न बंधन है,न मुक्ति चाहिए || आचार्य प्रशांत, उपनिषद पर (2014)

Acharya Prashant

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न बंधन है,न मुक्ति चाहिए || आचार्य प्रशांत, उपनिषद पर (2014)

न निरोध है, न प्रवृति न मैं बद्ध हूँ, न साधक न मैं मुमुक्षु हूँ, न मुक्त यही परमार्थ है

~ अमृतबिन्दु उपनिषद

आचार्य प्रशांत: प्रवृत्ति का मतलब – लिप्त हो जाना। निरोध का मतलब – बंधन लगा देना। दोनों ही नहीं हैं। और मैं आपसे कह रहा हूँ, एक अर्थ में, वो दूसरे हैं, कि मज़े भी ले रहा हूँ, नदी में खेल-कूद भी रहा हूँ, और गीला भी नहीं हो रहा।

‘न निरोध है, न प्रवृति’

जब स्थिति आई कि नदी में कूद जाओ, तो कूद गए। नहीं किया निरोध। नहीं रोका अपने-आप को। जीवन ने एक स्थिति खड़ी करी है सामने, कि कूदो, तो कूदे। पर कूद कर के प्रवृत नहीं हो गए–न निरोध है, न प्रवृति। कूद गए, पर प्रवृत नहीं हो गए। जीवन है तो निरोध कैसा? संसार अपना है। क्यों रोकें अपने-आप को? संसार तो अपना है; पर संसार से पहले हम अपने हैं। तो चदरिया को मैली भी नहीं होने देंगे। कहते हैं न कबीर–जस की तस धर दीनी। एक बात वो छुपा गए कि ‘जस की तस धर दीनी’ से पहले उन्होंने उसको जम कर के पहना भी।

इतने पर ही आपकी दृष्टि न रहे कि ‘मैली ना हो जाए चदरिया’। चदरिया दी इसलिए गई है ताकि आनंद रहे। कहीं ऐसा ना हो कि चदरिया को बचाने के चक्कर में ही ज़िंदगी बीत गई। ऐसे भी बहुत होते हैं कि दाग ना लग जाए कहीं, दाग ना लग जाए–उनकी बस एक आकांक्षा होती है; और यह बड़ा अहंकार है कि बार-बार यही पूछ रहे हैं कि ‘दाग तो नहीं लग गया? चदरिया साफ़ है ना?’ बात समझ रहे हो न, इशारा किधर को कर रहा हूँ? इतना भी क्या बचाना? अरे, लगने दो दो-चार धब्बे। जो धब्बे दे रहा है, सफाई भी वही कर देगा। रख दोगे ‘जस की तस’। इतना भी विरोध मत करो संसार का।

‘न निरोध है, न प्रवृति’

और ऐसे भी ना हो जाए कि भूल ही गए कि यह चादर लौटानी भी है। तो वही टाईट-रोप वॉक , वही, खांडे की धार। कि पूरे तरीके से संसार में हैं–यह प्रेम, और अछूते भी हैं–यह ज्ञान।

‘न मैं बद्ध हूँ, और न साधक’

‘मैं बंधा हुआ नहीं हूँ।‘ और जो बंधा हुआ नहीं है, उसको बंधन से छूटने की कामना भी क्यों? ‘मैं नहीं हूँ बंधा हुआ। मुझे बंधे रहने में कोई सुख नहीं है। मैंने बंधे रहने का व्रत नहीं ले रखा है। और मैंने बंधन से छूटने का भी कोई व्रत नहीं ले रखा है।‘ दोनों ही तरफ अहंकार को बचने के लिए एक छोटी सी जगह मिल जाती है। ‘कोहम’ को उत्तर मिल जाता है।

‘कौन हूँ मैं?–बंधा हुआ।'

अच्छा!

‘और कौन हूँ मैं?–मुक्त।'

इन दोनों ही उत्तरों में कोई विशेष अंतर नहीं है क्योंकि अभी मौन तो आया नहीं। उत्तर मौजूद है। अहंकार हँस रहा है; ठिकाना मिल गया है उसको।

प्र: एक ने बताया था, उसकी प्रेमिका ने कहा होगा कि, ‘क्या तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे?’ उसने कहा, ‘मैं नहीं जानता।‘ अब वो परेशान हुए पड़े हैं दोनों के दोनों क्योंकि वो समझ रही है कि इसका यह मतलब है–वो मुझे छोड़ने वाला है। तो प्रेमिका कहती है उससे कि ‘इसका मतलब तो यह हुआ कि तुम मुझे छोड़कर जा रहे हो।' वो कहता है, ‘नहीं’। फिर कहती है कि ‘एक बात पकड़ो पहले! क्या तुम हमेशा मेरे साथ रहोगे? या तुम मुझे छोड़ कर चले जाओगे?‘ वो कहता है–‘दोनों ही नहीं!’ अब झगड़ा हो रहा है। अब वो कह रहा है कि समझ ही नहीं आ रहा कि क्या बोलूँ! ‘ना ही मेरे पास कोई योजना है छोड़ने की, ना ही हमेशा साथ रहने की कोई योजना है।'

आचार्य: अब यह बिलकुल वो प्रेम है जिसमें होश नहीं है। ऐसा होता है जब प्रेम ज्ञान-हीन होता है। समझ रहे हैं बात को? यह ज्ञान-हीन प्रेम है। अब यह ज़हर बनेगा। इसमें कोई मिठास नहीं है।

प्र: लड़की की तरफ से ज़हर है, लड़के की तरफ़ से तो मिठास है।

आचार्य: हाँ, उसी की तरफ से। तो प्रेममार्गी तो होते भी ज़्यादा; कहा था न हमने कि जो स्त्री मन है, वो ही ज़्यादा ऐसा होता है। कि प्रेम तो है, पर उस प्रेम में होश नहीं है। समझ नहीं है ज़रा भी। और पुरुष मन होता है, उसमें होश बहुत आ जाता है, पर मिठास नहीं। यह जो प्रेम-हीन ज्ञान है, यह भी उतना ही ज़हरीला है–रूखा। इसमें भी कुछ नहीं रखा कि ‘ज्ञानी तो बहुत हो, पर इतने रूखे-रूखे, इतने ऊबड़-खाबड़, जीवन-हीन। तुमसे किसी को कुछ मिल नहीं सकता।‘ तो ऐसा ज्ञान किस काम का!

‘न मुमुक्षु हूँ, न मुक्त’

फिर ‘हो’ क्या?

‘न यात्रा पर हूँ, न मंज़िल पर पहुँच ही गया’–तो कहाँ हो? अब यह तो बड़ी ख़तरनाक बात हो गई।

प्र: हो भी नहीं और हर्जा हो।

आचार्य: आह! यह हुई बात। बहुत बढ़िया। तो ऐसी सी बात है–‘न मुमुक्षु हूँ, न मुक्त’ ‘न यात्रा पर हूँ, न गंतव्य पर जा ही पहुँचा’–यही परमार्थ है। ठीक? ना पाने की इच्छा, ना पा लेने का दंभ। जो यात्रा पर है, उसे पा लेने की इच्छा है। जो कहता है ‘पहुँच ही गया’, उसे पा लेने का दंभ है। यही परमार्थ है–ना पा लेने की इच्छा; ना 'पा ही लिया', ऐसा दंभ।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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