प्रश्नकर्ता: गुड इवनिंग सर। मेरा नाम समीर है सेकंड ईयर से हिंदू कॉलेज। सर मेरा प्रश्न ये है कि हम सब एक समाज में रहते हैं एंड एज़ अ टीनेजर ये मेरे जीवन का सबसे महत्वपूर्ण समय है। तो सर, हम समाज के सामने इस तरह से मास्क क्यों लगाते हैं? भले ही व्यक्ति रैशनल हो, और जानता हो कि ये उसका ऑथेंटिक शेल्फ है जिसे वो समाज के सामने रखना चाहता है। लेकिन फिर भी उसे डर क्यों लगता है? ऐसा क्यों है सर?
आचार्य प्रशांत: जिससे डरे होते हैं ना उसके सामने सच नहीं बोल पाते, बस यही बात है। उसको तुम वही चेहरा दिखाओगे अपना जो चेहरा वो देखना चाहता है। ऑथेंटिक शेल्फ उसको कैसे दिखा दोगे? और ये जवाब कोई बड़ा अद्भुत विलक्षण गहरा जवाब नहीं है। ये ऐसी चीज़ है जिसको आप रोज़ अनुभव करते हैं। यहाँ आपके सब दोस्त यार होंगे आप उनके साथ एक तरह से व्यवहार रखते हैं उनके सामने आपका एक चेहरा होता है। फिर आप घर जाते हैं, वहाँ ताऊ जी हैं उनके सामने चेहरा दूसरा हो जाता है। गर्लफ्रेंड के सामने तीसरा हो जाता है। हो जाता है ना?: तो उनमें से कोई भी असली चेहरा नहीं है। सवाल में एक मान्यता बैठी हुई थी।
उन्होंने कहा कि हमें पता होता है कि ये हमारा नकली चेहरा है और असली चेहरा दूसरा है। इसमें आपने शुरुआत की आधी बात तो सही बोली आगे की बात गड़बड़ कर दी। आपने कहा पता होता है कि हम जो अभी किसी को अपना चेहरा दिखा रहे हैं वो नकली है। हमें ये भी पता होता है कि हमारा असली चेहरा ऑथेंटिक शेल्फ क्या है? नकली है, यहाँ तक ठीक है, पर हमें पता होता है असली क्या है? नहीं ये गड़बड़ है।
वो जो असली है उस वो भी नकली ही है। ऐसा नहीं है कि आपके पास सिर्फ एक मास्क है, एक चेहरा है, एक नकाब है। नकाबों की परतें हैं, एक उतारोगे तो उसके नीचे आपका चेहरा नहीं दिखेगा, एक और नकाब दिखेगा। आपके पास जो कुछ है वो कहीं ना कहीं से आया हुआ है। क्यों? कारण सीधा है, आपको सबसे कुछ ना कुछ चाहिए। और आपको जिससे जो चाहिए आपको उसके सामने उसके अनुसार ही व्यवहार करना होता है, चेहरा दिखाना होता है। तो बहुत सीधी सी बात है ना रोज़ के अनुभव की बात है।
आप किसी के पास जाते हो वो किसी नेता का समर्थक है। आपको उससे कुछ चाहिए तो आप क्या करते हो? आप उसके सामने उस नेता को गाली देते हो, करते हो क्या ऐसे? — नहीं करोगे, आप करोगे तो आपको वो देगा नहीं। तो यहाँ पर बात आ जाती है फिर डिज़ायर्स की। आप दूसरों के सामने नकली बनकर इसलिए जीते हो क्योंकि दूसरों को लेकर आपके पास कामनाएँ हैं, डिज़ायर्स हैं।
जितना किसी से कुछ चाहोगे उतना उसके गुलाम बन जाओगे और उतना उसके सामने नकली बनकर जीना पड़ेगा।
जितना ज़्यादा किसी से कुछ चाहोगे, उम्मीद रखोगे उतना ज़्यादा तुम्हें उसकी मर्ज़ी के अनुसार व्यवहार करना पड़ेगा। ये अलग बात है कि वो जो उसकी मर्ज़ी है वो भी उसकी अपनी नहीं है, वो भी किसी और का गुलाम है। पर वो अलग मुद्दा है। अभी हम अपनी बात कर रहे हैं। बात समझ में आ रही है?
देखो, आप टीनेजर हो, आप बड़े हो रहे हो। बहुत तेजी से इन सालों में आप पाते हो कि आपका एक्सपोज़र बढ़ रहा है। पहले आप जब जूनियर क्लासेस में होते हो तो सीधे स्कूल जाते हो वापस आ जाते हो। फिर आप सीनियर क्लासेस में होते हो तो आप स्कूल के बाद इधर-उधर भटक भी लेते हो और कई बार कोचिंग के लिए दूसरे शहरों में चले जाते हो। ये सब होता है। फिर जब आप कॉलेज में आते हो तो आपकी फ्रीडम और बढ़ जाती है। कई बार तो आप कॉलेज के लिए अपना शहर छोड़ के ही आ गए हो, हॉस्टल में रह रहे हो, बहुत सारा। पढ़ाई भी होती है तो उससे आपका मानसिक दायरा बढ़ता है। ये सब हो रहा है।
आपकी एनर्जी भी बढ़ रही है शरीर से, और शरीर आपको वहाँ पर ले आया है जब बहुत सारी आप में कामनाएँ खड़ी हो जाती हैं। ठीक है? और समाज भी क्योंकि आपको सोशल एक्सपोज़र मिल रहा है। इसमें आपको अगर पता नहीं है कि आपको सचमुच क्या चाहिए तो फिर आपको सब कुछ चाहिए। जिसको ये नहीं पता कि उसे क्या सचमुच चाहिए उसे फिर सब कुछ चाहिए।
मुझे लग रहा है मुझे कुछ चाहिए — भीतर एक खोखलापन रहता है। भीतर कुछ काँपता सा रहता है, भीतर कुछ कमजोर सा रहता है। रहता है ना? कई बार आप उसको जवानी में अकेलापन भी बोल देते हो पर मतलब ये है कि भीतर कुछ गड़बड़ी रहती है हमेशा, उसको नाम कोई भी दे दो। जैसे आजकल वो मीम चल रही है — सरसराहट, थरथराहट, फरफराहट। तो नाम उसको कुछ भी दे दो पर भीतर कुछ लगा तो रहता है, है ना? कोई उसे अपूर्णता बोलता है, कोई उसे अज्ञान बोलता है, कोई कुछ बोल देता है। लेकिन आपको पता नहीं है वो चीज़ है क्या? वो आपको बेचैन तो करे रहती है पर वो पता नहीं है, क्या है?
