ऊपरवाले ने नहीं बनाया है आपको (अपनी सच्चाई जानो) || आचार्य प्रशांत (2022)

Acharya Prashant

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ऊपरवाले ने नहीं बनाया है आपको (अपनी सच्चाई जानो) || आचार्य प्रशांत (2022)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। आचार्य जी, मैं कई वीगन ग्रुप के साथ जुड़ा हुआ हूँ और वहाँ पर हमारे सामने काफ़ी सारे तर्क ऐसे आते हैं वीगनिज़्म के विरोध में जिनका जवाब हम आपके वीडियोज़ के माध्यम से दे पाते हैं। लेकिन एक तर्क ऐसा आता है कि ये जो पूरा संसार है यह इंसानों के उपभोग के लिए ही बना है। प्रकृति में मनुष्य को ही यह बुद्धि और इतनी टेक्नोलॉजी मनुष्य अर्जित कर पाये उस बुद्धि की बदौलत तो कुछ जानवर, फ़ालतू जानवर अगर ख़त्म हो भी जाते हैं तो क्या फ़र्क पड़ता है? और उनकी चिंता नहीं करनी चाहिए। इंसानों की चिंता करनी चाहिए। उसका का जवाब नहीं दे पाते।

आचार्य प्रशांत: बैठो। देखो ये जो बात तुम कह रहे हो ये बात किसी साधारण मन से यूँही नहीं आ गयी है। यह बात वास्तव में बहुत सारे धर्मग्रंथ हैं उनसे आ रही है। जिनमें जो क्रीऐशनिज़म है, सृष्टिवाद उसको आधार बनाया गया है। वहाँ पर केंद्र में बैठा है एक रचयिता ईश्वर। कहते हैं, एक है ईश्वर, स्वामी, गॉड, लॉर्ड, अल्लाह उसने ये पूरी दुनिया रची है, उसने ये पूरी रची है और दुनिया को रचने के बाद उसने हमें ये भी बता दिया है कि अब इस दुनिया में किसका क्या स्थान है, किसको किस तरीक़े से जीना है, किसका किसके ऊपर कितना हक़ है और उसने यह सबकुछ बताया है एक किताब दे करके। वो किताब एक तरह का समझ लो इस दुनिया को चलाने का ऑपरेटिंग मैन्युअल(नियमावली) हो गया। ठीक है।

जैसे, आपके पास मान लीजिए माइक आता है, आप इसे ख़रीदें ठीक है। या मोबाइल आता है। तो मोबाइल को जिसने बनाया है वो आपको मोबाइल भी देता है और साथ ही साथ मोबाइल को चलाने का एक तरीक़ा ही बता देता है। मोबाइल के साथ एक ऑपरेटिंग मैन्युअल आता है और उस ऑपरेटिंग मैन्युअल में लिखा होता है मोबाइल चलाना कैसे है।

तो बहुत लोगों का विचार ये है कि ये दुनिया भी कुछ इसी तरीक़े की ही है। एक कोई बैठा हुआ है ऊपर जिसने दुनिया बनायी है। उसने दुनिया बना करके हमें दे दी है और दुनिया में कैसे चलना है उसके लिए एक ऑपरेटिंग मैन्युअल नाम की किताब दे दी है। ये बिलकुल बच्चों वाला सिद्धान्त है जहाँ से भी आपको मिल गया। एकदम बच्चों वाली बात है।

जिंस व्यक्ति को ज़रा भी होश होगा, जिसको ज़रा भी चेतना होगी वो इस बात की तह में जा करके इसका जो उथला मनोविज्ञान है उसको पकड़ लेगा। इस बात का मनोविज्ञान क्या है। समझिए। इस बात का मनोविज्ञान यह है, मैं इंसान हूँ। मैं सबसे ज़बरदस्त हूँ। मैं इंसान हूँ, मैं सबसे ज़बरदस्त हूँ तो जब मैं सबसे ज़बरदस्त हूँ जिसने मुझे बनाया, उसने मुझे सबसे ऊँचा दर्जा ही तो दिया होगा। क्यों— क्योंकि मैं इंसान हूँ भाई— ये अहंकार की बात है— “उसने मुझे सबसे ऊँचा दर्जा ही दिया होगा।“

