न शरीर को मालिक बना लेना, न समाज को || आचार्य प्रशांत (2023)

Acharya Prashant

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न शरीर को मालिक बना लेना, न समाज को || आचार्य प्रशांत (2023)

प्रश्नकर्ता: अब मेरा रोज़ का देखना होता है कि मेरे पीछे कोई बल है, कोई फोर्स है जो मुझे संचालित करता है। जैसे मैं सुबह उठा और मैं ऑफ़िस की तरफ़ चल दिया। बैग लिया और चल दिया। तो एक डर है पीछे जो मुझे उधर जाने के लिए विवश करता है, क्योंकि मेरा वहाँ जाने का इच्छा नहीं रहता है, कहीं पर। और मैं देखता हूँ कि हर एक चीज़ में, छोटी-छोटी गतिविधि में मैं डरा हुआ रहता हूँ। अगर मैं डरा न हूँ तो मैं वो काम नहीं करूँगा।

आचार्य प्रशांत: देखो, जिन वजहों से तुम अपने ऑफ़िस को भाग रहे हो, जो ज़िम्मेदारियाँ और कर्तव्य तुम उठा रहे हो, थोड़ा ग़ौर करके देखना पड़ेगा कि वो सचमुच तुम्हारे कर्तव्य हैं भी कि नहीं। कर्तव्य माने ये निर्णय कि फ़लाना काम मेरे लिए करना ज़रूरी है। कर्तव्य माने ये फ़ैसला कि ये काम मुझे करना चाहिए, इसको कर्तव्य कहते हैं। फ़ैसला सही लिया है क्या?

तुम्हें कैसे पता कि जो काम तुम अपने लिए ज़रूरी समझ रहे हो, वो सचमुच ज़रूरी है? हम हर छोटी-छोटी चीज़ पर ज़िन्दगी में सम्भव है कि विश्लेषण कर जाऍं, लेकिन जो ज़िन्दगी के सबसे मूलभूत मुद्दे होते हैं उनका तो हम कभी परीक्षण, विश्लेषण करते ही नहीं। उनको तो हम मानते हैं, ‘ये तो है ही ऐसा!’ तुम्हें कैसे पता कि ये है ही ऐसा?

और अगर तुमने जो सबसे मूलभूत मुद्दे हैं, उनको ही बिना परखे बस मान लिया है तो अब बाक़ी छोटी-मोटी चीज़ों में बहुत परखने-खोजने से क्या मिलेगा तुम्हें? क्या मिलेगा? जिन बातों को तुम कह देते हो न, ‘पर ऐसा तो करना होता ही है’, वही बातें होती हैं जहाँ तुम्हारे बड़े-से-बड़े बन्धन होते हैं। उन्हीं बन्धनों से फिर डर आता है और पचास और चीज़ें हैं। क्यों स्वीकार कर रहे हो कि ऐसा तो करना होता ही है?

सबसे ज़्यादा ज़िन्दगी में मौज उनकी रहती है जो कुछ ऐसे काम नहीं करते जो करने होते ही हैं। सोचकर देखना! कुछ ऐसे काम जो करने होते ही हैं, उनको तुम न करो, फिर देखो ज़िन्दगी कैसी मस्त हो जाती है। पर हम कर्तव्य रूप में पकड़ लेते हैं। हम कहते हैं, ‘पर ये तो करना है ही, ये तो करना है ही!’ क्यों करना है, वो हमने कभी नहीं पूछा। बाक़ी सब दो कौड़ी की बातें हम दिन-रात पूछते हैं। पेनी वाइज़ पाउंड फूलिश , सब छोटी-छोटी बातों में हम बड़े चतुर हैं, लेकिन जो एकदम मूल बातें हैं ज़िन्दगी की, वहाँ हम अन्धानुकरण करते हैं।

कोई सवाल नहीं है हमारे पास, ‘पर क्यों? ये क्यों करना है?’

'वो तो कर्तव्य है, वो तो करना ही होता है न। सब करते हैं तो मैं भी करूँगा!'

'पर क्यों?'

