मृत्यु के समय शरीर से क्या निकलता है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

Acharya Prashant

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मृत्यु के समय शरीर से क्या निकलता है? || आचार्य प्रशांत, वेदांत महोत्सव (2022)

प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, मुझे एक चीज़ पूछनी थी कि जैसे आपकी चेतना है या ओशो रजनीश की चेतना, हम ये मान के चल रहे हैं कि आप लोगों की चेतना एक आम चेतना से बहुत ऊपर है। तो क्या हम ये मान के चलें जब ऐसे धर्मगुरु शरीर छोड़ते हैं तो उनकी चेतना के शरीर छोड़ने के बाद क्या वो लोगों की मदद कर पाने के लिए सक्षम होते हैं? या फिर एक आदमी की चेतना और आप जैसे लोगों की चेतना में कोई फ़र्क है या नहीं है? अगर है फ़र्क तो क्या वो लोगों की बाद में भी सेवा कर पाते हैं, मदद कर पाते हैं?

आचार्य प्रशांत: माने मैं मर जाऊँगा तो भूत बन के कुछ करूँगा कि नहीं?

(श्रोतागण हँसते हैं)

प्र: नहीं, नहीं। एक आम और एक अच्छे इंसान की चेतना में…

आचार्य: मुझे लगा आपका मुद्दा बदल गया होगा। आप भूतकाल में ही चल रहे हैं।

ये कृष्ण ने बोला? मैंने बोला? ये किसने बोला? अगर आप कह रहे हैं आप यहाँ इसलिए आए हैं क्योंकि आप मुझे सुन रहे हैं। मैंने कब बोला कि मरने के बाद वो चेतना निकल करके कुछ करती है या कुछ निकलता भी है? ऐसा मैंने बोला?

प्र: नहीं, आप कहते हैं आत्मा तो होती नहीं है। वो आत्मा के लिए पर्यायवाची शब्द यूज़ (प्रयोग) कर रहा हूँ – चेतना। मतलब कुछ तो, कुछ तो निकलता होगा।

आचार्य: धुआँ निकलता है बहुत सारा। आप मर जाते हो तो धुआँ निकलता है बहुत सारा, जलोगे तो।

आपको करना क्या है? मेरे मरने से आपको क्या इतना? अभी मैं ज़िंदा हूँ, कुछ बातें बता रहा हूँ, सुन लीजिए। पुराना कोई मर गया, आगे मदद करेगा या नहीं करेगा, अरे! जो ज़िंदा है, मदद कर रहा है, उससे मदद ले लो।

ये कैमरे किस लिए लगे हैं? अगर मेरी जीवात्मा को ही घूम-घूम के लोगों को प्रेरणा और उपदेश देने होते तो ये रिकॉर्डिंग काहे के लिए होती? मैं मर जाऊँगा तो ये रिकॉर्डिंग है न! इसीलिए तो कराता हूँ। कोई भरोसा नहीं कब मर जाएँ। तो ये सब रहेगा, ये देख लेना। यही भूत है।

प्र: हम लोग इसीलिए अच्छे कर्म करने की कोशिश करेंगे। हमें कुछ, जैसे मान लीजिए कोई डॉक्टरी करी किसी ने तो वो सोचेगा न कि मैं लोगों की सेवा करता हूँ।

आचार्य: वो स्थूल लाभ है। अध्यात्म में जो लाभ होता है, तत्काल होता है। इतना समझाया था न अभी! उसमें आगे का नहीं देखा जाता कि क्लिनिक खोलूँगा तब पैसा आएगा। एम.बी.बी.एस करने की वसूली करूँगा आगे चल के। अध्यात्म ऐसा नहीं होता।

हाँ, आपने उसको स्थूल बना दिया है ये पाप-पुण्य का कर्मकांड पूरा खड़ा करके, जिसमें आप बोलते हैं कि आज पुण्य करोगे तो अगले जन्म में उसका लाभ मिलेगा। अध्यात्म में ये सब नहीं होता कि आज पुण्य करोगे तो आगे लाभ मिलेगा। आज अगर अच्छे हो तो लाभ यही है कि अच्छे हो। बस, ख़त्म बात। कुछ कैरी फॉरवर्ड (आगे बढ़ाएँ) नहीं होना है।

प्र: अच्छा, एक चीज़ और। ये जो आप ब्रह्म को पाने की बात कर रहे हैं, अगर ९९% आदमी सही कर पाया और १% रह गया, तो फिर उस केस में क्या स्थिति रहेगी?

आचार्य: तो ९९% मज़े मिल गए, थोड़ा-सा चूक भी गए।

प्र: फिर उसके बाद?