और उसने ये सब जो दुनियाभर में पेड़ हैं, पौधे हैं, जंगल हैं, पहाड़ हैं, नदियाँ हैं, पशु हैं, पक्षी हैं, यह सब उसने मेरी ख़ातिर ही तो बनाएँ हैं। और बहुत से लोग हैं जिनके मन में यह सिद्धांत बिलकुल घर करके बैठ गया है। और इस बात को उन्होंने मोरल, एथिकल, रीलिजियस, वैलिडिटी(नैतिक,नीतिपरक धार्मिक वैधता) दे दी है।

वो कहते हैं, ‘हमारी किताब में ऐसे ही तो लिखा हुआ है कि इस दुनिया में जो कुछ है वो इंसान के लिए ही है’। भाई साहब, आप इतने ऊपर नहीं हैं। आप इतने ऊपर नहीं हैं। आप बिलकुल भी ऊपर नहीं हैं। आप भी प्राकृतिक हैं और दुनिया में बाक़ी सबकुछ जो है वो भी प्राकृतिक है। और जैसे आपको सौ तरह के विचार आते हैं, वैसे ही आपका यह एक विचार मात्र है कि किसी ने यह दुनिया रची है और यह विचार भी आपके अपने अहंकार से निकल रहा है।

इसलिए वेदान्त कोई धार्मिक विचार नहीं है। वेदान्त किसी तरह की विश्वास पद्धति नहीं है। उसमें किसी तरह के बिलीफ(विश्वास) के लिए कोई जगह नहीं है कि देखो तुम यह किताब खोलो और सबसे पहले तुम ये मानो कि ईश्वर ने ये दुनिया बनायी है। इस बात पर विश्वास करो। वेदान्त कहते हैं, कोई विश्वास वगैरह नहीं करना। इस बात पर भी विश्वास नहीं करना की दुनिया है भी। वेदान्त कहता हैं, तुम देख रहे हो तुम्हें दुनिया प्रतीत हो रही है तो एकमात्र सत्य चेतना है। न कोई रचयिता, कोई क्रीएटर नहीं, कोई ईश्वर नहीं, कुछ नहीं।

यह दुनिया है, इस बात का भी बस प्रमाण तुम हो और कोई प्रमाण नहीं है। तुम्हारी इंद्रियाँ न हो, तुम्हारी आँख न हो, तुम्हारा मन न हो, तुम्हारी त्वचा न हो, तुम्हारे कान न हो तो इस दुनिया का कोई प्रमाण ही नहीं है। ये दुनिया और तुम एक ही सिक्के के दो पहलू हो। पुरुष- प्रकृति का खेल चल रहा है बस। और पुरुष, प्रकृति पर आश्रित है प्रकृति, पुरुष पर आश्रित है। और ये जो द्वैतात्मक खेल है इसी में दुख है। निश्चित रूप से इस खेल के पार जाना है। उस पार जाने को अद्वैत कहते हैं।

इसमें कोई विचार नहीं है। इसमें कहीं आपको कोई बिलीफ नहीं रखनी है कि मानो, मैंने माना कि एक बनाने वाला कहीं बैठा हुआ है और उसने फ़लानी, फ़लानी विधि से फ़लानी, फ़लानी प्रक्रिया से पृथ्वी की रचना की, फिर ग्रहों की रचना की, फिर पूरे संसार की रचना की और वो बैठा हुआ है और जब लोग मर जाएँगे तो उसके पास जाएँगे, उसके बाद स्वर्ग है, नरक है इत्यादि इत्यादि। यह सबकुछ नहीं है। बेकार की कहानियाँ हैं ये। बच्चों की बातें हैं। किन बाल कथाओं में उलझ गये तुम। ये सारे जानवर इंसान के लिए बनाये गए हैं क्यों— क्योंकि इंसान सर्वश्रेष्ठ है न तो क्या करेगा— सारे जानवर वो खाएगा। ये सर्वश्रेष्ठ होने की निशानी है! जो सर्वश्रेष्ठ होता है वो सब को खा जाता है। ये कौनसी श्रेष्ठता है भाई!

एक दफ़े आये लोग बोले, ‘हमारे ग्रंथ में लिखा हुआ है कि सारे जानवर इंसान के लिए हैं’। मैंने कहा, “इंसान के लिए हैं इसका मतलब समझते हो क्या है?” इंसान के लिए हैं इसका मतलब इंसान के भोग के लिए नहीं हैं, इंसान के खाने के लिए नहीं हैं, इंसान के उपयोग के लिए हैं।

और उपयोग माने क्या हुआ?

आप यदि चेतना हैं तो आपके लिए किसी भी चीज़ का क्या उपयोग होगा कि आप उसके माध्यम से अपनी चेतना उठाए। आपके लिए किसी चीज़ का ये उपयोग तो नहीं है न कि आप उसको खा जाएँ। आपने मुझे ये दिया (मेज़ से एक समान उठाते हैं) बोले, प्रशांत ये आपके उपयोग के लिए है और मैं इसको चाय में डालकर के खा जाऊँ। ऐसे हैं हमारे धार्मिक लोग। बोले, दुनिया में जो कुछ भी है वो हमारे उपयोग के लिए है न तो क्या करा इसको— चाय में डालकर खा गये।

आप जाएँ और लोग करते हैं कि किसी बच्चे का जन्मदिन हो तो उसको छोटा सा एक पप्पी भेंट कर देते हैं कुत्ते का बच्चा। करते हैं न। उसको रिबन-उबन बाँधा छोटा सा और छोटा बच्चा है, बच्चे को जाकर पप्पी दे दिया। बोले, ‘ये तुम्हारे लिए है।’ जैसे— धर्मग्रंथ में लिखा हुआ है न कि सारे जानवर इंसान के लिए हैं। वैसे ही आप जाएँ और छोटू को बोलें ‘छोटू ये तुम्हारे लिए है’ और छोटू क्या करे— छोटू उसको काट करके बढ़िया खा जाए। बोले, ‘देखो हमें बताया गया था कि हमारे लिए है तो हम इसको खा गये।‘ अरे! भाई वो तेरे ही लिए हैं पर वो इसलिए है ताकि तुम उसे प्यार दो। इसलिए नहीं कि तुम उसे काट दो।

जब बोला जाता है सारे जानवर तुम्हारे लिए हैं तो उसका अर्थ होता है वो तुम्हारे प्यार के लिए हैं। वो इसलिए हैं ताकि जब तुम्हारे सामने आयें तो तुम्हारी चेतना को उठाने में तुम्हारी मदद करें। और जब आप एक जानवर के पास रहते हैं और आप उसके प्रति प्रेमपूर्ण हैं तो उसका आपके मन पर जादूई असर होता है। आपकी चेतना के ऐसे तल खुल जाते हैं जो सामान्यतया नहीं खुलते।

तो अगर धर्मग्रंथों में ऐसा लिखा भी हुआ है कि सारे जानवर इंसान के लिए हैं तो उसका सही मतलब समझो। उसका ये मतलब नहीं है कि पप्पी को ले करके चाय में डुबोकर के सॉस(चटनी) लगा करके खा गये! बोले, ‘पप्पी तो मेरे लिए था तो मैंने पप्पी को खा लिया। पापा जी ने यही बताया था। वो जो ऊपर पापा जी बैठे हुए हैं पापा जी ने बताया यह पप्पी तुम्हारे लिए है। तो मैंने क्या करा— मैंने पप्पी को बढ़िया से काटा। मस्त उसको तल के फ्राइ(तलना) करके खा गया, ये मेरे लिए था।‘ ये बेहूदा क्या तर्क है। ये जानवरों वाली कैसी बात है ये।

ऐसे तो फिर महिलाएँ होती हैं, उनके बच्चे होते हैं, बच्चा पैदा हुआ उनको लाकर के ऐसे दिया जाए, ये लीजिए। उसका भी क्या करना चाहिए, ये मेरे लिए है बताओ फिर; झटका या हलाल! तुम्हारे लिए जो कुछ है तो खा जाओगे। इतना बड़ा मुँह है तुम्हारा। पेट के अलावा तुम कुछ हो ही नहीं। देहभाव इतना प्रबल है कि जो भी सामने आता है खाने लग जाते हो। बोलते हो, मेरे लिए ही तो बनाया है ये।

किसी भी जीव से तुम्हारा खाने के अलावा और कोई रिश्ता नहीं हो सकता है क्या। उसे प्यार नहीं दे सकते। उसे संरक्षण नहीं दे सकते। तुम ये भी अगर कहते हो कि तुम उससे ऊपर के हो उससे ज़्यादा ताक़तवर हो, तुम बुद्धि रखते हो। प्रश्नकर्ता ने कहा, “ हम बुद्धि रखते हैं।“ तो उस बुद्धि का उपयोग उसको मारने के लिए होगा बचाने के लिए नहीं होगा। जल्दी बोलो। तुम ये भी कहते हो कि तुम्हारे पास बल ज़्यादा है जानवरों से तो उस बल का उपयोग उन्हें मारने के लिए ही होगा, उन्हें बचाने के लिए नहीं होगा। ये तुम्हारी नीयत पर है। जब बदनीयत होता है आदमी तो सौ तरह के तर्क करता है। इरादा कुल एक होता है, खा जाओ। ये बदनीयती है, इसमें कोई धार्मिकता नहीं है। न इसके पीछे कोई बौद्धिक सिद्धांत है, सिर्फ़ बदनीयती है।

जाओ किसी जानवर से पूछो क्या जानवर कह रहा है कि इंसान जानवर से ऊपर का है। कुत्ते की दुनिया में जाओ तो सर्वश्रेष्ठ कौन होगा— कुत्ता। बिल्ली की दुनिया में जाओ तब तो निसंदेह बिल्ली ही सबसे ऊँची है। कुत्ता तो एक बार को फिर भी थोड़ा मान लें कि मालिक, मेरा मालिक है। बिल्ली की दुनिया में जाओगे तो बिल्ली तो निसंदेह यही कहेगी कि मैं मालकिन हूँ तभी तो वो मुझे इतना खिलाता- पिलाता है। भाई अगर मैं मालकिन नहीं होती तो वो मुझे इतना खिलाता- पिलाता क्यों— मुझमें ज़रूर कोई ख़ास बात है।

हर जीव की दृष्टि में वो जीव ही सर्वश्रेष्ठ होता है और यह पशुता की निशानी है। तो अगर इंसान होकर तुम कहते हो कि तुम सब जानवरों से ऊपर हो तो इससे यही सिद्ध होता है कि तुम भी जानवर ही हो। हर जानवर को यही लगता है मैं सबसे ऊपर हूँ। शेर को यही लगेगा वो इंसान से नीचे है। जल्दी बोलो।

एक छोटे से छोटे कीड़े को भी ये नहीं लगता कि वो किसी से नीचे है। उसकी दुनिया में वही बादशाह होता है। तो तुमको अगर लग रहा है तुम बादशाह हो तो तुम भी फिर कीड़े ही हो बस। ये अहंकार की निशानी है कि वो अपनेआप को विश्व का केंद्र मानता है। मनुष्य का अहंकार ऐसा है कि वो अपनेआप को विश्व का केंद्र मानता है और एक छोटे से बैक्टीरिया का अहंकार भी यही है कि वो भी अपनेआप को समूचे विश्व का केंद्र ही मानता है।

तुम एक बैक्टीरिया को मारने वाले हो छोटे से और बगल में तुम खड़े हो और बैक्टीरिया से पूछा जाए, ‘अच्छा! बता तू मरना पसंद करेगा या मैं इस इंसान को मार दूँ?’ तो बैक्टीरिया क्या बोलेगा, ‘इंसान को मार दो, मुझे जीने दो।‘ इससे क्या सिद्ध होता है? बैक्टीरिया भी क्या सोचता है, ज़्यादा महत्वपूर्ण कौन है— बैक्टीरिया स्वयं महत्वपूर्ण है।

हर जीव अपनेआप को ही सबसे महत्वपूर्ण मानता है। और तुम भी बोलने लग गये अगर कि मैं ऐसा सिद्धांत रखता हूँ या मेरी धार्मिक किताब में लिखा है कि मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना है तो इतना कहने भर से तुम जानवर हो गये। क्योंकि हर जानवर यही कहता है कि मैं सर्वश्रेष्ठ हूँ और मैं ही सर्वाधिक महत्वपूर्ण है।

प्रकृति में विविधता है। ऊँचाई-निचाई नहीं है। उँचाई- निचाई चेतना में होती है। अंतर समझो। इसलिए बार-बार बोलता हूँ कि नहीं फ़र्क पड़ता है कि तुम्हारा धर्म क्या है, विश्वास क्या है, विचारधारा क्या है। वेदान्त को पढ़ लो, दर्शन की तरह, नहीं कह रहा कि वेदान्त को धर्म मान लो पर एक दर्शन की तरह समझो। प्रकृति में विविधता होती है, विविधता कैसी होती है। ऐसी होती है लैटरल, हॉरिज़ान्टल(क्षैतिज)। ऐक्स वाई ऐक्सिस समझते हैं न। तो विविधता यहाँ (हाथ से लेवल दिखाते हैं) होती है।

