प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मैं पढ़ना भी चाहता हूँ, लेकिन फिर भी मन नहीं लगता। ऐसा क्यों? क्या करना चाहिए कि पढ़ाई में मन लगे?
आचार्य प्रशांत: क्यों लगे मन?
प्र: परीक्षा पास (उत्तीर्ण) करने के लिए।
आचार्य: क्यों करनी है परीक्षा पास?
प्र: नौकरी के लिए।
आचार्य: क्यों करनी है नौकरी?
प्र: क्योंकि घरवाले ऐसा चाहते हैं।
आचार्य: उनकी चाहत क्यों पूरी करना चाहते हो?
प्र: ज़रूरतें भी होती हैं।
आचार्य: नहीं, मैं नहीं समझा। उनकी चाहत क्यों पूरी करना चाहते हो?
प्र: क्योंकि घर में पैसों की ज़रूरत है।
आचार्य: पर पैसा कहीं और से आता दिख रहा है?
प्र: नहीं।
आचार्य: नहीं आता दिख रहा है, तो मत आने दो पैसा। जब तंगी होगी, तो ख़ुद ही कुछ करोगे।
कोई मुझसे कहे, “मुझे प्यास बहुत लगी है, और मैं पानी उठाकर पी भी नहीं रहा”, तो वो मुझे ही बुद्धू बना रहा है। कोई मुझे कहे कि – “घर में ज़रूरत बहुत है पैसे की, पर मैं कमा नहीं रहा”, तो या तो उसका एक वक्तव्य झूठ है, या दोनों ही झूठ हैं, या वो बहुत चालाक है।
अगर घर पर पैसों की ज़रूरत होती, तो तुमने कमा लिया होता न। कौन ऐसा है जिसे भूख लगी हो, तो खाएगा नहीं? कौन ऐसा है जिसे प्यास लगी हो, तो पीएगा नहीं? निश्चित रूप से ज़रूरत है नहीं। या वो जिसे तुम ‘ज़रूरत’ कह रहे हो, वो कोई और चीज़ है। या असली कारण कुछ और है, तुम मुझे बता कुछ और रहे हो।
अभी मैं इसकी तो बात ही नहीं कर रहा कि आदमी सत्य के केंद्र से चले। झूठ का केंद्र भी लाभकारी होता है। झूठ के पास भी एक सशक्त तर्क होता है। झूठ के पास भी एक सशक्त तर्क होता है – स्वार्थ का।
अभी तो मैं तुमसे परमार्थ की बात कर ही नहीं रहा, सत्य की तो बात कर ही नहीं रहा। मैं तो ये देख रहा हूँ कि तुम स्वार्थ पर भी नहीं चल रहे हो। ना परमार्थ पर चल रहे हो, ना स्वार्थ पर चल रहे हो, तो तुम चल कहाँ रहे हो?
निश्चित रूप से जब परमार्थ का केंद्र नहीं होता है, तो स्वार्थ का होता है। हाँ, स्वार्थ तुमने कहाँ बैठा रखा है, तुम ये भी मेरे सामने ज़ाहिर नहीं करना चाहते।
प्र: अध्यात्म की तरफ़।
आचार्य: बेटा, अध्यात्म तो परम-स्वार्थ सिखाता है। जो छोटा-मोटा स्वार्थ भी पूरा ना कर पा रहा हो, वो परम-स्वार्थ क्या पूरा करेगा!
पढ़ाई नहीं करनी है, तो ग़ौर से देख लो कि क्या आवश्यक है जीवन में। अगर रोटी आवश्यक है, तो देख लो कि पढ़ाई के बिना भी कैसे कमा सकते हो। कोई ज़रूरी थोड़े ही है कि पढ़-लिख कर ही रोटी कमाई जाए। और भी तरीक़े हैं, उनसे कमा लो। और पाओ कि रोटी आवश्यक नहीं है, घरवाले ज़बरदस्ती धक्का दे रहे हैं, तो मना कर दो हाथ जोड़कर कि, "नहीं पढ़ना!" और पाओ कि रोटी के लिए ही सही, लेकिन पढ़ना ज़रूरी है, तो पढ़ो बैठकर।
भूखे को धर्मगुरु नहीं चाहिए समझाने के लिए कि – “रोटी खा ले”, उसका स्वार्थ काफ़ी होता है। कोई भूखा आदमी आध्यात्मिक सत्संग में आकर बोले, “भूखा तो बहुत हूँ धर्मगुरुजी, पर रोटी नहीं खाता”, तो ये बात ना भौतिक है, ना आध्यात्मिक है। सिर्फ़ भ्रामक है।
आमतौर पर क्या होता है - मैं ये नहीं कह रहा कि तुम्हारे किस्से में भी ऐसा ही है - जबतक रोटी मिल रही है, कमाए कौन! इतना लम्बा रास्ता कौन ले रोटी का कि पढ़ाई करो, फिर परीक्षा पास करो, फिर नौकरी करने जाओ, फिर महीने के अंत में तनख्वाह कमाओ।
“कौन ये सब झंझट उठाए? संतों फकीरों ने कहा है न सीधा-सादा जीवन जियो। ये सब तो हम झंझट उठाते ही नहीं मेहनत वग़ैरह करने का।” वो सब झंझट तुम उसी दिन तक नहीं उठाते, जिस दिन तक घर का संचित पैसा तुम्हारे लिए उपलब्ध है। जिस दिन वो पैसा उपलब्ध होना बंद हो जाएगा, उस दिन श्रम अपने आप होना शुरु हो जाएगा। इसमें कोई आध्यात्मिक पहलू नहीं है।
तुम्हें यही करना है, तो करो फिर। परेशानी का नक़ाब क्यों ओढ़ते हो? पाँच-सात साल घर की जमापूँजी पर ऐश करो फिर। जिन्होंने जमा किया था, वो भी कौन-से होशियार लोग थे। उन्हें पता ही होता कितना जमा करना है, और किसके लिए जमा करना है, तो उनकी जमा की हुई पूँजी का ये अंजाम हो भी नहीं रहा होता। तो अच्छी बात है, उन्होंने जमा किया, तुम उड़ा दो। उड़ा देने के बाद अपने आप ही ये नौबत आ जाएगी कि मेहनत करनी पड़ेगी।
इसमें भी कोई दिक़्क़त नहीं है। पर ग्लानि भाव मत पालो न। सीधे-सीधे घोषणा करो कि, “हम कमाई नहीं करते हैं, हम खाते हैं घर बैठकर।” ऐसे भी बहुत हैं। फिर उनको जीवन सिखाता है आगे।
और अगर वास्तव में ये ललक उठ रही है कि जीवन को सार्थक करना है, जो पाने योग्य है उसे पाना है, तो फिर सवाल-जवाब हटाकर के, सीधे-सीधे श्रम करो।