मुरली बाज उठी अनघाता

Acharya Prashant

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मुरली बाज उठी अनघाता

मुरली बाज उठी अणघातां । सुन के भुल्ल गईआं सभ बातां ।

लग्ग गए अनहद बान न्यारे, झूठी दुनियां कूड़ पसारे, साईं मुक्ख वेखन वणजारे, मैनूं भुल्ल गईआं सभ बातां ।

हुन मैं चैंचल मिरग फहाइआ, ओसे मैनूं बन्न्ह बहाइआ, सिरफ दुगाना इश्क पढ़ाइआ, रह गईआं त्रै चार कातां ।

बूहे आण खलोता यार, बाबल पुज्ज प्या तकरार, कलमे नाल जे रहे वेहार, नबी मुहंमद भरे सफातां ।

बुल्ल्हे शाह मैं हुन बरलाई, जद दी मुरली काहन बजाई, बावरी हो तुसां वल्ल धाई, खोजियां कित वल दसत बारतां ।

~बुल्लेशाह

वक्ता: जादू है ना, मुरली बाज उठी अनघाता| कृष्ण की मुरली हो, चाहे उपनिषदों के शब्द हों, चाहे संसार हो, सब दो तलो पर हैं| एक तो कृष्ण की मुरली वो है जो बजती है बाहर कहीं कृष्ण के होंठो पर और आवाज उसकी कान में सुनाई देती है| उसको नहीं कहोगे कि वो अनघाता बज रही है| वो तो तब बज रही है जब बाँस से हवा प्रवाहित हो रही है| एक दूसरी मुरली है जिसको बजने के लिये ना होंठ चाहिये ना बाँस, ना हवा| वो यहाँ बजती है (सर कि ओर इशारा करते हुए)| दो मुरली हैं, और पहली मुरली की सार्थकता इसी में है कि दूसरी बज उठे| बुल्लेशाह निश्चित रूप से पहली तो नहीं सुन रहे| कहाँ कृष्ण, कहाँ बुल्लेशाह, शताब्दियों का फर्क है|

दूसरी, वो बजने लगी भीतर ( कानो की तरफ इशारा करके) और उसकी आवाज कान नही सुन सकते| कान तो बेचारे है उनको तो जो बहुत स्थूल ध्वनि है वही सुनाई देगी| अनहद नाद कानो से नही सुना जाता है| उसी तरीके से संतो के, उपनिषदों के शब्द हैं कानो से नहीं सुने जाते, कहीं और से सुने जाते हैं, ह्रदय से| कृष्ण की मुरली अगर कानो से सुनी जा सकती तो यकीन जानिये कृष्ण से बेहतर मुरली वादक बहुत हैं| शास्त्रीय रूप से मुरली बजाएँगे, तैयारी कर-कर के, रियाज़ अभ्यास कर कर के बजायेंगे| उन्होंने जीवन ही समर्पित कर रखा है मुरली को कृष्ण से बेहतर बजा सकते है| पर उनकी मुरली बस वही होगी जो होंठ, हवा और बाँस का खेल है|

कृष्ण की मुरली दूसरी है, वो दिल में बजती है| और अगर दिल में नहीं बज रही बाहर-बाहर ही सुनाई दे रही है तो आपने कुछ सुना नही| बुल्लेशाह की काफी हो, ऋभु के वचन हो, किसी संत, किसी ऋषि की वाणी हो, जब उसको सुनियेगा तो ऐसे ध्यान से सुनियेगा कि कान बेमानी हो जाएँ, अनुपयोगी हो जाएँ| फिर आप कहें कि अब कानो पे ध्वनि पड़े न पड़े, शब्द भीतर गूंजने लगा है| शब्द तो माध्यम था, तरीका था, साधन था, आग अब लग गयी| हमारे भीतर लग गयी है| मुरली बज गयी, अब हमारे भीतर बज रही है, अब उसे नहीं रोका जा सकता |

बात समझ रहे हैं? और फिर यही संसार में जीने की कला भी है| कि बाहर कुछ भी चलता रहे भीतर मुरली ही बजे| कान, आँख जो दिखाना चाहे दिखाएँ – मर्जी है, खेल है, माया, लीला, विध्या जो बोलना है बोलो, मर्जी है जो दिखाना है दिखाओ| बाहर जो चलता है चले, भीतर तो एक ही गीत गूँजता है – ये जीने की कला है| और जब भीतर वो गीत गूँजता है तो आश्वस्त रहिये, बाहर भी आप आनंद ही बिखेरते हैं| मैं इतनी छोटी बात कहना ही नही चाहता कि आप आनंदित रहते है| बहुत छोटी बात होती है वो, ऐसे जैसे कि आपका व्यक्तिगत आनंद ही बहुत बड़ी उपलब्धि हो गयी, न| बुल्लेशाह के लिए ये प्रश्न गौण है कि वो आनंदित थे कि नहीं, बहुत छोटी बात है| वो आनंद बिखेरते हैं| समझ रहे हो बात?

