Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles

कड़वे अनुभवों के बाद भी कामवासना मरती क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2020)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

19 min
232 reads
कड़वे अनुभवों के बाद भी कामवासना मरती क्यों नहीं? || आचार्य प्रशांत (2020)

प्रश्न: आचार्य जी, ज़िंदगी में ख़ुद खूब अनुभव करके निराशा भी ले ली, अपने आसपास के लोगों की  ज़िंदगी  में भी शादी और कामवासना को एक परेशानी की तरह ही पाया। स्वयं का भी अनुभव हो गया, दूसरों की ज़िंदगियाँ भी देख लीं, फिर भी मेरे मन में लड़कियों, महिलाओं के प्रति इच्छा मरती क्यों नहीं? सब जानते हुए भी इच्छा बनी क्यों हुई है?

आचार्य प्रशांत: शरीर को तो सदा गति करनी ही है। शरीर अपने जैविक संस्कारों का और प्रकृतिगत गुणों का दास है। शरीर तो चलेगा - 'चलती का नाम गाड़ी'। तुम शरीर को मान लो कि जैसे एक गाड़ी है जिसको चलना-ही-चलना है। श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्याय और तीसरे अध्याय में भी श्रीकृष्ण अर्जुन से स्पष्ट कहते हैं कि, "प्रकृति में ऐसा कुछ नहीं है जो गति ना कर रहा हो," - गति ना कर रहा हो माने, 'कर्म' ना कर रहा हो - "तो तुझे भी अर्जुन कर्म तो करना ही पड़ेगा, कर्म से तू भाग नहीं सकता।" प्रश्न दूसरा है, (दोहराते हैं) प्रश्न दूसरा है कि तू कर्म कैसा कर रहा है।

शरीर को अगर एक गाड़ी मानिए तो इस गाड़ी को तो गति करनी ही है, कर्म करना ही है, चलना तो है ही। लेकिन जब हम मनुष्य की बात करते हैं, तो उसकी ये जो गाड़ी है, ये पूरे तरीक़े से स्वचालित नहीं है। ये ऐसी गाड़ी नहीं है जो ख़ुद ही किधर को भी चल दे, या जिसमें पहले से ही कोई प्रोग्राम एंबेडेड है, कि कोई बैठा हुआ है जो इस गाड़ी की दिशा निर्धारित करता है। जानवरों की गाड़ी तो ऐसी ही होती है, वो प्री-प्रोग्राम्ड गाड़ी होती है, वो एक पूर्व-संस्कारित गाड़ी होती है। उस गाड़ी के जन्म के साथ ही ये तय हो चुका होता है कि वो किस दिशा जाएगी, कौन-से मोड़ लेगी, कितनी तेज़ भागेगी, ये सारी बातें। आदमी की गाड़ी में चालक, ड्राइवर की सीट पर 'चेतना' बैठी हुई है। चेतना का काम है ये देखना कि ये गाड़ी कहाँ को जा रही है।

तो अब आदमी के पास दो तरह की ताक़तें हो जाती हैं।

एक तो जो उसकी गाड़ी के भीतर पहले से ही प्रोग्रामिंग या संस्कार बैठे हुए हैं, जो उसको चलाना ही नहीं चाहते; एक ख़ास तरीके से चलाना चाहते हैं - सब की अपनी-अपनी बुद्धि होती है, सब के अपने-अपने देहगत गुण होते हैं - तो वो सब बातें उस गाड़ी के स्वरूप में, संरचना में निहित होती हैं। तो वो भागना चाहती है। लेकिन चालक भी बैठा हुआ है न? उसके पास ये काबिलियत है कि वो इस गाड़ी को सही दिशा दे, सही मोड़ दे, सही गति दे; उसके पास ये काबिलियत नहीं है कि गति को रोक दे।