तो जब पता होता भी नहीं है और पता करना भी नहीं है क्योंकि पता करने का प्रशिक्षण भी नहीं दिया गया है। तो दुनिया में जितनी चीज़ें होती है ना आप हर चीज़ की तरफ भागते हो कि क्या पता यही चीज़ काम आ जाए। जब मुझे नहीं पता कि मुझे क्या सचमुच चाहिए तो मुझे फिर सब कुछ चाहिए। मुझे नहीं मालूम मुझे क्या चाहिए। तो मैं यहाँ भी जाकर हाँ भाई यहाँ क्या चल रहा है? नॉक-नॉक यहाँ पर क्या दिख रहा है? यहाँ पर क्या बेचा जा रहा है? अरे! यहाँ पर तो मौज़ है। अच्छा उधर सब लोग जा रहे हैं, जरा वहाँ भी आजमा लेते हैं। ये हो जाता है।
तो फिर आपकी कामनाएँ सौ लोगों से जुड़ जाती हैं। लोगों से, दिशाओं से, व्यवस्थाओं से, चीज़ों से जो भी कह लो आपकी कामनाएँ सौ लोगों से जुड़ जाती हैं। ठीक है? और हमने कहा जिससे जितनी कामना रखोगे उसके सामने उतना ज़्यादा झुकना पड़ेगा। और ये कितनी अजीब बात है कि जवानी जो बनी होती है तन कर खड़े होने के लिए, दहाड़ने के लिए, वो जवानी हमें कामनाओं के वशीभूत हर जगह झुकी हुई दिखाई देती है। क्योंकि आपको पता ही नहीं कि आप हो कौन? क्या करना है? हर चीज़ आकर्षक लगती है अचानक से इतनी नई-नई रोशनियाँ खिल गई हैं और सब लुभाती हैं।
जैसे बरसाती पतंगे देखें हैं, यहाँ पर इतनी सारी हैं ये लाइटें, यहाँ पे अभी एक बरसाती आ जाए पतंगा तो क्या करेगा? वो पूरे समय क्या कर रहा होता है? यहाँ भी जाएगा, वहाँ भी जाएगा, यहाँ भी जाएगा, यहाँ भी जाएगा, यहाँ भी जाएगा, हर एक से वफ़ा करता है। पैसा भी चाहिए, तो उसके लिए भी जाते हो तो वहाँ पर फिर कहा जाता है कि अब ये कर लो, वो कर लो। एक नया नकली शेल्फ और चढ़ा लो अपने ऊपर। और जो नकली शेल्फ है सबसे ज़्यादा पता चलता है प्लेसमेंट में इंटरव्यू के समय।
इतनी ज़्यादा हसरत होती है, इतनी तीव्र कामना होती है कि सिर्फ झूठ बोला जाता है वहाँ पर। पहले ही पूछ लिया जाता है बताओ इनको चाहिए क्या? इन्हें जो चाहिए मैं वही हूँ। तुम दिन को कहो रात तो हम? — जो तुमको पसंद हो वही बात। उससे पूछा सो फॉर हाउ लॉन्ग वुड यू बी इन आवर कंपनी बिकॉज़ फ्रेशर्स हैव अ हाई एट्रिशन रेट तो बोल रहा है सर आई बिलीव इन रिबर्थ ये कैसा सवाल कर दिया आपने? — जनम-जनम का साथ है हमारा तुम्हारा। और बगल एक कमरे में दूसरा इंटरव्यू चल रहा होगा। दूसरी कंपनी वो वहाँ भी जाकर के जनम-जनम का वादा करके आएगा। क्यों?
और कोई पूछे अच्छा तू बता तुझे ये क्यों चाहिए? और पूछता ही जाए अच्छा ये क्यों, ये क्यों? दो-तीन सवालों के बाद आपको गुस्सा आ जाएगा, क्योंकि आपके पास कोई जवाब होगा नहीं। ये बात हँसने की हो सकती है, मजाक की हो सकती है। हम उसे बहुत चुटकुले सुना सकते हैं, देर तक हँस सकते हैं लेकिन ये बात ट्रैजिक है। क्योंकि आप अब बिल्कुल वहाँ पर पहुँच रहे हो जहाँ आप ज़िन्दगी के कुछ ऐसे फैसले कर लोगे जो फिर हो सकता है कभी पलट ना पाओ।
आप ऐसी दिशाओं में चले जाओगे जहाँ से वापस लौटना संभव नहीं हो पाएगा। उस दिशा में जाकर के आप थोड़ा बहुत मुड़ वग़ैरह सकते हो और उसको आप कह दोगे ये मेरी फ्रीडम है। देखो मैं जिधर को गया मैंने वहाँ पर थोड़ा सा तो अपना चेंज किया कुछ कस्टमाइज़ किया अपने हिसाब से। क्या कस्टमाइज़ किया है? ये लगभग ऐसी सी बात है कि आपको अफगानिस्तान भेज दिया गया है और आप कह रहे हो काबुल में डाला था कंधार आ गया हूँ फ्रीडम पूरी है मेरे पास। वो तो अभी भी?
