प्रश्नकर्ता: जो श्रीमद्भगवद्गीता की दो मूलभूत बातें हैं, उनको जोड़कर सवाल है। श्रीमद्भगवद्गीता में ये कहा गया है कि आत्मा एक शरीर बदलकर दूसरा शरीर धारण करती है। पिछले दो-सौ वर्ष में जो मानव जनसंख्या है, वो क़रीब एक बिलियन से बढ़कर अब क़रीब आठ बिलियन होने को है। तो अगर मानव शरीर बढ़ रहे हैं, तो नये शरीर में आत्मा भी नयी आनी चाहिए और श्रीमद्भगवद्गीता में ये भी कहा है कि आत्मा न कभी जन्म लेती है और न कभी मरती है, तो नये शरीर में आत्मा कहाँ से आ रही है?
आचार्य प्रशांत: यहाँ तक ठीक है, आत्मा कभी जन्म नहीं लेती, कभी मरती नहीं, पर ये श्रीमद्भगवद्गीता में कहीं पर भी नहीं लिखा है कि आत्मा एक शरीर छोड़ कर दूसरा शरीर धारण करती है। जिस श्लोक का बार-बार हवाला दिया जाता है उसमें ‘आत्मा’ शब्द कहीं आता ही नहीं है, ‘देही’ कहा है ‘देही‘। वो जीवात्मा है, आत्मा नहीं।
~ श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २२)
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णानि, अन्यानि संयाति नवानि देही।।२.२२।।
मनुष्य जैसे पुराने कपड़ों को छोड़कर दूसरे नये कपड़े धारण कर लेता है, ऐसे ही देही पुराने शरीरों को छोड़कर दूसरे नये शरीरों में चला जाता है।
हिंदी अनुवाद - स्वामी रामसुख दास जी - श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २२)
जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर दूसरे नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही ‘देही’ जीवात्मा पुराने शरीरों को त्याग कर दूसरे नये शरीरों को प्राप्त होता है।
हिंदी अनुवाद - स्वामी तेजोमयानंद - श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय २, श्लोक २२)
यहाँ ‘देही’ जीवात्मा की बात हो रही है, आत्मा की नहीं।
जीवात्मा मिथ्या है, और ‘आत्मा’ वेदान्त का अमर सत्य।
ध्यान दें कि इस श्लोक में ‘देही’ शब्द आया है, ‘आत्मा’ कहीं भी नहीं। भारत के साथ ये बड़ी त्रासदी हो गयी है कि हमने श्रीमद्भगवद्गीता को ही उल्टा-पुल्टा समझ लिया। हर आदमी यही माने बैठा है कि जिसको आप ट्रान्समाइग्रेशन ऑफ़ सोल (आत्मा का देहान्तरण) कहते हैं, वो बात श्रीमद्भगवद्गीता में लिखी है; श्रीमद्भगवद्गीता में लिखी ही नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीता कहीं नहीं कह रही है कि आत्मा जाती है एक शरीर से दूसरे शरीर में। ये इतने कैसे बढ़ गये लोग, एक बिलियन से आठ बिलियन हो गये? ये तो प्रकृति का खेल है। प्रकृति कभी अपनेआप को फैला देती है, कभी समेट लेती है। कभी एक प्रजाति बहुत बढ़ जाती है, कभी दूसरी बढ़ जाती है।
तीन दिन पहले बारिश हुई थी, तीन या चार दिन पहले। दिल्ली से कौन-कौन है? (कुछ लोग हाथ उठाते हैं) बारिश के अगले दिन बहुत-बहुत सारे क्या देखे? कीड़े। अब पूछो, ‘ये कहाँ से आये, कहाँ से आये?’ तो प्रकृति का खेल है, आ गये। अगले दिन क्या हुआ उनका? ग़ायब भी हो गये। जैसे इतने सारे कीड़े बढ़ गये थे, वैसे ही आज इतने सारे इंसान बढ़ गये हैं। जैसे वो सारे-के-सारे कीड़े ग़ायब हो गये, वैसे ये सारे इंसान भी ग़ायब हो जाने हैं। बात ख़त्म। उसमें आत्मा का क्या है?
