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पैसे नहीं कमाने?
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: ऐसे जीवन में मौके आते हैं जैसे ग्रेजुएशन (स्नातक) के बाद आया था वैसे ही अभी भी चुनाव करने की स्थिति में हूँ। एक काम से सम्बंधित है कि कुछ काम करना है लेकिन बहुत ज़्यादा स्पष्ट नहीं है, एक आहट है हल्की सी, लेकिन और कोई मुझे ऑप्शन (विकल्प) या चुनाव मुझे दिखते नहीं हैं। ऐसा लगता है कि इस दिशा में जाऊँगा तो जो करना चाहता हूँ वो कर पाऊँगा। तो प्रश्न ये है कि पैसे को ध्यान में रख कर मैं कोई काम नहीं कर पाता या पैसे को सामने रख कर मैं कोई काम नहीं कर सकता?

आचार्य प्रशांत: पैसे को सामने रख कर मत करो काम लेकिन पैसा फ़िर किसी और से भी मत ले लेना। ये बहुत अच्छी बात है और इस बात में बहादुरी जैसी भी लगती है कि, "भई मैं पैसे की ओर नहीं देखता", ठीक है ये तो होना चाहिए। लेकिन पैसे की और नहीं देखता का अर्थ ये मत बना लेना कि, "मैं पैसे नहीं कमाता, मैं नहीं देखता पैसे की ओर, मैं नहीं कमाता और अपने खर्चों के लिए पिताजी से ले लेता हूँ।" ये तो बड़ा विकृत अर्थ हो जायेगा न। तुम्हारे जो भी सलाहकार हैं जब उन्होंने तुमसे कहा होगा कि पैसे का ख़्याल रखो तो शायद इस अर्थ में कहा होगा कि खुद नहीं कमाओगे तो किसी और से लोगे, जिससे लोगे उसके सामने झुकना पड़ेगा। कोई मुफ़्त में नहीं दे देता। तो आप बेशक पैसे को मन का, जीवन का केन्द्र न बना लें लेकिन इतना तो कमाएँ न कि पैसे के लिए हाथ न फैलाना पड़े।

और पैसे के लिए फिर अगर हाथ फैलाओ तो अपरिचितों के आगे फैलाओ जैसे एक भिक्षु करता है। वो जब जाकर किसी से खाना लेता है तो उसकी कोई शर्त मानकर नहीं लेता है उससे खाना। जब वो भिक्षा लेता है तो आप उसे स्वेच्छा से कुछ दे देते हैं। लेकिन अगर आप उस से ये कहेंगे कि, "मैं तुम्हें दे रहा हूँ बदले में तुम मेरी फलाना शर्त मानो", तो वो आपका दिया लेगा ही नहीं। तो आपको अगर माँगना ही है तो अपरिचितों से माँगें।

ये नहीं होना चाहिए कि, "मैं तो कमाता नहीं क्योंकि साहब पैसा तो हाथ का मैल है, पैसा कमाने में कौन समय लगाए, कौन ऊर्जा लगाए तो मैं तो कमाता नहीं। कमाता नहीं लेकिन खर्चता खूब हूँ।" खर्चते कहाँ से हो? "वो उसके लिए बड़े भैया हैं, ताऊ जी हैं, पिताजी हैं, माताजी हैं, पति जी हैं, पत्नी जी हैं।" न कमाना बहुत अच्छी बात है पर जो कमाए नहीं फ़िर वो खर्चे भी नहीं। वरना ये बड़ी अजीब स्थिति हो जाएगी कि, "कमाते तो हम नहीं हैं", क्यों? "क्योंकि पैसा तो मोह माया है, लेकिन खर्चने में हम किसी से पीछे नहीं हैं।" क्यों? खर्चते समय नहीं मोह-माया रहता पैसा या बस कमाते वक़्त ही मोह माया रहता है?

तो जवान लोगों को विशेषकर हिंदुस्तान में मैं यही सलाह देता हूँ कि इन दोनों अतियों से बचना। एक अति होती है कि पैसे के लिए ही जी रहा है इंसान। उसे पूछो, "क्या कर रहे हो?" कह रहा है, "पैसा कामना है!" उसे और कुछ समझ में ही नहीं आ रहा, बस पैसा कामना है। दूसरा ये है कि अठाईस के हो गए, तीस के हो गए, पैंतीस के हो गए अभी भी घर में बैठे हैं। कोई पूछे तो क्या बोले, "अरे साहब! आप बहुत पैसे की बात करते हैं, पैसा तो बहुत छोटी चीज़ है। जीवन में तो प्रेम होना चाहिए, आनंद होना चाहिए। जीवन में तो भगवत्ता की खुशबु होनी चाहिए। आपने पैसे की बात क्यों कर दी?"

