नवरात्रि का असली अर्थ, और मनाने का सही तरीका || आचार्य प्रशांत (2016)

Acharya Prashant

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नवरात्रि का असली अर्थ, और मनाने का सही तरीका || आचार्य प्रशांत (2016)

वक्ता: नवदुर्गा का माॅहौल है। शक्ति के बारे में कुछ बातें करना प्रासंगिक रहेगा। शिव केंद्र है, शिव सत्य है। शिव वो हैं जिन तक मन, ‘मन’ रह कर पहुँच नहीं सकता। शिव को तो रहस्य रहना है सदा। शक्ति, मन है, संसार है। शिव में स्थिरता है, अचलता है। शक्ति में गति है, चलनशीलता है।

शक्ति जीवन है, शक्ति वो सब कुछ है जिससे आप एक मनुष्य हो कर के सम्बन्ध रख सकते हैं। शक्ति भाव है, शक्ति विचार है। शक्ति में संसार के सारे उतार-चढ़ाव हैं, आँसू हैं और मुस्कुराहटें हैं।

इन नौ दिनों में, नवरात्रि में, शक्ति के नौ रूपों की पूजा बताती है हमको कि संसार के, जीवन के समस्त रूप पूजनीय हैं, और वो बहुत कुछ हमको धर्म के विषय में सिखा जाती है। कहा गया है हमसे कि सत्य अरूप है, सत्य अचिंत्य है, निर्गुण है, निराकार है। लेकिन जब आप शक्ति के नौ रूपों को पूजते हो तो आपसे उससे आगे की एक बात कही जाती है। ऐसी बात जो ज़्यादा सार्थक, व्यवहारिक और उपयोगी है।

सत्य होगा अरूप, पर हम रूपों में जीते हैं। सत्य होगा अचिंत्य, पर हम विचारों और भावों में जीते हैं। सत्य होगा निराकार, पर हम आकार, रंग और देह में जीते हैं। सत्य होगा असीम, पर हमारा तो सब कुछ असीम है। जिन्होंने असीम की पूजा शुरू कर दी, निर्गुण, निराकार को पकड़ने की चेष्टा कर ली, जिन्होंने ये कह दिया कि वो सब कुछ प्रकट और व्यक्त है, वो तो क्षुद्र है और असत्य है, उन्होंने जीवन से ही नाता तोड़ लिया, उनका मन बिल्कुल शुष्क और पाषाण हो गया।

अरूप तक जाने का एक मात्र मार्ग रूप है। सत्य तक जाने का, हमारे लिए एक मात्र मार्ग संसार है। शिव के अनवेषण का एक मात्र मार्ग शक्ति है। जिन्होंने संसार से किनारा कर लिया, ये कह कर के कि संसार तो सत्य नहीं है, उनहोंने संसार को तो खोया ही, सत्य से भी और दूर हो गए।

शक्ति के नौ रूप बताते हैं हमको कि जीवन अपने समस्त रंगों में सम्माननीय है, प्यारा है, पूजनीय है। धर्म जीवन को काटने की बात नहीं है कि कुछ बातों का, कुछ पहलुओं का, कुछ रंगों का निषेध कर दिया। करा जा सकता है, सीखा जा सकता है, बहुत मुश्किल नहीं है। आप अपने आप को शिक्षा दे सकते हैं कि होठों को इतना सख्त बना लें कि मुस्कुराएँ ही नहीं, कि आँखों को ऐसा पत्थर कर लें की वो रोए नहीं, मन को ऐसा जड़ कर दें कि वो कभी तरंगित ही न हो। पर ये शिक्षा धर्म नहीं है। हमने तो वैसे भी अपने ऊपर हज़ार वर्जनाएँ लगाई हुई हैं और इन वर्जनाओं को और बढ़ाने का नाम धर्म नहीं है।

