य है – निरुद्देश्य होना। यदि किसी को लक्ष्य बनाना है तो लक्ष्य-हीनता को लक्ष्य बनाओ। लक्ष्य बनाना है, तो ये लक्ष्य बनाओ कि लक्ष्य-हीन हो जाओ। ये बात समझ में आ रही है? क्योंकि जो मन की परम हालत है, उसमें तुम लक्ष्य-हीन होते हो न? वही तो परम है। जब बहुत आनंद में होते हो, तब तो कोई लक्ष्य नहीं बचता न?

श्रोता १: परन्तु सर, जो आनंद है, वो तो एक योजना आयोजित करने के बाद आता है न?

वक्ता: उस क्षण में क्या कोई लक्ष्य होता है?

श्रोता १: नहीं सर, नहीं होता।

वक्ता: नहीं होता न? जीवन अगर वैसा ही बीते, उसी आनंद में, तो कोई बुराई है?

श्रोता १: नहीं सर।

वक्ता: नहीं है न? तो अधिक से अधिक लक्ष्य ये हो सकता है कि मैं उस आनंद को पा लूँ। अधिक से अधिक ये ही हो सकता है, और वो आनंद क्या हुआ? – लक्ष्यहीन। तो लक्ष्य ये ही हो सकता है कि उस लक्ष्य-हीनता को पा लूँ।

लक्ष्य क्या हो सकता है? कि उस लक्ष्यहीनता को पा लूँ, बस ये ही हो सकता है, उसके अतिरिक्त और कुछ नहीं। बात समझ रहे हो न? बहुत सीधी है।

श्रोता २: नहीं सर।

वक्ता: सबसे बेहतरीन क्षण तुम्हारे वही थे जब तुम आनंदित थे। जब तुम आनंदित थे तब कोई लक्ष्य नहीं था। सारा जीवन अगर वैसा ही बीते, तो बहुत बढिया – आनंदमय। उस आनंदमय होने का अर्थ है – लक्ष्यहीन होना। तो लक्ष्य अधिक से अधिक ये ही हो सकता है कि लक्ष्यहीन हो जाएँ। उस आनंद को पा लें जिसमें लक्ष्य बचते ही नहीं। अब बात समझ में आई? लक्ष्य अगर बनाना है, तो ये बनाओ कि उस आनंद को उपलब्ध हो जाओ। ‘उपलब्ध रहूँ, लगातार रहूँ, प्रतिपल’। तो एक ही लक्ष्य हो सकता है – प्रतिपल आनंदित रहना। और उस आनंद में फिर कोई लक्ष्य नहीं। प्रतिपल मस्त रहना, प्रतिपल पूरे रहना।

श्रोता १: सर, लेकिन जब तक आनंद रहे तब तक तो लक्ष्यहीन हैं, पर जब दुखी रहें, तब तो…

वक्ता: तब तो तुम कुछ करोगे।

श्रोता १: तब उद्देश्य होगा?

वक्ता: हाँ, तभी तो कहा, कि हम वहां हैं नहीं, हम यहाँ हैं, हम यहाँ हैं तो ये लक्ष्य हो सकता है कि हम उसी आनंद को उपलब्ध हो जाएँ और वो आनंद लक्ष्यहीन है, उस आनंद को उपलब्ध होने का मतलब है कि अब सारे लक्ष्य खत्म हो गए, लक्ष्यहीनता ही है।

श्रोता ३: सर, जिसके सारे लक्ष्य खत्म हो जाते हैं, वो तो कोई पागल इंसान ही होता है।

वक्ता: तो तुम पागल हो गए थे जब तुम आनंद में थे? अभी उसने कहा कि ‘हाँ, आनंद उपलब्ध हुआ है और तब कोई लक्ष्य नहीं था, तो ये पागलपन के क्षण थे, बात ये बिल्कुल ठीक कह रहा है, थे पागलपन के ही। इसलिए पागलपन को मस्ती कहते हैं, और वो पागलपन बड़े नसीबवालों को मिलता है।

हो जाओ वैसे पागल। बड़ी नसीब की बात होगी अगर वैसे पागल बन सको। वो भी बावरे ही कहलाते हैं। परम हालत है, उसमें भी करीब-करीब, उसमें भी याद रखना, बुद्धि काम नहीं करती

पर जब ‘तुम्हारी’ बुद्धि काम नहीं करती है, वो इसलिए क्योंकि तुम बुद्धि से नीचे आ जाते हो।

वो जो पागलपन है, वो ऐसा पागलपन है कि तुम बुद्धि से ऊपर चले गए।

तुम बुद्धि के भी आगे चले गए, है वो पागलपन ही, एक हद तक तुमने बात ठीक कही है, पर वो बड़ा सौभाग्यशाली पागलपन हैं, वो तुम्हें मिलेगा नहीं इतनी आसानी से।

~ ‘शब्द योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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