और वो बिलकुल बुनियादी बातें होती हैं और सबसे बड़ी बातें होती हैं। तुमने अगर वहाँ ग़लती कर दी है तो उसके बाद अब छोटे-छोटे त्रुटि सुधार से कुछ नहीं होता। ये ऐसी सी बात है कि कोई संख्या हो दस अंकों की, और उसके पहले ही अंक में तुम ग़लती कर आये हो और सुधारने की किसको कोशिश कर रहे हो? वो आख़िरी वाले आठवें-नौवें-दसवें नम्बर पर जो हैं उनको बढ़ाने की कोशिश कर रहे हो। और जो शुरू में था उसको तुम शून्य कर आये हो। और फिर कहो कि ज़िन्दगी अब बिलकुल एकदम बेकार हो गयी है, बोझ हो गयी है। तुमसे किसने कहा था कि वो जो मूल चीज़ें हैं उनको बिना विचारे अपना कर्तव्य बना लो?

मैं नहीं समझ पा रहा, तुम मेरे सामने हो, हट्टे-कट्टे हो, पढ़े-लिखे हो, तुम कह रहे हो, 'ज़िन्दगी डर में बीतती है, ऑफ़िस जाता हूँ, ये करता हूँ।' क्यों जाते हो, मत जाओ! क्या समस्या है? बीमार तो हो नहीं! खाने-पीने को भी पा जाओगे। भारत में अब इतनी बदहाली तो रही नहीं।

इसलिए कर्तव्य का मुद्दा बड़े विचार का होता है। शरीर की बातों को अपना कर्तव्य नहीं बना लेते। समाज की बातों को भी अपना कर्तव्य नहीं बना लेते। शरीर उबाल मार रहा है किसी दिशा में, किसी वजह से; ये शरीर का उबाल है, तुम्हारा कर्तव्य नहीं बन गया। समाज दबाव बना रहा है तुम्हारे ऊपर पचास चीज़ों के लिए; वो समाज की बात है, तुम्हारा कर्तव्य नहीं बन गया। और जिसने अपने लिए ग़लत कर्तव्य चुन लिया उसे अब कौन बचाएगा! कर्तव्य सबकुछ है। धर्म भी कर्तव्य ही होता है, क्या करने लायक़ है। जिसने वही ग़लत चुन लिया उसने तो जीवन ही ग़लत चुन लिया।

लोग इतने ज़्यादा कर्तव्यबद्ध होते हैं कि वो ये तो कल्पना कर ही नहीं सकते कि वो उन कर्तव्यों से स्वयं कभी मुक्त होंगे, वो ये कल्पना भी नहीं कर पाते कि कोई और भी हो सकता है जो उनसे मुक्त हो। अब कोई विडियो जाता है हमारा, वो मान लो बच्चों के ऊपर है, कि बच्चों की कैसी परवरिश हो या कोई भी और मुद्दा बच्चों से सम्बन्धित। तो उस पर नीचे ऐसे कमेंट आएगा, ‘क्या यही बात आप अपने बच्चों से कह सकते हैं?’ उसको ये बात कल्पना में भी नहीं आ रही है कि कोई ऐसा हो सकता है जिसके बच्चे न हों। उसको ये तो पक्का ही है कि बच्चे करना उसका कर्तव्य है, उसको ये भी पक्का है कि बच्चे करना मेरा भी कर्तव्य है, तो मेरे भी होंगे।

कर लो कर्तव्य, तुम बना लो कर्तव्य, उसके बात कहो कि अब ज़िन्दगी डर में बीत रही है तो मैं क्या करूँ? मेरी तो नहीं बीत रही। और कोई बड़ा मुद्दा है नहीं, यही मुद्दे हैं।

प्र: आचार्य जी, आचार्य जी।

आचार्य: मैं यहीं हूँ।

प्र: आप हैं न लेकिन? (भावुक स्वर में पूछते हुए)

आचार्य: अरे! मेरे होने से क्या हो गया, चला तो तुम अपनी ही रहे हो न! तुम कह रहे हो कि मुझे चुनाव से डर लगता है, मैं कहता हूँ कि चुनाव में तो कर्ता भाव होता है, तो मेरे चुनाव आप करेंगे।

जो चुनाव तुम्हारी ज़िन्दगी को बोझ बना रहे हैं, वो मैंने करे थे या तुमने करे थे? इसके पहले कि इल्ज़ाम आये मैं कहे देता हूँ कि मैंने नहीं करे थे। तो मैं कहाँ से आ गया? तुम कह रहे हो तुम्हें चुनाव करने से डर लगता है और उल्टे-पुल्टे सारे चुनाव तुम ख़ुद ही करके बैठे हुए हो। अन्धे मत हो जाया करो, पूछा करो चीजों को, समझो!

