प्रश्नकर्ता: आचार्य जी, प्रणाम। तत्वबोध एवं आत्मबोध में शंकराचार्य जी द्वारा ब्रह्म को निराकार-गुणातीत आदि बताया गया है, परंतु उनके द्वारा स्थापित आश्रमों को शक्तिपीठ कहा जाता है तथा उनके द्वारा शिव, विष्णु आदि पर भी श्लोकों की रचना की गई है। कृपया उपरोक्त संबंध में मार्गदर्शन की कृपा करें।
आचार्य प्रशांत: ब्रह्म, गुणातीत-निराकार निश्चित है लेकिन जिससे ब्रह्म की बात की जा रही है, वह तो गुणों का ही सौदागर है। वह तो रूप और रंग और आकार के अतिरिक्त किसी को जानता नहीं। आप जानते हैं, किसी ऐसे को जिसका रूप, रंग, आकार न हो?
बात ब्रह्म की की जा रही है लेकिन आपसे की जा रही है; बात निराकार की की जा रही है लेकिन साकार से की जा रही है, तो साकार को निराकार तक जाने का रास्ता भी बताना पड़ेगा न? नहीं तो बड़ी विचित्र दुविधा है। जो साकार ही है और जिसकी पूरी दुनिया ही साकार है, उसको तुम बार-बार बोल रहे हो ― निराकार, निराकार, निराकार। वह कहेगा, निराकार का करूँ क्या, मुझे तो बस आकार पता है।
समझो बात को!
सत्य निराकार है, तुम क्या हो? साकार। अब साकार से मैं बार-बार बोलूँ कि वो ऊपर परमात्मा निराकार है, तो वो सिर खुजायेगा और परेशान हो जाएगा। कहेगा, भाई जी, जितनी मैंने ज़िंदगी जानी है, उसमें तो मैंने जो जाना सबकुछ साकार ही है; यह आप किसकी बात कर रहे हो, जो निराकार है? मैं उस तक कैसे पहुँचूँ? कैसे उससे रिश्ता बनाऊँ? कैसे उसे पाऊँ? पूजा भी कैसे करूँ उसकी अगर वह निराकार है?
तो साकार को बड़ी मुश्किल हो जाती है। उस मुश्किल के समाधान के लिए बड़ी सुंदर युक्ति निकाली गई है। उस युक्ति की बात आपने भी यहाँ पर कर ही दी है। वह युक्ति है — देवमूर्ति। देवमूर्ति पुल है, साकार और निराकार के बीच का।
आपने कहा न कि जब शंकराचार्य जी कहते हैं कि ब्रह्म निराकार और गुणातीत है, तो उनके द्वारा स्थापित आश्रमों को शक्तिपीठ क्यों कहा जाता है? और शंकराचार्य जी के द्वारा शिव, विष्णु आदि पर श्लोकों की रचना क्यों की गई है? क्योंकि शिव और विष्णु बड़ी विशिष्ट छवियाँ हैं, बड़ी विशिष्ट मूर्तियाँ हैं। वह सीढ़ी हैं, बड़ी नायाब सीढ़ी हैं; ऐसी सीढ़ी जो साकार से शुरू होती है और उसका दूसरा सिरा बिलकुल आकाश में है। ज़मीन को आसमान से मिलाने वाली सीढ़ी है वो; यह मूर्ति का काम होता है। शिव-विष्णु माने मूर्तियाँ, छवियाँ सर्वप्रथम। है न?
वह मूर्त है; ब्रह्म अमूर्त है, विष्णु मूर्त है। उनकी अभिकल्पना, उनकी रचना बड़े बोध से, बड़े ध्यान से हुई है कि साकार व्यक्ति, साकार मन, जब इन साकार मूर्तियों पर ध्यान करेगा तो वह साकार का उल्लंघन करके, साकार को पार करके निराकार में प्रवेश कर जाएगा। जैसे कि कोई पुल को पार करके दूसरे तट पर पहुँच जाता है।
तो मूर्ति इसलिए है ताकि तुम अमूर्त तक पहुँच सको। मूर्ति मूर्त के लिए है; तुम क्या हो? मूर्त। क्योंकि तुम मूर्त हो इसलिए तुम्हें मूर्ति दी जाती है; पर हर मूर्ति से काम नहीं चलेगा क्योंकि मूर्त तो यह भी है, मूर्त तो यह भी है *(पास में रखी चीज़ों की ओर इंगित करते हुए)*। जो कुछ साकार हो, जो पकड़ में आ सके सो मूर्त है। मूर्त तो यह सब भी है, हर इंसान मूर्त है। लेकिन नहीं! कोई ख़ास मूर्ति चाहिए होती है; शिव, विष्णु वह ख़ास मूर्तियाँ हैं, विधियाँ हैं, तरक़ीब हैं, पुल हैं, सीढ़ी हैं। जितने तरीक़े से कहो, उतने तरीक़े से बोलूँ। इस पार से उस पार ले जाते हैं, तुम्हारे लिए ज़रूरी हैं क्योंकि तुम्हें तो मूर्ति ही चाहिए।
तो मूर्ति पर ध्यान करते हो, आगे निकल जाते हो लेकिन फिर उस ध्यान की एक शर्त है — मूर्ति पर अटक मत जाना। पत्थर का नाम शिव नहीं है। लोग मूर्तियों पर खूब अटकते थे इसीलिए कबीर साहब आदि संतों को मूर्तिपूजा का कितना विरोध करना पड़ा क्योंकि लोग मूर्ति पर ही अटक कर रह जाते थे। कबीर साहब की वाणी है ―
'कितनी मूरख दुनिया है जो मूरत पूजन जाए। ता से तो चक्की भली जाका पीसा खाए।'
यह जो मूर्ति का पत्थर है, उससे बड़ा पत्थर तो तुम्हारी चक्की का है, कम-से-कम उससे कुछ व्यावहारिक लाभ तो होता है। यह मूर्ति के पत्थर से तुम्हें क्या लाभ होता है? मूर्ति के पत्थर से इसलिए लाभ नहीं होता क्योंकि हमने मूर्ति का दुरुपयोग किया है। मूर्ति थी ही इसीलिए कि उसका प्रयोग तुम निराकार में प्रवेश के लिए करो लेकिन हम मूर्ति से ही चिपक कर रह गए।
तब संतो को हमें याद दिलाना पड़ा कि मूर्ति पुल है और पुल पर घर नहीं बनाते, पुल को पार करते हैं। तुमने पुल पर ही पिकनिक मनाना शुरू कर दिया, पार ही नहीं कर रहे; कि मूर्तिपूजा ही सबकुछ हो गई, लेकर घूम रहे हैं इधर-से-उधर, भूल ही गए कि मूर्ति का उद्देश्य क्या था। ठीक है?