यो देवोऽग्नौ योऽप्सु यो विश्वं भुवनमाविवेश। य ओषधीषु यो वनस्पतिषु तस्मै देवाय नमो नमः।।
जो परमात्मा अग्नि में है, जो जल में है, जो समस्त लोकों में संव्याप्त है, जो औषधियों तथा वनस्पतियों में है, उस परमात्मा के लिए नमस्कार है।
~ श्वेताश्वतर उपनिषद (अध्याय २, श्लोक १७)
आचार्य प्रशांत: माने क्या? तुम, तुम हो तो आग, आग है। आग किसके लिए आग है? शरीर के लिए। तो तुम, तुम हो तो आग, आग है। आग कब तक आग है? जब तक तुम, तुम हो। और अगर तुम्हें तुम ही रहना है, तो आग को आग रहना होगा। आग अगर आग नहीं है तो तुम्हारे लिए बहुत खतरा हो गया। आग जब तक आग है तब तक तुम्हारा सिर्फ़ शरीर जलाती है, लेकिन आग जब आग नहीं रह गई तो वो तुम्हारे अस्तित्व को जला देगी।
उपनिषद् तुम्हारे अस्तित्व को जला रहे हैं, वो कह रहे हैं, आग, आग नहीं है, आग ब्रह्म है। तुम चिल्ला-चिल्ला कर कहना चाहोगे 'नहीं, आग, आग है; आग, आग है।' जब तक आग, आग है, बहुत शीतल है। आग, आग है तो शीतल है क्योंकि हमें सिर्फ़ बाहर से जलाती है। पर आपने अगर देख लिया कि आग, आग नहीं है, आग ब्रह्म है, तो हम भीतर से ही भस्म हो गए; हम बचे ही नहीं अब।
तुम्हें जो कुछ प्रतीत हो रहा है उसकी सत्ता को स्वीकृति देना तुम्हारी सत्ता को स्वीकृति देने के बराबर है। तुम्हें जो कुछ लग रहा है, अगर वो प्रमाणित हो गया कि सही है, तो फिर तुम भी सही हो। तुम ग़लत हो, सीधे-सीधे तुम्हारे मुँह पर बोल दिया तो तुम भाग जाओगे। तो बात को थोड़ा उलट कर कहा जा रहा है कि, 'बेटा जिसको तुम आग कह रहे हो वो आग नहीं है, वो ब्रह्म है।'
अगर आग ब्रह्म है तो तुम राघव (पास में बैठे हुए एक प्रश्नकर्ता) नहीं हो सकते क्योंकि राघव तो आग के साथ-साथ चलता है। राघव को क्या दिख रही है? आग। अब अगर आग ब्रह्म हो गई तो राघव थोड़े ही बचेगा, राघव को भी ब्रह्म होना पड़ेगा। तो बहुत जान लगाकर बोलेगा, "नहीं, आग है।" तो कोई आकर के समझाएगा, "नहीं, बेटा ब्रह्म है", तो फिर राघव तरक़ीब क्या निकालेगा? वो एक चित्र बनाएगा जिसमें आग की लपटों के बीच में ब्रह्म बैठा है, कहेगा, "देखो, आग में ब्रह्म है।" माने आग तो है ही, उसके बीच में ब्रह्म को बैठा देगा। कुल उद्देश्य ये था कि अहंकार अपने प्रति अपने विश्वास से बाज आए। वो उद्देश्य पूरा नहीं हुआ।
वैसे ही परमात्मा अग्नि में है, जल में है, समस्त लोकों में है, औषधियों में है, वनस्पतियों में है। औषधि, औषधि नहीं है, तुम्हें लग रहा है। वनस्पति फूल-पत्ते वनस्पति नहीं हैं, तुम्हें लग रहा है बस। ये दुनिया ही वो नहीं है जो तुम्हें लग रही है लेकिन तुम्हें पूरा भरोसा है कि दुनिया है। दुनिया पर जो भरोसा है, अगर देखोगे तो वो वास्तव में हमारा अपने वजूद पर भरोसा है। और हमारा वजूद कैसा है? बहुत पीड़ा में है।
