नहीं मृत्यु || आचार्य प्रशान्त (2016)

Acharya Prashant

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नहीं मृत्यु || आचार्य प्रशान्त (2016)

आचार्य प्रशांत: शरीर के भीतर उसको तलाशोगे जो शरीर के साथ ख़त्म नहीं होगा तो मिलेगा नहीं। तलाशोगे नहीं तो वो मौजूद है और तुम्हें शांति दे रहा है।

तुम कहोगे कि गये थे; आचार्य जी ने बोला कि कबीर तो मौत पर हँसते हैं; उन्हें कुछ ऐसा मिला हुआ है जो अमर है; तो हम भी तलाशें ज़रा उसे कि क्या अमर है; हमारे भीतर क्या है जो चिता के साथ जलेगा नहीं?

तो तलाशने बैठोगे तो पाओगे नहीं। तुम अपनेआप को जो भी कुछ जानते हो, तुम जो तलाशते हो, तुम जिसकी तलाश करते हो, तुम जिस क्षेत्र में तलाश कर सकते हो, उस क्षेत्र में तो सब कुछ जल ही जाना है चिता पर।

हाँ, तलाशो नहीं तो है। तलाशने वाला ही तो गड़बड़ है; तलाशने वाला ही एक गलत उपकरण है। वो जिस क्षेत्र में तलाशता है, वो क्षेत्र ही अवैध है। तलाशो नहीं तो अमर है। और, और निष्कर्ष निकालने की भूख है तुममें तो निष्कर्ष ही रह जाएँगे, सत्य नहीं मिलेगा।

बड़ी पुरानी आदत है न कि ये सब सुना, उसके बाद कहने लगे कि ठीक है। हम से कहा गया कि मृत्यु पर हँसा जा सकता है मतलब कुछ है हममें जो अमर है। तुममें तो कुछ नहीं है जो अमर है, हाँ फिर भी तुम अमर हो। अमर तुम हो पर तुम्हारी अमरता का कोई मानसिक प्रमाण नहीं हो सकता। इसलिए कहा कि श्रद्धा चाहिए।

कबीर से जाकर कहोगे कि सिद्ध कीजिए कि आप अमर हैं, हँस ही देंगे। बात सिद्ध की जा सकती नहीं, अप्रमेय है। उनके होने में ही बात का प्रमाण है, उनकी मस्ती में ही अमरता का प्रमाण है। कबीर को देखकर के तुम्हें नहीं दिखाई दे रहा कि कुछ है जो मरेगा नहीं तो फिर कोई प्रमाण तुम्हें मनवा नहीं सकता। और अगर तुम तुले हो सिद्ध करने पर कि नहीं सब कुछ मरता है तो तुम जीत जाओगे। तुम प्रमाणित कर ले जाओगे। तुम कहोगे, ‘ये देखो, ये कबीर की आँखें जल गयी। ये कबीर के वचन, मिट गए। ये कबीर के कपड़ें, गल गये। ये कबीर की हड्डियाँ, राख़ हो गयी। क्या बचा?’ तुम सिद्ध कर ले जाओगे कि कबीर यूँ ही झूठ-मूठ कहते थे कि एक कबीरा न मरा — कबीर तो मर गया। तुम कहोगे, "अरे बड़ी गलतफ़हमी थी कबीर को।"

