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माया को हराने का तरीका क्या है? || महाभारत पर (2018)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
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प्रश्नकर्ता: कुंती ने अपने पुत्र कर्ण को पैदा होते ही नदी में क्यों बहा दिया?

आचार्य प्रशांत: क्योंकि हम सब बड़े डरपोक लोग होते हैं, प्यार भी करते हैं तो छुप-छुपकर। हमारा सब कुछ सामाजिक होता है; हमारा प्रेम भी सामाजिक होता है। वह समाज से अनुमोदन माँगता है। वह समाज से कहता है कि, "स्वीकार कर लो न, मान्यता दे दो न।" और समाज से ना मिले स्वीकृति और मान्यता तो डर जाता है, छुपा देता है।

हम सब कुंती ही जैसे हैं। समाज के डर के मारे न जाने क्या-क्या छुपाए हुए हैं। कुंती ने कर्ण को छुपाया, तुमने भी तो न जाने कितने कर्ण छुपा रखे हैं, कि नहीं? न छुपाया होता कर्ण को तो न होती महाभारत।

मत पूछो कि कुंती ने कर्ण को क्यों बहा दिया, तुम बताओ कि तुम क्या-क्या छुपाए बैठे हो। हम सब कुंती हैं।

प्र२: आचार्य जी, प्रणाम। मेरा यह प्रश्न है कि क्या हम भविष्य में होने वाली घटनाओं को जान सकते हैं ताकि हम पहले से ही उन घटनाओं के परिणाम से बच सकें? क्या सावधानी रखनी चाहिए?

आचार्य: यह ऐसा ही है कि जैसे कोई गाड़ी चला रहा हो और पता करना चाहे कि बीस किलोमीटर आगे कौन-सा गड्ढा है। तुम यह तो देख लो कि सामने कौन-सा गड्ढा है। भविष्य की घटनाओं की क्यों बात करते हो? ख़तरे क्या भविष्य में छुपे हुए हैं?

जैसे कि अभी तुम बिलकुल सुरक्षित हो। जैसे कोई गले में साँप लटकाए हुए हो, घातक विषैला कोबरा, और सवाल पूछ रहा हो, "कोई मुझे बताएगा क्या कि आज से पाँच साल बाद मेरे ऊपर कौन-सी विपत्ति आने वाली है?"

पगले, तू जीयेगा पाँच साल? तुझे यह तो पता नहीं है कि तेरे गले में क्या लटका हुआ है, उसकी सुध ले नहीं रहा, आगे की बात कर रहा है।

हमें बड़ी रुचि होती है — "बताइए, आगे मेरे लिए क्या-क्या मुसीबतें हैं?" सबसे बड़ी मुसीबत ही यही है कि तुम आगे की इतनी सोच रहे हो।

ध्यान से देखो, अभी ही मुसीबतों की कमी नहीं है। उनका ख़्याल कर लो ज़रा, आगे की बात आगे। अभी का ख़्याल कर लिया, आगे फिर जो होगा, ठीक होगा। और अभी अगर वर्तमान पर ही तुम्हारी नज़र नहीं है, सजगता नहीं है, तो भविष्य की बात करना मूर्खता भर है।

प्र३: मेरा प्रश्न यह है कि क्या वरदान और श्राप जो पहले दिए जाते थे, क्या आजकल भी दिए जाते हैं?

आचार्य: हाँ, दिए जाते हैं। न वरदान वैसे होते थे पहले भी, जैसा तुम उनको पढ़ते और समझते हो, न श्राप वैसे होते थे जैसा तुम उनको पढ़ते या समझते हो।

पहली भूल तो यही होती है कि तुम सोचते हो कि कोई बाहरी आदमी आ करके तुमको वरदान दे जाता है या कोई बाहरी आदमी आ करके तुमको श्राप दे जाता है। नहीं, बाहरी नहीं; वरदान देने वाले शिवमात्र हैं, सत्यमात्र है, और वो तुम्हारे भीतर प्रतिष्ठित है। कोई बाहर वाला नहीं तुम्हें वरदान देता।

तुम पढ़ते हो कि शिव ने किसी को वरदान दिया, तो वो कैसे देते थे वरदान? कि कोई गंगा किनारे खड़ा हो करके बीस साल तक तपस्या करता रहा, तो फिर कहानी कहती है कि शिव प्रकट होते थे और कहते थे, "माँगो, वत्स। माँगो।" और फिर वत्स कुछ माँगता था और शिव बोलते थे, "तथास्तु।" ऐसे ही पढ़ा है न?

इस कहानी का असली मतलब समझो। बीस साल तक शिव की आराधना का अर्थ है लंबे समय तक सत्य के प्रति अगाध श्रद्धा। लंबे समय तक जब तुम सत्य को ही नमित रहते हो, तो फिर तुम्हें वरदान मिलता है। और क्या वरदान मिलता है?