तो अगर तुम दुनिया के वजूद पर भरोसा कर रहे हो और अपने वजूद पर भरोसा कर रहे हो, और अगर अपने वजूद पर भरोसा कर रहे हो तो तुम अपनी पीड़ा को स्थाई बना रहे हो, क्योंकि दुनिया अगर वही है जो तुम्हें दिख रही है तो फिर ज़िन्दगी बड़ी कष्टप्रद रहेगी। दुनिया वैसी ही है जैसी दिख रही है तो तुम भी वैसे ही हो जैसा तुम मानते हो; और तुम जैसे हो उसमें तुम जानते ही हो कि कितना क्लेश है, कितना संताप है।
दुनिया को नकारना इसलिए आवश्यक है क्योंकि सम्पूर्ण वैदिक साहित्य का उद्देश्य है दुःख से मुक्ति। अहंकार को सम्बोधित किया गया है, अहंकार का उपचार करना है, तापत्रय का शमन करना है। जब बहुत परेशान हो जाओ और इतनी हिम्मत ना हो कि ये देख पाओ कि भीतर झूठ कहाँ बैठा है, तो शुरुआत दुनिया से कर लो। यही देख लो कि 'दुनिया वैसी बिलकुल नहीं है जैसी मैं सोचता हूँ'। इसीलिए तो मैं बार-बार कहा करता हूँ कि, भाई, सत्य की बात बाद में करना, पहले तथ्यों की बात कर लो, और तथ्य सब दुनिया में हैं। दुनिया क्या वाकई वैसी है जैसी तुम्हें लगती है? जाओ तो, खोज-बीन करो। तुम्हारी हस्ती दुनिया की तुम्हारी धारणा पर आधारित है, और यदि दुनिया की तुम्हारी धारणा झूठी है तो तुम्हारी हस्ती को या तो मिटना पड़ेगा या बदलना पड़ेगा। तुम्हारी हस्ती तुम्हें बहुत दुःख देती हो तो याद रखना दुःख तो अनावश्यक ही होता है। इसका मतलब है कि तुमने दुनिया के बारे में कोई झूठी छवि बना रखी है। जाओ दुनिया को ठीक से देखो, वो सब बातें जिन्हें तुम सच मानते हो उनको थोड़ा चुनौती दो। जाँचो, परखो, थोड़ा कड़े सवाल पूछो, दूसरों से भी, ख़ुद से भी। असुविधा खड़ी होने दो, दूसरों के लिए भी, अपने लिए भी। कुछ राज़ खुलेंगे, और जितने राज़ों से पर्दा उठता जाएगा उतना तुम्हारा दुःख घटता जाएगा।
ये सूत्र, ये सम्बन्ध समझ पा रहे हो? तुम दुखी हो नहीं सकते, तुम दुर्बल हो नहीं सकते जब तक दुनिया के बारे में तुम्हारा जो मानना है, जो मान्यता, जो धारणा, जो विश्वास है वो झूठा ना हो। क्यों? क्योंकि दुःख झूठा है न, स्वभाव तुम्हारा दुःख है ही नहीं।
अगर स्वभाव दुःख होता तो सबसे ज़्यादा दुःख तुम्हें कब होता? जब मन शांत हो रहा होता। सबसे ज़्यादा दुखी तुम सोते वक़्त होते। अगर तुम्हारा स्वभाव दुःख होता तो नींद जितना गहराती, तुम्हारा दुःख उतना बढ़ता जाता। स्वभाव तो दुःख नहीं है लेकिन फिर भी तुम दुःख में हो, इसका मतलब कहीं कुछ गड़बड़ झाला है। ज़रूर तुम कुछ ऐसा मान रहे हो जो बात ठीक नहीं है, ज़रूर दुनिया के बारे में तुमने कुछ विश्वास कर रखा है जो विश्वास बिलकुल ग़लत है। टटोलो तो सही, कोई चीज़ खोखली पता चलेगी। परीक्षण तो करो कहीं ये हीरे-मोती साधारण पत्थर तो नहीं हैं।
संक्षेप में बहुत दूर की बात कह दी जाती है इसीलिए श्लोकों को सूत्र भी कहा जाता है। सूत्रता माने संक्षिप्तता और सूत्रता माने वो धागा भी कि जिसको पकड़ कर चलो तो बहुत आगे तक पहुँच जाओ।