श्रोता: कंधार में ही।
आचार्य प्रशांत: फलानी इंडस्ट्री में घुस गया हूँ, कंपनी चेंज कर ली है। हो तो अभी भी वही ना। बात समझ में आ रही है? ये मुझे बहुत गजब चाल सी लगती है माया की, कि बहुत जल्दी इंसानों में पूरी ज़िन्दगी का फैसला हो जाता है। अगर हम माने कि हम सौ साल — अब तो कहते हैं एक सौ बीस साल जीते हैं तो जो आपका क्लाइमेक्स होता है एनर्जी का वो पंद्रह ही साल से बनना शुरू हो जाता है। ये कितनी अजीब बात है। और जो चीज़ खासकर लड़कियों की महिलाओं की बहुत सारी ऊर्जा लेकर चली जाती है बहुत सारा उनका समय लेकर चली जाती है वो भी उनकी ज़िन्दगी में बहुत जल्दी आ जाती है और जल्दी आने का मतलब होता है कि तब तक आपके पास कोई समझ नहीं होती।
आप जीने वाले हो सौ साल और आपको सबसे कड़े इम्तिहान में — जहाँ पर आपको बड़े फैसले लेने हैं वहाँ आपको डाल दिया गया है पंद्रह से लेकर के तीस की उम्र के बीच में। बड़ी नाइंसाफ़ी है। है ना? और अक़्ल आनी है 50-60 में। अब जीना सौ साल है, अकल आनी है पच्चास साल में और फैसले ले रहे हो बीस साल में, तो होगा क्या? तो ये देख लो कि पूरी जो बाज़ी है वो इस तरीके से रची गई है। और अगर ऐसे रची गई है तो दो काम करने चाहिए, ज़ाहिर है — पहला बहुत जल्दी फैसले लो मत, और दूसरा फैसला लेने से पहले जो मैच्योरिटी कर्व है उस पर तेजी से आगे बढ़ो। इंतज़ार मत करो कि उम्र के साथ मैच्योरिटी आएगी। बी मैच्योर बियाँड योर फिज़िकल एज।
बीस की उम्र में वो मैच्योरिटी रखो जो आम लोगों में 35-40 में आती है नहीं तो जब 35-40 में ज़िन्दगी समझ में आएगी तो सिर्फ पछताओगे। प्रकृति ने व्यवस्था ऐसी कर दी है कि आप बड़े फैसले ले लें बिना मैच्योर हुए। आपकी बॉडी जल्दी मैच्योर कर दी जाती है, कर दी जाती है ना? — बॉडी इतनी जल्दी मैच्योर कर दी जाती है। प्यूबर्टी — 12 साल, 12 साल में तो आप बहुत ही छोटे एकदम बच्चे हो। और इनर मैच्योरिटी आती है बहुत बाद में। आउटर फिज़िकल मैच्योरिटी तो आ गई 12 से ही शुरू हो गई। और इनर मैच्योरिटी आई है 40, 50, 60 में। ये एक तरह से आक्वीसेन्शियल कंस्पिरेसी है, इससे बच के रहना! और ये कंस्पिरेसी इसलिए चाहिए ताकि जंगल फलता फूलता रहे।
मैं अमेज़न रेन फॉरेस्ट की बात नहीं कर रहा हूँ — भीतरी जंगल। ये प्रकृति की पुरातन व्यवस्था है ताकि जंगल का कायदा आगे बढ़ता रहे। प्रकृति भी जानती है कि आप बहुत समझदार अगर हो गए जल्दी ही, कि 10 की उम्र में ही अगर एकदम बल्ब जल गए यहाँ (मस्तिष्क) पर तो फिर आप उन बेवकूफियों में फँसोगे नहीं, जिनमें जीवन आपको फँसाना चाहता है। तो कहते इससे पहले इसको ज़्यादा समझ आए इसका काम तमाम कर दो और जब इसको फिर होश आएगा, समझ आएगी तब अधिक से अधिक पछताएगा ही तो, फिर पछताता रहेगा हमारा क्या जाता है काम तो हो गया। बात समझ में आ रही है?
जल्दी बड़े फैसले मत लो। जल्दी-जल्दी चीज़ों के पीछे मत भागो, जल्दी से कहीं भी जाकर के ग्राहक बनके या गुलाम बनकर मत खड़े हो जाओ। रुको, थमो। इसमें मत रहो कि अरे दूसरा उसको तो फलानी जगह इंटर्नशिप मिल गई, मैं ही पीछे रह गया। तुम 2 साल बात कर लेना यार, कोई देर नहीं हो गई। फिर होगा जॉब लग गई, फिर होगा उसका दूसरी यूनिवर्सिटी में एडमिशन हो गया, मैं ही रह गया। उसके बाद आएगा कि शादी हो गई, उसके बाद हो गया बच्चे हो गए। ये जितनी चीज़ें हैं इनमें सबसे आगे वो रहेगा जो सबसे पीछे रहेगा। ये जितनी चीज़ें हैं इनमें सबसे सफल वो रहेगा, जो सबसे विलंब से रहेगा।
और अगर जल्दबाज़ी ही अच्छी बात होती तो फिर तो जो पैतृक व्यवस्था थी काम धंधे की वही सबसे अच्छी चीज़ होती, जो वर्ण व्यवस्था चलती थी। उसमें तो आपके पैदा होने के पहले ही दिन तय हो जाता था कि आप नौकरी क्या करोगे, ठीक? और अगर आप लड़की पैदा हुए हो तो तय ही हो जाता था कि — अब नौकरी क्या करोगे ये सवाल भी नहीं बचता था पहले ही दिन। अगर जल्दी से सब कुछ तय कर लेना इतना बढ़िया होता तो फिर तो वर्ण व्यवस्था बड़ी अच्छी थी ना, और बाल विवाह बहुत अच्छा था। काहे के लिए परेशान हो रहे हो इधर जाकर डेटिंग ये, वो। डम्बल बम्बल सब चला रहे हो, क्या कर रहे हो?
ये आठ साल का बन्ना, छ: साल की बन्नी, 12 साल में गौना। 13 में पहला बच्चा, 14 में दूसरा बच्चा, 15 में तीसरा बच्चा 16 में चार बच्चा। ये भी एक ही बच्चा हुआ बताओ क्यों? — बाकी तीन मर गए, ऐसे ही होता था। 12-14 साल की लड़की बच्चे पैदा करेगी तो, बचेंगे क्या? और 16-18 का होते-होते लड़की भी मर गई, पर दो बच्चे पीछे छोड़ गई।
प्रकृति खुश है। क्योंकि उसको बस एक बात से मतलब है डीएनए फैलते रहना चाहिए। दो पीछे छोड़ दी ना औलादें, काम हो गया — बस ठीक है, तुम इसी के लिए पैदा हुए थे। सारी जो तुम्हारी हड़बड़ी है, वो किस लिए है? बताओ तो। तुम्हें जल्दी किस बात की है? ले देकर तुम्हें प्रकृति के मंसूबों को ही पूरा करने की जल्दी होती है। इसीलिए तड़बक-तड़बक भागते हो। नौकरी भी जल्दी से क्यों चाहिए?