घड़ी देखो तो रोलेक्स की, जूता देखो तो नाइकी का और कह रहे हैं कि पैसा तो मोह-माया है। वो चीज़ ठीक नहीं लगती है। ठीक है? तो तुम नहीं कामाना चाहते तो मत कमाओ पर फिर खर्चना भी नहीं। फ़िर जीवन भिक्षु जैसा कर लो कि न कमाना है न खर्चना है। पराई समपत्ति खर्च करना तुम्हें भौतिक और आध्यात्मिक दोनों तलों पर ग़ुलाम बना देगा।

प्र: मतलब अभी तक की जीवनशैली ऐसी ही पिछले ढ़ाई वर्षों से इसी तरह से रखा था कि जितना मुझे मिले उतने में ही गुज़ारा करूँ। और इस तरह की जगहों में भी रह रहा था, उस संस्था में ही काम कर रहा था जहाँ पर कम-से-कम मिल रहा था लेकिन उतने में ही मैं कर रहा था। लेकिन अभी जैसे सलाहकार से बात हुई कि अगर उपनिषद समागम से जुड़ता हूँ या फ़िर शिविर में आना है तो मुझे उस तरह से पैसे कमाने भी होंगे।

आचार्य: बढ़िया, बढ़िया है। हाँ, ठीक है। योगदान देना पड़ेगा। ज़िन्दगी में बहुत सारे काम हैं जिनके लिए पैसे चाहिए ही होते हैं। ये कोई बहुत वीरता की चीज़ थोड़े ही है कि हम कुछ कमाते ही नहीं। ऐसा कौन सा अद्भुत काम कर रहे हो जो इतना विलक्षण है कि उसके लिए तुमको कोई कुछ पैसे देगा ही नहीं? कौन सी संस्था में तुम कौन सा ऐसा काम कर रहे हो जो काम तो बहुत ऊँचा है, ऊँचे-से-ऊँचा काम है लेकिन उसके बदले में तुम्हें कोई पैसे नहीं देता? आमतौर पर तो ये होता है कि काम जिस गुणवत्ता का होता है उसी अनुसार पैसे मिल जाते हैं। ठीक है? कुछ ऊँच-नीच हो सकती है, कुछ ऊँच-नीच बिलकुल हो सकती है। लेकिन ऐसा नहीं हो सकता कि तुम कोई बहुत ही घटिया काम कर रहे हो और उसके लिए तुम पर करोड़ों बरसेंगे, कुछ अपवादों को छोड़ कर के, ठीक है? और ऐसा भी नहीं हो सकता कि तुम एक उच्चतम तल का काम कर रहे हो और उसके बदले में तुमको पैसा ही नहीं मिलेगा, कुछ अपवादों को छोड़ कर के।

क्या तुम उन अपवादों में आते हो? नहीं तो जो साधारण नियम है वो ये है कि जिस श्रेणी का, जिस तल का, जिस गुणवत्ता का काम होता है उसी के अनुसार तुम्हें उसका पारिश्रमिक मिल जाता है। कोई बहुत बिरला ही हो सकता है जो इतना अनूठा काम कर रहा हो कि उसका काम दुनिया को समझ में ही न आ रहा हो। तो काम तो उसने बहुत, बहुत, बहुत ऊँचा किया लेकिन दुनिया उसके काम की कद्र नहीं कर पाई तो इस कारण दुनिया उसके काम के एवज में उसे पैसा नहीं दे पाई। वो तो कोई लाखों में एक ऐसा अपवाद होगा न। क्या तुम उन लाखों में से एक अपवादों में से हो?

कहीं ऐसा न हो न कि और धन अर्जित करने के लिए जो श्रम करना पड़ता है, जो योग्यता दिखानी पड़ती है, न वो श्रम करना चाहते हो न वो योग्यता दिखाना चाहते हो तो अपने आप को बता दिया कि, "साहब मैं तो बहुत अच्छा काम करता हूँ, और अच्छे काम में तो पैसा कम ही मिलता है।" जिस भी संस्था में काम कर रहे हो उस संस्था में भी सबको एक समान राशि नहीं दी जाती होगी। उसमें भी कुछ ऊँचे, कुछ नीचे होते होंगे। संस्था ने कैसे तय किया कि किसको कितना वेतन मिलना चाहिए? कैसे तय किया बताओ?