पिताजी ने बुलाया एक दिन सुबह-सुबह नाश्ते पर और बड़े गम्भीर स्वर में बोले, और तुम हो पच्चीस-सताईस साल के, छोटी बहन है बीस साल की, (पिताजी की गम्भीर आवाज़ में) ‘वो बिन्दिया बड़ी हो गयी है, उसके ब्याह का कुछ देखना पड़ेगा।’ और उन्होंने इतनी गम्भीरता से बोला कि तुमको लगा कि बात सही ही होगी, नहीं तो ये आदमी किसी मूर्खता की बात में इतना गम्भीर कैसे हो जाता। तो तुमको लगा ये बात सही ही होगी, तो तुम्हारा कर्तव्य बन गया बिन्दिया की शादी कराना। अब भुगतो! बिन्दिया का दहेज इकट्ठा कर रहे हैं, बिन्दिया का कॉलेज छुड़ा रहे हो। वो बीस साल की है, इक्कीस साल का होते-होते अम्मा बन गयी बिन्दिया।

जब पिताजी बुला तो ये मत देखो कि उनकी कितनी गम्भीर आवाज है, 'बिन्दिया की शादी।' थम जाओ न! ये तुम्हारा या मेरा कर्तव्य कैसे हो गया, ये तो बता दो। बिन्दिया वोट देगी तो तुमसे-मुझसे पूछकर नहीं देगी, बल्कि ग़ैर-कानूनी होता है अगर जब वो वोट दे रही हो तो हम जाकर उसका बटन दबायें। बिन्दिया को अगर ड्राइविंग लाइसेंस मिलना होगा तो उसकी टेस्टिंग होगी, तुम्हारी-हमारी नहीं होगी, न बाप की, न भाई की। बिंदिया मरेगी तो साथ में न बाप मरेगा, न भाई मरेगा। तो ये तुम्हारा-हमारा कर्तव्य कैसे हो गया?

‘अब बिन्दिया बड़ी हो रही है, हमें कुछ देखना पड़ेगा।’ (गम्भीर आवाज़ में बोलते हुए) और एकदम भाई ऐसा हो गया, गुरु गम्भीर ज़िम्मेदारी वाला। क्या कर रहा है? ‘आजकल बहन की शादी का कर्तव्य है।’ मत स्वीकार करो कर्तव्य! कहला लो र-ज़िम्मेदार। यही बोलेंगे न लोग, ‘इररिस्पॉन्सिबल है देखो!' तुम्हारा सारा डर, तुम्हारे रिस्पॉन्सिबिलिटीज़ (कर्तव्य) से आ रहा है। और वो तुमने मुझसे पूछकर नहीं चुनी थी।

प्र: आचार्य जी, सारी ज़िम्मेदारी मेरी हुई?

आचार्य: नहीं तो ऑफ़िस परेशान करता है तो लात मार दो ऑफ़िस को, ख़त्म करो! लात क्यों नहीं मार पा रहे हो?

प्र: उसमें आचार्य जी दो चीज़ है। एक तो ये है कि आप जैसे सीधे कह देते हैं कि ये तुमने किये थे उल्टे-पुल्टे चुनाव, ठीक है। लेकिन आचार्य जी आपसे ही सीखे भी हैं। दूसरा आप देख भी रहे हैं कि एक तो कहीं-न-कहीं एक पार्ट आता है, जैसे कामवासना को लेकर आप कहते हैं, वो दिखता है कि वो है और एक उसका भी फोर्स है। दूसरा ये देखते हैं कि जितने भी चीज़ हैं तो मैंने चुनाव कहाँ पर किया? कितना सचेत स्तर पर किया? हाँ, उसका भोग किया, लेकिन मुझे आगे जीना है। लेकिन मैं मरना भी नहीं चाहता, एक जीवेषणा भी है।

