प्रश्न: भगवान, बाहर से कुछ नहीं मिलेगा, ये जानते हुए भी अभी आशा समाप्त नहीं हो रही। आकर्षण बना रहता है, खासकर नारी का आकर्षण। शारीरिक रूप से कोई आवेग नहीं उठते, लेकिन चित्त में तो आवेग उठते रहते हैं।
क्या करूँ?
आचार्य प्रशांत जी:
कुछ बुरा नहीं है नारी का आकर्षण। मीरा के प्रति आकर्षित हो जाएँ, आदि-शक्ति के प्रति आकर्षित हो जाएँ, दुर्गा, शिवानी, पार्वती के प्रति आकर्षित हो जाएँ। लल्लेश्वरी आपके चित्त में लगातार घूमने लगें।
तुम्हें औरत का ही ध्यान धरना है, तो किसी ढंग की औरत का ध्यान धर लो न।
मीरा ने भी पुरुष का ही ध्यान धरा था, किस पुरुष का? कोई ऐसे-वैसे पुरुष नहीं चुने। बोलीं, “पुरुष ही चाहिए, पर कृष्ण से नीचे का नहीं चलेगा।”
दिक़्क़त ये नहीं है कि तुम्हें नारी चाहिए। नारी को चाहने में क्या बुराई हो सकती है? कोई बुराई नहीं है। नर है, नारी है, या तो नर को चाहोगे, या नारी को चाहोगे। प्रकृति में तो यही दोनों होते हैं। तुमने नारी को चाह लिया, भली बात। कैसी नारी को चाह रहे हो?
जैसी नारी को चाहोगे, वैसे ही तुम हो जाओगे।
मीरा ने कृष्ण को चुना, मीरा कृष्णमयी हो गईं। मीरा कृष्ण की मुरली हो गईं, मीरा संगीत हो गईं। जैसा तुम्हारा चुनाव होता है, वैसे ही तुम हो जाते हो।
दुनिया में एक से बढ़कर एक प्रकाशित स्त्रियाँ हुईं हैं, जाओ उन्हें चाहो। बिलकुल उनके प्रेम में पड़ जाओ, न्यौछावर हो जाओ उनपर, तुम्हारी ज़िन्दगी बन जाएगी। पर तुम ऐसा करते नहीं। ऊँची स्त्रियों से तुम्हें भय लगता है, क्योंकि ऊँची स्त्री के पास जाकर तुम अपना बौनापन बरकरार नहीं रख सकते।
तो जब तुम कहते हो कि स्त्रियाँ तुम्हें बड़ा सताती हैं, बड़ा आकर्षित करती हैं, तो वास्तव में तुम किन स्त्रियों की बात कर रहे हो? तुम दो-कौड़ी की स्त्रियों की बात कर रहे हो। तुम ऐसी स्त्रियों की बात कर रहे हो, जो हाड़-माँस से ज़्यादा कुछ हैं ही नहीं। वही तुम्हारे ज़हन पर छाई रहती हैं। किसी के होंठ, किसी के बाल, किसी के स्तन, किसी की खाल – इन्हीं का विचार करते रहते हो न?
तो फ़िर ये भी क्यों बोलते हो कि तुम्हें स्त्री का ख़याल रहता है, सीधे -सीधे बोल दो कि तुम्हें माँस का ख़याल रहता है, जैसे किसी माँसाहारी को हर समय माँस-ही-माँस दिखाई देता हो। तुम्हें स्त्री कहाँ दिखाई देती है।
स्त्रीत्व बड़ी गरिमा की, बड़ी शोभा की चीज़ होती है। तुम्हें उस गरिमा से कोई लेना-देना है? जब तुम कहते हो कि कामुकता हावी रहती है, तो तुम्हें तो स्त्री के शरीर को नोंचना-खसोटना है। पौरुष की अपनी गरिमा है, स्त्रीत्व की उससे बढ़कर गरिमा है। तुम उस गरिमा के पुजारी हो क्या?
