मूल्य आपके चुनाव का है, स्थिति का नहीं || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

Acharya Prashant

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मूल्य आपके चुनाव का है, स्थिति का नहीं || श्रीदुर्गासप्तशती पर (2021)

आचार्य प्रशांत: तो यह सूत्र स्पष्ट होना बहुत ज़रूरी है। मूल्य आपकी चेतना का है, आपके शरीर का नहीं और मूल्य आपके चुनाव का है, आपकी स्थिति का नहीं। अच्छे से पकड़ लीजिए इसको – मूल्य आपकी चेतना का है, आपके शरीर का नहीं और मूल्य आपके चुनावों का है, आपकी स्थिति का नहीं।

जिसको आप बुरी स्थिति कहते हैं, उस बुरी-से-बुरी स्थिति में भी जो व्यक्ति श्रेष्ठ चुनाव कर रहा है, वह बेहतर है उस व्यक्ति से जो आपके मुताबिक बेहतर-से-बेहतर स्थिति में है लेकिन घटिया चुनाव कर रहा है। स्थिति नहीं देखो किसी की भी, स्वयं को देखना हो चाहे किसी अन्य व्यक्ति का मूल्यांकन करना हो, स्थिति नहीं देखो, उसके चुनावों को देखो।

शरीर तुम्हारी स्थिति है, चेतना तुम्हारा चुनाव है। शरीर तुम बदल नहीं सकते और चेतना बस वैसी ही होती है जैसा तुमने उसे बदल-बदलकर बना दिया होता है। शरीर से बड़ा बंधन दूसरा नहीं और चेतना से बड़ी मुक्ति दूसरी नहीं।

दिखा दो मुझे, कौन है महापुरुष जो अपने दो हाथों को छः हाथ बना पाया हो? दो हाथ माने दो हाथ का बंधन। दो को न एक कर सकते हो, न छः कर सकते हो। दो कान माने दो कानों का बंधन, न दो को एक कर सकते हो, न छः कर सकते हो। शरीर बंधन है। पुरुष पैदा हुए तो पुरुष अब जीवन भर पुरुष ही रहना है, बंधन है कि नहीं है? अपनी नहीं चल सकती अब इसमें, पुरुष हैं तो हैं। स्त्री पैदा हुए तो स्त्री ही रहना है, अच्छा लगे, बुरा लगे।

शरीर बंधन है इसीलिए शरीर से मुक्ति चाहिए। चेतना महामुक्ति है। जो जितना शरीर से जुड़कर जिएगा, वह उतना बंधन में जिएगा। जो जितना चैतन्य भाव में जिएगा, वह उतना मुक्ति का जीवन जिएगा। चेतना महासुख है, मुक्ति परमानंद है और एक शरीर-केन्द्रित जीवन जीना ही महादुःख है।

क्या हम शरीर की भर्त्सना कर रहे हैं? न, हम शरीर की वस्तुस्थिति से आपको अवगत करा रहे हैं। और हम कह रहे हैं कि शरीर भी पूजनीय हो जाता है जब शरीर हो जाए चेतना का अनुचर। अनुचर माने? पीछे-पीछे चलने वाला। शरीर अपना ऐसा कर दो जो चेतना के पीछे-पीछे चले। अब तुम्हारे शरीर की भी पूजा होगी।

सब देवताओं की मूर्तियाँ भी पूजी जाती हैं न? मूर्तियों में तो कुछ नहीं, आदमी की मूर्ति हाड़ है, माँस है और देवताओं की मूर्ति तो मात्र पाषाण है, फिर भी पूजी जाती है, क्यों? जो कुछ सत्य के पीछे-पीछे चलने लग जाता है, वह सत्य समान ही पूजनीय हो जाता है।