आचार्य: तुम कामवासना के कारण थोड़े ही मर रहे हो? कामवासना तो पल-दो-पल की होती है, उसके कारण थोड़े ही कोई मरता है। कामवासना कर्तव्य बनती ही नहीं है। तुम सिर्फ़ अपनी कामवासना पूरी कर लेते, तो भी बहुत बदहाली न होती। कोई व्यक्ति अपनी कामवासना के ही पीछे भाग रहा है, ये बुरी बात है, लेकिन ये भी एक तल की ही बुरी बात है। तुम उस कामवासना को इंस्टीट्यूशनलाइज़ करने निकल पड़े हो, उसको अपना कर्तव्य समझकर। अब कोई क्या करेगा!

सवाल पूछना पड़ता है। और अभी भी कुछ बिगड़ नहीं गया, अभी भी पूछोगे तो आगे के झंझटों से मुक्त रहोगे।

'मैं ये क्यों करूँ?'

'सब करते हैं।'

'तो? मैं ये क्यों करूँ? मैं क्यों करूँ?'

इतना समझाया है न कृष्ण ने, “दूसरे का धर्म भयावह होता है और अपने धर्म में निधन भी श्रेय होता है।” दूसरे की बतायी हुई चीज़ मैं क्यों करूँ? “पर धर्मो भयावह”, इसका यही मतलब है दूसरे ने जो बात बता दी वो तुम करने लगे उसको अपना कर्तव्य बनाकर के, यही तो भयानक बात है। और जो चीज़ स्वयं करनी चाहिए वो करने में अगर मुसीबतें भी आयें, मौत भी आये तो भी बढ़िया है, “स्वधर्मे निधनं श्रेयः।” यहाँ तो दूसरे ने बता दिया ये कर लो, वो कर लिया। अब फिर उसमें डर तो मिलेगा ही।

'क्यों करना है?'

'सब करते हैं। सब करते हैं तो मैं भी करूँगा।’

दस्त लगे हुए थे बढ़िया! धार बह रही है; सुबह-सुबह होटल में ब्रेकफास्ट मुफ़्त मिलता है और सब दनादन-दनादन खींच रहे हैं। मुफ़्त का है, काहे न खींचें? पूरा बुफे सजा हुआ है। और भाई को है डायरिया! खुली टोटी का नल। और सब खा रहे हैं तो मैं भी खाऊँगा। और फिर ये कहो कि क्या बताऍं, एकदम बर्बाद हो गये, डीहाइड्रेशन हो गया, एडमिट होना पड़ा। तुम ये देखो न तुम्हारे लिए क्या सही है? दूसरे के धर्म का पालन क्यों कर रहे हो? दूसरे सब करते हों तो करें, मैं कैसे कर सकता हूँ? सिर्फ़ इसलिए कि दूसरे कर रहे हैं, वो चीज़ मेरे लिए नुक़सानदेह है, सबके लिए होगी अच्छी, मेरे लिए नहीं अच्छी है।

और ये तभी पता चल सकता है जब आत्मज्ञान हो। मेरे लिए क्या अच्छा है, क्या बुरा है तभी तो पता चलेगा न जब पहले यह पता हो कि मैं हूँ कौन? मुझे यही नहीं पता, ‘मैं कौन हूँ?’ तो मुझे क्या पता कि मुझे करना क्या चाहिए, अच्छा क्या है? ‘सबके पास फ़लानी चीज़ है, मेरे पास नहीं है, मुझे भी चाहिए।’ तू करेगा क्या उसका? ‘सबके पास घर है मेरे पास भी घर होना चाहिए।’ क्या करेगा? घर माने क्या? करेगा क्या उसका? ‘नहीं, मेरे पास भी होना चाहिए।’ तू करेगा क्या उसका? ‘नहीं मेरे पास भी होना चाहिए (जिद्द की भाषा में)।’ तू करेगा क्या उसका? ‘नहीं सबके पास है।’ ये क्या तर्क है? क्यों? तेरे पास घर है, ‘वो किराये का है।’ तो? छत नहीं है उसमें? दरवाज़ा नहीं है? फर्श नहीं है? ‘नहीं, सबके पास है मेरे पास भी होना चाहिए।’