कोई भी संस्था होगी उसमें सब गधे-घोड़े एक बराबर तो नहीं चलते होंगे न? वहाँ भी कोई ऊँचा, कोई नीचा। संस्था कैसे तय करती है? संस्था भी तो तुम्हारे काम की गुणवत्ता देखती है। तो उसका ख्याल रखना, नहीं तो ये अपने आप में एक बहुत ही निचले तल पर चलता हुआ कुचक्र बन जाता है। उस कुचक्र का क्या अर्थ है? उस कुचक्र में ये होता है कि, "मैंने काम यूँही किया घटिया जैसा तो मुझे पैसे कम मिले। मुझे पैसे कम मिले तो मैंने कम पैसे में ही जीने की आदत डाल ली। कम पैसे में जीने की आदत डाल ली, मेरा जो पूरा मन है, मेरा जो पूरा जीवन स्तर है वो एक दम नीचे की ओर गिर गया। जब नीचे की ओर गिर गया तो मैंने और घटिया काम किया। जब मैंने और घटिया काम किया तो मुझे और कम पैसे मिले।" और वो इस तरह से चक्र चलता रहता है।

पैसे के पीछे मत भागो लेकिन आप पैसा नहीं कमा रहे हो इसी बात को अपना तमगा मत बना लो कि, "दुनिया तो बहुत ही कुटिल लोगों की है। यहाँ पर तो जो सच्चे और सीधे लोग होते हैं वो बेचारे कहाँ कमा पाते है पैसा", तर्क समझिएगा। "दुनिया कुटिल लोगों की है, यहाँ जो सीधे-सरल लोग होते हैं वो पैसा कमा नहीं पाते।" अगला वाक्य; "हम भी पैसा नहीं कमा रहे हैं।" तो निष्कर्ष; "हम सीधे और सरल हैं।" ये तो गज़ब बात हो गई कि सीधे और सरल कहलाने के लिए तरीका ये निकाला कि कमाओ ही मत!

मैं कोई आक्षेप नहीं लगा रहा हूँ, मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि तुम्हारी ये स्थिति है। पर ऐसा भी हो सकता है इसलिए सतर्क कर रहा हूँ। बहुत बार ऐसा हुआ है कि बड़े-बड़े सूरमा वीरगति को प्राप्त हो गए, पर इसका मतलब ये नहीं है कि जितने मारे जा रहे हैं सब सूरमा ही हैं। तो ये जो लॉजिकल फैलेसी (तार्किक भ्रम) होती है न इस से बचना होता है। कई बार ऐसा होता है कि कोई बहुत योग्य आदमी हो उसका किसी जगह पर चयन न हो। लेकिन इसका मतलब ये नहीं होता कि जितने लोगों का चयन नहीं हो रहा सब योग्य ही हैं। लेकिन जब आपका चयन नहीं होता तब आप तुरंत उनका उदाहरण दोगे जो योग्य थे पर चयनित नहीं हुए।

समझना, अगर आप का चयन न हो तो तुरंत आपके मन में ख़्याल उनका कौंधेगा जो योग्य थे पर चयनित नहीं हुए पर उनका उदहारण ले कर के आप अपने आपको ये दिलासा दोगे कि, "देखो, जो अच्छे लोग होते हैं उनके साथ तो बुरा ही होता है न। और मेरे साथ बुरा हुआ इस से सिद्ध होता है कि मैं भी अच्छा ही हूँ।" नहीं, ये तर्क ठीक नहीं है।

मेरे सामने कोई आएगा, वो बहुत पैसे-पैसे की बात करेगा तो मैं उसको झाड़ूँगा, उसके दिमाग़ से पैसा उतारूँगा क्योंकि उसने इसी बात को अपना केंद्र बना रखा है कि, "ज़िन्दगी तो पैसा कमाने के लिए है, मैं ये करूँगा वो करूँगा, ऐसा करूँगा, विदेश घूमूँगा, बंगला-गाड़ी जो भी आप पैसे से कर सकते हो वो सब करूँगा।" तब मेरा काम होगा कि उसके दिमाग़ से ये पैसे का भूत उतारूँ। लेकिन अगर कोई तुम्हारी स्थिति में खड़ा होगा जो कहेगा, "नहीं ये-वो, पैसा क्या करना है!" तो मतलब ये है कि अब अहंकार ने निर्धनता में आश्रय बना लिया है।

