प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, अभी पहला सूत्र था “बंधनमुक्त”। इस मनोभाव की वजह से, अगर ये मनोभाव धीरे-धीरे हमारे अन्दर आ रहा है तो क्या हमारा व्यवहार थोड़ा घुमक्कड़ जैसा नहीं हो जाएगा? कि हम किसी चीज़ की परवाह नहीं करेंगे बिलकुल, हर चीज़ को हलके लेते जाएँगे, चाहे फिर जीवन में वो कोई भी प्रसंग हो या हमारी जीविका से सम्बंधित हो, या हमारे सम्बन्ध से सम्बंधित हो। बंधन तो फिर हर जगह ही दिखाई देगा और दिखता ही है, तो क्या मैं एक घुमक्कड़ व्यक्ति नहीं हो जाऊँगा?
आचार्य प्रशांत: हाँ। पर क्या ये भी बंधन नहीं है कि धारणा पकड़ रखी है कि घुमक्कड़ होने में कुछ बुराई है? समझिएगा बात को। "क्या मैं घुमक्कड़ नहीं हो जाऊँगा?" इस कथन से आशय है कि घुमक्कड़ी को मैं जानता तो नहीं, मुझे बस उसके होने का अंदेशा है। जब आप उसे जानते नहीं तो उससे डर क्यों अभी से? आपको अभी से उसमें कुछ हानि क्यों दिखाई दे रही है? “कहीं मैं घुमक्कड़ तो नहीं हो जाऊँगा? कहीं मैं घुमक्कड़ तो नहीं हो जाऊँगा?”
(हँसते हुए)
क्या ये बंधन नहीं है?
हाथों पर बेड़ियाँ पड़ी हों तो बात बहुत छोटी होती है, वो बेड़ियाँ स्थूल होती हैं, दिखाई देती हैं, आप उन्हें काट दोगे, आँखों के सामने हैं। आँखों के पीछे जो बेड़ियाँ होती हैं वो ज़्यादा खतरनाक होती हैं, उनको धारणाएँ कहते हैं। इसी धारणा से मुक्त होना है। यायावर घूमने में, घुमक्कड़ी में न अच्छा है, न बुरा है। न वो हो जाने को आदर्श बना लेना है, न उससे दूर जाने को आदर्श बना लेना है। कभी वो जीवन में आती है, स्वागत है उसका। जब जो जीवन में आता है वो कभी विदा भी हो जाता है, एक दिन होगा जब आपके पाँव घूमने के लिए उद्दत होंगे, एक दिन होगा जब आपके चलते पाँव कहीं ठहर जाएँगे। क्या अच्छा है इसमें, क्या बुरा है?
मुक्त हो कर के घूम लिए तो मुक्ति और मुक्त हो कर के ठहर लिए तो भी मुक्ति। न घूमते रहना बड़ी बात है, न ठहर जाना बड़ी बात है। न गति में कुछ है, न अगति में कुछ है। न स्थिरता में कुछ है, न चलायमान होने में। मुक्त गति करो, मुक्ति; मुक्त थमे रहो, मुक्ति।
पर हम ऐसे अमुक्त हैं कि मुक्ति को भी धारणाओं के पीछे से ही देखते हैं, “अगर मुक्ति ने मुझे घुमक्कड़ बना दिया तो मुक्ति बुरी है।” क्यों? क्योंकि बचपन से ही मुझे बताया गया है कि जो घूमते फिरते रहते हैं वो कहीं के नहीं हो पाते, कोई घोंसला नहीं बनता, कोई ठिकाना नहीं बनता, समाज में कोई स्थान नहीं बनता ओर वो प्रगति नहीं करते। जो ज़रा एक जगह पाँव जमा देते हैं, थम जाते हैं, स्थापित हो जाते हैं, वो बढ़ते हैं जीवन में और समाज में आगे। तो मुक्ति हो सकता है मुझे घुमक्कड़ बना दे, ओर ये मैंने पहले ही मान रखा है कि घुमक्कड़ होना?
प्र: बुरा है।
आचार्य: बुरा है। यदि मुक्ति घुमक्कड़ बनाती है ओर घुमक्कड़ होना बुरा है, तो घुमक्कड़ी के साथ-साथ मुक्ति भी गलत हो गई। आप देख रहे हैं क्या होता है? मुक्ति को प्रथम स्थान दीजिये, उसके बाद जो हो वही अच्छा। उसके बाद आप कहीं ठहर गए तो ठहरना अच्छा, उसके बाद आप चल पड़े तो चलना अच्छा। समझ रहे हो? कोई वर्जना नहीं होती है। और पहले से छवियाँ मत बना लो कि जो मुक्त होता है वो इधर-उधर बिचरता ही रहता है।
ये भी सब किस्से कहानियों की ही बाते हैं कि रमता जोगी, कि वो रमण कर रहा है, इधर से उधर जा रहा है, रमण का अर्थ ये नहीं होता कि पाँव चल रहे हैं, रमण का अर्थ होता है आनंदमग्न होना – रमे हुए हैं, जहाँ हैं वहीं रमे हुए हैं, पाँव चले तो भी रमे हुए हैं, पाँव नहीं चल रहे तो भी रमण है। हम रमण को भ्रमण समझ लेते हैं। भ्रमण ही है भ्रम।
छवियों में मत रहो, मुक्ति किसी तरीके की कोई बाध्यता थोड़े ही दे देगी। जो मुक्ति बाध्यता दे, वो मुक्ति हुई क्या? मुक्ति अगर ऐसी है कि वो मजबूर कर दे घूमने फिरने के लिए, तो फिर वो मुक्ति है या मजबूरी है?
प्र: मजबूरी।
आचार्य: और मजबूरी मुक्ति हो सकती है?