श्रोता: शादी करने के लिए।
आचार्य प्रशांत: माने तो कोई व्यवस्था है भीतरी, शारीरिक, बहुत पुरानी जो तुम्हें बेवकूफ बनाने को तैयार बैठी है और तुम और ज़्यादा हड़बड़ी में हो कि मुझे जल्दी से बेवकूफ बनाओ। ये है डिजायर। और इसी डिजायर से उठता है फियर और उसी फियर से उठता है सबमिशन। यस सर (झुकने का इशारा करते हुए)।
कोई क्यों जाकर के किसी बिल्कुल सड़ेले बॉस के सामने सर झुकाएगा? उसे अपना नकली चेहरा दिखाएगा अगर उसको वो पैसा घर में ले जा के ना देना हो। बताओ? जो कहते हो ना कि हमें दुनिया के सामने झुकना होता है, नकली चेहरे दिखाने होते हैं। बात तो समझो। सर झुकाने को तुम अपने आप को मजबूर इसलिए पाते हो क्योंकि विवशता के पीछे कामना होती है। और ये कामना एक अनएक्सामाइंड कामना है, ये ऐसी कामना है जिस पे तुमने कभी जाकर विचार नहीं किया कि मुझे ये चीज़ चाहिए भी, कि नहीं चाहिए।
लोग घर खरीद लेते हैं, इतनी मोटी ईएमआई पा लेते हैं। अब उसके बाद आपको पता भी हो कि आपका ऑर्गेनाइज़ेशन करप्ट है पूरे तरीके से और घटिया काम कर रहा है। क्रुएल्टी का काम कर रहा है।, हेराफेरी का काम कर रहा है, दुनिया को बर्बाद करने का काम कर रहा है। आप नौकरी छोड़ सकते हो? आप सर झुका के चलोगे वहाँ पर, क्यों? क्योंकि आपने वहाँ पर एक हाउसिंग लोन की ईएमआई बांध ली है। समझ में आ रहा है सर क्यों झुकता है? क्योंकि हमारी कामनाएँ अंधी हैं। और वि जो घर है जिसकी आपने ईएमआई बांधी है वो और कुछ नहीं है वो जंगल के किसी जानवर की गुफा है। वो वहीं से कैरी फॉरवर्ड हुआ है, ये बात समझ में आ रही है?
जंगल में हर जानवर अपने लिए कुछ ठिकाना बनाता है ना तो हमारी भी वही इंस्टिंक्ट है। चिड़िया अंडे देने के लिए घोंसला बनाती है ना। वही हमारी इंस्टिंक्ट है। घर होना चाहिए, घर होना चाहिए। कोई घर-घर करे तो समझ लो बात अंडों की हो रही है।
जब तक समझोगे नहीं कि ये भीतर चल क्या रहा है, और ये मैं चीज़ क्या हूँ। तब तक यही सोचते रहोगे कि बस ये वो इधर-उधर, बहुत बढ़िया रंगीन बाजार सजा हुआ है। जैसे छोटे बच्चे मेले में आ जाते हैं, ऐसे देखते हैं आँखें फाड़ के चारों ओर। वैसे ही देखोगे और हर दुकान पर भागोगे कुछ उठाने के लिए और जहाँ जाओगे वहीं पर दाम वसूला जाएगा। दाम देते-देते तुम बर्बाद हो जाओगे।
साइलेंस, बट मैं इसीलिए बहुत जोर देता हूँ और बहुत कोशिश करता हूँ कि मुझे सुनने वालों में जवान लोग ज़्यादा रहें। बेचारे बुज़ुर्ग जब सुनते हैं तो सिर्फ आहत होते हैं, एक बार तो एक मारने को लगभग कूद पड़ा था। मैंने कहा ठीक है पर ये तो बताओ मेरा अपराध क्या है? बोल रहा है अगर ये बताना ही था, तो 30 साल पहले क्यों नहीं बताया? उसकी समस्या ये नहीं थी कि मैं जो बोल रहा हूँ गलत है। बोल रहा या तो 30 साल पहले आ कर बता दिया होता, तो मैं बच जाता। अब क्यों बता रहे हो? अब बता रहे हो तो सिर्फ उससे मेरी तड़प बढ़ रही है। मुझे और ज़्यादा दिखाई दे रहा है कि ये क्या हो गया मेरे साथ? ऐसी हालत अपनी चाहते हो 30 साल बाद?
तुम्हारी मर्ज़ी है, तुम जानो। गंभीर हो गए काफी।
प्रश्नकर्ता: आचार्य जी प्रणाम, मेरा प्रश्न है आज प्रक्रिया और परिणाम, साहित्य के विद्यार्थी होने के नाते ये मुझे पता है कि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। फिर भी आज प्रक्रिया को नहीं परिणाम को महत्त्व दिया जा रहा है। मैं बहुत दिन से इस विषय में सोच रहा हूँ कि मैं किसको महत्त्व दूँ। क्योंकि मैं समाज में देख रहा हूँ परिणाम को ज़्यादा महत्त्व दिया जा रहा है और जो प्रक्रिया है, जो मेहनत है, प्रयास है उसको दरकिनार किया जा रहा है। इस विचार पर अब आप मार्गदर्शन कीजिए।
आचार्य प्रशांत: ये कोई नई चीज़ थोड़ी है। कह रहे हो कि अब समाज में परिणाम को ज़्यादा महत्त्व दिया जा रहा है, हमेशा से ऐसा था। और जब तक ये समझोगे नहीं कि हमेशा से ऐसा था तब तक ये भी नहीं समझोगे कि क्यों ऐसा था? अगर हमेशा से ऐसा था तो उसी की वजह से होगा ना जो हमेशा से है।
अगर ये हमेशा से था कि हम, हमारी प्रजाति हमें जो परिणाम चाहिए, हम बस उसके लिए आतुर रहते हैं। प्रक्रिया और बाकी चीज़ें ये हम बाद में छोड़ते हैं। अगर हमेशा से ऐसा था तो किसी ऐसे ही कारण से होगा ना जो कारण भी हमेशा से है। तो ऐसी कौन सी चीज़ है जो हमेशा से है? — यही बॉडी इसके पास बस अंधी डिज़ायर्स होती हैं, उनको पूरा कर दो। ना तो ये — ये पूछने देती कि वो डिजायर क्यों है? और ना ही ये इस बात की परवाह करती कि उसको पूरा कैसे करना है? कैसे भी पूरा करो, करो। दोनों ही सवाल पूछोगे तो ये नाराज हो जाती है।
पहला सवाल ये चाहिए ही क्यों? जो तुमको चाहिए वो चाहिए ही क्यों? ये पहला सवाल। और दूसरा सवाल अगर चाहिए तो उसके लिए साधन माध्यम क्या अपनाना है? ये दोनों ही सवाल इसको पसंद नहीं है, इसको बस एक चीज़ पसंद है, क्या? वो है मुझे चाहिए। वो रही चिज्जू और मुझे वो चिज्जू चाहिए। बच्चा पैदा होता है देखते नहीं हो, ऐसे हाथ बढ़ाता रहता है चारों तरफ। वो बहुत पुरानी जेनेटिक लीनेएज है। बात आ रही है समझ में? मुझे तो बस चाहिए। बात खत्म।
बिना पढ़े अगर टॉप ग्रेड्स मिले आपको — जवाब में ईमानदारी चाहिए होगी — कितने लोग आओगे क्लास अटेंड करने? भई मेरे कैंपस में तो नहीं आते। परिणाम के लिए ही तो पढ़ाई भी करते हैं ना हम? आईएम में बोलते थे कि दो ही ऑफिस होते हैं। एक एडमिशंस ऑफिस और फिर प्लेसमेंट ऑफिस, बीच में टाइम पास है। हालाँकि प्रोफेसर्स टाइम पास करने नहीं देते थे, वो रगड़ देते थे। पर स्वेच्छा से तो जोर — जो स्टूडेंट था वो बस दो चीज़ों के लिए लगाता था। एक एडमिशन के लिए और फिर?
