प्रश्नकर्ता: हम अहंकार के कारण इतना जानते हैं खुद को जितने शरीर है क्योंकि जानने वाला भी शरीर होता है। तो अगर केवल शरीर से जो भी जाना जा रहा है, शरीर के थ्रू, उसकी नेति नेति कर के फिर, मतलब जो मैं शरीर के थ्रू जान रहा हूँ इसलिए मैं खुद को शरीर जान रहा हूँ। जो भी मैं शरीर के थ्रू जानता हूँ, उसपर विश्वास हो जाता है या फिर..
आचार्य प्रशांत: जो आप बोल रहे हो, वो बिल्कुल ठीक है। जो शरीर के लिए है, वो शरीर के लिए तो तथ्य है ही न तो उसको वहीं पर रोक दो, शरीर के लिए तथ्य है, आप क्यों बीच में घुस रहे हो? ठंड शरीर के लिए तथ्य है। आप मत घुसो, विश्वास ठीक है वो, कोई यहाँ पे लाके, गरम चिमटा लगा दे। आप बोलो के विश्वास नहीं करना, क्यों नहीं करना है। शरीर है, उसपे तापमान डालोगे तो वो शरीर के लिए है, शरीर रहे। इससे यह आवश्यक थोड़ी हो जाता है कि वो शरीर के भीतर वो भी रहे।
जो कहता है कि ‘मैं’, उसका होना क्यों ज़रुरी है। कोई लाके यहाँ कुछ गरमा-गरम छुआ देता है, तो ‘मैं’ से पूछ के हाथ हटता है? क्या होता है रिफ्लेक्स ऐक्शन में? ‘मैं’ के लिए समय भी होता है? हम ही है कर्ता, मैं ही हूँ। बस, जहाँ समय नहीं रहता, वहाँ थोड़ी उसकी पोल खुल जाती है। इसी लिए अहम् और समय साथ साथ चलते हैं। इसमें भी अगर धीरे-धीरे यहाँ पर गर्मी लगे, तो अहम् दावा ठोक देगा।
मैंने हाथ झटक कर हटाया, क्योंकि विचार कर लेगा न कोई अच्छा, तो मैंने झटक कर हटाया। लेकिन अभी एकदम अचानक से कोई गरम चीज़ छू जाए या करेंट लग जाए, तो फिर थोड़ा मज़बूर हो जाता है। झूठ उतना नहीं बोल पाता फिर मानना पड़ता है कि इसमें मेरा तो कोई रोल ही नहीं था। या आप सो रहे हैं, पीछे से किसी ने एक तार छुआ दिया करेंट का एकदम उछल जाएँगें, तब भी बोलेंगे क्या कि एक विद्वान सद्गुणी और चरित्रवान पुरुष होने के नाते मैंने विचार पूर्वक ये निश्चय करा कि मुझे उछलना चाहिए? तब तो नहीं कहोगे।
जैसे जो चीज़, उस तार के साथ हो जाती है सहसा आपके बिना, 'विदाउट यू,' जीवन मुक्ति का अर्थ है कि वैसे ही पूरी ज़िन्दगी भी चल सकती है आपके बिना। यही है जीवन मुक्ति। यही है वो मरण, जिसके बाद मृत्यु नहीं आती। अपने बिना जीना सीखो।
प्रश्नकर्ता: सर दूसरों की मृत्यु का दुख और स्वयं की मृत्यु का भय कब है? वो भी शरीर के लिए ही रहेगा, हमारे लिए तो जो है बस, उसको यही जानेंगे कि हाँ, ये शरीर के लिए है।
आचार्य प्रशांत: जितना उनकी मृत्यु का दुख होता है, उतना ही अपनी मृत्यु का भय होता है। उनकी मृत्यु हमारी मृत्यु की याद दिलाती है। और किसी की भी मृत्यु के दुख के मूल में अज्ञान बैठा है। जब अज्ञान नहीं रहता, तो रिश्ते में बिछुड़ने का डर नहीं रहता।