ये हमारा आन्तरिक संवाद होता है, बस ऐसे ही। क्यों चाहिए? ‘क्योंकि उसके पास है।’ क्यों किया? ‘क्योंकि उसने भी किया।’ क्यों किया? ‘क्योंकि उसने कह दिया।’ तुम कौन हो उस हिसाब से अपना धर्म देखो न! आत्मज्ञानी को नहीं शोभा देता संसारी पचड़ों में बेवकूफ़ बनना। आत्मज्ञानी जाकर के संसार के पचड़ों में फॅंसे, अपनी दुर्दशा कराये, अपना अपमान कराये, दुख पाये; ये शोभा की बात नहीं है। और एक चीज़ और अच्छे से समझना; संसारी, संसार में फॅंसा हुआ रहे, और चक्की पीसता रहे, उसे कम दुख होगा; पर ज्ञानी संसार में जाए और फॅंसे और चक्की पीसे उसकी महान दुर्दशा होगी। तो अगर ज्ञान कुछ मिलने लगा है तो उसके साथ इंसाफ भी करो! ज्ञान अगर उठने लगा है तो उस ज्ञान को जियो भी, नहीं तो बड़ी दुर्दशा होती है।

संसारियों के बीच में जब ज्ञानी फँसता है न, क्योंकि उसे अपने कर्तव्य का कुछ पता नहीं तो ज्ञानी होने के बाद भी संसारियों के बीच घुस गया जाकर के। ज्ञानी जब ऐसे फँसता है संसारियों के बीच, भयानक दुख पाता है। मैं पूर्ण ज्ञानी की बात नहीं कर रहा, मैं कह रहा हूँ थोड़ा भी अगर तुम्हें ज्ञान हो गया है और जाकर के वही सब करने लग गये तुम, जो आम संसारी करता है तो संसारी को जितना दुख मिलता है तुम्हें उससे सौ गुना मिलेगा। अपना धर्म याद रखो तुम अलग हो, वो अलग हैं। तुम्हें उनके धर्म का पालन करने की कोई ज़रूरत नहीं। ठीक वैसे, जैसे वो तुम्हारे धर्म का पालन नहीं करते। लेकिन ये सदा की रीत रही है — संसारी अपना धर्म नहीं छोड़ता, अगर उसे धर्म बोल सकें तो। जो भी है उसका, कृत्रिम कर्तव्य कह लो उसको; अभी मैं उसको धर्म कह देता हूँ। संसारी अपना धर्म नहीं छोड़ता।

तुम भजन गा रहे होगे, दस ज्ञानी मिलकर के भजन गा रहे होंगे। संसारी आकर के उसमें नहीं बैठ जाएगा। संसार कहेगा, ‘पता नहीं क्या, मुझे क्या लेना देना!’ दस ज्ञानी मिलकर के अष्टावक्र पर चर्चा कर रहे होंगे, संसारी आकर के उसमें नहीं बैठ जाएगा, लेकिन संसारी अपने घर में शगुन के गीत गा रहे होंगे तो ज्ञानी भी लपक पड़ता है, मैं भी तो सम्मिलित हो जाऊँ, और फिर बड़ा अपमान पाता है। जब वो तुम्हारे भजनों में शामिल होने नहीं आते, तो तुम उनके विवाह संगीत में शामिल होने क्यों पहुँच जाते हो? तुम्हारा वो कर्तव्य कैसे बचा, बताओ? उनको अपने कर्तव्य का पता है, उन्हें पता है उन्हें क्या करना है, तुम्हें तुम्हारा कर्तव्य क्यों नहीं पता है?

सोचकर देखो। ये जो भी हम चर्चा कर रहे हैं, इसमें आप आम संसारियों को यहाँ पर लाकर देखो, देखो! क्या होता है। जो हमारे ही घर वाले हैं, उनको ही सोच लो यहाँ बैठे हों तो क्या होगा; ये जो बातचीत चल रही है? दो-चार मिनट हक्के-बक्के होकर इधर-उधर देखेंगे, फिर धीरे-धीरे करके रेंगते हुए बाहर निकल जाऍंगे। उनको पता है कि ये जगह उनकी नहीं है, और ये काम भी उनका नहीं है। वो अपने धर्म का पालन करेंगे और बाहर निकल जाऍंगे। तुम क्यों कूद-कूदकर उनके कार्यक्रमों में शामिल होने पहुँच जाते हो और फिर वहाँ पर अपमान पाते हो, धोखा पाते हो, दुख पाते हो? बोलो! यही परधर्म है। तुम दूसरे का कर्तव्य निभा रहे हो। दूसरे का कर्तव्य निभाकर तुम्हें? बोलो! क्या मिलेगा? तुम्हें क्या मिलेगा?

