मज़बूत कंधे, तेज़ बुद्धि, विराट हृदय - ऐसा युवा चाहिए || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

Acharya Prashant

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मज़बूत कंधे, तेज़ बुद्धि, विराट हृदय - ऐसा युवा चाहिए || आचार्य प्रशांत के नीम लड्डू

आचार्य प्रशांत: तुममें से भी ज़्यादातर लोग ट्वेंटीज़ (दूसरे दशक) में, थर्टीज़ (तीसवें दशक) में हैं। मुझे नहीं लगता कि अभी मेरे सामने जितने लोग हैं, उसमें से ज़्यादा लोग चालीस पार के हैं, शायद कोई भी नहीं।

क्या करते हो दफ़्तर के बाद, ये बताओ न। और कारण है कि मैं क्यों पूछ रहा हूॅं कि दफ़्तर के बाद क्या करते हो। तुम एक मन लेकर के दफ़्तर में आते हो न दस बजे और दफ़्तर में आते ही तुम दूसरे आदमी नहीं बन जाओगे। आदमी तो तुम वही हो जैसे घर से चले थे। घर से जो आदमी चला है वो दफ़्तर में आकर दूसरा नक़ाब पहनने की कोशिश तो कर सकता है, पर मूलभूत रूप से तो उसकी वृत्ति वही है, व्यक्तित्व तो वही है जैसा वो घर से लेकर चलता है।

तो मैं कह रहा हूॅं कि पहले उस आदमी को देखो जो दफ़्तर में प्रवेश करता है। वो यदि बदलने लग गया तो दफ़्तर में तुम क्या करते हो, दफ़्तर में घटने वाली घटनाओं से तुम पर क्या असर पड़ता है, वो भी बदलेगा।

तो मैंने कहा कि बताओ छ: बजे के बाद क्या करते हो।

उसने कहा, ‘कुछ भी नहीं ज़्यादा। कभी बाज़ार गया, कुछ ख़रीद लाया। यूट्यूब पर दो ही चीज़ें देखता हूॅं, या तो आपकी वीडियोज़ देखता हूॅं या क्रिकेट देखता हूॅं।'

मैंने कहा, ‘क्रिकेट देखते हो, खेलते भी हो क्रिकेट?’

बोला, ‘मेरी सेहत देखकर समझ रहे होंगे कि मैं देखता हूॅं कि खेलता हूॅं। मेरा क्रिकेट बस ऑंखों से खेला जाता है, हाथ कभी चले नहीं मेरे।’

मैंने कहा, ‘और? कुछ गाते हो, बजाते हो? जीवन में कुछ कला है, कुछ रस है?

बोला, ‘सागर में हूँ, यहाँ पर कहाँ कुछ!'

मैंने कहा, ‘सागर कोई अफ़्रीका का बहुत पिछड़ा हुआ गाॅंव तो नहीं है। इंटरनेट का ज़माना है, मूलभूत सुविधाएँ तो अब छोटे-छोटे शहरों और क़स्बों में भी उपलब्ध हैं।’ मैंने उससे कहा, ‘तुम क्यों नहीं कीबोर्ड बजाना ही सीख लेते, गिटार बजाना ही सीख लेते।’ मैंने उससे कहा, ‘तुम क्यों नहीं व्यायाम करते, जिम जाते, खेलते।’

दो ही चीज़ें होती हैं जो जीवन को समृद्ध करती हैं — तन के लिए व्यायाम, मन के लिए अध्यात्म।

और उस लड़के के जीवन से दोनों अनुपस्थित थे। शरीर का ख़याल रखो, दौड़ो, भागो, वर्जिश करो। और ये नहीं कि अपने ऊपर छोड़ दो। किसी इंस्टिट्यूशन (संस्थान) में एनरोल (नामांकन) करो। जिम भी एक इंस्टिट्यूशन है छोटा-मोटा। स्टेडियम भी एक इंस्टिट्यूशन है, जाओ और उसकी सदस्यता लो। जाओ और वहाँ पैसे जमा कराओ। जब पैसे जमा कराओगे तो भीतर से आवाज़ आएगी कि भाई, पैसे बर्बाद जाते हैं, चल, चल, दे तो आया ही है।

जाओ और वहाँ अपने जीवन का कुछ निवेश करो, इनवेस्टमेंट करो। कलाओं में उतरो, क्यों नहीं गाना सीखते? अभी नहीं सीख रहे हो तो कब सीखोगे, जब पचास पार कर जाओगे? क्यों नहीं तैरना सीख रहे? अभी नहीं सीखोगे तो कब, जब हाथ-पाॅंव कॅंपने लगेंगे?

