नाहं कालस्य, अहमेव कालम
मैं समय में नहीं हूँ, समय मुझमें है
~ महानारायण उपनिषद्
आचार्य प्रशांत: 'नाहं कालस्य, अहमेव कालम' महानारायण उपनिषद् से है, और उपनिषदों के सुंदरतम और गूढ़तम वक्तव्यों में से है। काल का नहीं हूँ मैं। 'नाहं कालस्य' काल का होने से आशय होता है, काल की लंबी धारा में कोई एक बूंद, कोई एक लहर, कोई एक वस्तु अपनेआप को मान लेना। काल का हो जाना।
हम अपने आसपास जो कुछ भी देखते हैं, वो काल का है। व्यक्ति हैं वो काल से हैं, काल से उठते हैं, काल में ही वापस चले जाते हैं। कोई पेड़, कोई पत्ति यह सब काल के हैं। कभी इनकी उत्पत्ति है, कभी इनकी मृत्यु है। कुछ ऐसा नहीं है जो काल में अनंत हो। तो काल का न होने से आशय है संसार का न होना।
काल की जो धारा है, वो प्रकृति की, संसार की धारा है। और उस धारा में जितने भी हमें विषय दिखाई देते हैं, वो छोटी-छोटी वस्तुएँ मात्र हैं। धारा बहुत बड़ी है। वस्तुएँ छोटी हैं, और वस्तुएँ अनंत हैं। क्यों कह रहे हैं ऋषि ‘काल का नहीं हूँ मैं’? 'नाहं कालस्य' – क्योंकि जो कुछ भी काल का है, वो मिटता है।
जो कुछ भी काल का है वो अपनेआप को किसी क्षण से जन्म लिया मानता है। जो कुछ भी काल का है, वो सीमित है। और आपका मन कुछ ऐसा है जो न सीमाएँ मानता है, और न मृत्यु। कौन है जिसको पसंद हो सीमित रहना? कौन है जिसको मृत्यु भाती है? कौन है जो अपने से बाहर के अज्ञान में प्रसन्न रहता है? और अगर आप काल की धारा में एक छोटी-सी वस्तु मात्र हैं, तो अपने से बाहर जो कुछ है, स्वयं से बाहर का जो अनंत ब्रह्मांड है उसको लेकर के आपमें बड़ी अज्ञता रहेगी, अज्ञान रहेगा, और वो अज्ञान आपको दुखी रखेगा। तो काल में एक वस्तु होने का, काल के समुद्र में एक बूँद होने का दुष्परिणाम यह है कि आप दुखी रहेंगे। और समस्त अध्यात्म इसीलिए है ताकि दुख से मुक्ति पायी जा सके। तो दुख से मुक्ति पाने के लिए सबसे पहले अपने-आपको काल में कोई विषय मानना बंद करना पड़ेगा।
काल नहीं हूँ मैं। मैं वो व्यक्ति नहीं हूँ जिसका एक दिन जन्म हुआ था। मैं वो व्यक्ति नहीं हूँ जिसको उसकी देह परिभाषित करती है। मैं वो व्यक्ति नहीं हूँ जो धीरे-धीरे एक दिन शारीरिक मृत्यु को प्राप्त हो जाएगा। मैं वो व्यक्ति नहीं हूँ – 'नाहं कालस्य' न!
मुझे मेरी देह मत मान लेना। मैं जैसा दिख रहा हूँ उससे ही मेरा अस्तित्व मत नाप लेना, 'नाहं कालस्य'।
तो काल की लहर, काल की बूँद, काल की वस्तु मैं अपने-आपको नहीं कहना चाहता इसका कारण तो एकदम स्पष्ट है। जैसे ही अपनेआप को काल की वस्तु कहा, सीमित हो जाऊँगा, मरणशील हो जाऊँगा, और दुख पाऊँगा।
मिट जाने से बड़ा भय, बड़ा दुख कोई दूसरा नहीं होता। और उसी दुख से बचने के लिए आदमी ज़िंदगी भर कितने तरह के यत्न करता रहता है। और उन सब यत्नों के बाद भी मिटने का दुख, भय जाता नहीं। भीतर कभी यह आश्वस्ति होती नहीं कि अब मिटना नहीं होगा। क्योंकि पता होता है कि जो यत्न किए थे वो सब एक मरणशील केंद्र के इर्द-गिर्द करे थे। मरणशील केंद्र के द्वारा करे थे। मरणशील केंद्र को हटाने के लिए कुछ करा ही नहीं।
तो जब केंद्र मरणशील है, तो मृत्यु तो होगी ही। और मृत्यु का होना बड़ी विचित्र घटना है। बहुत डरा देता है। 'अहमेव कालम' मैं काल हूँ। ‘मैं काल हूँ’, कहने से क्या आशय? मैं ही काल हूँ। ‘मैं काल हूँ’, कहने से अर्थ होता है अपने केंद्र को ही दूसरा घोषित कर देना।
मैं काल का हूँ, तो मैं अहंकार हूँ। और मैं काल ही हूँ, काल मात्र हूँ, पूर्ण काल हूँ, तो मैं आत्मा हूँ। मैं काल का खंड हूँ, तो मैं अहंकार हूँ। और मैं काल मात्र हूँ, मैं पूर्ण काल हूँ, तो मैं आत्मा हूँ।