'चलती का नाम गाड़ी', गाड़ी तो चलेगी। तो इस चालक के पास ये सामर्थ्य बिल्कुल नहीं है कि गति को रोक दे; जब तक जीवन है तब तक ये गाड़ी गति करती रहेगी, लेकिन ये सामर्थ्य ज़रूर है कि वो गाड़ी को समुचित दिशा दे। अब ये जो आपका शरीर है, इसमें ये बात अंदर तक बैठी हुई है, कूट-कूटकर भरी हुई है कि इसको विपरीत लिंगी की ओर आकर्षित होना है -  मैं एक सामान्य आदमी की बात कर रहा हूँ, मैं एक जवान आदमी की बात कर रहा हूँ, मैं प्रश्नकर्ता को उत्तर दे रहा हूँ जो युवा हैं। तो एक साधारण युवा व्यक्ति है, मान लीजिए पच्चीस-तीस साल का उसका शरीर, उसके लिए ये बात लगभग अनिवार्य कर देता है कि वो स्त्रियों की ओर आकर्षित होगा ही। यही बात स्त्रियों पर भी लागू होती है कि वो पुरुषों की ओर आकर्षित होंगी हीं। लेकिन इस पूरे प्रसंग में आप 'चेतना' की बात नहीं करते, आप उस ड्राइवर की बात नहीं करते जिसके पास तमाम तरह के कंट्रोल्स (नियंत्रण यंत्र) हैं, जिसके हाथ में स्टीयरिंग है।

कैसी स्त्री की ओर आकर्षित हो रहे हो? ठीक है, आपका जो प्रवाह है वो जा रहा है स्त्री की ओर, कैसी स्त्री की ओर आकर्षित हो रहे हो, और क्यों आकर्षित हो रहे हो? कैसे-भी पुरुष की ओर या किसी व्यक्ति की ओर जब आपका आकर्षण होता है, किसी-भी वस्तु की ओर, किसी-भी ओर जब आपका आकर्षण होता है, क्यों हो रहा है? क्या वजह है? और आकर्षण दो चीज़ों पर निर्भर करता है: एक तो ये कि आप सामने वाले में क्या ख़ोज रहे हो, और दूसरा ये कि सामने वाला क्या दिखाकर आपको रिझा रहा है। इन दोनों बातों का ख़्याल रखना होता है।

इन दोनों बातों में से किस बात पर आपका बस है, नियंत्रण है? वो यही है कि आप दूसरे में ख़ोज क्या रहे हो। और आप दूसरे में क्या 'ख़ोज' रहे हो वह इस पर निर्भर करेगा कि 'आप' कैसे हो। तो अब आपके हाथ में गाड़ी है, गाड़ी तो चली जा रही है, ठीक है? जाना है मान लीजिए उसको विपरीत लिंगी की ओर। एक जवान व्यक्ति के जीवन की हो सकता है ये अनिवार्यता हो, वो अभी जीवनमुक्त तो हो नहीं गया, वो अभी अध्यात्म में और आत्मज्ञान में बहुत आगे तो बढ़ नहीं गया, और अभी उसकी शारीरिक अवस्था ऐसी है कि उसको प्रकृतिगत आकर्षण होता है स्त्रियों से। ठीक है, चलो! लेकिन कैसी स्त्री से?

मैं एक उदाहरण लेता हूँ।

यहाँ पर प्रश्नकर्ता ने कहा है कि - "मैंने दुनिया देख ली, अपना अनुभव देख लिया, दूसरों का अनुभव देख लिया, फिर भी स्त्रियों की ओर खिंचाव रहता है।" तुम्हारे सामने कोई स्त्री हो, एकदम ही बेहूदी हो, उल्टी-पुल्टी बातें करती हो, गिरा हुआ उसका आचरण हो, झूठी हो, मक्कार हो, धोखेबाज़ हो, हिंसक हो, तो भी क्या तुम उसकी ओर आकर्षित होते हो? बोलो? नहीं होते ना? माने सब स्त्रियों की ओर तो तुम आकर्षित नहीं हो जाते, कुछ तो तुम उसका गुण और ज्ञान भी देखते हो ना? अच्छा, और आगे का उदाहरण ले लो।