प्र: नहीं।
आचार्य: तो कहाँ से धारणा ले आए हो कि जो मुक्त होता है वो तो टहलने निकल जाता है ओर जब तक विश्व भ्रमण न कर ले वापस नहीं आता। मुक्ति के साथ कोई बाध्यता नहीं आती। मुक्ति के साथ कोई मजबूरी नहीं आती, मुक्ति बेशर्त होती है, इसके साथ कोई कंडीशन या शर्त नहीं जुड़ी होती। लोग आते हैं कि, "देखिए वैसे तो मुझे पता है कि बोधस्थल बहुत अच्छी जगह है पर मेरा तो ऐसा है कि मुझे शादी-ब्याह करना है।"
अच्छी जगह है अगर तो वो तुम्हें मजबूर करेगी क्या? और अगर कुछ तुम्हें मजबूर कर रहा है तो वो अच्छा कैसे हो सकता है? पर धारणाएँ हैं। पहले से ही मान कर बैठे हो कि बोध का मतलब होता है कि गार्हस्थ्य में तो प्रवेश करना ही नहीं है, कि आचार्य जी के पास जाने का मतलब ये होगा कि अब छड़े के छड़े। क्यों भाई? एक प्रकार के बंधन से छूट कर दूसरे में फँसना है? घर में बैठे हो तो ये मजबूरी है कि करो, और आचार्य जी के साथ हैं तो ये मजबूरी है कि न करो। तो आचार्य जी और घर में अंतर क्या हुआ?
तुम जाग्रत रहो। इसे बोधस्थल कहते हैं हम। तुम बोधवंत रहो, उसके बाद कुछ करो तो बहुत अच्छा, कुछ न करो तो वो भी बहुत अच्छा। जो ही करोगे, वही अच्छा। ठीक है? तो परिणाम की पहले से चिंता मत करो कि मुक्ति मिल गई तो इस तरह कि झंझटें आ जाएँगी। मुक्ति कोई झंझट है? मुक्ति है झंझटों से मुक्ति। तो मुक्ति अपने आप में नया झंझट थोड़े ही बनेगी। पर मुक्ति से बचने के लिए माया कि ये अच्छी तरकीब है कि मुक्ति को ही झंझट के रूप में दर्शा दो। दिखा दो कि अगर मुक्ति आई तो उसके साथ ये सब आ जाएगा।
“देखो अगर तुम गए और तुमने शास्त्र वगैरह पढ़ लिए तो नंगे पाँव घूमने पड़ेगा।” अच्छा! “देखो ब्रह्मचर्य का मतलब होता है कि कभी फिर किसी स्त्री के नज़दीक मत जाना।” हैं? ये कौन सा ब्रह्म है जो बीच में से ही बाँट देता है? हमने तो सुना था पूरे होने को ब्रह्म कहते हैं। लिंग के आधार पर भेदभाव कर रहा है ये ब्रह्म? दिल्ली मेट्रो है कि अलग कम्पार्टमेंट बना देगा? पर लोगों को बड़ा खौफ रहता है, “देखिए हमको तो मज़े करने का शौंक है, हम तो ज़िन्दगी जीना चाहते हैं इसीलिए हम ज़रा ये आध्यात्म वगैरह से दूर रहते हैं।” अच्छा! क्या बात कही है आपने। तो आध्यात्मिकता का मतलब है मुर्दा हो जाना, और जीना है तो अनाध्यात्मिक होना पड़ेगा?
बहुत आते हैं, “देखिए भाईसाहब हम तो सीधे-साधे आदमी हैं, ये सब श्लोक, टीका, टिपण्णी, दोहा वगैरह हमें समझ में नहीं आता।” अच्छा। तो सीधा वो है मतलब जिसको ये सीधे सीधे वक्तव्य समझ में न आते हों। दुनिया की हर चालाकी तुम्हें समझ में आती है, हर तरीके की साज़िश में तुम शरीक हो। हर फर्जी चाल, टेढ़ी चाल चलनी तुम्हें आती है और जब उपनिषद् पढने का समय आता है तब तुम कहते हो, “नहीं नहीं, ये हमें समझ में नहीं आ रहा ये क्या कह रहे हैं।” तुम्हेंं समझ में नहीं आता? वाकई? तुम्हें घर की उलझन समझ में आ जाती है, तुम्हें दफतर की राजनीती समझ में आ जाती है, तुमको कबीर का सहज दोहा समझ में नहीं आता। पर, हमने खूब छवियाँ तय कर रखी होती हैं न पहले से ही।
प्र: हम एक छवि बनाते हैं और उसे जाँचते हैं।
आचार्य: अभी पिछले कुछ हफ़्तों में एक दो बार मैं यहाँ टी-शर्ट पहन कर आ गया सेशन लेने, दो चार लोगों ने पूछ लिया “कोई नया शास्त्र है?” “कुछ बात बदलेगी क्या?” अरे कौन सी गीता में लिखा है कि टी-शर्ट पाप है? बताओ मुझे? कहाँ लिखा है? पर गीता से बचने के लिए ये अच्छा बहाना है “मुझे तो टी-शर्ट पसंद है और कृष्ण पहनते नहीं थे” तो अगर टी-शर्ट बचानी है तो गीता से बच कर रहो। और आते हैं “देखिए हम तो आज के ज़माने के लोग हैं, ये सब पुरानी बातें कभी उपयोगी रही होंगी, हमें तो समय के साथ कदम मिला कर चलना है।” अच्छा! तुमने पहले ही तय कर लिया कि यहाँ जो कुछ लिखा है वो काल सापेक्ष है, वो 'कभी' प्रासंगिक था, आज वो तिथिबाह्य है?