प्रश्नकर्ता: प्लेसमेंट के लिए।
आचार्य प्रशांत: क्योंकि उसने एडमिशन लिया ही पढ़ाई के लिए नहीं, प्लेसमेंट के लिए है। प्रक्रिया के लिए नहीं, परिणाम के लिए है। बिना पढ़े अगर मस्त नौकरी लग रही हो, कोई पढ़ना चाहेगा? किसी की लॉटरी लग जाती है। अब लॉटरियाँ नहीं होती हैं, पर कुछ भी मान लो कोई भी विंडफॉल गेन। विंडफॉल गेन समझते हो ना? — देता छप्पर फाड़ के। तो छप्पर फाड़ के किसी को भी मिल रहा हो तो कोई ठुकराता है क्या? क्या वो बोलता है कि ये मैं तभी स्वीकार करूँगा जब किसी ऊँची प्रक्रिया से आएगा। ऐसा कोई बोलता है क्या? तो हम परिणाम भोगी जीव हैं।
जब कामना सर उठाती है तो फिर उसको रोकने के लिए इसीलिए हमें बड़ा लंबा तामझाम करना पड़ता है नैतिकता का और आदर्शों का। कहा जाता है नहीं देखो ऐसे मत करना, ऐसे करना। क्यों? क्योंकि जो शारीरिक वृत्ति है वो तो बस कैसे भी करके पाने की है और उस वृत्ति के सामने सारी नैतिकता हार जाती है, सारे आदर्श हारते हैं, पाखंड बचता है बस। अब इससे विपरीत एक बिल्कुल हो सकती है कहानी। वो क्या है? वो कहानी ये है कि जो मुझे चाहिए वो इतनी, इतनी ऊँची बात है कि उसके लिए काम करने में कर्म की प्रक्रिया में ही मैं संतुष्ट हो गया।
आम आदमी को संतुष्टि मिलती है परिणाम पाने के बाद और घोर असंतुष्टि हो जाती है खासकर जब मेहनत करी और परिणाम ना आए। और दूसरी कहानी ये हो सकती है कि काम में ही ऐसे डूबे क्योंकि बिल्कुल सही काम चुना है कि अंजाम परिणाम ये सब भूल गए। ये भी नहीं है कि परिणाम ही नहीं प्रक्रिया भी आवश्यक है। हम कहते हैं ना द मीन्स आर एजेंट एज़ द एंड्स। दर्शन इससे आगे जाता है।
दर्शन कहता है सही काम तभी कर रहे हो जब परिणाम को भूल ही जाओ।
व्हेन द मीन्स देह्मसेल्व्स बिकम द एंड्स। कि काम में डूबना ही परिणाम हो गया। ये इंतजार नहीं है कि 3 महीने काम करेंगे फिर परिणाम आएगा, फिर तो 3 महीने तक आप छटपटाते ही रहोगे कि परिणाम कब आएगा? परिणाम कब आएगा? काम ऐसा कर रहा हूँ मुझे नहीं मालूम है खत्म भी कब होगा लेकिन हर दिन काम में ही सुकून मिल जाता है। तो इस काम का अंजाम क्या होगा? ये कौन सोचे? काम में ही सुकून है।
अगर आपको बहुत ज़्यादा अंजाम के बारे में सोचना पड़ रहा है तो इसका मतलब ये है कि आपने काम गलत चुना है — ये सूत्र है। अगर आपको नौकरी में हर दिन सोचना पड़ रहा है कि 30 तारीख कब आएगी? सैलरी कब मिलेगी? तो इसका मतलब है कि काम गलत चुना है आपने। काम ऐसा होना चाहिए कि पता भी ना चले कि सैलरी कब आ गई अकाउंट में। 10 दिन बाद पता चले।
हम यहाँ काम करने आए हैं। सैलरी आ गई अच्छी बात है, सैलरी बोनस है। हम सैलरी के लिए नहीं काम कर रहे हैं। सैलरी बढ़िया चीज़ है। काम कर रहे हैं तो उसका एक फाइनेंशियल डायमेंशन भी होता है। तो सैलरी आ जाती है, अच्छी बात है पर सैलरी के लिए थोड़ी काम कर रहे हैं। सैलरी कब आई पता नहीं। पर हम इतने ज़्यादा रिजल्ट फोकस्ड हो गए हैं कि हम कुछ भी करते हैं तो हम पूछते हैं इसमें रिजल्ट क्या मिला? जाके किसी से गले भी मिलोगे उसके बाद कैलकुलेटर चलाओगे इससे पर मिला कितना? सोचो आदमी कैसा होगा? उससे आप गले मिल रहे हो और फिर वो सर खुजा रहा है। कह रहा है पर मतलब फीस, कुछ तो आरओआई होना चाहिए ना? आरओआई माने रिटर्न और इंटिमेसी। चलता नहीं है क्या रिश्तों में?
हमारी इतनी इंटिमेट रिलेशनशिप थी मुझे मिला क्या? भई इंटिमेसी मिली अगर इंटिमेट रिलेशनशिप थी तो और क्या मिलता इंटिमेसी मिल गई ना, खत्म। अभी उसके आगे भी कुछ चाहिए था उसके आगे भी कुछ चाहिए हो तो फिर तो उसको खरीद-फरोख्त बोलते हैं। रिलेशनशिप में कपल्स बोलते — मुझे तुमसे मिला ही क्या है? मैं क्या हूँ? और वेंडिंग मशीन हूँ। मुझसे क्या मिलेगा? मैं ही तो मिला हुआ हूँ। मुझसे क्या मिलेगा? आ रही है बात समझ में?
इस पर भी मत रहो कि मुझे परिणाम और प्रक्रिया दोनों ठीक रहे, पहले पूछो कि वो परिणाम चाहिए ही क्यों? परिणाम माने एक एंड रिजल्ट जिसका संबंध डिजायर से होता है। जो चीज़ जिसको आप अपना लक्ष्य, टारगेट, गोल बना रहे हो, उसे बना ही क्यों रहे हो? ये उसके बाद की बात है कि प्रक्रिया क्या होगी?