बड़ी ख़ूबसूरत स्त्री हो, और तुम्हें पता चल जाए कि ये तो ख़ून पीती है, तो आकर्षित होगे उसकी ओर? अरे भाई! कितनी ही ये जो भूतिया फ़िल्में बनती हैं, उसमें जो भूतनी होती है, वो बला की ख़ूबसूरत होती है, ज़बरदस्त! वो फँसाती ही है ऐसे लोगों को कि वो अपने रूप का जाल बिछाती है और पंछी आकर फँसते हैं। लेकिन जैसे ही उनको पता चलता है कि ये जो इतना ख़ूबसूरत रूप हमें दिखाया जा रहा है, इसके पीछे बड़ी हिंसक भावना है। वो पंछी फिर फड़फड़ा के भागना चाहते हैं, फिर बचना चाहते हैं। तो ऐसा तो नहीं है कि सुंदर रूप तुम्हें दिखा नहीं कि तुम फँस ही जाओगे, कुछ तो तुम, मैंने कहा उसके  'गुण' और 'ज्ञान' का भी विचार करते हो न? करते हो न?

कोई बहुत भी सुंदर हो, लेकिन तुम्हें दिखाई दे कि अज्ञानी ही नहीं है, कपटी है, धोखेबाज़ है और हिंसक है, तो तुम्हारा आकर्षण कम हो जाएगा। और बहुत तुम उसका उग्र तेवर देख लो, तो आकर्षण फिर विकर्षण में बदल जाएगा, फिर तुम दूर भागोगे। ऐसा होता है न? तो इसका मतलब तुम जानते हो, तुम्हारी चेतना जानती है कि सब स्त्रियाँ इस काबिल नहीं होतीं कि उनकी ओर बढ़ा जाए। इसी तरह स्त्रियों की चेतना भी जानती है कि सब पुरुष इस लायक नहीं होते कि उनकी ओर बढ़ा जाए, है न? इसी बात को बढ़ाओ, इसी का नाम 'आत्मज्ञान' है।

अपनी चेतना को और प्रबल करो।

तुम्हारी चेतना तुमको ये संदेश तो देती ही रहती है ना कि शरीर-भर से कुछ नहीं होता, थोड़ा उसके अंतर्जगत में भी ख़ूबसूरती होनी चाहिए। लेकिन जो तुम्हारी गाड़ी है, जो शरीर है, ये इन बातों का बिल्कुल विचार नहीं करता कि जो तुम साथी ख़ोज रहे हो, जोड़ीदार ख़ोज रहे हो, वो भीतरी तौर पर कैसा है; शरीर को तो शरीर चाहिए। और जब आप सिर्फ़ किसी को शरीर की तरह देख रहे हैं, तो क्यों आप उसकी बुद्धि देखेंगे, क्यों आप उसका ज्ञान देखेंगे? क्यों उसमें कितनी करुणा है ये देखेंगे, क्यों उसमें सच के लिए कितना आग्रह है ये देखेंगे? ये सब फिर आप नहीं देखेंगे। वो तो एक शरीर है। शरीर तो शरीर है।

शरीर, शरीर की ओर बढ़ना चाहता है; चेतना का काम है चेतना की ओर बढ़ना। आप शरीर भी हैं, चेतना भी हैं। सवाल ये है कि - आप ज़्यादा क्या हैं?