हाँ, देखो कबीर को और देखो उनकी आँखों में और उनकी मौज। तो ज़रूर ख़ुशबू आएगी उसकी जो मरता नहीं। पर कोई प्रमाण नहीं। वो खुशबू ऐसी नहीं है कि उसको मुठ्ठी में बाँधकर किसी और को सुंघा दोगे कि देखिए, देखिए, अभी अभी पता चला है कि कुछ है जो अकाल है। वो तो बस ऐसा होता है कि संत की उपस्तिथि में समय को भूल जाते हो। और मौत समय है। कबीर के सामने तुम्हें याद ही नहीं रहता कि कितना बज गया; दोपहर है कि साँझ ढल गई। और यही है मौत के पार जाना। जब मन से समय उतर जाए तब मन से काल भी उतर गया। जब ऐसे हो जाओ कि समय की कोई होश ही न रहे, जब ऐसे हो जाओ कि घड़ी सामने हो, दिख रहा हो कि वक़्त क्या हुआ फिर भी वक़्त तुम्हारे लिए मायने न रखे, उस क्षण में तुम अमर हो। उस क्षण की गहराई ही अमरता है। और समझ लेना इस बात को कि अमरत्व समय के विस्तार में नहीं है, इसमें नहीं है कि तुम पाँच हज़ार वर्ष जी गये। वो इसमें है कि इस क्षण में कितनी सच्चाई है, कितनी गहराई है। जब गहरा जी रहे होते हो तब मार कौन सकता है तुम्हें?

और गहरे से गहरा जीना यह है कि मौत को भी गहरे जी गये। अब मौत ही अमरता है। तुम गहरे इसलिए तो नहीं जीते न क्योंकि मौत से डरते हो। तुम कहते हो, "गहराई में जाएँगे तो मिटना पड़ेगा।" गहराई तक जाने का जो रास्ता है बड़ा संकरा रास्ता है।

"प्रेम गली अति सांकरी।"

गहराई में जाना मतलब सत्य तक जाना, मतलब अपने तक जाना, माने परमात्मा तक जाना। वहाँ तक जाने के लिए कोई लम्बे-चौड़े पुल नहीं होते हैं। वहाँ तक जाने के लिए तो पतले धागे पर चल के जाना पड़ता है; स्वयं मिटना पड़ता है। इसीलिए हम जीवन में कभी भी गहरे उतरते नहीं। न हमारा कोई रिश्ता गहरा होता है, न हमारी कोई अनुभूति गहरी होती है।

गहराई का अर्थ ही होगा स्वयं का अवलोकन। बड़ा डर जाते हैं। हम कहते हैं, " गहराई जाये भाड़ में, बचो तो पहले।"

जहाँ भी हो, जैसे भी हो, जिसके भी साथ हो, पूरे रहो, गहरे रहो —यही है अमरता। अब कौन मार सकता है तुमको? यमराज स्वयं तुमको चिरंजीवी होने का आशीर्वाद देंगे, जैसे नचिकेता को दिया था कि जियो, अब नहीं मरोगे। जो जान गया मृत्यु को, मृत्यु के पार हो गया। और मृत्यु को जानने का अर्थ ये नहीं है कि कोई ज्ञान इक्कठा कर लो कि मृत्यु होती क्या है।

होता क्या है मृत्यु में? साँस रुकती कैसे है? कुछ फेफड़ों में होता है? कुछ दिल में होता है? कुछ मस्तिष्क में होता है? ये नहीं है मृत्यु को जानना। मृत्यु को जानने का अर्थ है जीवन में गहरे उतरना। गहरे उतरना मतलब तुम्हारी मृत्यु। तुम इतने बड़े हो, इतने मोटे-ताज़ें हो।

आप क्यों चिंतित हो रहे हैं? (श्रोता को) तुम नहीं उतर पाओगे मृत्यु में। जैसे हो वैसे नहीं उतर पाओगे मृत्यु में। शरीर बड़ा स्थूल होता है; मन बड़ा भारी। मृत्यु में उतरने का अर्थ है इन सबको घोल देना। इन सबको पीछे छोड़ कर के आनंद की तरफ़ सतत बढ़ते रहना। जिस मृत्यु से डरते हो वही जीवन है, वही आनंद है क्योंकि जिसको जीवन कहते हो वो कष्ट है।

"जिस मरने से जग डरे मेरो मन आनंद, कब मरिहों कब भेंटिहों, पूरन परमानंद।"

