पाँच नाम बेहोशी के

Acharya Prashant

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पाँच नाम बेहोशी के

आचार्य प्रशांत: पंचवर्ग क्या है -- जैसे माया के ही पाँच रूपों, पाँच वर्गों की बात की जा रही हो। आत्मा के ऊपर उपाधि बन कर -- अज्ञान, अविद्या या माया सत्य को छुपाए रहती है, ढके, आच्छादित किये रहती है। उसी अज्ञान को पाँच अलग-अलग तरीकों से कहा गया है पंच वर्ग में।

एक तरीका है कहने का कि -- "सत्य को या आत्मा को प्रकृति ने अपने तीन गुणों से ढक रखा है।" तो ये पहला वर्ग हो गया -- त्रिगुणात्मक प्रकृति का।

दूसरा तरीका हो गया कहने का कि -- "मन समेत जो अंतःकरण चतुष्टय के चार विभाग हैं, उन्होंने आत्मा को ढक रखा है।" तो मन समेत ये चार विभाग कौन से हुए -- मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार। तो ऐसे भी कहा जा सकता है कि इन्होने ढक रखा है आत्मा को।

या आप कह सकते हैं कि -- "जो जीव की प्राण से आसक्ति है, जिसके कारण वो अपने आप को जीवित कहता है, तो उन चौदह प्राणों(माने चौदह प्रकार की वायु) ने सत्य को ढाँक रखा है।" तो ये तीसरा तरीका हो गया कहने का।

चौथा तरीका ये हो गया कि -- "राग ने और द्वेष ने, सुख ने और दुःख ने, इन्होंने सच को ढक रखा है।"

और पाँचवा तरीका हो गया कहने का कि -- "कर्तव्य ने और अकर्तव्य ने, माने पाप और पुण्य ने सच को दबा रखा है।"

यही बात श्री कृष्ण कहते हैं न, गीता में कि -- "जैसे 'अग्नि', होते हुए भी अपने चारों ओर के धुएँ के कारण हो सकता है दिखाई न देती हो, जबकि अग्नि के कारण ही धुआँ है। वैसे ही सत्य दिखाई नहीं देना है; अपने ऊपर लेपित माया के कारण।"

अन्यत्र उपनिषद कहते हैं कि -- "सच का मुँह स्वर्णमय पात्र द्वारा ढका हुआ है।"

सच दिखाई ही नहीं देता। उसके ऊपर कुछ ऐसा छाया हुआ है जिसमें सोने जैसी चकाचौंध है। वो आँखों को चुँधिया देती है। वो अपने पार देखने ही नहीं देती। वो, पहली बात -- "आकर्षक लगाती है।" और दूसरी बात -- "वो आँखों की देखने की शक्ति को खत्म कर देती है।" आप किसी चमकदार चीज़ की ओर बहुत देर तक देखें तो उसके बाद आप पाएँगे कि आपकी आँखें कम से कम कुछ देर के लिए, देखने की शक्ति खो चुकी है।

ठीक वैसा ही होता है, जब आप पंचवर्ग की ओर देखते हैं। इनमें से किसी की ओर भी मनुष्य अनायास ही नहीं देखता। आप देखते ही इनकी ओर तब हैं जब आप इनकी लालसा रखते हैं या आप इनसे किसी प्रकार का सम्बन्ध या सरोकार रखते हैं। या अधिक से अधिक इतना कह सकते हैं कि हो सकता है कि आपने इनकी ओर संयोगवश भी देख लिया हो लेकिन मन में बैठी हुई पुरानी वृत्तियों के कारण, देखते ही आप इनसे एक रिश्ता बना लेते हो। और रिश्ता लाभ-हानि का ही होता है, सुख-दुःख का ही होता है, राग-द्वेष का ही होता है। दोनों ही बातें हो सकती हैं।

कौन सी दो बातें?

पहला -- मन में पहले से ही किसी विषय के प्रति लिप्सा बैठी हुई है इस कारण आपने उस विषय को देखा। और दूसरी चीज़ हो सकती है कि मन में जो लिप्सा बैठी है वो अर्द्ध चेतन है, वो प्रसुप्त है। पर जब आपने संयोगवश किसी विषय को देखा तो उस विषय को देखने के कारण वो लिप्सा जागृत हो गई।

लेकिन दोनों ही स्थितियों में एक बात तो तय है -- "हम अगर किसी विषय की ओर देख रहे हैं तो निरपेक्ष होकर नहीं देख सकते हैं। कुछ हमारा उससे सम्बन्ध बन जाता है।" और जहाँ हमने किसी भी दृष्टव्य विषय से सम्बन्ध बनाया तहाँ उस विषय का आधारभूत सत्य हमसे ओझल हो जाता है।