अगर आप ज़्यादा शरीर हैं, तो आप क्या हो गए? जानवर हो गए। थोड़ी देर पहले हमने बात करी थी ना? जानवर शरीर ही है नब्बे प्रतिशत। चेतना के नाम पर उसके पास कुछ बहुत निम्नस्तर के संवेग होते हैं, वरना उसमें बहुत चेतना नहीं होती। आदमी और पशु में यही अंतर है ना? कोई पशु ज्ञान के लिए, या मुक्ति के लिए नहीं फड़फड़ाता। तो अगर आपको किसी की ओर भी बढ़ना है - बात बस विपरीत लिंगी की ही नहीं है - जीवन में किसी के साथ भी आपको संगति करनी है, तो आपको ये देखना पड़ेगा ना कि वो व्यक्ति कैसा है ।  व्यक्ति कैसा है, ये देख लो, उसके बाद तुम उसके साथ रहने लग जाओ, जोड़ा बनाओ, कुछ भी करो, चलो, चलेगा।  लेकिन जब रिश्ते का आधार ही यही है कि - "मैं स्त्री ख़ोज रहा हूँ क्योंकि मैं पुरुष हूँ," तो बात गड़बड़ा जाती है। अब तुम वास्तव में चेतना नहीं ख़ोज रहे, तुम देह ख़ोज रहे हो।

जब तुम देह ख़ोज रहे हो, तो फिर तुम्हारी अपनी चेतना का ह्रास होगा, गिरेगी।   और तुम्हारी चेतना जब गिरेगी तो तुम घोर दुःख पाओगे। 'चेतना' को आनंद ऊँचाईयों में है। चेतना को गिराओगे तो चेतना दुःखी हो जाएगी।

चेतना ही तो दुःख पाती है, तुम शरीर से थोड़े ही दुःख पाते हो। कभी कहते हो क्या कि "मेरा नाखून दुःख पा रहा है? मेरा घुटना दुःख पा रहा है?" घुटने में भी चोट लगती है, तो चेतना है जो दुःख का निर्धारण करती है। घुटना शारीरिक तौर पर तुम्हें अधिक-से-अधिक पीड़ा का अनुभव करा सकता है, पर तुम दुःख कितना पा रहे हो, ये तो तुम्हारी चेतना पर निर्भर करता है। समझ रहे हो बात को?

तो ऐसे हो जाओ कि तुम्हें किसी-भी दूसरे व्यक्ति में वास्तविक सौंदर्य ख़ोजना है, सच्चाई ख़ोजनी है, करुणा ख़ोजनी है, बोध ख़ोजना है, इसके बाद अगर वो व्यक्ति स्त्री है तो स्त्री भली, पुरुष है तो पुरुष भला, फिर कोई इसमें दिक़्क़त की बात नहीं है।

अध्यात्म विरोधी नहीं है स्त्री-पुरुष के मिलन का। अध्यात्म बस ये कहता है कि जिन कारणों से एक आम स्त्री और एक आम पुरुष मिलते हैं और जोड़ा बनाते हैं, वो कारण ही मूलतः बहुत अनिष्टकारी हैं। शुरुआत में ही बहुत बड़ा झंझट है, रोग है, शुरुआत ही ग़लत होती है। जब रिश्ते की शुरुआत ही ग़लत हो रही है तो फिर उस बीज से विषवृक्ष ही बनेगा, और उसमें फिर विषफल ही फ़लेंगे।

आप जब किसी को देखते हो और आप कहते हो कि - "अरे! मुझे प्यार हो गया," ख़ासतौर पर ये जो पहली नज़र में प्यार, लव एट फ़र्स्ट साइट का पूरा सिद्धांत है, खेल है, उसमें आपने कोई उसके गुण देखे? आपने उसको पहली नज़र में जाँच लिया कि - इसका प्रकृति के प्रति क्या रुख़ है, इसका अध्यात्म के प्रति क्या रुख़ है, इसको जीवन की, मन की कितनी समझ है? ये पर्यावरण के प्रति क्या दृष्टि रखती है? इसमें करुणा कितनी है? इसमें सहनशीलता कितनी है? इसमें जागृति कितनी है? ये पहली नज़र में आपने सब भाँप लिया था क्या? नहीं, कुछ नहीं भाँप लिया था।