सब अलग- अलग हैं प्रकृति में। स्त्री और पुरुष अलग -अलग हैं प्रकृति में, आदमी और कुत्ता अलग- अलग हैं। छोटा जीव, बड़ा जीव तमाम तरह के पेड़-पौधे, ये सब अलग- अलग हैं प्रकृति में। ऊँचाई- निचाई कहाँ होती है— वो ओर्थोगोनल अलग वाई ऐक्सिस है, वर्टिकल(लंबरूप) उसमें चेतना होती है। उसमें ऊपर- नीचे होते हैं हम।

ऊपर- नीचे आप इससे नहीं हो जाते कि आप एक प्रजाति में पैदा हुए हो। कोई प्रजाति दूसरी प्रजाति से श्रेष्ठ नहीं होती। और ये जो वाई ऐक्सिस है, ये ऐसा नहीं है कि ऑरिजिन से माने ज़ीरो से सिर्फ़ ऊपर की ओर ही जाता है नीचे की ओर भी जाता है। तो चेतना के तल पर आप शून्य से नीचे भी हो सकते हैं। अगर आप ये भी बोल दो कि पशुओं की चेतना इसी तल पर होती है, माने लगभग शून्य होती है; तो इंसान तो श्रेष्ठ हो गये क्योंकि इंसानों की चेतना तो शून्य से ऊपर की होती है, नहीं।

पशुओं को तो फिर भी एक तरह की सुरक्षा या आश्वस्ति है, गारंटी है, क्या— कि उनकी चेतना ऊपर को जाते ही नहीं, लेकिन नीचे को भी नहीं जाती। तो उनको एक इन्शुरन्स मिला हुआ है कि भैया तुम्हारी चेतना यदि शून्य के आसपास है तो शून्य के ही आसपास ही होगी। नेगटिव नहीं हो जाएगी, शून्य से नीचे नहीं गिरेगी। मनुष्य की ऊपर भी आती है, नीचे भी जाती है।

ऊपर जाने के क्या लक्षण होते हैं— प्रेम और करुणा सबके प्रति और नीचे जाने क्या लक्षण होते हैं— निर्दयता, क्रूरता, बर्बरता, शोषकता। तो जो मनुष्य कहे कि सारे जानवर मेरे खाने के लिए ही तो बनाए हैं भगवान ने उसकी चेतना शून्य से भी नीचे चली गयी है। वो जानवरों से भी घिरा हुआ है और अगर वो कहता है कि उसके किसी धर्मग्रंथ में ऐसा लिखा हुआ है तो उसके धर्मग्रंथ में भी फिर पशुता ही लिखी हुई है।

ये सारे परिणाम होते हैं उस विचारधारा के जिसमें आसमानों पर एक ईश्वर बैठा हुआ है जिसने पृथ्वी की रचना करी है, ब्रह्मांड की रचना करी है। इसलिए जीवन में सही दर्शन का होना बहुत आवश्यक है। आप सोचते हो फिलासफी(दर्शन) तो बेकार की बात है, उसमें क्या रखा है। आपको अभी पता ही नहीं है कि आपकी पूरी ज़िंदगी इसी बात से तय होती है कि आपने दर्शन कौनसा पकड़ लिया है। हर व्यक्ति अपनेआप में फिलासफर है, दार्शनिक है। बस कुछ लोगों को पता होता है कि वो किस दर्शन के अनुयायी हैं और बाक़ियों को पता भी नहीं होता कि उनका पूरा जीवन किस फिलासफी पर बीत रहा है; पर होती सबके पास है। यहाँ तक कि जिन लोगों को फिलासफी से नफ़रत होती है उनके पास भी होती हैं जीवन की एक फिलासफी, अनजाने में। वो जानते भी नहीं हैं कि उनकी केंद्रीय दार्शनिकता फिलासफी क्या है, वो नहीं जानते।

उसको सही रखो और सही रखने के लिए वेदान्त है। वेदान्त में ये सब कपोल, कहानियाँ, कल्पनाएँ ये सब है ही नहीं कि बैठो- बैठो ईश्वर अकेले बैठा हुआ था फिर उबने लग गया। फिर उसने कहा, चलो लेट देयर बी लाइट(वहाँ प्रकाश होने दो।) और हम बना देंगे और फिर ऐसे बना दिया ये बना दिया आदमी बनाया, औरत बनाया, साँप बना दिया ऐसा कर दिया, वैसा कर दिया; ये कुछ नहीं है।