क्या आशय हुआ यह कहने से कि मैं पूर्ण काल हूँ? आशय यह हुआ कि अहंकार होता है काल की धारा के भीतर, तो वो काल को कभी पहचान नहीं सकता। क्योंकि वो स्वयं ही काल के भीतर एक छोटे से बिंदु समान है। और आत्मा का अर्थ होता है काल का साक्षी हो जाना। काल के पूरे प्रवाह का साक्षी हो जाना, काल से बाहर हो जाना।
जो काल से बाहर हो गया अब वो काल से बद्ध नहीं रहा। वो बंधा नहीं है। वो काल के किसी एक खंड को अपना नहीं कहेगा। वो काल के किसी एक खंड के साथ तादात्म्य नहीं रखेगा। काल का कोई एक खंड, संसार की कोई एक जगह उसके लिए विशेष नहीं हो गई। वो अब दूर से बैठकर के काल को देख सकता है।
और जिसने काल के एक खंड को पूरी तरह पहचान लिया, उसने काल की पूरी धारा को बिलकुल ठीक-ठीक पहचान लिया, क्योंकि काल में कुछ भी नया नहीं होता। आप काल से बाहर हो, एक क्षण में जो घटना घटी है यदि उसको भी पूर्ण रूपेण जान लो, तो अनंत इतिहास में जो कुछ भी हुआ है वो आप सबकुछ जान लोगे। तो काल अब आपके लिए पूरा-का-पूरा खुल गया।
आपको काल का पूर्ण ज्ञान हो गया तो आप अब पूर्ण काल हो गए। आप जिस को जानते हो, आप वो हो जाते हो। आपको पूर्ण काल का यदि ज्ञान है, तो आप पूर्ण काल ही हो गए। 'अहमेव कालम' – मैं वो हूँ जो काल की धारा का साक्षी है। एक अनंत से लेकर दूसरे अनंत तक। जैसे कई अनंत होते हों। मैं देख पा रहा हूँ कि यहाँ सबकुछ एक दोहराव मात्र है। कोई अंत है ही नहीं।
यह एक लगातार नयी प्रतीत होने वाली धारा है, जो वर्तुलाकार घूम रही है। इसमें सबकुछ प्रतीत भर होता है नया। नया वास्तव में कुछ होता नहीं। और मैं कौन हूँ? जिसने यह जान लिया, जिसने यह देख लिया कि एक धारा है – जिसको आप मन की कह सकते हैं, काल की कह सकते हैं, प्रकृति की कह सकते हैं, संसार की कह सकते हैं – वह धारा है, वो एक ही आदिम, प्राचीन, पुरातन धारा है। जो सबको ऐसा अनुभव कराती है जैसे वो उस व्यक्ति के लिए बिलकुल नयी हो। हर आदमी सोचता है, ‘मेरा जन्म हुआ है। मेरा जन्म पहली बार हुआ है। मेरा जन्म खास है। मेरा अस्तित्व कुछ विशेष है। मेरी मृत्यु कुछ विशेष है।‘ जबकि जो आपके साथ हुआ है, वो हज़ारों, सैकड़ों, अरबों, अनंतों बार हो चुका है। कुछ उसमें नया है ही नहीं।
वही क्रिया है जो प्रतिपल हो रही है। पर अहंकार का नशा ही यही है, उसका अज्ञान ही यही है कि उसको लगता है कि खास है। पहली बार हो रही है, ‘क्योंकि मैं विशेष हूँ न। तो मेरे साथ जो हो रहा है वो भी विशेष होगा।‘ पूर्ण काल का दृष्टा हो जाना, माने, अहंकार से आत्मा पर हो जाना। जब आप विशेष नहीं रह जाते, तो काल का कोई खंड विशेष नहीं रहा जाता।
तो जब आप विशेष नहीं रह जाते, जो कुछ हो रहा होता है, आप उससे आसक्त नहीं रह सकते। जो कुछ हो रहा होता है वो अब माया बनकर आपकी आँखों को चकमा नहीं देता। कुछ भी न आपके लिए बड़े सुख का कारण कारण बन सकता है, न ही कुछ आपके लिए बड़े दुख का कारण बन सकता है। क्योंकि कुछ विशेष हो ही नहीं रहा है। जब कुछ विशेष नहीं, तो विशेष सुख कहाँ? कुछ विशेष नहीं तो विशेष दुख कहाँ?
श्रीमद्भगवद्गीता में कहते हैं अर्जुन से श्रीकृष्ण, ‘अर्जुन यहाँ कुछ नया नहीं है। तुम न जाने कितनी बार आ चुके हो। यह राजा हैं, यह सब भी पहले हो चुके हैं। पहले मारे भी जा चुके हैं।‘ बस याद नहीं रहता। हमको लगता है सब नया है। हमको लगता है, हम ही तो इस जगत् के केंद्र हैं। हमको लगता है सब कुछ इर्द-गिर्द हमारे ही घूम रहा है। मैं काल का खंड नहीं हूँ। मैं काल के पूरे वर्तुल का, समुची धारा का साक्षी हूँ। 'अहमेव कालम' 'अहमेव कालम'!