नज़र तो नज़र है, पहली हो कि पाँचवी हो, नज़र क्या देखेगी? आपने कोई लड़की देखी, नज़र ने क्या देखा? नज़र ने शरीर देखा और आप कहते हो, "मुझे इश्क़ हो गया।" यहाँ शुरुआत में ही मैंने कहा, बड़ा अनिष्ट है, बड़ी गड़बड़ होगी। ना जाना, ना जाँचा और मेल बना लिया, दिक़्क़त होगी न? और क्यों ना जाना, ना जाँचा और मेल बना लिया? मैंने दो कारण बतलाए थे, फिर दोहरा रहा हूँ - क्योंकि आपका इरादा ही नहीं था जाँचने का। क्यों नहीं था इरादा? क्योंकि आप ख़ुद 'चेतना' को महत्व नहीं देते। जब आप अपनी ज़िंदगी में ही चेतना को महत्व नहीं देते, तो आप दूसरे के अंदर चेतना का जो स्तर है, उसको कैसे वरीयता देंगे? आप अपनी ही ज़िंदगी में इस बात को कोई महत्व नहीं देते हो कि - "मैं कितना चैतन्य हूँ?"- तो आप जब कोई लड़की, औरत देखोगे तो वो कितनी चैतन्य है, आप इस बात को क्यों महत्व दे दोगे? ये मुख्य कारण है।

और दूसरा कारण एक और होता है कि अगर जो सामने आपके व्यक्ति है - आदमी हो, औरत हो, कोई हो - वो भी कई बार यही कोशिश कर रहा होता है कि आपको रिझाए ही अपने शरीर का प्रदर्शन करके। जवान लोगों में ख़ासतौर पर बड़ा आग्रह रहता है कि वो आकर्षक दिखें, बलिष्ठ दिखें, कुछ उनमें अदाएँ हों, लटके-झटके हों, जिससे वो दूसरे को अपनी ओर खींच सकें। ये जानवरों के काम हैं, पशुओं के काम हैं। मोर मोरनी के सामने पंख फैला के नाच रहा है। वो क्या कर रहा है? ये वही तो काम है कि आप गए हो, दो साल तक आपने जिम में शरीर फ़ुलाया। और वो किसलिए किया है? कि फलानी दावत में जाएँगे, फलानी जगह पर जाएँगे, तो भले जाड़े का मौसम हो लेकिन एकदम कसी हुई टी-शर्ट पहनकर जाएँगे और और वहाँ जितनी नव-यौवनाएँ होंगी, उनको मोर की तरह आकर्षित करेंगे। ये काम तो जंगल में ख़ूब चल ही रहा होता है।

ये काम बस यही बताता है कि आपने जीवन को बस सतह पर जाना है। जीवन की जो सतह है, उसी का नाम 'शरीर' है। जो शरीर से आगे ज़िंदगी  को कुछ जानता ही नहीं वो ज़िंदगी की सतह पर जी रहा है। और देखो, सतह पर ना सोना मिलता है, ना चाँदी मिलती है, ना हीरे, ना मोती; सतह पर तो पानी भी नहीं मिलता, उसके लिए भी ख़ुदाई करनी पड़ती है। तो जो जीवन की सतह पर जी रहे हैं वो जीवन के धन से, जीवन की संपदा से वंचित रह जाते हैं। ऐसा नहीं कि मर-वर जाते हैं, वो भी जी लेते हैं, हो सकता है लंबा भी जिएँ - अस्सी साल-सौ साल जिएँ - पर वो अंदर से बड़े भिखारी से रह जाते हैं। उनके पास कुछ भीतर की संपदा होती नहीं है। ये सब देहभाव के दुष्परिणाम होते हैं।

आपने अपने आप को भी देह समझा, चेतना पर कोई ध्यान नहीं दिया। कोई आपकी जिंदगी में आ रहा है, तो वो भी इसीलिए आ रहा है क्योंकि आप उसकी देह ही देखे जा रहे हो; बड़ी गड़बड़ हो जाती है।