अब सुबह-सुबह उठकर के गये नीचे, बेसमेंट पार्किंग थी और बहुत सारी गाड़ियाँ खड़ी थी; पाँच-सात गाड़ियाँ धो दीं दबाकर। किसकी? दूसरो की, अपनी नहीं। तुम्हें क्या मिला? और पकड़े और गये दूसरों कि गाड़ियाँ धोते हुए। वो बोले, ‘चोर-चोर, गाड़ी छू रहा है हमारी। खरोंच भी मार दी, मुआवज़ा दो!’ हर तरफ़ से मारे गये। अपनी पहले ही धूल में खड़ी है गाड़ी, दूसरे की गाड़ी छूकर अपमान भी पाया, मुआवज़ा भी दिया। सारा खेल यही है।

“बोधोऽहं प्रकृते: पर:” पराये को पराया जानना सीखो! वही ‘पर’ शब्द आता है, “प्रकृते: पर:” में भी, और परधर्म में भी। ‘पर!’, जो तुम्हारा नहीं है उसको अपना क्यों बनाते हो? दूसरे को अपना बनाकर के तुम अपने को गँवा देते हो। अब जो हो गया सो हो गया; “बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि लेय।” समझे बात को? बहुत ध्यान के साथ अपने कर्तव्यों का निर्धारण करो! जितना कर्तव्य मुक्त रहोगे, जीवन में डर उतना कम रहेगा। यही सूत्र है। चलिए, आगे बढ़िए!

प्र२: प्रणाम आचार्य जी, मैं आपको लगभग चार साल से सुन रहा हूँ; मेरा एक बेटा है, सारी चिन्ता उसी के बारे में रहती है क्योंकि वो कहीं फॅंस न जाए, उसको कैसे इन सब चीजों से बचाऍं? क्योंकि सबकुछ; जैसे हम सबसे ज़्यादा प्रेम उसी से करते हैं तो नहीं चाहते हैं कि वो कहीं फॅंस जाए। अगर इंस्टीट्यूशन ऑफ मैरेज वगैरह में वो शादी करना चाहता है तो उसे रोकना भी..

आचार्य: क्या करना चाहता है?

प्र: मान लीजिए वो शादी करना चाहता है। मान लीजिए मेरे फ्रेंड का बेटा या मेरे परिवार में किसी का बेटा है या कोई है, तो हम उसे समझा रहे हैं, लेकिन वो करना भी चाहता है तो उसे रोकना ग़लत है क्या? या फिर समझाया जा सकता है?

आचार्य: वो तभी करना चाहेगा न, जब वो घर में देखेगा कि क्या माहौल है, क्या बढ़िया चीज़ है, सब लोग कैसे-कैसे हैं… तभी तो करना चाहेगा न, ऐसे थोड़े ही करना चाहेगा, ये कोई मानने की बात थोड़े ही है! और अभी वो कितने साल का है?

प्र: नहीं, अभी तो छोटा है, लेकिन मुझे लगता है कि अगर वो ऐसे ही निकल गया; और ये सब चीज़ें देखेगा तो फिर वो वैसे ही करने लगेगा।

आचार्य: सबसे ज़्यादा तो वो आपको देख रहा है न, और सब चीज़ें तो बाद में देख रहा है।

प्र: तो मैं तो सर, मैं तो आपका विडियो सुनता रहता हूँ।

आचार्य: प्रश्न ये नहीं है कि आप मुझे सुन रहे हैं कि नहीं, प्रश्न ये है कि आपकी हस्ती कैसी है? नहीं तो ये भी मैंने देखा है कई बार कि घरों में पिता मुझे सुन रहे होते हैं, इसी कारण बच्चों को मुझसे नफ़रत हो जाती है। और ये बिलकुल अनुभव से बता रहा हूँ। घर के सारे बच्चे मुझसे नफ़रत करते हैं, क्योंकि पिता मुझे सुनता है। वो कहते हैं कि ये जिस तरीक़े के हैं, इनको बाबा जी ने ऐसा बना दिया होगा।