ये तो प्रकृति का समुद्र है, इधर-उधर लहराता रहता है, अनन्त छींटे मारता रहता है। हर छींटा एक जीव बन जाता है, हर बूँद एक जीव है। कई बार लहर लहर रहती है, कई बार लहर हज़ार बूँदों में तब्दील हो जाती है। वो सब बूँदें कोई मकड़ी बन गयी, कोई कुछ बन गया, कोई कुछ बन गया।
आपके शरीर के भीतर आत्मा नहीं होती। पूर्ण विराम। कुछ नहीं घुसता है, कुछ नहीं निकलता है। इस चक्कर में मत रहना।
अष्टावक्र श्रीमद्भगवद्गीता (अध्याय १, श्लोक १२)
आत्मा साक्षी विभुः पूर्ण एको मुक्तश्चिदक्रियः। असङ्गो निःस्पृहः शान्तो भ्रमात्संसारवानिव।।
आत्मा साक्षी है, विभु है, पूर्ण है, एक है, मुक्त है, चिद्रूप है, 'अक्रिय है', असंग है, निस्पृह है, शान्त है और केवल भ्रम से ही संसार की वस्तु लग रही है।
जब 'आत्मा अक्रिय है' तो वो एक शरीर से दूसरे शरीर में कैसे जा सकती है? जब आत्मा असंग है तो वो शरीर में प्रवेश करके शरीर की संगति कैसे कर सकती है?
श्लोक में स्पष्ट है कि आत्मा को चलायमान जानना भ्रम मात्र है।
जीवात्मा (अहम् वृत्ति ) का जन्म-मृत्यु होता है, आत्मा का नहीं।
वो जो धुएँ जैसा बनाते नहीं रहते हैं चित्रों में? वो धुआँ सा निकल गया। या एक ज्योति निकलती है और दिखाते हैं ज्योति। ज्योति निकली, ज्योति निकली। आप अन्धेरे में मरकर देख लो। (श्रोता हँसते हैं) वहाँ अन्धेरा ही रहना है।
फिर आत्मा क्या है? ‘ब्रह्म को ही आत्मा कहते हैं।’
अयं आत्मा ब्रह्म (यह आत्मा ब्रह्म है) ~ माण्डूक्य उपनिषद्
प्रज्ञानं ब्रह्म (बोध ही ब्रह्म है) ~ ऐतरेय उपनिषद्
अतः अज्ञानमुक्त मन ही आत्मा है।
पाँच बार मरकर देख लो तब भी वहाँ रोशनी नहीं होगी। कोई ज्योति नहीं निकलनी है छाती से। नहीं, आप बहुत बड़े महात्मा हो, तो भी ज्योति नहीं निकलनी है। महात्माओं को लेकर खूब प्रचलित रहता है। वो मरे तो एक ज्योति निकली, वो सीधे आसमान में जाकर बिजली की तरह कड़की। कुछ नहीं होता बाबा ऐसा।
‘नहीं, मानने का मन नहीं कर रहा। कुछ तो होता होगा न? (श्रोता हँसते हैं) जो मम्मी के पेट में घुसता होगा, जिससे फिर बच्चे में प्राण आ जाते हैं।’
प्राण पहले से थे। पिता का शुक्राणु, माता का अंडाणु, वो पहले ही प्राणों का अपनेआप में बीज रखे हुए थे। उस बीज को खाद, पानी, मिट्टी मिल गया, वो बीज अंकुरित हो गया। उसमें ऐसा थोड़े ही है कि कुछ बाहर से आ गया। एक बीज होता है, बीज, कोई भी बीज मान लो। उस बीज में से पौधा कैसे आ जाता है? कुछ बाहर से आकर घुसा उस बीज में? और हो सकता है कि वो बीज पाँच साल पड़ा रहे, उसमें से कुछ पैदा न हो। लेकिन जैसे ही उसको अनुकूल स्थितियाँ मिलती हैं, उसमें से पौधा पनप आता है। बस ऐसे ही आपका जन्म होता है। कुछ नहीं आपमें प्रवेश करता। और जब कुछ प्रवेश नहीं करता, तो निकलेगा कहाँ से?