उनके लिये ये सवाल अब बेतुका हो जायेगा कि ‘कैसे हो तुम?’| (हँसते हुए) हम कैसे हैं? ये कोई सवाल हुआ| हम कैसे है ये सवाल सार्थक तब होता है जब इस बात की थोड़ी तो संभावना हो कि हम ऐसे या वैसे हो सकते हैं| हम तो सदा एक जैसे ही होते हैं, तो हमसे पूंछो मत हम कैसे है, फिजूल प्रश्न है| मुरली बज रही है और हम अन्निमित हैं जिसके माध्यम से मुरली का राग, मुरली की मिठास पूरी दुनिया में फ़ैल रही है| समझ रहे हो बात को? कानो को माध्यम ही जानना, कान से जो शब्द सुना बड़ी ओछी बात है वो| कुछ नही सुना अगर कान से सुना| और जो तुमसे कहा जाता है कान से वो इसीलिये कहा जाता है कि शुरुआत तो हो कान से सुनने से पर जल्दी ही ह्रदय से सुनने लगो|

दिया तो जाए शब्द और उतर जाओ मौन में, वही मुरली है| और जब मुरली बजती है तो ठीक वो ही करोगे जो बुल्लेशाह कर रहे हैं| क्या कर रहे हैं? गा रहे हैं, गा रहे हैं से ये अर्थ नही है गवैया; प्रोफेशनल सिंगर| क्यों? जी मुरली बजने लगी है| गाने का अर्थ होता है बाँटना| बुल्लेशाह बाँटते हैं, अब वो दाता हैं भिखारीनहीं हैं| उनसे सबको मिलता है, अभी हम यहाँ बैठे हैं हमे मिला| एक बात का और ख्याल रखना मुरली पहले बजी है, भूलना बाद में हुआ है| पहले नही भूल पाओगे, कि भूल पहले गये और बहाने बना रहे हो कि अभी तो बहुत सारी दूसरी बातें याद हैं तो इसीलिये मुरली की ओर जा नही पा रहे| मुरली पहले बजेगी भूलोगे बाद में|

क्या भूलोगे? वो जो भूलने लायक ही है| वो जो कभी याद रहना ही नही चाहिये था| वो जिसका याद रहना तुम्हारी बीमारी है, तुम्हारा बोझ है, वो भूल जाओगे| आध्यात्म भूलने की कला है और उसका फल है एक कतई भुलक्कड़ मन| क्या बन गये बुल्लेशाह को सुन के? भूलेशाह (सब हँसते है)| भूल गये, भूल गये| मुरली पहले बजेगी| बजे कैसे? बज रही है| कृष्ण समय में नहीं होते कि कभी थे अब नही हैं| कृष्ण समयातीत हैं, मुरली बज रही है, लगातार बज रही है| ये जगत और क्या है कृष्ण की लीला, कृष्ण की बाँसुरी की धुन के अलावा ये जगत और क्या है| लगातार बज रही है तुम थोड़ा ध्यान तो दो| और नही लग रहा ध्यान तो बहुत चेष्टा मत करो, सर झुका दो प्रार्थना में| मन ऐसा है कि सहजता से ध्यान में उतर जाता है तो ध्यान| और मन अगर नही उतरता सहजता से ध्यान में, तो लड़ो मत मन से|

मन से लड़ना, मन को और ताकत दे देगा| चुप-चाप सर झुका दो हो जाएगा, उसी का नाम प्रार्थना है चुप हो के सर झुका देना| कि माँगे भी तो क्या माँगे जो माँगेगे भी इसी मन से माँगेगे| माँगना भी व्यर्थ है, सर ही झुका देते हैं इतना काफी है| फिर जादू होगा अनायास, तुम कहोगे बजने कहाँ से लगी| कहीं से बजने नही लगी; वो बज ही रही थी, तुम सुनने लगे| तुम सुनने लगे| सुनो अभी भी सुनाई देगी|

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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