जब लक्ष्य सही बनाया होता है तो वो सही लक्ष्य ही सही प्रक्रिया स्वयं निर्धारित कर देता है। लक्ष्य ही आपको बता देगा कि प्रक्रिया क्या रखनी है। क्योंकि लक्ष्य स्वयं प्रक्रिया बन जाता है।
ये बहुत ऊपर से अभी जा रहा होगा थोड़ा कोई बात नहीं जाने दो। आपका सबसे जो बड़ा दुश्मन है वो आपके भीतर ही बैठा है। देखिए ये एक लिबरल एज है। यहाँ पर कोई किसी को रस्सी से तो बांध नहीं सकता। तो हमारे जो बंधन होते हैं ना वो सब भीतरी होते हैं और वो भीतरी बंधन इन्हीं रूपों में अभिव्यक्त होते हैं। मुझे ये चीज़ चाहिए, मुझे वो चीज़ नहीं चाहिए, फलाने परिणाम की मुझे आकांक्षा है। यही है। डिजायर मत रखो, मिशन रखो। चाहत दोनों में मौजूद होती है पर तल बहुत अलग है।
डिजायर में भीतरी बेहोशी के केंद्र से चाहा जाता है और मिशन में समझदारी से, बोध से, और उसके लिए हिम्मत चाहिए। यूँही जो सब कुछ सब लोग चाह रहे हैं उसके पीछे पीछे चलने के लिए क्या हिम्मत चाहिए? भेड़ को क्या हिम्मत चाहिए? पर शेर की तरह अकेले चलने के लिए हिम्मत चाहिए। तो आप जितने भी अच्छे ऊँचे सवाल पूछते हो ना उन अच्छाइयों उन ऊँचाइयों की कीमत चुकानी पड़ती है। फ्रीडम, पहला सवाल था लिबरेशन, ऑनेस्टी ये सब बातें तो हैं अच्छी बात है लेकिन इनकी कीमत चुकानी पड़ती है।
कीमत चुकाइए। कीमत अभी बड़ी लगेगी पर समझ में आएगा फिर धीरे-धीरे कि सौदा फ़ायदे का रहा और जब समझ में आएगा सौदा फ़ायदे का रहा तो मालूम है आप क्या बोलोगे नुकसान का भी रहता तो यही करते। ये होता है परिणाम की परवाह ना करना। कि कभी ये दिखाई भी दे कि ये सौदा घाटे में जा रहा है तो बोलो जाने दो, कभी दिखाई दे कि अरे बड़ा फ़ायदा हो गया, तो वो लोग जब घाटे का था तब भी कर तो यही रहे थे, तो इसमें फिर अब सोचने से फ़ायदा क्या बार-बार।
प्रश्नकर्ता: नमस्कार सर, मेरा नाम रक्षित कपूर है और हिंदी लिटरेचर पढ़ रहा हूँ। सर डायरेक्ट फॉलो अप ये कि आपने डिज़ायर्स की बात की, कि आप मिशन्स रखिए गोल्स मत रखिए। परंतु जैसे हम अध्यात्म की तरफ भी जाते हैं तो जो लालसा है मद के लिए, माया के लिए। तो क्या वो इतनी गलत है कि हम उससे विमुख हो जाएँ? या एक सर्टन लेवल पर आपको एक बाय प्रोडक्ट की तरह उस मिशन के पैसा, शोहरत, नाम या रेप्युटेशन या ये सब चीज़ों की माँग होनी चाहिए। क्या ये निहित मतलब अपराध है, कि आप अगर अध्यात्म या अपने ज़िन्दगी को बड़ा ऊँचा बनाना चाहते हैं तो आप माया से बिल्कुल विमुख रहिए? या ये बाय प्रोडक्ट्स की तरह हम डिजायर कर सकते हैं?
आचार्य प्रशांत: देखो एक ही अपराध होता है वो होता है अपने ख़िलाफ़, क्योंकि जीना अपने ही साथ होता है। पैदा होते हो, मरते हो दूसरों की भी परवाह करते हो इसलिए क्योंकि दूसरों के कारण तुम्हें सुख-दुख होता है। जिससे रिश्ता होता है उसी की तो परवाह करते हो ना, रिश्ता मेरा। तो माने ले कि परवाह तो मैं अपनी ही करता हूँ। हर आदमी अपनी परवाह करता है और हम जैसे पैदा होते हैं उसमें हमें चैन नहीं होता है। हम पैदा ही एक गड़बड़ स्थिति में होते हैं। तो जब शुरुआत ही गड़बड़ होती है। बच्चा पैदा होता है उसकी हालत देखिए ना। वो कितना समझदार होता है?
आप कितने साल के हो गए अभी? 20 साल के हो गए, 20 22 साल। कितने साल के हो आप लोग? ऐसे ही हो। सोचो 22 साल से पढ़ते ही जा रहे हो। कितनी खराब हालत रही होगी पैदा होते वक्त कि 22 साल से शिक्षा दी जा रही है। अभी दो चार साल और लोगे कम से कम और तब भी कोई भरोसा नहीं कि कुछ यहाँ (मस्तिष्क) जलेगा कि नहीं जलेगा। ये हमारी हालत होती है पैदा होते वक़्त। ज़बरदस्त अज्ञान पार्श्विक वृत्तियाँ, तभी तो इतनी एजुकेशन देनी पड़ती है। सोचा नहीं कभी कि इतनी एजुकेशन की जरूरत क्या है? क्योंकि पैदा ही गड़बड़ हुए हो — माने सभी।
तो आदमी जो पैदा ही हुआ है और उसमें बेचैनी है। एक पोटेंशियल एक संभावना है। बहुत ऊँची संभावना है। लेकिन उसका जो यथार्थ है वो तो ऐसा ही है बिल्कुल जानवर जैसा लीचड़। तो फिर स्वयं के प्रति अपराध क्या हुआ? कि जो तुम्हारी लीच्चड़ हालत है तुमने वही बने रहने दी बल्कि उसी लीचड़ हालत पर और चल-चल कर के तुमने अपने आप को और गिरा दिया।