‘अच्छा तो कुछ नहीं निकलता?’ ‘नहीं।’ ‘तो मरकर सब राख हो जाना है?’ ‘हाँ।’ ‘तो फिर हम अच्छे काम करें ही क्यों जब अगला जन्म होना ही नहीं है? हम तो अच्छे काम इसलिए करते थे क्योंकि मम्मी ने बोला था चींटी बनोगे। (श्रोताओं में हँसी) गन्दे काम जो करते हैं वो चींटी बनते हैं, कौवा बनते हैं, गीदड़ बनते हैं; हम इसलिए अच्छे काम करते थे।’
बेटा, अच्छे काम इसलिए करो क्योंकि अच्छा काम करके अच्छा लगता है। अच्छे काम इसलिए नहीं करो कि अगले जन्म में सियार बनने से डरते हो। अच्छे काम इसलिए करो क्योंकि इस जन्म में तुम डरकर के सियार जैसा जीवन बिता रहे हो। निष्काम कर्म क्या भविष्य पर नज़र रखकर किया जाता है? तो क्या कोई भी अच्छा काम हमें इसलिए करना है कि उससे अगले जन्म में लाभ होगा? अच्छा काम अच्छा है इसलिए करना है बस, ख़त्म बात। न तो इसलिए करना है कि उससे दो साल बाद कुछ मिलेगा, न इसलिए करना है कि उससे दो जन्म बाद कुछ मिलेगा।
‘नहीं, पर वो हमारे गाँव के बूढ़े बरगद पर पितरों की आत्माएँ तो लटक ही रही हैं न?’
‘बख्श दो बेचारे पेड़ को। इसी चक्कर में तुमने उसमें न जाने क्या-क्या बाँध दिया है, ये कर दिया, वो कर दिया। पेड़ भी रोता होगा। कोई भूत नहीं है उस पर, इंसान ही भूत है।’
फिर उस पर टिप्पणियाँ आती हैं — ‘आप हमारे उत्तराँचल आइए। आप हमारे हिमाँचल आइए, हम आपको भूत दिखाएँगे।‘ ‘आने की क्या ज़रूरत है? कर तो दिया कॉमेंट (टिप्पणी) तुमने। दिख गया भूत!’ (श्रोताओं में हँसी)
बोले, एक जगह बतायी, कौनसी बतायी कि वहाँ पर तो सीधे-सीधे भूत उतारा जाता हैं और उसके बहुत आती हैं। ‘क्या आपको विश्वास नहीं? आप वहाँ आकर देखिए, वहाँ पर भूत उतारे जा रहे हैं दिन-रात। अगर कुछ है नहीं, तो उतारा क्या जा रहा है?’
‘ये तुम बताओ न, कि जब कुछ है नहीं तो उतारा क्या जा रहा है?’ और ये सब चल रहा है, चले ही जा रहा है। हमें कुछ समझ नहीं आ रहा।
प्र: जब श्रीमद्भगवद्गीता में ये कहा है कि जीव एक भ्रम मात्र है, एक झूठ है। और सत्य केवल एक है ‘आत्मा’। तो अगर कहीं पर किसी जीव की हत्या होती है, तो झूठ ही मर रहा है। तो वो पाप कैसे हो गया?