ये हुई बातें तन की, और मन के लिए मैंने पूछा कि बताओ, पढ़ते क्या हो। बोले, 'पढ़ने से हमारा कोई सरोकार नहीं। हमें पढ़ना ही होता तो हम बहुत कुछ न कर गये होते, यूँही बैठे होते?'

मैंने कहा, ‘देखो, अभी तक तुमने जो पढ़ा वो सिलेबस (पाठ्यक्रम) पूरा करने के लिए और परीक्षा पास करने के लिए पढ़ा है, अपने लिए कुछ नहीं पढ़ा।' बोले, ‘ये तो है ही, पढ़ाई अपने लिए करता कौन है, पढ़ाई तो करी ही इसीलिए जाती है कि डिग्री मिल जाए। और हमारा हुनर ये है कि डिग्री भी हमने बिना पढ़े निकाली थी।' (श्रोतागण हॅंसते हैं)

मैंने कहा, ‘बढ़िया! तुम हुनरमन्द आदमी हो, खूब तुमने हुनर दिखाया है। लेकिन अब ज़रा कुछ दूसरा प्रयोग करके भी देख लो, अपने लिए कुछ पढ़कर देख लो।'

बोले, ‘अच्छा, बताइए, आपमें श्रद्धा है, आप कहेंगे तो पढ़ लेंगे, वैसे मन नहीं है हमारा।'

तो उनको मैंने तो दो-चार छोटी-छोटी किताबें लिखवायीं। राज़ी नहीं होते थे। मैंने कहा, ‘एक बार प्रयोग करके देखो।' मुझे तो पता ही है कि एक बार प्रयोग करने उतरेगा फिर आदमी पीछे हट नहीं सकता। वो चीज़ ऐसी है जिसका एक बार स्वाद लग गया तो जीवन ही बदलने लगता है। हुआ भी वही। अब पढ़ रहा है, मज़ा आ रहा है।

और मैंने उससे कहा है कि एक महीने बाद जब तुम मुझे मिलोगे तो तुम्हारा चेहरा दूसरा होगा। ऐसा नहीं कि बस कुछ आन्तरिक उन्नयन हो जाना है, तुम्हारा चेहरा ही दूसरा होगा और मुझे भरोसा है उसका चेहरा दूसरा होगा।

देखो, युवा होने का अर्थ होता है कि सुडौल शरीर हो, चौड़ी छाती, मज़बूत कन्धे और विराट हृदय, दुनिया की समझ। दुनिया की सारी क्रान्तियाँ जवान लोगों ने करी हैं, और क्रान्ति से मेरा मतलब पत्थरबाज़ी और हुल्लड़ नहीं है। क्रान्ति बहुत समझदार लोगों का काम होती है।

क्रान्ति का मतलब विनाश नहीं होता, क्रान्ति का मतलब एक नया सृजन होता है। वो जवानी जो पढ़ती नहीं, लिखती नहीं, जो अपनेआप को बोध से भरती नहीं, वो जवानी व्यर्थ ही जा रही है। लेकिन हम अपनेआप को कभी ज़िम्मेदार ठहराना चाहते नहीं, तो बहुत आसान होता है अपनी सारी समस्याओं के लिए अपनी वर्कप्लेस को, अपने कार्यालय को ज़िम्मेदार ठहरा देना।

मैंने पूछा एक से, मैंने कहा, ‘एक बात बताओ, तुम्हारी यहाँ की नौकरी छुड़वा देते हैं और मैं रेफ़रेंस देता हूॅं, मैं तुम्हारी नौकरी एक दूसरी जगह लगवा दूॅंगा। दिल पर हाथ रखकर कहना, दूसरी जगह पहुॅंच जाओगे तो क्या तुम्हारा तनाव घट जाएगा, दूसरी जगह पहुॅंच जाओगे तो क्या तुम्हारे जीवन में फूल खिल जाऍंगे? तुम तो तुम ही रहोगे न! और तुम जहाँ जाओगे, तनाव आकर्षित कर लोगे।’

