आचार्य प्रशांत: बहुत सुंदर, सारगर्भित और संक्षिप्त उपनिषद् है सर्वसार उपनिषद्। अपने नाम के प्रति खरा, ‘सर्वसार’; जैसे गागर में सागर भर दी गई हो। तो पूछा कि “पंचवर्ग क्या है?”
“मन आदि (अंतःचतुष्टय), प्राण आदि (चौदह प्राण), इच्छा आदि (इच्छा-द्वेष), सत्त्व आदि (सत्, रज, तम) और पुण्य आदि (पाप-पुण्य), इन पाँचों को पंचवर्ग कहा जाता है। इनका धर्मी (धारक) बनकर जीवात्मा ज्ञानरहित होकर इनसे मुक्ति नहीं पा सकता।“ —सर्वसार उपनिषद्, श्लोक ७
जैसे माया के ही पाँच रूपों, पाँच वर्गों की बात की जा रही हो। आत्मा के ऊपर उपाधि बनकर अज्ञान, अविद्या या माया सत्य को छुपाए रहती है, ढके, आच्छादित किए रहती है, उसी अज्ञान को पाँच अलग-अलग तरीकों से कहा गया है पंचवर्ग में।
एक तरीका है कहने का कि सत्य को या आत्मा को प्रकृति ने अपने तीन गुणों से ढक रखा है, तो ये पहला वर्ग हो गया त्रिगुणात्मक प्रकृति का।
दूसरा तरीका हो गया कहने का कि मन समेत जो अन्तःकरण चतुष्टय के चार विभाग हैं, उन्होंने आत्मा को ढक रखा है। तो मन समेत ये चार विभाग कौन से हुए? मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। तो ऐसे भी कहा जा सकता है कि इन्होंने ढक रखा है आत्मा को।
या आप कह सकते हैं कि जो जीव की प्राण से आसक्ति है, जिसके कारण वो अपने आपको जीवित कहता है, तो उन चौदह प्राणों, माने चौदह प्रकार की वायु ने सत्य को ढाँक रखा है। तो ये तीसरा तरीका हो गया कहने का।
चौथा तरीका ये हो गया कि राग ने और द्वेष ने, सुख ने और दु:ख ने, इन्होंने सच को ढक रखा है।
और पाँचवाँ तरीका हो गया कहने का कि कर्तव्य ने और अकर्तव्य ने माने पाप और पुण्य ने सच को दबा रखा है। यही बात श्रीकृष्ण कहते हैं न गीता में कि जैसे अग्नि होते हुए भी अपने चारों ओर के धुँए के कारण हो सकता है दिखाई ना देती हो, जबकि अग्नि के कारण ही धुँआ है, वैसे ही सत्य दिखाई नहीं देता है अपने ऊपर लेपित माया के कारण।
अन्यत्र उपनिषद् कहते हैं कि सच का मुँह स्वर्णमय पात्र द्वारा ढका हुआ है। सच दिखाई ही नहीं देता, उसके ऊपर कुछ ऐसा छाया हुआ है जिसमें सोने जैसी चकाचौंध है, वो आँखों को चौंधिया देती है, वो अपने पार देखने ही नहीं देती; वो पहली बात, आकर्षक लगती है और दूसरी बात, वो आँखों की देखने की शक्ति को ख़त्म कर देती है।
आप किसी चमकदार चीज़ की ओर बहुत देर तक देखें तो उसके बाद आप पाएँगे आपकी आँखें कम-से-कम कुछ देर के लिए देखने की शक्ति खो चुकी हैं। ठीक वैसा ही होता है जब आप पंचवर्ग की ओर देखते हैं। इनमें से किसी की ओर भी मनुष्य अनायास ही नहीं देखता, आप देखते ही इनकी ओर तब हैं जब आप इनकी लालसा रखते हैं या आप इनसे किसी प्रकार का संबंध या सरोकार रखते हैं। या अधिक-से-अधिक इतना कह सकते हैं कि हो सकता है आपने इनकी ओर संयोगवश भी देख लिया हो, लेकिन मन में बैठी उन्हीं पुरानी वृत्तियों के कारण देखते ही आप इनसे एक रिश्ता बना लेते हैं। और रिश्ता लाभ-हानि का ही होता है, सुख-दु:ख का ही होता है, राग-द्वेष का ही होता है। दोनों ही बातें हो सकती हैं। कौन सी दो बातें?