आचार्य: बाद में कुछ नहीं होता। ये बाद! जितना अच्छा करा, उतना अच्छा जी लिए और जितने से चूक गए, उतने से चूक गए। चूक गए तो चूक गए। इसलिए मत चूको। अभी, अभी; आगे नहीं है कुछ।

प्र: ये कौन डिसाइड (तय) करेगा कि कौन चूका, कौन नहीं चूका?

आचार्य: आप। आपके जीवन में कितना आनन्द है आपको पता है न, आप जानिए। तो और कौन डिसाइड करेगा?

प्र: कोई चीज़ किसी के लिए सही होती है…

आचार्य: अरे! आपको मौज आई कि नहीं आई?

प्र: मुझे लगता है मौज कर भी रहा हूँ, नहीं भी कर रहा हूँ।

आचार्य: तो नहीं कर रहे। वो चीज़ ऐसी होती है कि संदेह के पार की। अगर अभी लग रहा है कि पता नहीं हो रही है, नहीं हो रही है, तो मतलब क्या? नहीं हो रही है। अगर आपको अभी संशय हो कि मैं सो रहा हूँ या जगा हुआ हूँ, तो इसका क्या मतलब है? जगे हुए हो, बात ख़त्म।

प्र: नहीं, जैसे आप सनातन धर्म के लिए फ़ाइट (संघर्ष) कर रहे हैं या जागरुकता फैला रहें हैं। और एक तरफ़ हमें लगता हैं कि जो पॉलिटिक्स (राजनीति) चल रही है। अगर हम देखते हैं कि देश के बारे में अस्थिरता या जो भी हिंदू-मुस्लिम समाज में हो रहा है, एक तरफ़ तो वो रास्ता है कि किस तरह से शांति आए, और एक तरफ़ आपका रास्ता है, कि जो आप सनातन को या हिंदू धर्म को जो ज्ञान दे रहे हैं। तो अगर इन दोनों में से एक रास्ता चुनना हो तो आप किसको एडवाइस (सुझाव) करेंगे कि पहले देश बचाया जाए या पहले सनातन धर्म बचाया जाए? देश बचेगा तो सनातन धर्म भी बचेगा।

आचार्य: इस (स्वयं की ओर इशारा करते हुए) रास्ते से पूछ रहे हो कि वो रास्ता चुनूँ कि नहीं!

प्र: जैसे गीता है या वेद हैं, हम लोगों को पढ़ाया ही नहीं जाता। जब हम लोगों ने ही नहीं पढ़ा, तो हमारे बच्चे क्या पढ़ेंगे? अगर क्लास (कक्षा) में, स्कूल में ही नहीं है वो चीज़, तो बेस (आधार) तो वहीं से खराब हो गया सारा। आप कहते हैं उपनिषद् और वेद, आप कितने लोगों को ज्ञान दे देंगे — एक लाख, दो लाख, एक करोड़, दो करोड़ को दे देंगे?

आचार्य: नहीं, सबको दे सकते हैं।

प्र: अगर ये क्लास से ही चलें चीजें, स्कूल लेवल से ही चलें!

आचार्य: हाँ, तो कैसे चलेंगी स्कूल से?

प्र: वहॉं पॉलिटिक्स इंटरफ़ियर (राजनैतिक दख़ल) होगा।

आचार्य: पॉलिटिक्स तो आप चलाते हो न? पॉलिटिशियन (राजनेता) तो आपने चुना है। आप ठीक हो जाओ। आप यहाँ बैठो, समझो, आप सही वोट डालो तो वो बंदा फिर एजुकेशन सिस्टम (शिक्षा प्रणाली) ठीक करेगा। आप जैसे होते हो, आप उसी तरह का आदमी ऊपर बैठा देते हो।

प्र: वो तो जो भी यहाँ पर प्रोसीजर (प्रक्रिया) है वो तो...।

आचार्य: प्रोसीजर की बात नहीं है, वो प्रोसीजर आपके हाथ में है।

प्र: अगर दो गुंडे खड़े हैं सामने, तो एक को तो चुनना पड़ेगा न? चार उंगलियाँ हैं, चारों ही खराब हैं तो एक तो…

आचार्य: नहीं, वो दो गुंडे इसलिए खड़े हुए हैं क्योंकि कोई तीसरा ऐसा है नहीं जिसने गीता पढ़ी हो और खड़े होने का साहस दिखाए। जब कोई गीता पढ़ लेता है न तो दो गुंडों के सामने खड़े होने का साहस रखता है।