अहंकार धन को भी आश्रय बना सकता है और निर्धनता को भी। अगर निर्धनता को ही तुम्हारा अहंकार पकड़ कर बैठ रहा है तो ये निर्धनता फ़िर बड़ी ख़राब चीज़ है। ठीक है? फ़िर कह रहा हूँ, मैं बिलकुल विस्तार में नहीं जानता हूँ कि तुम संस्था में क्या काम करते हो, ठीक है? और संस्था तुम्हारी सेवाओं को किस तरह से देखती है और संस्था तुम्हें तुम्हारी सेवाओं के एवज में कितना पारिश्रमिक देती है, मैं कुछ भी नहीं जानता हूँ। लेकिन तुम्हें एक सिद्धांत रूप में बात बताई है। मैंने जो बातें बोलीं उसमें से जो तुम पर लागू होती हैं उनको ग्रहण कर लेना, बाकि बातों को छोड़ देना।

प्र: आचार्य जी, अभी संस्था में काम नहीं कर रहा हूँ, पिछले दो महीने से इसीलिए वो चुनाव करना है मैं ये बोल रहा था।

आचार्य: मेहनत का चुनाव करना ही पड़ेगा। कोई ऐसा चुनाव करके तुम बच नहीं सकते अध्यात्म के नाम पर, जिसमें मेहनत शामिल न हो। ये एक सिद्धांत की तरह समझ लो बात। आप जो भी चुनाव करने जा रहे हैं उसमें अगर कोई ऐसा चुनाव है जिसमें मेहनत नहीं शामिल है और आप कहें, "मैं तो आध्यात्मिक आदमी हूँ, मैं काहे को मेहनत करूँ? पिताजी की समपत्ति है तो!" तो ये अपने आपको बेवकूफ़ बना रहे हैं अध्यात्म का सहारा ले कर। जवानी मेहनत करने के लिए होती है, ठीक है?

प्र: आचार्य जी, ये बात तो समझ में आ गई है कि मेहनत तो करना है, काम करना है। उसके बगैर तो मैं उपनिषद भी नहीं पढ़ पाता हूँ। जिस दिन मेहनत नहीं करता हूँ उस दिन उपनिषद लेकर भी बैठता हूँ तो पढ़ भी नहीं पाता हूँ मैं। और जिस दिन अच्छे से काम किया उस दिन उपनिषद भी बहुत अच्छे से पढ़ पाता हूँ। तो ये बात तो समझ में आ गई है कि मेहनत तो करना ही है, काम करना है। और इसलिए काम, मतलब बिजनेस का सेटअप ऐसा बना हुआ है कि मेहनत कम करके, मतलब मेहनत ठीक-ठाक करके पैसे ज़्यादा मिलेंगें लेकिन उसमें मन बेचैन हो जाता है और मन नहीं करता, कुछ ऐसी बेवकूफी है।

आचार्य: वो बिजनेस कुछ इस तरीके का है क्या जिसमें लोगों को बेवक़ूफ़ बना रहे हो या पर्यावरण का नुकसान कर रहे हो, किस तरीके का व्यापार है?

प्र: मतलब, गवर्नमेंट कंस्ट्रक्शन है, रोड कंस्ट्रक्शन और इस जैसी चीज़।

आचार्य: तो उसमें आपत्ति क्या है तुमको सड़क बनाने में?

प्र: सड़क बनाने में आपत्ति नहीं है। एक तो जैसा मैंने कहा कि इन जैसी संस्थाओं के साथ रहा हूँ तो वहाँ पर एक समझ में आया है कि, मतलब दिखता है जब रोड पर काम करते हैं, लेबर (मजदूर) होते हैं, उनसे काम करवाना एक तरह का एक्सप्लॉइटेशन (शोषण) मुझे लगता है। ख़ैर, वो भी मैं तैयार हूँ, दूसरे तल पर, करने के लिए लेकिन जो गवर्नमेंट ऑफिसेस में बेवकूफियाँ होती हैं...

आचार्य: तुम कौन सा ऐसा व्यापार करोगे जिसमें जिन लोगों से ताल्लुकात होंगे वो बेवक़ूफ़ नहीं होंगे? तुम कौन सा ऐसा काम करोगे, मुझे तो ऐसा कोई मिला नहीं। आज भी जो काम कर रहा हूँ उसमें सब बेवक़ूफ़-बेवक़ूफ़… छोड़ो!

(सब हँसते हैं)

यहाँ जितने भी लोगों ने कहीं भी कभी भी काम किया हो, वो कृपा करके बता दें कि कौन सा ऐसा क्षेत्र है जहाँ बेवक़ूफ़ लोग नहीं पाए जाते, है कोई क्षेत्र? वकालत में, सरकारी में, कोई ऐसी? अरे! जब मानवता ही अधिकांशतः बेवकूफ़ है तो तुम किस गृह पर जाकर व्यापार करोगे कि वहाँ बेवक़ूफ़ लोग नहीं मिलेंगे? घर-घर में बेवक़ूफ़ हैं, सड़क-सड़क पर बेवक़ूफ़ हैं, आईना देखो वहाँ एक बेवक़ूफ़ दिखाई देगा!

(सब हँसते हैं)

तो बेवकूफों से बच कर कहाँ जाओगे?

प्र: मतलब, जो काम एक घण्टे में हो सकता था, उस काम के लिए दस-दस घण्टे...

आचार्य: ये सवाल दो मिनट में ख़त्म हो सकता था, बीस मिनट से खिंच रहा है, क्या करूँ? तुमको बहुत बुरा लगता है जब वो सड़क बनाने वाला काम जो एक हफ़्ते में हो सकता था एक महीने में होता है। तुम्हारी जो जिज्ञासा है उसका जवाब मैं दो मिनट में दे सकता था पर बात खिंचे जा रही है, मैं क्या करूँ?

सत्यनिष्ठ होने और आदर्शवादी होने में बहुत अंतर होता है। सच्चाई सपनों को काटती है, आदर्श सपनों के पीछे भागते हैं। और हर आदर्श में कहीं-न-कहीं अहंकार छुपा होता है। ये आदर्श मत बनाओ कि तुम्हें कोई ऐसी जगह मिलेगी, कोई ऐसा कार्यस्थल, कार्यक्षेत्र मिलेगा जहाँ सब ईमानदार होंगे, सब निपुण-कुशल होंगे और बेवक़ूफ़ नहीं होंगे। कहाँ जाओगे? इंसान पैदा हुए हो भई, गन्धर्व नहीं हो।

साहब बोलते हैं न, "साधो देखो जग पगलाना", ये पागलों की दुनिया है। तुम पागलों की दुनिया में पैदा हुए हो। क्यों आदर्श सोच रहे हो कि तुम्हें सब ऊँचे-ऊँचे और बुद्धिमान और निति-कुशल और धार्मिक लोग मिलेंगे?

प्र: तो ये आदर्शवादी बात तो सामने दिख रही है कि वो है मुझ में, कि हाँ, हैं कुछ आदर्श मन में ऐसे हैं, वो आ जाते हैं, कि हो सकता है अच्छा और अच्छा हो सकता है एनवायरनमेंट (माहौल) हो। लेकिन फ़िर एक दूसरा तर्क आ रहा है कि वो कम-से-कम बेवकूफियों वाली स्थिति भी तो हो सकती है।

आचार्य: हाँ, हो सकती है, उसकी ओर आगे बढ़ते रहना होना है, ठीक है। मैं बिलकुल नहीं कह रहा हूँ कि तुम अपने लिए कोई घटिया जगह चुन लो, घटिया काम चुन लो। आगे बढ़ते रहना, बेहतर होते रहना, काम को भी बेहतर बनाना, अपनी आजीविका को भी बेहतर बनाना ये सब एक बात है। और ये कहना कि, "मैं काम करना शुरू ही तब करूँगा जब मुझे मेरा आदर्श व्यापार या आदर्श काम मिल जाएगा, ये बिलकुल दूसरी बात है। जो जहाँ पर है उसे शुरुआत तो वहाँ करनी ही पड़ेगी। तुम बैठे-बैठे इंतज़ार नहीं कर सकते चीज़ों के आदर्श हो जाने का। वो नहीं होने वाली।

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