आचार्य: पाप उसके लिए थोड़े ही है जो मर गया? तुमने सारी बात उसकी कर दी जो मरा है। पाप किसके लिए है? जिसने मारा है। हाँ, खुल गयी न बात! जिसने मारा है, मारते वक़्त वो क्या हो गया? हिंसक हो गया। जो हिंसक हो गया, वो असली चीज़ से चूक गया। जो हिंसक हो जाएगा वो श्रीकृष्ण से दूर हो गया, आनन्द से दूर हो गया, पाप उसके लिए है। जो मरा, उसके साथ अधिक-से-अधिक ये कह सकते हो कि अन्याय हो गया। अन्याय क्यों हो गया? उसको भी समझ लेंगे क्योंकि उस जीव के पास सम्भावना थी आगे पूर्णता पाने की, आनन्द पाने की। वो उस सम्भावना से वंचित रह गया।
आपको ये जो जीवनकाल मिला है, इसके बारे में उपनिषद् कहते हैं कि पूरा जियो। क्योंकि जितना जियोगे, तुम अपनेआप को उतना मौक़ा दे रहे हो पूर्णता तक पहुँचने का। ये जीवन इसीलिए मिला है क्योंकि एक ख़ास जगह है, तुम्हें वहाँ पहुँचना है। और वहाँ पहुँचने के लिए तुमको दे दिए गये हैं अस्सी साल या सौ साल।
जैसे तीन घंटे दिये गए हो और तीन घंटे में आपको परीक्षा के बीस सवाल हल करने हैं, तो तीन घंटे पूरे चाहिए न? नहीं तो सवाल हल नहीं कर पाओगे और सवालों को जो हल करता है उसको बड़ा आनन्द मिलता है। तो तीन घंटे अगर तुमने पूरे नहीं किये, तो तुम उस आनन्द से भी वंचित रह गये न जो बीस सवालों को हल करने पर मिलना था। कि नहीं रह गये वंचित? इसलिए आयु पूरी जीनी चाहिए और इसलिए किसी को मारना उसके प्रति अन्याय है।
किसी को मारना ऐसा ही हो गया कि कोई बैठा था तीन घंटे की परीक्षा में, उसको तुमने आधे ही घंटे में उठाकर बाहर फेंक दिया। ये क्या कर दिया तुमने? वो सारे सवाल हल कर देता, उसको एक तृप्ति मिलती, उसे एक पूर्णता मिलती। तुमने गड़बड़ कर दी न? इसलिए मारना ग़लत है। आ रही है बात समझ में?
‘तो फिर पशुओं को मारना क्यों ग़लत है आचार्य जी, क्योंकि उन्हें तो मुक्ति चाहिए ही नहीं?’
पशुओं को मारना तुम्हारे लिए तो बहुत ग़लत है न? पशु को क्या चाहिए, क्या नहीं अलग मुद्दा है, कर लेंगे बात। लेकिन तुम्हारे लिए तो बहुत ही ग़लत है, क्योंकि बहुत आरम्भिक स्तर पर पशु की चेतना हमारी चेतना से बहुत भिन्न नहीं होती। उसको भी पीड़ा होती है, उसको भी डर लगता है, मोह उसको भी होता है, ईर्ष्या उसमें भी होती है, असुरक्षा उसमें भी होती है, लालच उसको भी होता है, गुस्सा उसे भी आता है।
वहाँ भी लगभग वही चेतना है जो आपके पास है। उसको इसलिए नहीं मारो क्योंकि अगर तुम उसकी चेतना के प्रति इतने अपमान से भरे हो कि उसको नष्ट कर सकते हो सिर्फ़ अपने स्वाद के लिए। तो तुम फिर अपनी ही चेतना के प्रति भी अपमान से भरे हुए हो, क्योंकि उसकी और तुम्हारी चेतना एक है। उसकी चेतना का अपमान करना माने अपनी चेतना का अपमान करना। और अगर तुम अपनी चेतना का अपमान कर रहे हो, तो क्या चेतना को उसकी मंज़िल तक पहुँचाओगे? तुम जिसका अपमान करते हो, क्या उसकी माँगों को पूरा कर पाओगे?
चेतना की एक माँग है, क्या? पूर्णता तक जाना है और चेतना का तुम कर रहे हो अपमान। जिसका अपमान कर रहे हो, क्या तुम उसके लिए कष्ट उठा पाओगे? तो तुमने किसको वंचित कर दिया पूर्णता तक जाने से? अपनेआप को। इसलिए जानवर को मत मारो। जो जानवर को मारेगा, वो जानवर को नहीं खा रहा, वो अपने ही आप को खा रहा है। अपनी ही भलाई के लिए पशुओं के प्रति सहृदयता रखो।