रिश्ते में एक संपूर्णता रहती, ऐसी सम्पूर्णता, जो हर पल संपूर्ण है, अतः समाप्त है। समाप्त से आशय यह है कि आगे के लिए नहीं है कुछ, उसमें लंबित पेंडिंग नहीं है। संपूर्ण का मतलब होता है कि अभी ही पूरा, अभी अभी ही पूरा है तो आगे के लिए कुछ बचा नहीं है। तो ये थोड़ी कहेंगे, 'हाय, तुम चले गए, अरमान शेष रह गए।' जो है, अभी ही टोटल है, अब्सोल्यूट है, फिनिश्ड है, समाप्त है। कोई चीज़ कल पर छोड़ी ही नहीं है, कामनाएँ छोड़ी जाती है कल पर और भय छोड़े जाते हैं कल पर।
हमारी तुम्हारी बात में न कल की कोई कामना है, न कल के लिए कोई डर है, जो है आज ही पूरा है। जब रिश्ता ऐसा होता है, तो फिर उसमें विदाई भी सहज रहती है।
अब विदाई कैसी होती है इससे कल्पना मत करने लग जाइएगा। रिश्ते को भरा पूरा रखिए।
किसी के साथ कामना का रिश्ता बनाओगे तो ये तो होगा ही कि आम बड़ा करा था, फल आने से पहले कट गया, हाय, हाय करके रोओगे या कि अभी तक इतने फल देता था अब अगले बार से नहीं देगा फिर से रोओगे। स्वस्थ रिश्ता माने ऐसा जिसमें भविष्य नहीं है, वो वाला नहीं कि कल मेरे बच्चे बड़े होंगे, तो मुझे बड़ा आराम देंगे।
मेरे बाद भी इस दुनिया में ज़िन्दा मेरा नाम रहेगा, जो भी तुझे देखेगा, तुझे मेरा लाल कहेगा। ये सब विषैली बातें, ये रिश्ते को जहर से भर देती है। हर सुबह ऐसे जैसे रिश्ता आज ही शुरू हुआ है और हर शाम ऐसे जैसे आज ही पूरा हो गया। सब कुछ है, तुम हमारे दिमाग में नहीं चलते हो, दिमाग में वो चलता है, जो अधूरा होता है, दिमाग में वो चलता है, जिससे अभी हिसाब बराबर करना होता है।
हमारा तुमसे हिसाब सदा बराबर है अकाउंट्स की भाषा में। इसको क्या बोलते हैं हमारी बुक्स बैलेंस्ड है न। कुछ अभी लेनदारी बाकी है न देनदारी बाकी है। सब बिल्कुल बढ़िया है। प्रेम से अपरिपूर्ण आदमी तो स्वार्थी होता है न। किसी के जाने पर रो रहे होगे, इसलिए रो रहे होगे, 'अरे, आज इससे जो मिला होता, वो मिल नहीं रहा है,' माने भविष्य का बहुत ख्याल था। और अगर इसलिए रो रहे हो कि अभी इसे हम कुछ दे सकते थे दिया नहीं तो काहे को हाथ बाँधा था? दिया क्यों नहीं, पहले ही क्यों नहीं दे दिया? जितना देना है, आज ही दे दो ना।
भीम ऐसे तो बस पेटवान थे, पर ज्ञानवान युद्धिष्ठिर पर एक बार बहुत हँसे थे। पता है वनवास में थे सब लोग, जाने कौन लोग मिले युद्धिष्ठिर को, उन्होंने कुछ माँगा या कुछ और कहा। युद्धिष्ठिर बोले, 'कल आना।'
भीम नगाड़ा लेकर निकल पड़े इधर-उधर जो गाँव वाले मिलते रास्ते में तो बोलते, 'सुनो सुनो सुनो। मेरे भैया ने मौत को जीत लिया है।' युद्धिष्ठिर लगे बगले झाँकने बोले पगला गया है क्या, कोई रोको इसको बड़ी बदनामी कर रहा है। बोले तुम्हें कैसे पता कि तुम आज उनको जो बोल रहे हो कल के लिए, तुम कल होगे भी? वैसे तो बड़े धर्मराज हो, मुझे देखो मैं कुछ कल पर छोड़ता हूँ, पूरा साफ कर देता हूँ। मांजने की जरुरत भी नहीं पड़ती।
समझ में आ रही बात? हाथ बाँध के नहीं चलते।