और ये बड़े अचरज की बात है कि ऐसे लोग, हमारे जैसे लोग जो पहले ही बंधे हुए हैं, जो पहले ही अपनी बेड़ियों से आगे जाने में असमर्थ मालूम होते हैं, वो लोग उन्हीं दायरों को और बेड़ियों को और सख्त, और मज़बूत, और जड़ करने को धर्म का नाम दे देते हैं। जैसे कि कोई बीमार अपनी बीमारी को और गहरा करने को स्वास्थ्य का नाम दे देता है।

धर्म है ‘पूर्ण मुक्ति’ और पूर्ण मुक्ति की बात बंधनों के परिपेक्ष्य में ही संभव है। अन्यथा मुक्ति की बात क्या, प्रासंगिकता क्या? हम उल्टा सोच लेते हैं, हम कहते हैं, “मुक्ति का अर्थ है जीवन से मुक्ति।”

जीवन मुक्ति का अर्थ है – जीवन पर पड़े बंधनों से मुक्ति।

जीवनमुक्त की बड़ी सुन्दर अवधारणा रही है हमारे यहाँ और जीवनमुक्त का अर्थ बहुदा लगा लिया जाता है, ‘जीवन से मुक्त’। जीवन्मुक्त का अर्थ होता है, ‘जिसका जीवन मुक्त हो बंधनों से’, जीवन से मुक्त नहीं, मुक्त जीवन वाला, वो हुआ जीवन मुक्त, जो मुक्त जीवन जीता हो और मुक्त जीवन जीने का अर्थ है जीवन के सभी चेहरों को गले लगा पाने का साहस, का प्रेम।

अक्सर लोग धार्मिकता की ओर आते ही इसीलिए आते हैं क्योंकि वो कुछ छोड़ना चाहते हैं, कुछ त्यागना चाहते हैं और आप तथाकथित धार्मिक लोगों को देखेंगे तो उनमें एक ख़ास रूखापन पाएँगे अकसर। उनकी ऊँचाई नापने का पैमाना ही यही होता है कि उन्होंने क्या छोड़ रखा है, कि वो कितने अद्भुत हैं, असाधारण हैं और असाधारण होने का अर्थ ही यही होता है कि वो सब कुछ जो साधारण है, सरल है, जीवन के सहज प्रवाह में सम्मिलित है, तुम उससे किनारा कर लो, तुम उसे हीन मानो, तुम उसे त्याज्य मानो। ये धार्मिकता की बड़ी विद्रिप्त परिभाषा है।

वास्तविक रूप से धार्मिक व्यक्ति जीवन के साथ एक होता है। उसने अपने और जीवन के बीच की सारी दीवारें गिरा दी होती हैं। वो जीवन के सहज प्रावाह में निर्विरोध बह रहा होता है और जीवन सब कुछ ले कर के आएगा। एक सीमित व्यक्ति, एक सीमित मन, एक सीमित देह के साथ जितने भी अनुभव हो सकते हैं वो सारे अनुभव जीवन दिखाएगा। इन अनुभवों से आपको चोट लग सकती है, इन अनुभवों से आप गौरवमंडित हो सकते हैं। ये अनुभव आपको बहुत रुच सकते हैं, ये अनुभव आपको बड़े अप्रिय लग सकते हैं, बड़े कटु लग सकते हैं। इन्ही में जीना और इन्हीं के विरोध से मुक्त रहना धार्मिकता है।

आप बैठ कर के उपनिषदों का पाठ कर रहे हों और सूचना आ जाए कि आपके दोस्त की मौत हो गई है, और आप कहें, “नहीं अभी तो गीता का पाठ कर रहा हूँ, कृष्ण यही तो समझा रहे हैं – न कोई आता है, न कोई जाता है। ऐसा कोई समय नहीं था हे! अर्जुन तुम नहीं थे या मैं नहीं था। तो ख़ास गीता के पाठ के समय मैं मृत्यु को वज़न कैसे दे सकता हूँ।” यदि आप ये कह रहे हैं तो आप घोर अधार्मिक हैं। अब गीता को आपने नियम बना लिया है। अब गीता मात्र आपके लिए शब्द है। आप भूल ही गए हैं की गीताकार स्वयं मुरली भी बजाता था, हँसता भी था, रोता भी था और विरह वेदना में छटपटाता भी था।