प्र: चलिए, ठीक है।

प्र२: प्रणाम, आचार्य जी। मेरा नाम हितेश है, मैं बैंगलोर का रहने वाला हूँ। आपके साथ तक़रीबन डेढ़ साल से जुड़ा हुआ हूँ और बहुत स्पष्टता आई है जीवन में। बहुत आभार उसके लिए।

मेरे दो मूल सवाल थे, आचार्य जी। कुछ दिन पहले मैंने क्वोरा पर आपका एक, आपकी संस्था का एक आर्टिकल (लेख) पढ़ा था — फ्रॉम ग्रॉस टु सटल (स्थूल से सूक्ष्म तक)। वो एक औपनिषदिक श्लोक पर आपकी कमेंट्री (टीका) थी।

मूल, मतलब सारांश कर रहा हूँ मैं कि वृत्तियाँ होती हैं इंसानों में जो विचारों को पैदा करती हैं और फिर विचार कर्म बनते हैं। तो आपने उसमें समझाया था कि कैसे ऊपर से अंदर तक जाना है। जैसे विचार आए तो देखो उसको और महत्त्व मत दो, और धीरे-धीरे फिर वो विचार आना कम हो जाएँगे और फिर वो वृत्तियाँ भी ख़त्म हो जाएँगी। ये ठीक समझा क्या?

आचार्य: ठीक है।

प्र२: अब फिर मैं इस दिशा में काम करने लगा और मुझे लगा कि ठीक है, बदलाव हो रहा है। और मैंने संगति, कई चीज़ें ऐसी थी, जो मैंने पीछे छोड़ दी जो ऐसे विचार पैदा करें अंदर से। और मुझे लगा कि तरक्क़ी हो गई है। लेकिन फिर आपके दूसरे वीडिओज़ देखे जहाँ पर आपने बोला था कि ये प्रयोग करना भी ज़रूरी है, कि देखो कि ऐसी जगह पर जाओ जो ऐसे विचार पैदा करे, तुम्हारी वृत्तियों को फिर से जगाए। तो फिर मैंने वैसी जगह जाना शुरू किया — मॉल्स, पब्स — ये जो पीछे छोड़ चुका था मैं सब।

अब ऐसी जगह पर जब मैं जाता था तो फिक्स्ड एजेंडा (निश्चित एजेंडा) लेकर जाता था और वो तीन-चार घंटे के लिए जाता था। मतलब आपको पता है कि आप जा रहे हो और आपको नोटिस (ध्यान) करना है, फोकस (केंद्रित रहना) करना है, देखना है कि अंदर कौनसे विचार उठ रहे हैं, कौन सी चीज़ें आकर्षित कर रही हैं।

तो अब ये तीन-चार घंटे के लिए जब मैं जाता हूँ, कंट्रोल्ड एनवायरनमेंट (नियंत्रित वातावरण) होता है एक तरह से, कर पाता हूँ मैं और पता भी चलता है कि क्या हो रहा है। और बड़ा एनर्जी-इन्टेन्सिव टास्क (ऊर्जा-गहन कार्य) लगता है। और जब वहाँ से वापस आता हूँ और नॉर्मल (साधारण) ज़िंदगी शुरू होती है, ऑफिस शुरू होता है, तो पता ही नहीं चलता कि कब वो बेहोशी में बाक़ी बहुत सारे विचार आए जो छूट गए। पोस्टमॉर्टम कर पाता हूँ, लेकिन तब का तब देख नहीं पाया। इसमें मतलब मैं कहाँ चूका हूँ? मैं सोचता हूँ कि अगर ये 24x7 करना है तो बहुत ज़्यादा एनर्जी इन्टेन्सिव है ये। कोई कैसे करे? मार्गदर्शन कीजिए।

आचार्य: उतनी ही लगती है *एनर्जी*। थकाने वाला काम है। एक तरह का आंतरिक तनाव है ये। इसका चयन करना होता है। होश जो है, हल्की बात नहीं होती। उसमें टेंशन (तनाव) बहुत होता है। इसलिए तो लोग शराब वगैरह पीते हैं ताकि होश हटे। होश हटता है तो साथ में तनाव घट जाता है। हम चूँकि बेहोश लोग है न, तो हमें जब होश आता है तो तनाव के साथ आता है।

हाँ, जब होश आपका और बढ़ता है, पूरा होने लगता है तो तनाव एकदम घट जाता है। तो उसकी वो कीमत चुकाने के लिए तैयार रहना होगा। बेहोशी के अपने मज़े हैं, बेहोशी के अपने मज़े हैं।