दूसरे तो ज़िंदगी में आएँगे ही, गाड़ी तो चलेगी ना? दूसरे तो ज़िंदगी में आएँगे ही। और ये बात ही बड़ी अटपटी है कि दुनिया की आबादी का पचास प्रतिशत अगर महिलाएँ हैं तो आपकी ज़िंदगी में कोई महिला नहीं आएगी। आएगी भ! आनी चाहिए। इसमें कोई बुराई कहाँ से हो गई? आदमी की ज़िंदगी में औरत आएगी, औरत की ज़िंदगी में आदमी आएगा, कई रूपों में आएगा; कोई आवश्यक नहीं है कि उनमें लैंगिक संबंध हीं हो। तो ये तो आएँगे, ये तो आपस में परस्पर व्यवहार करेंगे ही, ये दो लिंग हैं, उनका आपस में रिश्तेदारी होगी, बोल-बातचीत होगी, व्यवहार होगा, ये तो होना ही है।

प्रश्न फिर वही एक ही है केंद्रीय - किस आधार पर तुम दूसरे का चयन कर रहे हो? किस आधार पर तुम दूसरे से व्यवहार बना रहे हो? किस आधार पर तुम दूसरे से रिश्ता रख रहे हो? वो आधार ठीक रखो, बाकी सब फिर अपने आप ठीक रहेगा। फिर रिश्ता भी कैसा होना है? ये बात चेतना स्वयं निर्धारित कर देती है। उसके बाद इस चीज़ की भी कोई विशेष ज़रूरत नहीं रह जाती है कि तुम्हारा रिश्ता किन्हीं पुराने रस्मों-रिवाज़ों और ढांचों-ढर्रों पर ही चले। चेतना ही तय कर देगी कि तुम्हें कैसा रिश्ता बनाना है। वो कोई बड़ी बात नहीं है कि रिश्ते का प्रारूप क्या होगा, रिश्ते का नाम क्या होगा, रिश्ता समाज में किस दृष्टि से देखा जाएगा; वो सब अपने आप ठीक हो जाएगा। वो सब अपने आप तय हो जाएगा।

जो मूल चीज़ है उस पर ध्यान दो।

'कौन' है जो रिश्ता बना रहा है? 'किस कारण' से रिश्ता बना रहा है? अतः 'किसके साथ' रिश्ता बना रहा है? तो अपना सुधार करो। तुम जब तुम ऐसे हो जाओगे कि तुम्हारी आँख दुनियाभर में 'चेतना' ही तलाशेगी, चेतना को ही सम्मान देगी, चेतना की ही प्यासी रहेगी, तो फिर चाहे तुम बच्चे से मिलो या बूढ़े से मिलो, तुम एक ही चीज़ के इच्छुक रहोगे कि - इस व्यक्ति में ऐसा कितना है जो आदर का पात्र है, जिसको सम्मान देखकर न्यौछावर हुआ जा सकता है। फिर चाहे तुम आदमी से मिलो, चाहे औरत से मिलो, तुम्हारी आँखें एक ही चीज़ परख रही होंगी, ढूंढ रही होंगी कि  - इस व्यक्ति में 'वो' किस अंश में है, कितनी प्रचुरता में है, जो चीज़ जिंदगी को जीने लायक बनाती है।

तुम एक ही सवाल पूछोगे जब किसी से मिलोगे, "इस आदमी में गहराई कितनी है?" आदमी हो या औरत हो, जो भी - "इस व्यक्ति में गहराई कितनी है?" ठीक है? इस दृष्टि से अब तुम दुनिया को देखोगे, तब तुम्हारे सारे रिश्ते सही होंगे। और इस दृष्टि से तुमने दुनिया को नहीं देखा, और तुमने ज़बरदस्ती एक संकल्प कर लिया कि - "साहब मैं तो आध्यात्मिक आदमी हूँ तो मैं तो औरतों से मिलता-जुलता नहीं," तो उससे कोई बहुत लाभ नहीं होगा। पूछो, क्यों नहीं लाभ होगा? औरतों से नहीं मिलोगे, आदमियों की संगत तो करोगे? तुम आदमियों में भी ग़लत आदमी चुन लोगे भाई!