चेतना, कॉन्शियसनेस, कॉन्शियसनेस एण्ड कॉन्शियसनेस अलोन, चेतना। बाक़ी जितनी कहानियाँ हैं वो चेतना के अंदर हैं, वो चेतना की लहरें हैं, वो चेतना नहीं हैं। तुम सो जाते हो तुम्हें कहानी याद रह जाती है क्या। दिख नहीं रहा है ये कहानी चेतना का उत्पाद थी, इसीलिए चेतना की अवस्था बदलते ही तुम इस कहानी को ही भूल गये। ये जितनी कहानियाँ, सिद्धांत बताते हो कि जानवर हमारे उपभोग के लिए हैं वगैरह वगैरह। ये सिद्धांत तुम्हें सोते वक़्त याद रहता है क्या। माने ये चेतना के भीतर की चीज़ थी इसीलिए चेतना की अवस्था बदली, ये चीज़ भी लुप्त हो गयी। चेतना की अवस्था फिर से बदलेगी ये चीज़ तुम्हें फिर से याद आ जाएगी।

चेतना एकमात्र सत्य है। चेतना एकमात्र सत्य है उसके अलावा बाक़ी सब कल्पना है। ये समझ में आ रही है बात। और चेतना हमारी देह में बद्ध है। अगर हिंसक रहोगे, क्रूर रहोगे तो तुम्हारी चेतना और ज़्यादा देह बद्ध हो जाएगी। तुम अपना ही बुरा कर रहे हो। जानवर को मारकर ख़ुद को ही मारते हो। जानवर को मारकर ख़ुद को ही मारते हो। जो जानवर के प्रति कठोर है उसका मन कठोर ही हो जाता है। वह जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में फिर निर्दयी सा हो जाता है। उसकी संवेदनशीलता मर जाती है। उसके भीतर के कोमल तंतु नष्ट हो जाते हैं। समझ में कुछ आ रही है बात? नहीं? बटर चिकन! ये राक्षसी है बातें, ‘बटर चिकन फ़लाना मटन’। ये सीधे- सीधे दानवीयता का प्रमाण हैं। तुम खाने के लिए नहीं पैदा हुए हो। तुम जानने के लिए पैदा हुए हो। बोध ही मुक्ति है। तुम सब बँधनों को काटने के लिए पैदा हुए हो। तुम्हारा पूरा अस्तित्व एक बहुत बड़ा मुँह नहीं है कि जो मिल रहा है उसे ठूँसे जा रहे हो, खाये जा रहे हो। बकरा मिला, खा गये! अगर फिर तो तुम्हारा कोई एग्ज़िस्टेन्शल डिपिक्शन (अस्तित्व सम्बन्धि चित्रण) हो सकता है तो उसमें तुम्हारे शरीर का कोई हिस्सा आना नहीं चाहिए सिर्फ़ एक इतना बड़ा मुँह आना चाहिए।

विंसेंट वन गाग की आपने पेंटिंग्स देखी होंगी उसमें ऐसे ही होता है। वो उसमें हर चीज़ को उसी अनुपात में दर्शाते थे जिस अनुपात में वो उनके लिए मानसिक मायने रखती थी। अब जैसे उनकी एक है ‘स्टैरी नाइट्स’ उसमें आप देखेंगे तो तारे बड़े-बड़े हैं जितने होते ही नहीं बड़े बड़े। क्यों हैं?

वो कहते हैं, जितने बड़े वो मेरे लिए हैं माने वो मेरे लिए इतना महत्व रखते हैं, मैं उतना बड़ा उनको दिखाऊँगा। वैसे ही उन्होंने खेत अगर दिखाया और उस खेत में फूल हैं छोटे- छोटे तो छोटे फूल नहीं दिखाते वो बड़े-बड़े फूल दिखाते थे। लोग उनसे कहते, “इतने बड़े तो फूल नहीं होते।“ बोले, “वो पूरे खेत में मेरे लिए महत्वपूर्ण चीज़ फूल थे तो मैं इतना बड़ा (हाथ से आकार दिखाते हैं) दिखाता था।“