पागल थोड़े ही हुए थे कि कह रहे थे? मौत से डरकर के जिसकी ओर भागते हो, वो और मौत है। उससे अच्छा यह है कि महामृत्यु को स्वयं गले लगा लो। जो कुछ तुमने सुरक्षा के लिए ओढ़ रखा है, जो कुछ कीमती समझते हो, उसके पार जाते चलो। पार ऐसे नहीं जाते चलो कि क्या कर दिया। पार ऐसे जाते चलो कि कीमती से और कीमती कुछ मिला तो पीछे वाला छूटा — यही मृत्यु है।

जब कहते हो मौत हो गई तो यही अर्थ होता है न तुम्हारा कि जिस रूप में थे, वो रूप नहीं रहा। जो करते थे, जैसे थे, जैसे दिखते थे, जैसे चलते थे, जैसे बात करते थे, वो सब नहीं रहा। तो यही तो चाहिए तुम्हें। और क्या चाहिए? और किस लिए यहाँ पर रविवार को इकट्ठा होते हो? इसलिए न कि जैसे हो वैसे न रहो? वही तो मृत्यु में होता है। इसलिए तो गोरख़ को बोलना पड़ता है न, "मरो हे जोगी मरो; मरो, मरना है मीठा।“ मरने के लिए ही तो आए हो, पर मरते ही नहीं; बड़े ढीठ हो।

चाहते भी यही हो कि जैसे हो वैसे न रहो। चाहते भी यही हो कि सब बदल जाए और वैसा होने भी नहीं देते। मृत्यु महाआनंद है। शरीर, अगर इतने होशियार हो कि जानते ही हो कि मरणधर्मा है, तो शरीर मरे इससे पहले तुम मर जाओ। जीवन और कुछ नहीं है, मरने का मौका भर है। प्रकृति आकर तुम्हें मार दे, इससे पहले स्वयं मर जाओ। जो मर गया वो जी उठा।

संसारी की मृत्यु होती है विवशता में, कलपते हुए, बिलखते हुए। और कबीर की मृत्यु होती है उत्सव में। संसारी मरता है बार-बार क्योंकि वो मृत्यु के प्रति अपने को सुरक्षित करना चाहता है। कबीर मरते हैं एक बार, वो आख़िरी है। अब उनका आवागमन नहीं होगा। मृत्यु का अर्थ है, "जाने भी दो।"

क्या अर्थ है? जाने भी दो।

कुछ और है जो बहुत महत्वपूर्ण है — जाने भी दो न। कुछ और है जो बहुत कीमती है। कौन याद रखे अब इन छोटी बातों को! कुछ और है जो मन पर छा गया है, मन जिसमें डूब गया है! अब कौन याद रखे छोटी बातों को! यह जो भुला देना है, यही मृत्यु है।

जिसके पार चले गए, समझ लो उसकी मौत हो गई। यह है मृत्यु का वास्तविक अर्थ। और फिर चूँकि कबीर पार चले जाते हैं इसलिए वो मौत के गीत गाते हैं। पार चले गए हैं, दोनों एक ही बात है। मृत्यु को याद करना और परमात्मा को याद करना, कोई अंतर नहीं है।

पीछे देखोगे क्या छोड़ आए तो मौत दिखाई देगी। ये सब छोड़ आए न। छोड़ना ही तो मृत्यु है। छूटा, पीछे छूटा; तब गाओगे, "साधो ये मुर्दों का गाँव"। और निकट देखोगे, समीप देखोगे, सामने देखोगे, क्या प्रत्यक्ष है, क्या पा लिया तो वहाँ सत्य को पाओगे, परमात्मा को पाओगे। तब गाओगे, "मेरो राम आधार”। दोनों एक ही बात है। बस डरो नहीं, डरो नहीं।

संसार में निर्भीकता से प्रवेश करो; प्रविष्ट हो ही। क्यों मुँह चुराते हो? इसको संसार मत मानो, इसको राम का विस्तार मानो। इसकी ऊँच-नीच को, आँख-मिचौली को लीला मानो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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