जापान की कहानी है। एक ज़ेन गुरु थे, उनकी मृत्यु हो गई। उनके शिष्य विलाप करने लगे। जीवन भर आचार्य ने और उनके शिष्यों ने सबसे स्थिरता की और अनासक्ति की बातें करी थी। उन्हें देख कर के यूँ लगता था कि विराग की मूर्ती हों और आज उनके गुरु का देहावसान हुआ, शिष्य रोते नज़र आए। तो आस-पास के लोगों ने आकर के कहा कि आपके गुरु और आप तो कहते थे कि सब कुछ शून्य है, देह द्वैत है, शरीर प्रतीति मात्र है, एक आतंरिक परम-शून्यता है और वही एक मात्र सत्य है। तो अब ये रोना कैसा?’’

उन्होंने कहा, “ठीक, सब शून्य है, पर हम तो देह के लिए रोते हैं। सत्य के लिए कौन रो रहा है, शून्य के लिए कौन रो रहा है? गुरु थे, प्यारे थे, हमें उनका शरीर भी प्यारा था। शरीर चला गया है, हम शरीर के लिए रो रहे हैं। इतना भी हक़ नहीं है हमें?” ये धर्म है। जब आप आत्मा के समक्ष समर्पित होते हैं तब आपको ये अधिकार मिल जाता है कि आप निःसंकोच संसार के हो सकें। हम कहाँ निःसंकोच संसार के हो पाते हैं; हम तो डर जाते हैं। संसार, कौन नहीं है जिसे दुश्मन न प्रतीत होता हो। कौन नहीं है जिसने संसार के खंड न कर रखे हों? कौन नहीं है जिसने अपनी सुरक्षा के लिए दीवारें न बना रखी हों।

धर्म, सत्य-सत्य जपने का नाम नहीं है। धर्म, संसार में अपने इर्द-गिर्द खड़ी की गयी इन दीवारों को ढाहने का नाम है। आप उन दीवारों के मध्य बैठ कर के अलख जगाते रहें, “मैं ब्रह्म हूँ, मैं आत्मा हूँ”, आप शास्त्रों के श्लोकों का उच्चारण करते रहें, उन सारे श्लोकों से ज़्यादा बड़ी हकीकत वो दीवारें होंगी। और यदि दीवारें नहीं हैं, और खुले आसमान के नीचे, सीमाओं से मुक्त आप बस रमण कर रहे हैं – चाहे संसार में, चाहे समाज में, चाहे जंगल में, जन में चाहे वन में तो आप फिर ब्रह्म ही हैं।

ब्रह्मत्व, ब्रह्म-ब्रह्म जपने का नाम नहीं है। ब्रह्मत्व असीम हो जाने का नाम है। दीवारें गयी नहीं कि आप ब्रह्म। ब्रह्म शब्द, वृहद शब्द के बहुत निकट है। वृहद माने वो जो बड़ा, जिसके दायरे नहीं।

जो दायराबद्ध, वो कष्ट में। जो दायरों से मुक्त, वो ब्रह्म के आनंद में।

अब होठों से वो कुछ कहे न कहे, फर्क क्या पड़ता है। ब्रह्म कोई होठों की बात थोड़े ही है।

आपलोग यहाँ आए हैं, मेरा अनुरोध है कि धर्म को जीवन की अवज्ञा मत बना लीजिएगा। धर्म को एक कृत्रिम गंभीरता मत बना लीजिएगा। वयस्कता, प्रौढ़ता, परिपक्वता के नाम पर धर्म को एक बोझ सा मत बना लीजिएगा। ऐसे लोगों को दिन-रात देखता हूँ इसीलिए ये विनय करनी पड़ रही है। आम जीवन में आप अपने आप को पूरा अधिकार देते हैं हँसने का, खेलने का। आप जब उपनिषदों के साथ भी बैठें तो अपने आप को उनसे खेलने का हक़ दें। आप मुझसे बात कर रहे हैं, बीच में, कुछ गलत नहीं हो जाएगा यदि आप ठहाका मार दें। ठहाका नहीं मार सकते तो कम से कम मुस्कुरा ही दीजिए।