जब तुम्हें अभी किसी के 'गुणों' की ना पहचान है, ना परवाह, तो तुम जिस भी व्यक्ति को चुनोगे, चाहे आदमी चाहे औरत, ग़लत ही चुनोगे। तुम अपने ऊपर ये बंदिश भी लगा दो कि - नहीं, औरतों से रिश्ता नहीं रखना है, गड़बड़ हो जाती है - तो तुम आदमियों से दोस्ती-यारी रखोगे; जो भी नाता रखोगे, दुनिया में किसी से कुछ तो मिलोगे-जुलोगे, नाता रखोगे, जिससे ही मिलोगे-जुलोगे, ग़लत आधार पर मिलोगे-जुलोगे। और तो और छोड़ दो, तुम्हारा जो सबसे 'केंद्रीय' नाता है अपने साथ, वही ग़लत होगा। तुम जब स्वयं को नहीं जानते, तो तुम अपने साथ ही सही नाता कैसे रख लोगे?

अपनी पहचान करो!

अपने आप से बार-बार ये पूछा करो: "कौन हूँ मैं? ये जो बाहर-बाहर से दिख रहा हूँ, हाड़-माँस का पुतला, या कुछ और हूँ मैं? कौन है जो भीतर से बोलता है—गला बोलता है? ज़बान बोलती है? होठ बोलते हैं? ये शब्द कहाँ से आते हैं? शब्दकोश से आते हैं? समाज से आते हैं? ये बोल कौन रहा है मेरे भीतर से? ये जो मेरे भीतर से बात उठती है, ये जो मेरे भीतर प्यास होती है, ये किसकी है? फेफड़ों से हवा उठ रही है, शब्दों का उच्चारण हो रहा है, तमाम तरह की शारीरिक गतियाँ हो रही हैं, जिसके कारण ये शब्द निकलते हुए पता चल रहे हैं, क्या ये सब बात मात्र भौतिक है? या कुछ और हूँ मैं? हरकत शरीर कर रहा है लेकिन उस हरकत के पीछे कोई और है, चेतना है। और वो चेतना, पूर्ति माँगती है, तृप्ति माँगती है। क्या वो चेतना नहीं हूँ मैं?" ये 'आत्मज्ञान' कहलाता है।

ये सवाल बार-बार पूछना होता है। जिस आदमी ने ये सवाल अपने आप से बार-बार पूछा, जो अपनी हक़ीक़त को पहचानने लग गया, जो अपनी तकलीफ़ को जानने लग गया, वो फिर अपनी तकलीफ़ का इलाज ढूँढेगा ना? वो ऐसा कुछ नहीं ढूँढेगा जो उसकी तकलीफ़ को बढ़ा जाए।

यही हमारी समस्या रहती है, हम तकलीफ़ में होते हैं और हमारी तकलीफ़ ये है कि हम हर वक़्त वो काम करते हैं जो हमारी तकलीफ़ को और बढ़ाता है। ख़ासतौर पर तकलीफ़ मिटाने के लिए हम जितने काम करते हैं, वही तकलीफ़ को और बढ़ा जाते हैं।

ये सब क्यों होता है?

क्योंकि हमने कभी इस बात पर मेहनत ही नहीं की, ध्यान ही नहीं दिया कि - पहले ख़ुद को जानो।

आँखें बाहर देखती रहीं, शरीर की सारी व्यवस्था, सारा व्यवहार बहिर्गामी है, फिर बाहर जो कुछ मिला, वही पकड़ लिया, और फिर जीवनभर के लिए परेशान होते गए, तमाम तरीक़े के लफ़ड़े अपने लिए पैदा कर लिए। और फिर क्या है ज़िंदगी? छोटी-सी है। तुम अपने लिए झंझट पैदा कर लो, उन झंझटों से निपटने में ही कट जाती है, नहीं पता चलता।

ऐसी जिंदगी नहीं बितानी है, होशियार रहो!

YouTube Link: https://youtu.be/iDSb7-T0fq8

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles