पहली नज़र का प्यार || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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पहली नज़र का प्यार || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: आप जब किसी को देखते हो और आप कहते हो कि, "अरे, मुझे प्यार हो गया", या ख़ास तौर पर ये जो पहली नज़र में प्यार, लव एट फ़र्स्ट साइट , का पूरा सिद्धांत है, खेल है – उसमें आपने कोई उसके गुण देखे? आपने उसको पहली नज़र में जाँच लिया कि – इसका प्रकृति के प्रति क्या रुख़ है? इसका अध्यात्म के प्रति क्या रुख़ है? इसको जीवन की, मन की कितनी समझ है? ये पर्यावरण के प्रति क्या दृष्टि रखती है? इसमें करुणा कितनी है? इसमें सहनशीलता कितनी है? इसमें जागृति कितनी है? ये पहली नज़र में ही आपने सब भाँप लिया था क्या? नहीं, कुछ नहीं भाँप लिया था। नज़र तो नज़र है, पहली हो कि पाँचवी हो। नज़र क्या देखेगी? आपने कोई लड़की देखी, नज़र ने क्या देखा? नज़र ने शरीर देखा। और आप कहते हो, "मुझे इश्क हो गया"!

यहाँ शुरुआत में ही, मैंने कहा, बड़ा अनिष्ट है, बड़ी गड़बड़ होगी। न जाना, न जाँचा, और मेल बना लिया। दिक्कत होगी न? और क्यों न जाना, न जाँचा, और मेल बना लिया? मैंने दो कारण बतलाए थे, फिर दोहरा रहा हूँ – क्योंकि आपका इरादा ही नहीं था जाँचने का। क्यों नहीं था इरादा? क्योंकि आप ख़ुद 'चेतना' को महत्व नहीं देते। जब आप अपनी ज़िंदगी में ही चेतना को महत्व नहीं देते, तो आप दूसरे के अंदर चेतना का जो स्तर है, उसको कैसे वरीयता देंगे? आप अपनी ही ज़िंदगी में इस बात को कोई महत्व नहीं देते हो कि, "मैं कितना चैतन्य हूँ?" तो आप जब कोई लड़की, औरत देखोगे, तो वो कितनी चैतन्य है, आप इस बात को क्यों महत्व दे दोगे?

ये मुख्य कारण है, और दूसरा कारण एक और होता है कि अगर जो सामने आपके व्यक्ति है—आदमी हो, औरत हो, कोई हो—वो भी कई बार यही कोशिश कर रहा होता है कि आपको रिझाए ही अपने शरीर का प्रदर्शन करके। जवान लोगों में ख़ास तौर पर बड़ा आग्रह रहता है कि वो आकर्षक दिखें, बलिष्ठ दिखें, कुछ उनमें अदाएँ हों, लटके-झटके हों जिससे वो दूसरे को अपनी ओर खींच सकें। ये जानवरों के काम हैं, पशुओं के काम हैं। मोर मोरनी के सामने पंख फैला कर नाच रहा है, वो क्या कर रहा है? ये वही तो काम है कि आप गए हो, दो साल तक आपने जिम में शरीर फुलाया। और वो किसलिए किया है? कि फलानी दावत में जाएँगे, फलानी जगह पर जाएँगे, तो भले जाड़े का मौसम हो, लेकिन एकदम कसी हुई टी-शर्ट पहनकर जाएँगे—और वहाँ जितनी नवयौवनाएँ होंगी, उनको मोर की तरह आकर्षित करेंगे। ये काम तो जंगल में खूब चल ही रहा होता है।

ये काम बस यही बताता है कि आपने जीवन को बस सतह पर जाना है।

जीवन की जो सतह है, उसी का नाम शरीर है। जो शरीर से आगे ज़िंदगी को कुछ जानता ही नहीं, वो ज़िंदगी की सतह पर जी रहा है। और देखो भाई, सतह पर न सोना मिलता है, न चाँदी मिलती है, न हीरे, न मोती। सतह पर तो बेटा पानी भी नहीं मिलता, उसके लिए भी खुदाई करनी पड़ती है। तो जो जीवन की सतह पर जी रहे हैं, वो जीवन के धन से, जीवन की संपदा से वंचित रह जाते हैं। ऐसा नहीं कि मर-वर जाते हैं, वो भी जी लेते हैं, हो सकता है लंबा भी जिएँ, अस्सी साल-सौ साल जिएँ, पर वो अंदर से बड़े भिखारी से रह जाते हैं। उनके पास कुछ भीतर की संपदा होती नहीं है।

ये सब देहभाव के दुष्परिणाम होते हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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