धर्म का मतलब मुर्दा हो जाना नहीं है।

लेकिन मैं देखता हूँ की धार्मिक आयोजनों में अधिकांशतः वही लीग जुड़ते हैं जो या तो मर चुके होते हैं या जिनकी मरने की तैयारी होती है। धर्म परम जीवन है। शक्ति के नौ चेहरों को जीवन का अनंत चेहरा समझिएगा। जीवन के अनंत रूपों के पर्याय हैं शक्ति के नौ रूप। एक सुन्दर है तो दूसरा भी सुन्दर है। एक क्रूर लग सकता है, दूसरा मोहक लग सकता है, कोई फर्क नहीं पड़ता। एक में माँ है और दूसरा संहारकर्तृ। एक रूप में जीवन दे रही है और दूसरे रूप में जीवन ले रही है। एक रूप में विद्या दे रही है, तो दूसरे रूप में ऐश्वर्य। एक रूप में किसी की अर्धांगनी है और एक रूप में जगतजननी है। आप देख रहे हैं ये सारे रूप आपसे कितने जुड़े हुए हैं? ये देख रहे हैं इन सब का हमारे निजी जीवन से क्या वास्ता है?

जब आप इनकी पूजा करने जाएँ तो समझ लीजिएगा की आप अपने ही जीवन के भिन्न-भिन्न पहलुओं की पूजा कर रहे हैं। और यदि आप अपने जीवन के पहलुओं की पूजा करे बिना, पहुँच गए माँ को तर्पण देने तो आपकी भेंट व्यर्थ ही जानी है। आप घर बैठे हैं, आप खाना खा रहे हैं, ये जीवन का एक रूप है, इसको आदर देना सीखें। ये कोई हीन बात नहीं है। अलौकिक घटनाओं की तलाश में न रहें कि आदरणीय तो तभी हुआ जब वहाँ कुछ विलक्षण हो, पारलौकिक, असाधारण। हम तो बैठ के रोटी-सब्जी खा रहे हैं, इस बात को क्या महत्त्व देना। वो परम घटना है। ऐसा समझिये की जैसे आप मंदिर में ही हैं।

जन्म होता है एक बच्चे का आपके यहाँ पर, परम घटना है। मृत्यु घटती है आपके यहाँ पर, परम घटना है और जन्म और मृत्यु जब मैं बोल रहा हूँ तो ये तो फिर भी विरल घटनाएँ हैं, कभी-कभी होती हैं। जो रोजमर्रा की साधारण घटनाएँ हैं इनको आप शक्ति का नृत्य समझें, नृत्य की कलाएँ समझें। कुछ नहीं कर रहे आप, आप कुर्सी पर बैठे है अखबार पढ़ रहे हैं या थक कर आएँ हैं नहाने चले गए हैं, ये जीवन का नृत्य ही तो है। आप पड़ोसी से बात-चीत में मग्न हैं, आप टी.वी देख रहे हैं, आप कोई किताब पढ़ रहे हैं, शाम को आएँ हैं आप बच्चे से बात कर रहे हैं या खिड़की से बाहर देख रहे हैं डूबते हुए सूरज को, या अपनी अर्धांग्नी के साथ हैं, ये सब घटनाएँ रोज घटती हैं और चूंकि रोज घटती हैं हमें लगता है की इनमें तो कुछ ख़ास नहीं। नौदुर्गा आपको बताने आई है की इन्ही में ही तो सब कुछ खास है और इनके अतिरिक्त कुछ और ख़ास होता नहीं। और जो इनमें सत्य को नहीं देख सकता, सत्य फिर उनके लिए है नहीं।