पंचवर्ग में जो कुछ भी है, वो सच को हम तक पहुँचने से रोकने वाली बाधा ही है। और पंचवर्ग में जो पाँचों वर्ग हैं वो वास्तव में एक दूसरे से पृथक नहीं हैं। वर्गों में कोई पार्थक्य नहीं है। देखने वाले की दृष्टि में पार्थक्य है। उदाहरण के लिए -- अगर कोई पाने-खोने से प्रेरित होने के कारण सच से दूर है तो हम उससे कहेंगे -- "इसकी आँखों पर पर्दा पड़ा हुआ है -- कर्तव्य-अकर्तव्य या पाप-पुण्य का।"

दूसरी ओर, अगर कोई तमसा के कारण, अचेतन हो जाने के कारण, प्रमादी होकर सच से दूर है तो हम कहेंगे -- "इस पर पर्दा पड़ा हुआ है प्रकृति के तमोगुण का।" तो ये तो लोगों ने अलग-अलग तरीके खोज रखे हैं। जीव ने सौ तरह के बहाने गढ़ रखे हैं -- सच से दूर होने के। तो वो जो सौ तरह के बहाने हैं उनको पाँच वर्गों में विभक्त कर दिया गया है -- पपंचवर्ग कह कर।

वो पाँच वर्ग की व्यवस्था भी इसीलिए बना दी गई है ताकि आपको बोलने में और याद रखने में सुविधा हो। नहीं तो बात ये है कि जितने लोग उतने कारण। जितने मन उतने बहाने। हर व्यक्ति के पास अपना एक व्यक्तिगत कारण होता है, सच से दूरी बनाने का। कोई भी दो लोग बिलकुल एक ही कारण कहते नज़र नहीं आएँगे।

आपसे पूछा जाए कि आप क्यों अपने व्यक्तित्व के अँधेरे में गुम हो, सच की तरफ क्यों नहीं बढ़ते -- आप कुछ बात बताएँगे।

आपसे पूछा जाए(दूसरे श्रोता को इंगित करते हुए) आप दूसरी बात बताएँगे।

आपसे पूछा जाए(तीसरे श्रोता को इंगित करते हुए) आप तीसरी बात बताएँगे।

तो इन्हीं सब बातों को लेकर के उनको पाँच हिस्सों में विभक्त कर दिया गया है। उनको क्या नाम दिया गया -- पंचवर्ग। ठीक है?

इस पाँच को पाँच नहीं पाँच हज़ार जानना। पाँच तो ऐसे ही है जैसे मुहावरा -- कोई कहना चाहे तो यहाँ तक कह सकता है कि "आदमी के हाथ में उँगलियाँ होती हैं पाँच इसीलिए माया के हिस्से कर दिए गए पाँच।"

ले-दे करके सारे हिस्से हैं एक ही केंद्रीय वृत्ति के कारण और वृत्ति है अज्ञान की।

दूसरी दृष्टि से देखूँ तो कह दूँगा -- "वो वृत्ति है अप्रेम की।"

सच पूछो तो अज्ञान से लड़ना फिर भी आसान होता है। ग्रन्थ आकर के ज्ञान की आपूर्ति कर सकते हैं। अप्रेम का इलाज बड़ा मुश्किल होता है। कोई ग्रन्थ नहीं है जो प्रेम सिखा सके, बहुत कुशलता पूर्वक। इसीलिए ज्यादातर ग्रन्थ तो प्रेम सिखाने या बताने का प्रयास भी नहीं करते। वो कहते हैं कि -- "प्रेम हो अगर पहले ही, तो हमारे पास आना। हमारे पास आकर प्रेम सीखने की कोशिश मत करना।"

ग्रन्थ कहते हैं न, कि -- "तुम्हारे पास मुमुक्षा होनी चाहिए, हमारे पास आने से पहले।" किसी न किसी तरीके से, सब गुरु, सब ग्रन्थ यह शर्त रखते हैं -- कहते हैं कि -- "जिसे मुक्ति की आकांक्षा हो, वही हमारे पास आए।"

ये जो मुक्ति की आकांक्षा है -- मुमुक्षा, यही तो सत्य के प्रति प्रेम है न? इसी आकांक्षा का ही नाम -- "सत्य मिल जाए" -- इसी का तो नाम प्रेम है।

तो ये सिखाया नहीं जा सकता। ग्रन्थ भी कहते हैं -- "ये आपमें हो तो हमारे पास आइयेगा।" हाँ, संतों ने जरूर कोशिश की हमें प्रेम सिखाने की। उन्होंने खूब गीत रचें, खूब बातें कहीं। ये उनकी करुणा थी। लेकिन फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता है कि "अप्रेम से, संतों के गीत भी जीत सकते हैं या नहीं।" तो हमारे भीतर जो मूल ग्रंथि बैठी है; मैंने कहा -- उसके दो नाम हो सकते हैं -- "अज्ञान या अप्रेम" और यही अभिव्यक्त होते हैं पंचवर्ग के रूप में। ठीक है?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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