अर्जुन को एक नाम दिया गया है गीता में – गुड़ाकेश। 'गुड़ाका' माने होता है नींद और बेहोशी; नींद और बेहोशी, तमसा। तो अर्जुन को नाम दिया गया है जिसने नींद और बेहोशी को जीत लिया। इतनी बड़ी बात है ये नींद और बेहोशी को जीतना, तमसा।

प्र: तो मतलब और साधना की ज़रूरत है फिर।

आचार्य: हाँ, ज़ोर लगाते रहना पड़ेगा लगातार, ज़ोर लगाते रहना पड़ेगा। मन तो चाहेगा कि बेहोशी में बह जाए। कहीं कुछ चल रहा है, आप भी…। जैसे कहते हैं न ऑफिस (दफ़्तर) में कुछ हो रहा है, गो विथ द फ़्लो (बहाव के साथ चलो)। वो कौनसा फ़्लो है? वो बेहोशी का फ़्लो है।

जैसे एक लाश डाल दी गई है किसी नदी के प्रवाह में और वो लाश बहती चली जा रही है अपना, या कोई बेहोश आदमी है, वो बहता चला जा रहा है। तो उस तरह के फ़्लो को आजकल बड़ा महत्त्व दिया जाता है, कि इतना सोचो मत, *गो विथ द फ़्लो*। कोई ये नहीं पूछता वो कौनसा प्रवाह है, किस फ़्लो की बात कर रहे हो। वो तमसा का प्रवाह है।

और उसके खिलाफ़ जाने में कोई इसमें व्यर्थ दिलासा देने की बात नहीं है। हमें यथार्थ पता होना चाहिए। जब आदत ये पड़ी होती है जन्म से ही कि बेहोश चलो बस, तो उस समय जागृत रहकर चलना, एक आंतरिक अनुशासन से जीना, बड़ा उबाऊ, खिझाने वाला और भारी काम लगता है। लगातार यही लगता है कि मैं कब ये होश वगैरह को किनारे रख करके मौज मार लूँ।

जैसे कहते हैं न कि लेट योर हेयर लूज़, हिट द डांस फ्लोर और बिलकुल! उसमें मज़ा आता ही इसीलिए है क्योंकि उसमें बेहोशी है।

अध्यात्म का मतलब ये है कि बेहोशी का जो मज़ा है, उससे ज़्यादा बड़ा मज़ा मुझे चाहिए। अगर आप आध्यात्मिक नहीं हैं तो फिर तो बेहोशी के मज़े ही काफ़ी हैं। और बेहोशी में मज़ा निस्संदेह होता है। हम मना नहीं कर रहे। शराब में मज़ा होता है, नींद में मज़ा होता है, प्रमाद में मज़ा होता है। जितने काम चेतना को गिराते हैं, उनमें सब में मज़ा होता है। होता है कि नहीं?

आप गंदा खाना खाइए, भारी बिलकुल, गरिष्ठ, तामसिक, देखिए कितना मज़ा आएगा! लेकिन वो खाते ही आपको क्या होता है? नींद आती है, देखा है? शरीर भारी हो जाता है, इधर (सिर की ओर इशारा करते हैं) रक्त प्रवाह कम हो जाता है और आपको नींद-सी आनी शुरू हो जाती है। लेकिन मज़ा तो आ गया।

तो आपको गिराने वाले सब वो काम होते हैं जो आपको सुख देते हैं।‌ अब आप उन्हें कैसे छोड़ोगे? वो काम तो सुख देते हैं। तभी छोड़ सकते हो जब उस सुख से कहीं ऊँचा आनन्द आपको कहीं और मिल रहा हो।

अध्यात्म का मतलब है जो बेहोशी का सुख है, मज़ा, मैं उससे ऊँचा आनन्द पकडूँगा, और उसके लिए अगर मुझे जान का ज़ोर लगाना पड़ता है तो लगाऊँगा। संकल्प दिखाऊँगा पूरा।

प्र: आचार्य जी, एक दूसरा सवाल था। मुक्ति की राह पर भजना या भजन करना कैसे सहायक होता है?

आचार्य: भजने का अर्थ लगभग वही है जिसकी अभी बात कर रहे थे। यही है भजना। भजना यही है। निरंतर याद रखना, लक्ष्य पर लगातार निगाह रहे। वो बात इतनी रूखी न लगे इसीलिए मैं उसको प्रेम कहता हूँ। लक्ष्य बोलो तो ऐसा लगता है जैसे शिकार करने निकले हो। मैं उसको प्रेम कहता हूँ। उस पर लगातार निगाह रहे, प्रेम हो गया है। अब सीधे चलना आसान हो जाता है, प्रेम हो गया है।

प्र: धन्यवाद, आचार्य जी।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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