मैं दोहरा के कह रहा हूँ,

संसार की गहराइयों में ही सत्य पाएँगे आप, संसार से पलायन में नहीं।

और जो संसार की गहराइयों में उतरने से डरते हैं, ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ’, इस पानी को, इस प्रवाह को बुद्ध ने जीवन कहा है। इसी में गहरे बैठना होता है, इसी में गहरा गोता मारना होता है और यदि आप डरते हैं, “मैं बौरा डूबन डरा”, यदि आप डूबने से डरते हैं, यदि आपके जीवन का कोई पक्ष आतंकित कर जाता है तो सत्य आपके लिए नहीं है क्योंकि शिव की अभिव्यकति ही तो है शक्ति।

शिव का वो रूप जो आपके सामने आ सके, जिसे मन जान सके, जिसे इन्द्रियाँ पहचान सकें उसको शक्ति कहते हैं।

और सत्य की अभिव्यक्ति ही तो है संसार। निराकार आएगा आपके सामने तो पकड़ लेंगे क्या? कहिए, आपकी आँखों कभी कुछ भी निराकार देखा है क्या? हम तो मलिनताओं में जीने वाले जीव हैं, कुछ बिल्कुल निर्मल, निर्विकार आ गया आपके सामने तो उससे क्या रिश्ता बनेगा आपका? जीवन की तथाकथित मलिनताओं में, विकारों में ही बिना शिकायत के बैठना होता है और शिकायत करने का मौका तो आपको मिलेगा क्योंकि मलिनता, ‘मलिनता’ है, विकार, ‘विकार’ है। आपको लगेगा कि हम कहें कि देखो ये सब झूठ है, गलत है, गन्दा है।

झूठ लग सकता है, गलत लग सकता है, गंदा प्रतीत हो सकता है पर उससे भागिये मत। यहाँ त्यागने लायक कुछ भी नहीं है। त्यागना है तो त्यागने का भाव त्याग दीजिए। यहाँ कुछ ऐसा नहीं है जो इतना हीन है कि आप कहें कि ‘’ये तो तुच्छ, मैंने छोड़ा इसको’’ या की ये कह दीजिए कि रचनाकार से ज्यादा बड़ी है आपकी होशियारी। आप कह रहे हो उसने बनाया, हमने त्यागा, ‘गॉड प्रपोज़ेस, मैन डिस्पोज़ेस’। और करते तो हम यही है ना? कहीं पर छू पा रहा हूँ आपको? आत्मा अजर-अमर होगी, आपका देह से बड़ा गहरा सम्बन्ध है और ये देह दुबारा नहीं मिलेगी, देह का तो एक ही जीवन है। और मौक़ा बीतता जा रहा है, जीवन गुज़रता जा रहा है। और मत चूकिये।

सत्य की इतनी बातें करते हैं तो सत्य पर ज़रा भरोसा भी रखिये। कुछ ऐसा नहीं हो जाने वाला है कि आप टूट जाएँ। कोई अनुभव इतना विकराल नहीं हो सकता की आपको तोड़-निचोड़ दे और यदि वो आपको खंड-खंड कर भी देता है तो भी क्या हो गया, गुज़रिए ना उससे। आप पाएँगे कि टूटने के बाद भी, कचरा हो जाने के बाद भी, धूल-धूँआ हो जाने के बाद भी आप शेष हैं। अब सत्य है, शक्ति के केंद्र में सत्य है। वास्तव में जब शिव और शक्ति का निरूपण किया जाता है चित्रों में तो बड़े भ्रामक तरीके से किया जाता है। यूँ दिखा दिया जाता है — आपने अर्धनारीश्वर की मुद्राएँ देखि होंगी — कि आधे शिव हैं और आधी शक्ति। ये बात बचकानी है।

