नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः || युवाओं के संग (2013)

Acharya Prashant

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नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः || युवाओं के संग (2013)

आचार्य प्रशांत: एक उपनिषदिक् वाक्य है;

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः

जो बलहीन है वो कभी भी अपने करीब नहीं पहुँच सकता। जो इतना डरपोक, मुर्दा और निर्बल है कि उसको अंतर पड़ने लग जाए कि दस लोग क्या बात कर रहे हैं इधर-उधर की, उसके बस की ये सब बातें नहीं हैं। मैं यहाँ पर किसी हॉस्पिटल के इमरजेंसी वार्ड में बात नहीं कर रहा हूँ। मैं ये सब बोल रहा हूँ यह सोच कर कि मेरे सामने युवा लोग बैठे हैं, जिनके पास एक स्वस्थ मन है और एक बलिष्ठ शरीर है और जिनको कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है कि उनको आकर कोई क्या बोल गया। जो इस बात की बहुत परवाह करते हों कि दुनिया क्या कहेगी और किसकी नज़रों में उठेंगे और किसकी नज़रों में गिरेंगे, उनके बस का तो वैसे भी कुछ नहीं होता। वो तो किसी तरह ज़िन्दगी बिता कर मर जाते हैं और कहते हैं, ‘अरे! अच्छा हुआ मर गए, मुक्ति मिली। पता है, मैं एक बुरे सपने में फँस गया था, मेरे साथ एक हादसा हो गया था।' क्या हादसा हो गया था? 'अरे, मुझे ज़िन्दगी मिली थी!’

(सभी श्रोतागण हँसते हैं)

तो ज़िन्दगी उनके लिए हादसा बराबर ही है और मैं उम्मीद कर रहा हूँ कि यहाँ पर दो-चार लोग ऐसे ही बैठे हैं जो इस हादसे से गुज़र रहे हैं। उनके लिए रोज़ एक हादसा रहता है। किसी दिन दोस्त ने कुछ बोल दिया, किसी दिन फेसबुक पर फ़ोटो लगाई तो किसी ने कमेंट में लिख दिया, ‘अच्छे नहीं लग रहे।’ अब ये हादसा है इनके लिए। बाल कटवा कर आ रहे हैं और किसी ने पूछा, ‘कितने पैसे दिए? सौ रुपये? अरे! सौ रुपये मुझे ही दे देता, ये क्या कटोरा-कट कटवा कर आ गया।’ अब बाल १ दिन में तो उगेंगे नहीं और अब जब तक वो बाल लम्बे नहीं हो जाएँगे, उतने दिन तक ये अपनी शक्ल नहीं देख सकते क्योंकि दो-चार लोगों ने बोल दिया है कि तुम बड़े...

* श्रोतागण (एक स्वर में): पागल लग रहे हो।

आचार्य: तो ऐसे लोगों के लिए नहीं होता ये सब। बड़ी मज़ेदार बात होती है। आप सोच रहे हो कि दूसरे क्या कहेंगे और दूसरे सोच रहे हैं कि आप क्या कहोगे, और दोनों एक दूसरे से डरे हुए हैं।

दो कुत्ते हैं हमारे ऑफिस में। एक खड़ा हो जाएगा, दूसरा खड़ा हो जाएगा और दोनों भौंकना शुरू कर देंगे, एक दूसरे की तरफ़, पर भौंकने के अलावा एक दूसरे को कभी काटते नहीं हैं। दोनों भौंकते रहते हैं और दोनों एक-दूसरे से डरे हैं, और दोनों जब अकसर थक जाते हैं, तो एक-दूसरे के सामने आँखें दिखा कर खड़े हो जाते हैं। ये डरा हुआ है कि वो कुछ कर देगा और वो डरा हुआ है कि ये कुछ कर देगा। ऐसी ही एक-दो बार मैंने सड़क पर लड़ाईयाँ होती देखी हैं। दोनों की गाड़ी रगड़ गयी आपस में और वो उसको बोल रहा है - तू छूकर दिखा पहले, दूसरा बोल रहा है - तू छूकर दिखा पहले। ये डरा हुआ है कि वो कुछ कर देगा और वो डरा हुआ है कि ये कुछ कर देगा और कर दोनों कुछ नहीं सकते, नपुंसकता है पूरी। दोनों मन-ही-मन इंतज़ार कर रहे हैं कि थोड़ी भीड़ इकट्ठा हो जाए और बोले कि तुम हट जाओ तो हम हट जाएँगे। कहने को रहेगा कि, "हम थोड़े ही हटना चाहते थे, वो तो लोगों ने हटा दिया, वरना…"

अरे! तुम अपना काम करो न जो तुम्हें करना है। पर, हम बात-बात में दूसरों पर निर्भर हैं। अभी का उदाहरण देता हूँ, अभी तुम्हें बीच-बीच में पीछे से आवाज़ आ जाती होंगी। कोई एक है जो नारे लगाने की कोशिश कर रहा है, पर उसका गला बैठा हुआ है तो बीच-बीच में वो मिमियाँ देता है। वो ये सब हरकतें सिर्फ़ इसलिए कर पा रहा है क्योंकि बाकी सब यहाँ मौजूद हैं। अगर वो इस कमरे में अकेला बैठा हो मेरे सामने, तो उसका रूप दूसरा ही हो जाएगा। तो तुम जो बोल रहे हो, तुम जो कह रहे हो या तुम जो नहीं कह रहे हो, तुम जो भी रूप धारण किए हुए हो, वो इस पर निर्भर कर रहा है कि दूसरे हैं या नहीं हैं। सब कुछ तो तुम्हारा दूसरों के लिए है। इसलिए तो सवाल भी यही पूछते हो कि 'दूसरे क्या कहेंगे?'