आप अपने पर ध्यान दीजिए। बच्चा अभी बहुत छोटा है, आप उसके भविष्य की इतनी चिन्ता क्यों कर रहे हैं? और आप भविष्य की इतनी चिन्ता कर रहे हैं इसी से पता चल रहा है कि अभी आपके साथ मामला कुछ ठीक है नहीं।

प्र: नहीं-नहीं। अब जैसे घर पर माँ-बाप हैं, दादा-दादी हैं तो वो पूरी तैयारी रखते हैं कि बच्चा आगे शादी भी करे, सबकुछ; बच्चे भी आगे करे। मेरा एक ही बच्चा है; जैसे आपने कहा, एक ही बच्चा होना चाहिए। क्योंकि हमें पता है क्लाइमेट चेंज वगैरह बहुत ज़्यादा प्रॉब्लम्स हैं। अब आगे हम चाहते हैं कि वो ऐसी चीज़ों में न पड़े। लेकिन और जो फैमिली के दादा-दादी वगैरह हैं, वो इस तरीक़े से संस्कारित करना चाहते हैं कि वो इन सब चीज़ों में पड़े।

आचार्य: अगर इस तरीक़े के दादा-दादी हों तो कोई फ़र्क नहीं पड़ता कि उनकी उम्र क्या है, और बाक़ी चीज़ें क्या हैं। जो बिलकुल ठोस जवाब है वो ये है कि उनको कोई अधिकार नहीं दिया जाना चाहिए बच्चे को छूने का। सिर्फ़ इस नाते कि वो दादा कहला रहा है, वो दादी कहला रही है उसको बच्चे के ऊपर अधिकार नहीं मिल जाता है। अच्छा दादा-दादी को कोविड हो तो उनकी गोद में आप बच्चा दे दोगे? नहीं देंगे न? हाँ, तो बस वैसे ही है। अगर इस तरीक़े के दादा-दादी हों तो उन्हें ये हक़ भी नहीं है कि वो बच्चे को स्पर्श भी करें।

प्र: तो अगर दादा-दादी ऐसे हैं कि उन्हें फ़र्क नहीं पड़ता। अगर वो शादी कर भी ले, न भी करे तो..?

आचार्य: आप कितने साल के बच्चे की बात कर रहे हैं? शादी इतनी क्यों महत्वपूर्ण हो गयी?

प्र: नहीं सर, मैं जैसे मेरा बच्चा छोटा है मगर फैमिली में और भी लोग हैं जिनके बच्चे थोड़े बड़े हो गये हैं। उनकी उम्र बाईस साल की, तेईस साल की है। तो उनको अगर मैं समझाता हूँ कि इन चीज़ों मतलब कम पड़ो। जैसे मेरे मामा के बच्चे बड़े-बड़े हैं, चाचा के बच्चे बड़े-बड़े हैं तो उनको समझाना मुश्किल हो जाता है। तो उस चीज़ में?

आचार्य: भुगतने दीजिए। आप काहे परेशान हैं? करें शादी! क्या समस्या है? दुनिया में कुछ लोग तो चाहिए न जो आबादी भी बनाकर रखें। हमारी तरफ़ एक कहावत है कि सब कुत्ते बनारस चले जाऍंगे तो दोना कौन चाटेगा! भई! सब लोग ब्रह्मज्ञानी ही हो जाऍंगे, तो ये सब जो जीवन के साधारण काम होते हैं ये सब कौन करेगा? ये सब करने वाले भी तो लोग चाहिए न? सबको नहीं उम्मीद रखनी चाहिए कि सबको बिलकुल जो आख़िरी अमृत है वो मिल ही जाना है। नहीं मिलना सबको।

प्र: मतलब सर, ऐसा लगता है कि जैसे उनके तीन बच्चे हैं, तो लगता है एक-दो बच्चे न भी शादी करें तो चलेगा। एक ही अगर..