शक्ति ही शक्ति है, शिव कहीं नहीं हैं। संसार ही संसार है, सत्य कहीं नहीं है। मात्र शक्ति को प्रतिबिंबित किया जाना चाहिए। शिव का कोई निरूपण हो नहीं सकता और यदि इतना ही शौक है आपको शिव को प्रदर्शित करने का तो शक्ति के ह्रदय में एक बिंदु रूप में शिव को दिखा दें। शक्ति यदि पूरा विस्तार है तो उस विस्तार के मध्य में जो बिंदु बैठा हुआ है, वो शिव है। तो यदि आपको शिव को दिखाना भी है, निरूपित भी करना है या वर्णित करना है तो शक्ति के ह्रदय के रूप में करें। ये तो बड़ी अजीब बात है की आपने दो चित्र लिए और दोनों को आधा-आधा जोड़ दिया और ये अर्धनारीश्वर हो गए, ये शिव-शक्ति हो गए।

शिव-शक्ति ऐसे नहीं होते। मैं फिर कह रहा हूँ, मात्र शक्ति ही शक्ति है। कैसे पहुँचोगे शिव तक? शक्ति के दिल में जो बैठा है उसे ‘शिव’ कहते हैं। अब पहुँचना है शिव तक तो क्या करोगे? कहिए क्या किया जा सकता है? और शिव को तुम पाओगे कहाँ? शक्ति के ह्रदय में है वो, शक्ति के आँचल में हैं और शक्ति माने संसार। शक्ति माने संसार के सारे पहलू, सारे ऊँच-नीच, उसके अलावा और कहाँ मिलने वाले हैं? शिव की आराधना बिना शक्ति के पूरी हो नहीं सकती। वास्तव में आराधना तो शक्ति की ही हो सकती है। जिसने शक्ति की आराधना कर ली उसने शिव को पा लिया और जो शक्ति को दरकिनार कर शिव की ओर जाना चाहे वो भटकता ही रहेगा।

ये भूल बहुत आम है इसीलिए इसकी चर्चा कई बार कर रहा हूँ।

श्रोता: शक्ति की खोज स्वयं में नहीं हो सकती?

वक्ता : आप हैं कौन? अपने को खोजने निकलेंगे तो क्या आप अपने को संसार से अलहदा पाएँगे? प्रश्न है कि क्या सत्य की खोज स्वयं में नहीं हो सकती? क्या सत्य को शक्ति में ही खोजना ज़रूरी है? आप हैं कौन? आप अपने आप को जब भी देखेंगे, आप अपने आप को किसी ना किसी रिश्ते में पाएँगे। आप अपने आप को हमेशा संसार से जुड़ा हुआ पाएँगे। तो जो ये भी कहें कि मुझे तो सत्य को स्वयं में खोजना है, वो यही पाएँगे कि ये जो ‘स्वयं’ है, जो ‘मैं’ है, ये पूरा संसार है क्योंकि ये सदा संसार से जुड़ा हुआ है। आप अपने को देखने निकलेंगे तो आपको संसार को देखना ही पड़ेगा।

तो आप चाहें तो दुनिया को देख लें, आप चाहें तो स्वयं को देख लें क्योंकि आप और दुनिया बड़े गहरे तरीके से जुड़े हुए हैं। अपने आप को देख ही नहीं पाएँगे बिना दुनिया को देखे।

श्रोता: दुनिया में हम भ्रमित हो जाएँगे तो फिर उससे बाहर कैसे निकलेंगे?

वक्ता: जिसे हम कहते हैं दुनिया में भ्रमित हो जाना, या दुनिया में फँस जाना, वो क्या है? दुनिया में आप फँस तभी जाते हैं, जब आप दुनिया से वो अपेक्षा कर रहे हो जो दुनिया दे नहीं सकती या आप दुनिया से उस बात के लिए डरे हो, दुनिया की उस ताकत से डरे हों, जो ताकत दुनिया के पास है ही नहीं।

जब आपने संसार को समझा न हो तब आपको संसार डरावना लग सकता है। ठीक वैसे जैसे कि एक बंद कमरे से आवाजें आ रही हों और आवाजें सिर्फ इसीलिए आ रही हैं कि अन्दर एक छोटा सा, कुत्ते का बच्चा बंद है। वो कूद-फांद मचा रहा है, वो सामानें गिरा रहा है, कुछ शोर कर रहा है। आवाजें हो रही हैं, कमरे में अँधेरा है। आप कमरे के बाहर हैं, आपको बहुत डर लग सकता है। अब मालूम है क्या है? अब फँस गए हैं, आप और कुत्ता दोनों। इसे कहते हैं संसार में फँस जाना। यही मत समझिएगा कि कुत्ता कमरे में फँस गया है और आप कमरे से बाहर फँस गए हैं और फँस इसीलिए गए हैं क्योंकि बीच में एक दरवाजा है, जिसे खोल पाने की आप हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं।