संतों ने कितना तो समझा कर कहा है, याद करना, कि हरिजन में और हरि में अंतर नहीं है। कुछ याद आया? गुरु तेग बहादुर ने कहा है। हरिजन में और हरि में अंतर नहीं है। जो हरि के पीछे-पीछे चलने लग गया, उसमें और हरि में अब कोई अंतर ही नहीं है। और अंतर अगर है तो वह हरि के पीछे चला कहाँ? फिर तो वह दूरी बनाकर चल रहा है, बचकर चल रहा है।

इसीलिए फिर जो साकार, सशरीरी गुरु होता है, उसकी इतनी गरिमा गायी गई है। क्योंकि उसमें और सत्य में कोई अंतर नहीं न, अगर गुरु नकली नहीं है तो, दोगला नहीं है तो, अगर वह वाकई अपने-आपको पीछे रख करके सच के लिए जीता है तो। तब फिर संतजन कहते हैं कि खड़े हो गुरु-गोविंद दोनों, तो पाँव तो मैं गुरु के ही छुऊँगा। सच के पाँव होते कहाँ है छूने के लिए? सच तो अनुपलब्ध होता है, उपलब्ध तो वह एक ही तरीके से हो सकता है कि तुम्हें कोई ऐसा मिल जाए जो सच के पीछे-पीछे चलने वाला।

तो हम कह रहे हैं कि शरीर कोई भर्त्सना की वस्तु नहीं है। शरीर की भर्त्सना करने लग गए तो जियोगे कैसे, यह पूरा संसार ही शरीर है। शरीर माने यह सब कुछ जो भौतिक है, स्थूल है। जो शरीर का विरोधी हो गया, वह तो जी ही नहीं पाएगा क्योंकि दुनिया तो शरीरों से ही भरी हुई है। कंकड़, पत्थर, नाले, पहाड़, आदमी, औरत, बच्चे, बूढ़े, ये सब क्या हैं? शरीर ही तो हैं। बिस्तर क्या है? शरीर है। यह द्वार क्या है? शरीर है। खिड़की क्या है? शरीर है। दीवार क्या है? शरीर है। सब शरीर हैं, स्थूल। तो इनकी निंदा करके कहाँ जाएँगे हम?

बात ज़रा सूक्ष्म है, समझनी है। अपने-आपमें उनका कोई मूल्य नहीं है, उनका कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं है, शरीर का कोई स्वतंत्र मूल्य नहीं है। शरीर निरालंब नहीं है, शरीर का मूल्य अवलंबित है, टिका हुआ है, निर्भर करता है, किस पर? कि शरीर चेतना के काम आ रहा है कि नहीं आ रहा है। तो शरीर का मूल्य है, पर स्वतंत्र मूल्य नहीं है।

अध्यात्म क्या शरीर का विरोधी है? नहीं, बिल्कुल नहीं है। सत्य के पक्ष में है, सत्य के पक्ष में अगर लग जाए तो अध्यात्म सत्य को भी पूजता है, शरीर को भी सत्य की तरह ही पूजेगा। संतो के पावों की धूल लोग माथे पर लगाते थे, घर ले जाते थे। अब धूल तो धूल है, धूल में क्या है ऐसा? किसके पाँव की धूल है, वह पाँव किसके काम आ रहा था, वह पाँव किस दिशा जा रहा था, बात ये है।

अब आमतौर पर जब शेर और गीदड़ की बात आए तो तुम ‘शेर’ शब्द को इस तरह से इस्तेमाल करते हो जैसे कोई बड़ा पहलवान हो, मजबूत हो, निर्भीक हो, कहते हो न कि बड़ा शेर आदमी है। और जिस किसी को तुम्हें थोड़ा नीचा बताना होता है, उसको तुम कह देते हो कि गीदड़ कहीं का। ऐसे ही करते हो न?