अभी मैं कहता हूँ कि सवाल पूछ लो मुझसे, तो बड़ी मुश्किल से कोई सवाल पूछता है। काफ़ी बार ऐसा भी हुआ है कि मैं दस या बीस लोगों से ही मिला हूँ तो सवाल तेज़ी से आते हैं। एक बार हमने बाहर बैठ कर एक चर्चा की थी और वो शाम को पाँच बजे तक चली थी। और उसमें लोग कितने थे? मुश्किल से बीस या पच्चीस। पर यहाँ तुम सवाल भी नहीं पूछ पाते कि लोग क्या कहेंगे, क्योंकि यहाँ पर ज़्यादा लोग बैठे हुए हैं। यहाँ हिम्मत भी नहीं होती। यहाँ पर बीस लोग हों तो तुम्हारे पास इतनी बातें होंगी कि पूछो मत। हर चीज़ में तो तुम्हारे ऊपर दूसरे सवार हैं। मन लगातार दूसरों से डरा हुआ है। बोलते हो तो दूसरों के लिए, चुप रहते हो तो दूसरों के लिए। तो ऐसे नहीं, थोड़ा तो आत्मबल होना चाहिए न!

नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः

बलहीन हो तो कुछ नहीं मिलेगा। अब जोड़ीदार ना हो तो कैसे करोगे खुराफ़ात? पर अब एक मिल गया है, तुम उसको खुजली करो और वो तुम्हें खुजली करे। तुम्हारी अपनी परिभाषा ही दूसरों से होकर गुज़रती है। मैं अपने-आपको देखता ही दूसरों के माध्यम से हूँ और ये बड़ी ग़ुलामी का जीवन है। लोग अपने सबसे निजी काम भी इस खातिर कर जाते हैं कि दूसरे क्या कहेंगे। मैं लोगों को जानता हूँ जिन्होंने दावा किया कि 'हमें प्रेम हुआ है।' लड़की थोड़े साधारण नयन-नक्श की है, और जब दोस्तों को बताया कि उससे प्रेम है तो दोस्तों ने मुँह बनाया, कि वो काली, तुझे पसंद आ गयी, और तभी इनका प्रेम उतर गया। इनको प्रेम भी दूसरों से पूछ कर होता है। प्रेम के एक-दो और भी किस्से हैं। साहब को प्रेम करना था तो इन्होंने पहले जाँच की कि. 'इसकी जाति क्या है? इसका गोत्र क्या है? ये डिपार्टमेंट टॉपर थे, तो जाँच की वो भी टॉपर है कि नहीं है?' जब सब जाँच लिया तो कहा कि 'अब मुझे इश्क़ हो गया है!' अब कोई कभी आपत्ति नहीं जता सकता। दोस्त-यार आपत्ति नहीं कर सकते क्योंकि मेरे ही हैसियत की है, माँ-बाप नहीं कर सकते क्योंकि जाति-गोत्र मिल रहा है। तुम अपने सबसे निजी काम भी दूसरों को देख-देख कर करते हो। तुम्हारा तो प्रेम भी सामाजिक है। बहुत भयानक बात है कि नहीं? चलो इंजीनियरिंग इसलिए कर रहे हो? क्योंकि दुनिया करती है, सामाजिक बात है। नौकरी भी तुम ऐसी ही करोगे जैसी पूरी दुनिया करती है, वो भी सामाजिक बात है। पर देखना कभी तुम्हारा प्रेम भी सामाजिक ना हो जाए। और जब पूरा जीवन ही सामाजिक हो जाता है तो ये संभव नहीं हो पाएगा कि तुम्हारा प्रेम सामाजिक ना हो। वो भी सामाजिक होकर रहेगा। जब तक पाँच-दस लोगों की अनुमति नहीं मिलेगी, तुम प्रेम भी नहीं कर पाओगे। यहाँ दो-चार ऐसे हो ही न जिनके साथ ऐसा हुआ हो कि ब्रेक-अप हो गया! पूछो, क्यों? तो जवाब मिलेगा, ‘माँ ने मना कर दिया’।

(सब हँसते हैं)

और क्या-क्या करोगे माँ से पूछ कर? कहाँ-कहाँ ले जाओगे कि ‘माँ, अब ये भी बताइये’।

(सब और ज़ोर से हँसते हैं)

हँस क्या रहे हो? ऐसे ही होता है। घर-परिवार होते हैं जिसमें शादी के बाद भाई-बहन, माँ-बाप, दोस्त-यार तय करते हैं कि तुम्हारा शयनकक्ष तैयार हो रहा है कि ये कैसा होगा, कितना बड़ा होगा, कौन-से फूल लगेंगे इसपर और क्या-क्या। एक काम करो उनको कह दो कि आकर बैठ ही जाओ साथ में।

(और हँसी)

अरे! ये कोई दूसरों के द्वारा निर्धारित की जाने वाली चीज़ें हैं? तुम्हारे प्रेम की जो शैया होगी वो दूसरे तैयार करें? पर जीवन तो ऐसा ही है और ऐसे ही बीत रहा है। देखो ग़ौर से कि कैसे बीत रहा है जीवन।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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