मैं तुमसे पूछ रहा हूँ, बताओ।
बहुत सारे सम्प्रदाय हैं, बहुत से मत हैं, जो बस एक शब्द कहते हैं, “माँ”। उनके लिए स्त्रीत्व से ज़्यादा पवित्र कुछ नहीं। इतना कहते हैं बस – “माँ”। और कुछ नहीं। तुम क्या उस स्त्रीत्व के पुजारी हो? न।
माँस के पुजारी हो। माँस की पूजा करोगे, तुम भी माँस ही बनकर रह जाओगे।
अध्यात्म हो, विज्ञान हो, कला हो, संस्कृति हो, इन सभी में ओजस्वी महिलाओं की कोई कमी नहीं रही है। पुरुषों का बड़ा अत्याचार रहा है, बड़ा वर्चस्व रहा है, उसके बाद भी बहुत महिलाएँ हैं जो चाँद -सूरज की तरह चमकी हैं। उनके तो तुम्हें नाम भी न पता होंगे। क्यों नाम नहीं पता होंगे? क्योंकि वो हाड़-माँस बनकर अपने आप को तुम्हारे सामने परोसेंगी नहीं।
अभी मैं तुमसे जोआन ऑफ़ आर्क की चर्चा करूँ, तुम कहोगे – “ये कौन?” या मैं पूछूँ, “आयन रैंड?,” तुम बात नहीं करना चाहोगे। कितने ही राष्ट्रों की राष्ट्राध्यक्ष रह चुकी हैं महिलाएँ, उनके सपने आते हैं क्या तुमको? सपने में कभी मार्गरेट थैचर आईं थीं? किस-किस को आतीं हैं ज़रा बताना कि – “आज रात बड़ा हसीन सपना आया, मार्गरेट थैचर घूम रहीं थीं।” ऐसा किस-किस के साथ हुआ है? हुआ है? तो ये क्यों कहते हो कि -“महिलाओं से आसक्त हूँ?”
तुम महिलाओं से नहीं आसक्त हो, तुम माँस से आसक्त हो। माँसाहारी पशु बनकर रह जाओगे। उसे बस माँस ही माँस दिखाई देता है।
अभी यहाँ पर तुम कोई ले आओ हिंसक माँसाहारी पशु, (स्वयं की ओर इंगित करते हुए) वो तुम्हारे इन गुरुदेव को देखेगा, तो उसे क्या श्रद्धा जगेगी? उसे इधर भी क्या दिखाई देगा?
श्रोतागण: माँस।
आचार्य प्रशांत जी: और वो आएगा, और माँस नोचकर चला जाएगा। माँसाहारी पशु के लिए तो सबकुछ माँस ही माँस है।
सरोजनी नायडू तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगी, झाँसी की रानी भी तुम्हें आकर्षित नहीं करेंगी। तुम कहोगे, “ये कोई स्त्रियाँ हैं। उसको लेकर आना, उसको।” मैं कह दूँ “राबिया”, मैं कह दूँ “गार्गी”, तुम कहोगे, “मूड न खराब करिए। हम तो चिकनी चमेली सोच रहे थे, ये आपने कौन से नाम बता दिए।”
ऐसी भी स्त्रियाँ हुई हैं जिन्होंने विज्ञान की सेवा करते-करते अपनी जान दी है, उनकी तुम कोई कद्र नहीं करोगे। रेडियम के बारे में किसने बताया?
श्रोतागण: मैडम क्यूरी ने।
आचार्य प्रशांत जी: और कोई हल्का-फुल्का समर्पण नहीं था उनका। लगी रहीं, लगी रहीं। पर मैं तो नहीं देखता कि जवान लड़के मैरी क्यूरी की बात कर रहे हों। वो किसकी बात कर रहे होते हैं?
लेकिन हमारी भी मजबूरी है। जब हम शरीर ही हैं, माँस ही हैं, ऐसा ही हमने अपने आपको बनाया है, ऐसा ही हमने अपने आपको जाना है, तो सामने कोई भी व्यक्ति हमें नज़र ही क्या आता है? माँस।
अगर तुम किसी तरह से कुछ भी और हो पाते, मैं ये नहीं कह रहा हूँ कि तुम अपने आप को ‘आत्मा’ बोलो। तुम अगर ये भी कह पाते कि – “मैं एक साहित्यकार हूँ,” तो सामने वाली स्त्री को तुम कम-से-कम साहित्यकार की तरह देख पाते। तब तुममें कोई रिश्ता बन पाता कि -“मैं लेखक, आप लेखिका, आईए बात करें।” तब बातचीत होगी लेखन के बारे में। पर अभी तो तुम हो जाते हो मर्द, और वो हो जाती है औरत, और फ़िर तो एक ही रिश्ता होता है कि – “कोई अँधेरा कमरा कहाँ है?”
बात समझ में आ रही है?
तुम किसी भी क्षेत्र में अगर कुछ हो जाओ, तो दूसरे व्यक्ति को भी उसकी शारीरिक पहचान से हटकर कुछ देख पाओगे न।
अभी मैं फ्लाइट से आ रहा था, उसमें पायलट पुरुष था और को-पायलट महिला थी। पर मुझे तो नहीं लगता कि पायलट के मन में ये ख़याल आ रहा होगा कि – “आज बगल में बढ़िया माल बैठा है।” क्योंकि वो स्वयं एक दक्ष पायलट है, इसीलिए जो बगल में बैठा है उसको भी वो सम्मानपूर्वक पायलट की ही तरह देख रहा है।
समझ में आ रही है बात?