फँसता, संसार में आदमी तब है, जब डर के मारे या लोभ के मारे वो संसार को देख ही ना पाए, संसार के करीब ही न जा पाए। साहस कर के आपने दरवाजा खोला नहीं की अब दोनों ही फँसे हुए नहीं रह गए। कुत्ता भी अब फँसा नहीं है निकल के भागेगा, आप भी अब फँसे हुए नहीं हैं। आपके डर ने ही तो आपको फँसा लिया था, तमाम संशय खड़े कर दिए थे।

संसार से मुक्ति तभी हो पाएगी जब संसार के बारे में कल्पनाएँ करने की जगह आप संसार के करीब जाएँ और उसका तथ्य जान लें। जब आप जाते हैं वहाँ आप कुछ पाते ही नहीं, जो इतना बड़ा हो कि आपको गुलाम बना ले, या कि इतना भ्रामक हो कि आप पर जादू चला दे। संसार से दूर-दूर रहेंगे, संसार के गुलाम बन जाएँगे। संसार से जितना पैठेंगे, संसार से मुक्त होते जाएँगे। ये बात सुनने में थोड़ी अटपटी लगती है पर इसको समझिएगा।

आप जिससे दूर हो गए, आप उसी के गुलाम बन गए क्योंकि दूर होने का मतलब है कि अब तथ्य की जगह विचार ले लेगा और जो आपके मन में विचार बन के आ गया अब वो आपका राजा हो गया, आपका मालिक हो गया। आप किसी स्त्री से दूर होते हो तो वो आपकी मालकिन बन जाती है। क्यों? क्योंकि अब वो आपके ख़्वाबों, खयालों और कल्पनाओं में आती है। अब वो राज कर रही है आपके ऊपर। आप चले जाएँ करीब, करें साहस, परिणाम जो भी होता हो। अब कम से कम कल्पनाओं के लिए तो जगह नहीं बची ना। तथ्य से रूबरू हो गए आप, मन मुक्त हो गया। मन मुक्त हो गया।

कई बार तो ये हमारी आतंरिक साजिश होती है कि कहीं मुक्त न हो जाएँ इसीलिए हम जान बूझ कर के फासला कायम रखते हैं। पास गए तो राज़ खुल जाएँगे। राज़ खुल गए तो मन के सारे बहाने और बहलावे और मनोरंजन विलीन हो जाएँगे तो पास जाओ ही मत, दूर बैठे-बैठे धारणाएँ बनाते रहो। खूब किस्से बनाओ। आपका जो धुर दुश्मन हो, उससे आपकी दुश्मनी कायम ही इसीलिए है क्योंकी आपकी उससे दूरी है। आप करीब जा कर के उससे दुश्मनी निभा कर के दिखाओ। उसके करीब गए नहीं कि दुश्मनी निभाना मुश्किल हो जाएगा।

मज़ेदार बात यही है की ये बात दोस्तों पर ही लागू होती है। आप अपने दोस्तों के बहुत करीब चले गए तो दोस्ती निभाना भी मुश्किल हो जाएगा। हम जो कुछ भी निभाते हैं, वो हमारी धारणाएँ ही तो होती हैं। सबकुछ सुनियोजित ही तो होता है कि इस रिश्ते को ऐसे-ऐसे आगे बढ़ना होता है। हम कहाँ किसी के करीब जा पाते हैं। हो सकता है कि आपका, आपके अभिभावकों से, आपकी माँ से, पिता से रिश्ता ठीक उतना पुराना हो जितनी आपकी उम्र है लेकिन कभी आपने उनको व्यक्तियों की तरह देखा क्या? कभी आप वास्तव में उनके करीब जा पाए क्या? कभी पिता से इंसान की तरह बात करी क्या? बीच में एक धारणा को रख कर के बात करी, उस धारणा का नाम है बाप-बेटे का सम्बन्ध।