पर देखो, अभी यहाँ पर क्या हो रहा है इसी अध्याय में? एक देवी हैं जो सिंह की भाँति ललकारती हैं और एक देवी हैं जो गीदड़ियों सी आवाज़ करती हैं। एक देवी हैं जो सिंह की भाँति ललकारती हैं और एक देवी हैं जो सहस्त्रों गीदड़ियों सी आवाज़ करती हैं। शेर, गीदड़ बराबर हो गए दोनों, बिल्कुल बराबर हो गए। और गीदड़ को शेर के बराबर होने का और कोई मौका नहीं मिलने वाला। तुम्हें अगर प्रकृति ने गीदड़ पैदा किया है तो यही मौका है शेरों की बराबरी करने का, तुम देवी के साथ खड़े हो जाओ, गीदड़ भी शेर जितनी महिमा पाएगा, पूजा जाएगा।

उल्लू बाज़ जितना यश पाता है और गीदड़ शेर जितना, जब ये दोनों सच के साथ खड़े होते हैं। और अगर गीदड़ अपने ही अनुसार जिएगा तो ‘गीदड़’ शब्द का उपयोग ही एक गाली मात्र है। अब कोई गीदड़ अगर जीवन में दुरदुराया जा रहा हो तो इसमें गलती कहाँ पर हुई है कि वह गीदड़ पैदा हुआ? न, गलती यह हुई है कि उसने सच का साथ नहीं दिया, गलती यहाँ पर हुई है। लेकिन वह अपने-आपको क्या बताएगा? “मैं तो अभागा हूँ, मैं तो गीदड़ बनकर पैदा हुआ इसीलिए तो मेरी कोई मान-महिमा नहीं है। कोई इज़्ज़त ही नहीं करता मेरी क्योंकि मैं तो गीदड़ हूँ।”

नहीं, तेरा अपमान इसलिए नहीं है कि तू गीदड़ है; तेरा अपमान इसलिए है क्योंकि तू अपने शरीर के अनुसार काम कर रहा है, चेतना के अनुसार नहीं। तुझे शरीर गीदड़ का मिला और तू गीदड़ ही समान कर्म किए जा रहा है। कुछ और भी करके दिखा न। चुनाव का अधिकार उपलब्ध है, प्रयोग कर। गीदड़ पैदा हुआ तू, इसमें तेरी गलती नहीं, पर गीदड़ बने-बने घूम रहा है तू, इसमें तेरी पूरी गलती है।

तुम देख रहे हो अध्यात्म कितना ज़बरदस्त रूप से मुक्ति का पक्षधर है। किसी भी तरह का बंधन नहीं स्वीकार करता। कहता है कि गीदड़ हो तो गीदड़ नहीं रहना, सिंह हो तो सिंह नहीं रहना। जो सिंह, सिंह पैदा हुआ है लेकिन सिंह ही बने-बने घूम रहा है, वह क्या पाएगा अधिक-से-अधिक? किसी हिरण का माँस पा जाएगा, फिर किसी शिकारी का शिकार बन जाएगा। नहीं भी शिकार हुआ तो एक दिन बूढ़ा हो करके भूखा मरेगा। कौन सा बड़ा मान मिल गया?

प्रश्नकर्ता: आपने बताया कि शरीर के प्रति हिंसा, हिंसा नहीं है; चेतना के प्रति हिंसा, हिंसा है। तो बहुत लोग इसे कुतर्क की तरह प्रयोग करते हैं कि जो निर्दोष जानवर होते हैं, उनको मार देना। तो इसको कैसे समझें?

आचार्य: नहीं, मारोगे तो उसी को न जो चेतना के तल पर कुछ गलत काम कर रह हो। जानवर ने ऐसा क्या किया है कि उसके शरीर को मार रहे हो? उसने ऐसा क्या किया है कि उसे मार रहे हो? उसकी चेतना अगर उठ नहीं रही तो गिर भी तो नहीं रही है। उसने ऐसा क्या किया है कि उसकी हत्या की जाए?

बुराई, हमने कहा, सदा हमारे चुनावों में होती है, हमारे शरीरों में नहीं। जानवर ने ऐसा कौन सा गलत चुनाव कर दिया है जो तुम उसकी हत्या कर रहे हो?

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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