कुछ तो हो जाओ शरीर से आगे के, तो फ़िर तुम्हें दुनिया भी फिर शरीर से आगे की दिखाई दे। नहीं तो दुनिया का कामकाज चलता रहेगा, तुम्हारी नज़र बस माँस पर रहेगी।
एक लेखक और एक लेखिका बैठकर बात कर रहे होंगे, और तुम दूर से देखकर कहोगे, “देखो, एक आदमी एक औरत पटा रहा है।” क्योंकि तुम्हारी नज़र में न कोई लेखक है, न कोई लेखिका है, सिर्फ़ पुरुष माँस है और स्त्री माँस है। तो तुम्हें और कोई रिश्ता समझ में ही नहीं आएगा।
जो लोग शरीर-केंद्रित जीवन जीते हैं, उनके साथ ये बड़ी त्रासदी होती है। उनको पूरी दुनिया बस यही समझ आती है कि यहाँ बस एक ही खेल चल रहा है – आदमी-औरत का। तो कोई आदमी किसी औरत से बात कर रहा हो, तुम्हें यही लगेगा कि ज़रूर यहाँ पर वासना का खेल चल रहा है।
जिसको तुम ‘स्त्री’ कहते हो, समझो तो सही कि उसका शरीर उसकी सिर्फ़ एक पहचान है, उसकी कई अन्य पहचानें हैं। तुम उसकी आख़िरी पहचान से नाता नहीं भी जोड़ पाओ, आख़िरी पहचान क्या है?
श्रोतागण: आत्मा।
आचार्य प्रशांत जी: उसकी आख़िरी पहचान से नाता न भी जोड़ पाओ, तो भी उसकी बहुत सारी और भी पहचानें हैं। तुम्हें उसमें और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा? तुम्हारे सामने एक शीर्ष महिला खिलाड़ी आ रही है, कोई भी – सेरेना विलियम्स, स्टेफी ग्राफ – तुम क्या कहोगे? “एक जवान औरत आई।” ऐसे कहोगे? ये कोई बात है? कोई तरीका है?और ऐसा नहीं है कि वो एक जवान औरत नहीं है। जो व्यक्ति है, वो एक जवान औरत भी है, पर वो जवानी, वो लिंग उसकी पहली पहचान नहीं है।
नहीं है न?
दुनिया को माँस की तरह देखना छोड़ना हो, तो स्वयं को माँस की तरह देखना छोड़ो। तुम स्वयं जितने ऊँचे उठते जाओगे, दुनिया को देखने का तुम्हारा नज़रिया भी बदलता जाएगा।
चिकित्सक के पास जाते हो, तो एक को बोलते हो – “जेंटलमैन डॉक्टर”, और एक को बोलते, “लेडी डॉक्टर।” ऐसा करते हो क्या? ऐसा करते हो? तब तो ‘डॉक्टर’ माने – डॉक्टर। दर्द से मरे जा रहे हो और सामने चिकित्सक है, और जो चिकित्सक है वो लिंग से स्त्री है, तुम्हें ये ख़याल भी आएगा कि वो स्त्री है या पुरुष है? उस समय वो तुम्हारे लिए एक चिकित्सक है।
पर वो तो मजबूरी में हो जाता है, क्योंकि उस समय दर्द इतना है कि वासना उठ ही नहीं सकती। जो काम मजबूरी में हो जाता है, उसी को चैतन्य रूप से भी करना सीखो।
गुण के ग्राहक बनो, गुण के। माँस के ग्राहक नहीं। फ़िर वो गुण अगर तुम्हें स्त्री में मिलता हो तो कोई दिक़्क़त नहीं है। फ़िर स्त्री से तुम्हारा जो भी सम्बन्ध बनेगा, वो शुभ ही होगा।
तुम साहस के कद्रदान हो, और तुमको मिल जाती है कोई बहुत साहसी महिला, तुम उससे मित्रता कर लो। तुम उससे निवेदन कर लो। ये कुछ बुरा नहीं हो गया, क्योंकि तुमने उसमें प्रथम बात उसका लिंग नहीं देखी, तुमने उसमें प्रथम बात देखी उसका साहस।
अब ठीक है। अब ठीक है। अब तुम उसके साथ रहना शुरु कर दो, तुम उसके साथ जीने लग जाओ। ये कामवासना का खेल नहीं होगा। भले ही तुम उससे शारीरिक सम्बन्ध भी बना लो, तो भी ये कामवासना का खेल नहीं होगा, क्योंकि रिश्ते का आधार देह नहीं है। रिश्ते का आधार है…..
श्रोतागण: साहस।
आचार्य प्रशांत जी: तुम साहस के पारखी हो और वो स्त्री साहसी है, इसीलिए ये सम्बन्ध बना है। तुमने उसका माँस देखकर नहीं, उसका साहस देखकर उससे निवेदन किया था।
समझ में आ रही है बात?