तो, आपका जो सवाल है वो बड़ा आम सवाल है और बड़ा महत्वपूर्ण सवाल है? आप कह रहे हैं कि मैंने कहा कि सत्य तक संसार से हो कर ही जा सकते हैं और शिव तक शक्ति ही ले जा सकती है लेकिन अगर संसार में प्रविष्ट होने पर संसार में फँस कर रह गए तो? और हमें सुधीजनों ने खूब बताया है कि संसार भूल-भूलैया है कि एक बार घुसे नहीं कि फँस ही जाओगे। मैं भी कह रहा हूँ कि घुसोगे तो फँसोगे। पर फँसोगे सिर्फ तब जब तक पूरी तरह नहीं घुसे। जो पूरी तरह घुस जाता है वो पार हो जाता है।

जो पूरा समा गया, वो तर गया। जो डूबने से डरा, वो मरा।

डूब जाओ बिलकुल, मिल जाएगा किनारा।

संसार को तो हम ऐसे देखते हैं ना जैसे कोई अबूझ पहेली हो, जैसे कोई अनहोनी घटना हो, जैसे कोई दुश्मन खड़ा हो और हमें आक्रांत कर रहा हो। संसार के प्रति हमारा रवैया ही यही है की ये कोई भयावह जगह है अनजान लोगों से भरी हुई जहाँ कभी भी कुछ अप्रिय घट सकता है और जहाँ कुछ ठीक होना है तो उसके लिए मुझे तैयारी और प्रयोजन करना पड़ेगा। संसार न हुआ, धमकी हो गया। उस धमकी को कुछ लोग अवसर भी बोलते हैं। पर बात एक ही है। जब हम ये कहते हैं कि अवसर है, तो आप यही तो कह रहे हैं कि देखना, बीत न जाए। जब आप कहते हो ज़िन्दा रहने के लिए, बचे रहने के लिए, कायम रहने के लिए इस अवसर को भुनाना जरूर। तो ये भी तो एक धमकी ही है। भविष्य की सारी चिंताएँ धमकियाँ ही तो हैं, चेतावनियाँ ही तो हैं। भविष्य की सारी आशाएँ भी चेतावनी से कुछ कम हैं क्या?

संसार में हम वैसे नहीं रहते जैसे मछली पानी में रहती है, जैसे पक्षी आकाश में रहता है। वैसे कहाँ रह पाते हैं। कोई आपको परीचित मिल जाए तो आप सधी हुई मुस्कान अपने चेहरों पर ले आ लेंगे, किसी अनजाने को देख कर के वो मुस्कराहट कितनी कम फूटती है। हुआ है कभी कि आप जा रहे हैं और मिल गया कोई धुर अजनबी और आपने कहा, “इधर आ भाई, गले लग जा” और गले लगने के बाद आपने नाम भी नहीं पूछा? वो अपने रास्ते आप अपने रास्ते। ऐसा होता कहाँ है। पर किसी भी तोते को देखिएगा, वो जाता है और किसी भी वृक्ष पर ऐसे बैठ जाता है जैसे घर ही हो उसका। हम ऐसा कर पाते हैं?

राह के कुत्तों को भी देखिएगा, अजनबियों से भी मिल लेते हैं ऐसे, जैसे जन्मों का वास्ता हो। हम कर पाते हैं? हमारे लिए संसार एक चुनौती है, एक चेतावनी है, एक खतरा है।

नवदुर्गा हमें सिखा रही है कि काली भी प्यारी है। जहाँ तुम्हें डर लगे, वहाँ भी प्रवेश से चूकना मत क्योंकि डर की गहराइयों में भी मुक्ति है। जाओ, अपने डर के भीतर जाओ।

‘शब्द-योग’ सत्र पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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