आचार्य: ये आप थोड़ी ही तय कर लोगे। वो बाईस-चौबीस साल के हैं, वो तो अपनी ज़िन्दगी को देखेंगे न; आप क्यों इतना परेशान हो रहे हो? आप जितना बता सकते थे बता दिया, बाईस-चौबीस साल अच्छी-ख़ासी वयस्क उम्र होती है, अब उसको नहीं समझना तो नहीं समझेगा। वो है क्या यहाँ अष्टावक्र गीता में हमारे साथ?

प्र: नहीं सर, वो आपके विडियो वगैरह भेजता रहता हूँ, बस उतना ही देखते रहते हैं।

आचार्य: हाँ, तो वो वही लोग हैं फिर जो ब्लॉक होते हैं। आप विडियो भेजते हो, वो उसमें गाली लिखते हैं, फिर एक पूरी टीम लगी हुई है उन्हें ब्लॉक करने के लिए।

प्र: नहीं, मतलब वो उस चीज़ को ज़्यादा महत्व देते हैं आपकी बात से…

आचार्य: किस चीज़ को?

प्र: जैसे कि शादी करनी है, बच्चे भी करने हैं। मतलब वो फैमिली वगैरह चलाना है और..

आचार्य: वो तो सभी लोग ऐसा करते हैं, मैं क्या करूँ इसमें? आप क्यों परेशान हो रहे हो? अब वो नहीं समझ रहे तो वो जानें, वो एडल्ट लोग हैं भाई! वो अपनी ज़िन्दगी देखेंगे। आप कोई ऐसा थोड़ी करोगे कि उनको आप बाॅंधकर रख लोगे, या कुछ और उनका कर डालोगे कि अब शादी के क़ाबिल ही न रहें, ये सब। हमें क्या है? आप अपना काम करिए, “मा फलेषु कदाचन”। हमें, कर्म फल पर हमारा किसी भी तरह का कोई अधिकार नहीं होता। अपना काम कर दिया, बाक़ी उसका भी तो चुनाव है न, वो भी तो एक अपनेआप में एक स्वतन्त्र चेतना है, उसको अपनेआप चुनने दीजिए अपनी ज़िन्दगी का।

प्र: सर, एक चीज़ और आती है जैसे बोलते हैं कि आप आचार्य जी को इतना जानते हो, चलो सत्य को तो कोई भी जान सकता है। चलो प्रकृति को भी थोड़ा जानते हो तो मान लो अगर हम पासा फेकें तो तुम बता सकते हो कि इसमें क्या आएगा? आचार्य जी बता सकते हैं कि क्या आएगा? मतलब प्रकृति को तुम भी क्या जानते हो, तो वही कह रहे थे कि इसका अर्थ तो कोई भी नहीं जान सकता। तुम भी नहीं जान सकते और आजतक कोई नहीं जान पाया। आचार्य जी भी नहीं जान पाये सबकुछ तो, ऐसे बोल देते हैं मतलब।

आचार्य: तो? (प्रश्न का इशारा)

प्र: हाँ फिर वही बोलते हैं कि तुम भी कुछ नहीं जानते, हम भी कुछ नहीं जानते। तो बस बराबर हो गया।

आचार्य: अच्छा है न, करने दीजिए जो कर रहे हैं। आप काहे को दुखी हो रहे हो?

प्र: नहीं सर, दुखी नहीं है मतलब..

आचार्य: अच्छे से समझ लीजिए, आज भी सारी बात ये हो रही है कि साफ़ पता हो क्या अपना कर्तव्य है क्या नहीं है। एक आदमी जो हठ पकड़कर बैठा हो कि उसको बर्बाद होना ही है; उस पर और प्रयास करते रहना कहीं से आपका कर्त्तव्य नहीं है। आपके पास इतनी ऊर्जा है, आप प्रयास ही करना चाहते हो तो दुनिया में इतने लोग हैं जो मदद के अधिकारी हैं, जिनको आप थोड़ी सी मदद दे दो, सलाह दे दो तो उनकी ज़िन्दगी सॅंवर जाएगी। तो आपको मदद करनी है तो उनकी करिए न, जो मदद को स्वीकार भी करना चाहते हैं। जो लोग मदद के सामने ये सब बातें कर रहे हैं कि पासा उछाल दिया क्या आ गया ये सब, आप उनके साथ क्यों अपना सिर फोड़ रहे हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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