पैदा ही गड़बड़ हुए थे और अपने आप को और ज़्यादा गड़बड़ कर लिया। ये है अपराध। और कोई अपराध नहीं होता।
तो मुझे सिर्फ क्या करना है? मुझे और बेहतर होने की कोशिश करनी है। उसी बेहतरी को अध्यात्म में कहते हैं — मुक्ति। मुझे और बेहतर होने की कोशिश करनी है। अब बेहतर होने की कोशिश की जगह मैं जा रहा हूँ कूद-फांद करने। तो ये अपराध है कि नहीं है तुम जानो। मेरी हालत ये है कि मैं 10 तरह के रोग ले घूम रहा हूँ पर उन रोगों का इलाज़ करने की जगह, मैं कह रहा हूँ मुझे चाट भंडार ले चलो उसमें मुझे मद मिलता है, उसमें मुझे सुख मिलता है, उत्तेजना मिलती है। तो अब ये अपराध है कि नहीं है तुम जानो। किसी और के प्रति नहीं, स्वयं के प्रति ये अपराध है कि नहीं है तुम जानो।
बात नैतिकता की नहीं है, बात सामाजिक आदर्शों के पालन की नहीं है, बात किसी बाहरी कानून की नहीं है। बात अपनी ज़िन्दगी की है। भाई हमारा हमारे ही प्रति दायित्व। फिर कह रहा हूँ मेरी हालत यहाँ से लेकर यहाँ तक (सिर से पैर तक) खराब है, 10 तरह के रोग लगे हुए हैं। पर उन रोगों पर ध्यान देने की जगह मैं कह रहा हूँ भाई बता, अगला मद माने अगला नशा कौन सा उपलब्ध है? मूवी आ रही है कोई ये बता? कहीं टूरिज़्म के लिए चले ये बता? पैसे मिले हैं कुछ अलग तरह की शॉपिंग कर लें ये बता? और इलाज हो सकता है, लाइलाज कोई नहीं है। इलाज सबका हो सकता है पर इलाज के लिए जो उसके पास समय और संसाधन है उसको वो खर्च कर रहा है शॉपिंग मॉल में।
आपके पास कुछ पैसे हैं जिससे आपके कैंसर का इलाज हो सकता है, ये एक जन्मगत कैंसर है। गौतम बुद्ध ने कहा पहली बात जन्म दुख है और उसके बाद का भी सब कुछ दुख है। “सर्वम दुखम।” तो एक जन्मजात कैंसर है और उस कैंसर के इलाज के लिए आपके पास कुछ पैसे हैं छोटे कुछ समय है आपके पास और वो पैसा और समय आप कह रहे हो इधर जाना है उधर मौज मारनी है, ये करना है, वो करना है। जब मौज मार भी रहे हो तो भीतर से कैसा अनुभव कर रहे होगे? कैसा? — बेचैनी। क्योंकि वो तो कैंसर भीतर बैठा ही हुआ है ना, मौज के क्षण में भी वो आपको दुखी ही रखे हुए हैं पर आप बाहर-बाहर ऐसा अभिनय करते हो जैसे मौज आ गई।
सुख में सबसे बड़ी समस्या ये है कि वो झूठ है तुम्हें सुख है ही नहीं तुम ढोंग कर रहे हो सुख का। और दर्शन और अध्यात्म इसीलिए होते हैं ताकि आपको सचमुच सुख मिल सके। नहीं तो जिसको आप कहते हो कि सुख में क्या अपराध हो गया? इसमें क्या बुराई हो गई? भाई मैं फन लविंग हूँ। इसमें बुरा क्या है? इसमें बुरा ये है दैट यू आर हैविंग नो फन एट ऑल। अगर तुम सचमुच मौज ले रहे होते, तो ये तो मजेदार बात हो जाती, हम भी तुम्हारे साथ आ जाते।
कोई एकदम मस्त है लड़खड़ा रहा है, गिर रहा है, कुछ कर रहा है और 100 तरीके की नालायकियाँ कर रहा है और आप उसको बोलने जाओगे भाई बहुत हो गया, चल। वो बोले मैं मौज ले रहा हूँ, तुझे क्या प्रॉब्लम है? बोले मुझे प्रॉब्लम ये है कि तू मौज नहीं ले रहा है। और अगर तू सचमुच मौज ले रहा होता तो मैं भी वही करता जो तू कर रहा है। बिल्कुल कर लेता। तेरे पास कोई मौज नहीं है, तू ढकोसला कर रहा है। तू अपने आप को भी धोखा दे रहा है कि तुझे मौज है।
ऊपर-ऊपर से तुम बस हैप्पीनेस के लक्षण प्रदर्शित कर रहे हो। जैसे कि दाँत ऐसे कर दिए, हा-हा-हा कर दिया, किसी को बधाई हो कांग्रेचुलेशंस बोल दिया। तुम ऐसे दिखा रहे हो कि जैसे बड़ी खुशी है, तुम खुश हो नहीं ये समस्या है। तो सुख वर्जित नहीं है झूठा सुख वर्जित है। और वर्जित किसी दूसरे के द्वारा नहीं है। हमने क्या कहा? हमारी ज़िम्मेदारी किसके प्रति है? हमारे ही प्रति है और हम खुद को झूठे सुख की चाशनी चटाते रहते हैं और कहते हैं माय लाइफ इज ओके। डूइंग वेल या गुड मॉर्निंग। व्हाट्स गुड अबाउट द मॉर्निंग यार — मुँह देखो अभी भी दोपहर के 12 बजे हुए हैं मॉर्निंग तो है ही नहीं। ठीक है?