पहला, मन में पहले से ही किसी विषय के प्रति लिप्सा बैठी हुई है, इस कारण आपने उस विषय को देखा। और दूसरी चीज़ हो सकती है कि मन में जो लिप्सा बैठी हुई है, वो अर्धचैतन्य है, वो प्रसुप्त है, पर जब आपने संयोगवश किसी विषय को देखा तो उस विषय को देखने के कारण वो लिप्सा जागृत हो गई। लेकिन दोनों ही स्थितियों में एक बात तो तय है, हम अगर किसी विषय की ओर देख रहे हैं तो निरपेक्ष होकर नहीं देख सकते, कुछ हमारा उससे संबंध बन जाता है। और जहाँ हमने किसी भी दृष्टव्य विषय से संबंध बनाया, तहाँ उस विषय का आधारभूत सत्य हमसे ओझल हो जाता है।
पंचवर्ग में जो कुछ भी है, वो सच को हम तक पहुँचने से रोकने वाली बाधा ही है। और पंचवर्ग में जो पाँचों वर्ग हैं, वो वास्तव में एक-दूसरे से पृथक नहीं हैं; वर्गो में कोई पार्थक्य नहीं है, देखने वाले की दृष्टि में पार्थक्य है। उदाहरण के लिए, अगर कोई पाने-खोने से प्रेरित होने के कारण सच से दूर है तो हम उसे कहेंगे, “इसकी आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ है कर्तव्य-अकर्तव्य या पाप-पुण्य का।” दूसरी ओर अगर कोई तमसा के कारण, अचेतन हो जाने के कारण प्रमादी होकर सच से दूर है तो हम कहेंगे, “इस पर पर्दा पड़ा हुआ है प्रकृति के तमोगुण का।”
तो ये तो लोगों ने अलग-अलग तरीके खोज रखे हैं। जीव ने सौ तरह के बहाने गढ़ रखे हैं सच से दूर होने के। तो वो जो सौ तरह के बहाने हैं, उनको पाँच वर्गो में विभक्त कर दिया गया है पंचवर्ग कहकर। वो पाँच वर्गों की व्यवस्था भी इसलिए बना दी गई है ताकि आपको बोलने में और याद रखने में सुविधा हो, नहीं तो बात ये है कि जितने लोग, उतने कारण, जितने मन, उतने बहाने। हर व्यक्ति के पास अपना एक व्यक्तिगत कारण होता है सच से दूरी बनाने का। कोई भी दो लोग बिलकुल एक ही कारण कहते नज़र नहीं आएँगे।
आपसे पूछा जाए कि “आप क्यों अपने व्यक्तित्व के अंधेरे में गुम हो, सच की तरफ़ क्यों नहीं बढ़ते?” (सभा में बैठे कुछ श्रोताओं को सम्बोधित करते हुए) आप कुछ बात बताएँगे। आपसे पूछा जाए, आप दूसरी बात बताएँगे, आपसे पूछा जाए, आप तीसरी बात बताएँगे। तो इन्हीं सब बातों को लेकर के उनको पाँच हिस्सो में विभक्त कर दिया गया है। उनको क्या नाम दिया गया? पंचवर्ग। ठीक है?
इस पाँच को पाँच नहीं, पाँच-हज़ार जानना। पाँच तो ऐसे ही हैं जैसे मुहावरा। कोई कहना चाहे तो यहाँ तक कह सकता है कि आदमी के हाथ में अंगुलियाँ होती हैं पाँच, इसीलिए माया के हिस्से कर दिए गए पाँच। ले-दे करके सारे हिस्से हैं एक ही केन्द्रीय वृत्ति के कारण, और वो वृत्ति है अज्ञान की। दूसरी दृष्टि से देखूँ तो कह दूँगा, वो वृत्ति है अप्रेम की।
सच पूछो तो अज्ञान से लड़ना फ़िर भी आसान होता है, ग्रंथ आ करके ज्ञान की आपूर्ति कर सकते हैं। अप्रेम का इलाज़ बड़ा मुश्किल होता है, कोई ग्रंथ नहीं है जो प्रेम सिखा सके बहुत कुशलतापूर्वक। इसीलिए ज़्यादातर ग्रंथ तो प्रेम सिखाने या बताने का प्रयास भी नहीं करते, वो कहते हैं कि प्रेम हो अगर पहले ही तो हमारे पास आना, हमारे पास आकर प्रेम सीखने की कोशिश मत करना। ग्रंथ कहते हैं न कि तुम्हारे पास मुमुक्षा होनी चाहिए हमारे पास आने से पहले?
किसी-न-किसी तरीके से सब गुरु, सब ग्रंथ ये शर्त रखते हैं, कहते हैं कि जिसे मुक्ति की आकांक्षा हो, वो ही हमारे पास आए। ये जो मुक्ति की आकांक्षा है, मुमुक्षा, यही तो सत्य के प्रति प्रेम है न। इसी आकांक्षा का ही नाम ‘सत्य मिल जाए’, इसी का तो नाम प्रेम है। तो ये सिखाया नहीं जा सकता। ग्रंथ भी कहते हैं, “ये आपमें हो, तो हमारे पास आइएगा।” हाँ, संतों ने ज़रूर कोशिश की हमें प्रेम सिखाने की, उन्होंने खूब गीत रचे, खूब बातें कहीं। ये उनकी करुणा थी, लेकिन फ़िर भी कुछ कहा नहीं जा सकता कि अप्रेम से संतों के गीत भी जीत सकते हैं या नहीं।
तो हमारे भीतर जो मूल ग्रंथि बैठी है, मैंने कहा, उसके दो नाम हो सकते हैं, अज्ञान या अप्रेम, और यही अभिव्यक्त होते हैं पंचवर्ग के रूप में। ठीक है?