तो अगर इस तरीक़े से फिर इंसान को बनाया जाये तो इंसान कुल क्या दिखायी देगा? हमारे पूरे शरीर में हमारे लिए फिर दो ही चीज़ें हैं जो बहुत महत्वपूर्ण रहती हैं, एक खाना, दूसरा सेक्स। तो सोचिए आपकी अगर तस्वीर बनायी जाए इस तरीक़े से तो कैसी दिखायी देगी। बाक़ी और कुछ पूरे शरीर में दिखायी नहीं देगा। एक इतना बड़ा मुँह और उससे भी ज़्यादा बड़ा यौनांग। ये इंसान हैं और फिर बोलेगा ‘अरे! बनाने वाले ने ये सब हमारे लिए ही तो बनाया है।‘ काहे के लिए बनाया है, खाने के लिए और संभोग करने के लिए।

ज़मीन की भाषा में कहें तो खाने के लिए और ठोकने के लिए। पूरी कायनात इसलिए है मैं भोगू बस, भोगना है मुझे। खाना है, ठोकना है! पूरी दुनिया है ही इसीलिए। ये कौन सी विचारधारा है। इसमें कौनसी धार्मिकता है!

देखो, सच्चाई तक, शांति तक पहुँचाने के लिए कोई देवदूत फ़रिश्ते वगैरह नहीं आएँगे। ये जो जीवन है आपका यही है सबकुछ, यही एकमात्र अवसर है आपका। तो इसका मतलब है आपके आसपास जो कुछ है न उसी में आपको मौका है सत्य तक, शांति तक पहुँच सको तो पहुँच लो उसी के माध्यम से।

एक पेड़, पेड़ नहीं होता, एक अवसर होता है वो। एक जानवर भी जानवर मात्र नहीं होता वो भी अवसर होता है। उसकी आँखों में देख सकते हो, उससे मैत्री कर सकते हो तो तुमने उस अवसर का लाभ उठा लिया। हाँ, तुम्हें उसको पत्थर मारना है, तुम्हें क्रूरता दिखानी है, तुम्हें उसे काटकर खा जाना है तो तुमने अवसर गँवा दिया।

बहुत सारे अवसर है जो तुम गँवाते ही रहते हो वो देह रखने की विवशता है। मैं आप से बात कर रहा हूँ इस बात करने के दरमियान ही हो सकता है कि कुछ जीवों की हत्या कर दी हो मैंने। बहुत संभव है। मैंने ऐसे हाथ (उठी हुई हथेली) रखा हुआ है मैं नहीं जानता यहाँ कोई बहुत नन्हा सा जीव रहा हो मर गया हो। बहुत ही नन्हा सा। मैं कर नहीं सकता, मैं विवश हूँ। लेकिन जहाँ विवशता नहीं है, कम से कम वहाँ तो हत्या मत करो।

आप चलते हैं आपके पाँव से कुचलकर कोई मर जाता होगा, आप क्या कर सकते हो, वो मजबूरी है। वो जीने की मजबूरी है कि कुछ तो आपके हाथों नष्ट हो ही रहे हैं जीव। वो जीने की ईमानदार विवशता है। आप कितनी भी कोशिश कर लो उस विवशता से आगे नहीं जा सकते। पर जहाँ मजबूरी नहीं है कम से कम वहाँ तो हत्या मत करो।

वो आपके भोगने के लिए नहीं है। वो आपके पास चेतना को उठाने के अवसर की तरह है। अच्छे से समझ लेना। उसको फ़रिश्ता मानो। वही देवदूत है। इंसान को जितनी क़ीमत दो पशुओं को पक्षियों को उससे थोड़ी ज़्यादा ही क़ीमत देना कम नहीं। ज़्यादा नहीं दे सकते तो कम से कम बराबरी की दो।

और ये कितनी अजीब बात है जो जानवरों को बराबरी का दर्जा देने लगता है वो अब जानवर नहीं रह जाता। वो चेतना के तल पर ऊपर उठ जाता है। और जो जानवरों को अपनेआप से नीचा मानता है वो जानवरों से भी नीचा हो जाता है। (दोहराते हैं) जो जानवरों को अपने बराबर का दर्जा देने लगता है वो चेतना के तल पर बहुत ऊपर उठ जाता है। वो अब जानवर नहीं रह गया— जो जानवरों को अपने बराबर का मानता है। और जो जानवरों को अपने नीचे से मानता है वो जानवरों से भी नीचे गिर जाता है।

समझ में आ रही है बात।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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