तो फिर कहा कि आप अगर अच्छा काम कर रहे हो और उसके सह उत्पाद (बाय प्रोडक्ट) के रूप में आपको कुछ चीज़ें मिल जाती हैं तो क्या है? तो मिलती रहे, अच्छी बात है, बोनस है, बढ़िया है। पर उस चीज़ के लिए नहीं कर रहे हैं वो चीज़ नहीं भी मिलेगी तो? वही करेंगे। देखो सही बात तो ये है कि बाय प्रोडक्ट के तौर पर वो सब भी मिल जाता है बेटा जो तुमने कभी माँगना तो छोड़ दो सोचा भी नहीं था, वो सब भी मिल जाता है।
लेकिन फिर भी फ़र्क़ नहीं पड़ता क्योंकि तुम उसके लिए थोड़ी काम कर रहे हो। और यही खूबी होती है अच्छे और असली काम की और अच्छी और असली ज़िन्दगी की। उसमें बिना माँगे बहुत कुछ मिलने लगता है तुमने माँगा नहीं था, तुमने सोचा नहीं था, चाहा नहीं था। मिलने लग जाता है बहुत कुछ पर जो बहुत कुछ मिल रहा होता है तुम्हारे लिए छोटी चीज़ होती है क्योंकि तुम्हारा प्यार असली चीज़ से है। और इसीलिए फिर तुम आजाद रह पाते हो। क्योंकि जो मिल रहा है वो कोई रोक सकता है किसी तरीके से? रोक भी सकता है, है ना? क्योंकि देना ना देना ये तो परिस्थितियों के हाथ में, संयोगों के हाथ में भी है।
तो कोई उस चीज़ को, वो जो बाय प्रोडक्ट के तौर पर तुम्हें मिल रही है चीज़। कोई उस चीज़ को रोक करके फिर तुम्हारी कलाई नहीं ऐंठ सकता। आपका बॉस ऐसे आपकी कलाई मरोड़ देता है ना बोल के कि, पैसे काट लूँगा, अप्रेजल नहीं होगा तेरा, क्योंकि आपको जो मिल रहा है उसके हाथ में होता है। आपको जो मिल रहा है उसके हाथ में है तो फिर वो आपको (कलाई मरोड़ने का इशारा करते हुए)।
तो जिस आदमी के लिए बहुत जरूरी हो गया जो बहुत महत्त्व देने लग गया उन चीज़ों को जो उसे काम से मिल रही हैं वो फिर सही काम नहीं कर पाएगा। वो पाएगा कि बार-बार उसकी कलाई उमेठी जाती है। चाहे वो काम में हो, चाहे रिश्ते में हो, चाहे किसी चीज़ में हो, जीवन के किसी भी क्षेत्र में। दूसरी ओर आपको जो मिल रहा है बस इंन्सिडेंटल है, संयोगिक है। तो मिल गया तो बहुत अच्छी बात, नहीं मिला (तो भी अच्छा)।
फिर ऐसा है कि भाई मेरा जो काम है ना वही मेरे लिए 10 करोड़ का है। और ये जो तुम चीज़ दे रहे हो ₹100-200 की, 10 करोड़ के काम को कर रहा हूँ, 10 करोड़ तो मुझे मिल ही रहा है उसको करने से ही मिल रहा है उसके बाद ₹100 मिल गया तो भी ठीक और नहीं मिला तो भी ठीक। हम गिनेंगे ही नहीं।
आज आप लोगों ने, मैं यहाँ पर आया तो इतना बढ़ा-चढ़ा कर के मेरा परिचय दिया जिसके तो मैं लायक भी नहीं हूँ। बड़ा अच्छा स्वागत कर रहे हैं, बहुत अच्छा है। और आपको मालूम है आज से 15 साल पहले बल्कि 20 साल पहले से ऐसे ही ऑडिटोरियम्स में, कॉलेजेस में, मैं स्टूडेंट सामने जाता रहा हूँ कोई स्वागत नहीं कर रहा होता था तब। ऐसे भरा भी नहीं होता था, आप लोग यहाँ सीढ़ियों पर बैठे हो, मामला खचा-खच भरा हुआ है। कुछ नहीं होता था।
पता नहीं मेरी आवाज ऐसी है, सूरत ऐसी है, जितना भरा होता था वो भी खाली हो जाता था। लेकिन जितना मैं आपको आज समझा पा रहा हूँ, जितना दे पा रहा हूँ, जितने जितने जोर से आप तक बात को ला पा रहा हूँ, इससे बेहतर मैं उन तक ला पा रहा था तब। जबकि मुझे कुछ नहीं दे रहे थे। वहाँ क्या मिल रहा था? बल्कि एक तरह से कहूँ तो उपेक्षा और अनादर मिल रहा था। बात आ रही है समझ में? आप इतना कुछ दे रहे हो तो इसका मतलब ये थोड़ी है कि मैं आपको कुछ अतिरिक्त दे सकता हूँ। मेरे पास जितना था मैंने तब भी दिया। मेरे पास जितना है मैं आज भी दे रहा हूँ। और तब शायद मैं थोड़ा युवा था, तो मैं और जोश से दे पाता था। समझ में आ रही है बात?
ऐसा भी हुआ है कि ऐसे ही है, बहुत बड़ा ऑडिटोरियम है। उसमें कुल 10 जने बैठे हुए हैं और वो 10 भी ऐसे छितरा के बैठे हुए हैं। वो भी क्यों बैठे हैं? क्योंकि वो क्लास रूम से भागे हुए हैं या इसलिए बैठे हैं क्योंकि एसी यहाँ मिल रहा है और क्लास रूम में एसी नहीं है। तो फिर मैं उनको मैं कई बार तो मंच पर भी नहीं होता था, मैं नीचे उतरता था और हाथ से पकड़-पकड़ के लाता था। 10 जनों को ऐसे बैठाता था और 10 जनों के लिए दो-दो, तीन-तीन घंटे बोलता था। मैं आज भी आपसे 2 घंटे बात कर रहा हूँ। तो आपसे ये बात करके मुझे कुछ अतिरिक्त थोड़ी मिल रहा है। मैं उतना ही तब भी कर रहा था, उतना ही आज भी कर रहा हूँ और किसी दिन आप मुझे यहाँ बुला के और बड़ा तमगा दे दो। तो भी मैं बात इतनी ही करूँगा क्योंकि आज भी मैं जितनी कर रहा हूँ उससे अधिक मेरे पास कुछ है नहीं।
मैंने कुछ छुपा के बचा के नहीं रखा है कि मुझे जब और देंगे तो फिर मैं और दूँगा। मैं शत प्रतिशत 20 साल पहले भी दे रहा था, आज भी दे रहा हूँ, 20 साल बाद भी दूँगा। कुछ मिल गया अच्छी बात है। आपने एक स्मारिका दे दी, शॉल दे दी, बहुत अच्छी बात है, धन्यवाद। पर अगर आप नहीं देते तो क्या ये सत्र ऐसा नहीं होता? ये तब भी ऐसा ही होता। कुछ मिल गया बहुत अच्छा है, धन्यवाद। देना आपका काम है। आपकी ओर से देना आपका काम है और मेरी ओर से देना। आप मुझे यहाँ पर आकर के सम्मान दे दो, आप जानो। और मैं यहाँ पर आकर के आपसे दिली बातचीत करूँ, मैं जानू। बात आ रही है समझ में?
किसी दिन हो सकता है करोड़ों मिलने लग जाए, किसी दिन हो सकता है कुछ हो जाए। बड़ा पदक, बड़ा पुरस्कार, अंतरराष्ट्रीय कुछ मिल जाए। बोलना तो मुझे तब भी यही है। कोई नेता सामने बैठा हो मैं उससे भी यही बात करता हूँ जो आपसे बात कर रहा हूँ। ऐसा थोड़ी है कि यहाँ पर अब बड़ी बात करनी है। आप होंगे बहुत बड़े नेता। चाहे मैं स्कूली बच्चों से बात कर रहा हूँ, चाहे बुजुर्गों से बात कर रहा हूँ। बात तो वही है। उससे अलग-अलग चीज़ें मिल रही होंगी। भले ही ठीक है।