तो बात इसकी नहीं है कि मेरे दफ़्तर का माहौल या मेरे काम का प्रकार या मेरे सहकर्मी ऐसे हैं या मेरा बॉस ऐसा है। देखो, बात अक्सर ऐसी नहीं होती है, बात का सम्बन्ध हमसे होता है। हम ऐसे हैं कि हम जो कुछ भी करेंगे, उसमें हम बोर (ऊब) ही हो जाएँगे। हम मनोरंजन करने भी निकलेंगे तो बोर हो जाएँगे। अच्छी-से-अच्छी पिक्चर लगी हो, सिनेमा हॉल में चले जाना वहाँ लोगों को ऊॅंघता पाओगे। एक दफ़े तो झगड़ा हो गया था, वो खर्राटा लिये जा रहा है ज़ोर-ज़ोर से। वहाँ भावुक दृश्य चल रहा है, लोग रोने को हो रहे हैं, इधर बीच में खर्राटें बज रहे हैं। (श्रोतागण हॅंसते हैं)

तुम्हें क्या लगता है ये आदमी जो एक सुन्दर-से-सुन्दर कृति में, मूवी में खर्राटें मार रहा है, ये अपने दफ़्तर में खर्राटें नहीं बजाता होगा? पत्नी के बगल में लेटता होगा, वो प्रेम का आमन्त्रण देती होगी, ये खर्राटें बजाता होगा। इसके खर्राटें तो हर जगह बजते होंगे। क्रिकेट खेलने पिच पर उतरता होगा बल्ला लेकर, उधर बॉलर दौड़ता हुआ आ रहा है, ये सो गये, कोई भरोसा नहीं।

पर ये अपनेआप को दोष नहीं देगा, क्योंकि अपनेआप को दोष देना किसको बुरा लगता है? अहंकार को बुरा लगता है। इसी को कहते हैं ईगो , अहंता। अहंता हमेशा अपनेआप को पूरा मानती हैं — ‘मैं तो ठीक हूँ, बढ़िया हूँ, पूर्ण हूँ मैं।' वो माहौल में दोष खोजती है। अच्छा, मैं ये भी इनकार नहीं कर रहा कि माहौल में कभी कोई दोष होता नहीं।

लेकिन मुझे बताओ, तुम्हें अपना जीवन जीना है या माहौल का जीवन जीना है, जल्दी बोलो। किसकी ज़िन्दगी जीनी है? अपनी जीनी है न। जब अपनी जीनी है तो अपनी सुधारो। माहौल का क्या है, कल बदल जाएगा। दफ़्तर आते-जाते रहते हैं, सहकर्मी आते-जाते रहते हैं, तबादले होते रहते हैं, प्रोन्नतियाँ होती रहती हैं, सब बदलता रहता है, पर ज़िन्दगी तो अपनी जीनी है न।

अपने साथ तो सदा रहोगे, इधर तो कुछ नहीं बदलना। जब तक मरे नहीं तब तक अपने साथ तो हो। तो जो सुधार करना है सबसे पहले अपने में करो।

और ये मैं तुम्हें पक्का आश्वासन दे रहा हूॅं, छ: बजे के बाद और दस बजे से पहले अगर तुम एक भरपूर और हरा जीवन जी रहे हो तो तुम पाओगे कि कार्यालय में भी तुम अलग हो, खिले हुए हो, तुम ज़्यादा विश्वसनीय हो। तुम्हारे काम में निखार आ गया है, तुम्हारी उत्पादकता, प्रोडक्टिविटी, एफ़िशिएंसी (क्षमता) बेहतर हो गयी है। लोग तुम्हें मानने लगे हैं, सम्मान देने लगे हैं, चाहने लगे हैं।

ये बातें सैद्धान्तिक नहीं हैं, ये बातें मैं रोज़ होते हुए देखता हूँ। तुम्हारे लिए आवश्यक है कि इन बातों से फ़ायदा उठाओ, जीवन में उतारो।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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