यही वरदान मिलता है कि तुम्हारा नमन पक्का हो जाता है। तुमने इतने समय तक साधना की कि तुम सध गए, तुम सिद्ध हो गए। यही वरदान है। शिव बाहर से नहीं प्रकट होते; भीतर तुम्हारे जो आत्मा बैठी है, उससे तुम्हारा मन एक हो जाता है, यही वरदान है। तो साधना स्वयं अपना वरदान होती है।

'वर' शब्द महत्वपूर्ण है। 'वर' का अर्थ होता है श्रेष्ठ। वरदान मतलब तुम्हें श्रेष्ठ की प्राप्ति हो। और श्रेष्ठ क्या है?

आत्मामात्र।

जब मन को आत्मा की प्राप्ति हो गई, इसको कहते हैं वरदान।

दान क्यों कहते हैं?

क्योंकि मन अपने प्रयास से आत्मा को नहीं पा सकता। आत्मा की अनुकंपा होती है, आत्मा जब दान देती है तो मन आत्मा को पा लेता है, तो इसीलिए वरदान हुआ। आत्मा ज्यों मन को अपना ही दान दे रही हो। आत्मा ने स्वयं को दिया दान में मन को, क्योंकि आत्मा इतनी बड़ी है कि और कोई उसे दान में दे ही नहीं सकता, और आत्मा इतनी बड़ी है कि मन अपने प्रयासों से उसे पा नहीं सकता। तो आत्मा स्वयं अपने-आपको दान में देती है, कैसे मन को?

आत्मनिष्ठ मन को, साधक मन को।

यह वरदान हुआ। समझे?

कोई बाहर से नहीं आएगा वरदान देने। तुम्हारी ही जब सत्य के प्रति निष्ठा होगी, तो वह निष्ठा ही अपने-आपमें वरदान है।

इसी तरीके से श्राप है। श्राप क्या है?

कि जब तुम किसी तपस्वी की तपस्या खंडित कर देते हो, तो वह फिर तुमसे कहता है कि "तू भुगतेगा!" ऐसे ही श्राप मिलता था न? कि ऋषि बैठे थे समाधि में, और कोई आया धूर्त और उनको परेशान करने लग गया। बहुत देर सहते रहे, फिर बोले, “अब तुझे श्राप देता हूँ, जा उल्लू बन जा।"

कौन है जो तपस्या में लगा हुआ है?

तुम्हारे मन का ही एक हिस्सा है जो लगातार आकर्षित हो रहा है सत्य के प्रति, शांति के प्रति। और जब तुम्हारे ही मन का दूसरा हिस्सा उस पर हावी हो जाता है, उसकी तपस्या को खंडित कर देता है, तो तुम्हें ही यह श्राप लगता है कि अब तुम उल्लू की तरह जियोगे, क्योंकि था तुम्हारे भीतर कोई जो साधना कर रहा था, जो सही रास्ते पर जा रहा था। तुमने उसका रास्ता अवरुद्ध कर दिया, तुमने उसकी साधना तोड़ दी।

तो अब परिणाम भी कौन भुगतेगा? तुम ही भुगतोगे। और परिणाम यह है कि तुम्हारे भीतर जो अच्छे-से-अच्छा था, उसका तो रास्ता तुमने रोक दिया। तो अब जो बुरे-से-बुरा है, उसी की चलेगी। यही श्राप है।

तुम्हारे भीतर द्वंद मचा हो, दो हों, एक वह जो तपस्या कर रहा है, एक वो जो तपस्या खंडित करना चाह रहा है, और तुम जिता दो उसको जो तपस्या खंडित करना चाह रहा है, तो मिल गया न श्राप।

श्राप क्या है? कि तपस्या खंडित हो गई। अब झुलसोगे अपनी ही आग में। तपस्या हो रही थी कि शांति मिले और तपस्या टूट गई तो अब तुम ही अशांत रहोगे, जलते रहोगे। कोई बाहर वाला आकर श्राप नहीं देता।

श्राप देने वाला भी तुम्हारे ही भीतर मौजूद है और वरदान देने वाला भी। सब तुम्हारे ऊपर है, तुम जो चाहो सो होगा।

प्र४: आचार्य जी, अपनी तरफ़ चौबीसों घण्टे कैसे चौकन्ना रहें?

आचार्य: चौकन्ना रहने की ज़रूरत ही नहीं है। शांति से प्यार होना चाहिए। जब सोते हो तो चौकन्ने रहते हो क्या? शांति ऐसी है जैसे नींद। नींद में चौकन्ने रहते हो क्या? लेकिन जब नींद खंडित होती है तो?

”किसने खंडित करी?” (गुस्से में)

चौकन्ने थोड़े ही थे। बस जब नींद खंडित होने लगे, तो भीतर से आवेश उठना चाहिए। "कौन है जो मेरी नींद खंडित कर रहा है?" नींद का अर्थ समझते हो न? विश्राम। भीतर तुम विश्राम में हो और कोई आकर तुम्हारा विश्राम ख़राब कर रहा है। जैसे कोई नींद ख़राब करता है, तो फिर क्या करते हो?

प्र४: गुस्सा।

आचार्य: और नींद की सुरक्षा करते हो, कहते हो, "दोबारा नहीं आना, सो रहा हूँ।" वैसा ही रवैया शांति के प्रति होना चाहिए। भीतर कोई है जो आराम कर रहा है लगातार। उसका काम ही है आराम करना। कोई उसको अगर परेशान करेगा, तो, "बताए देता हूँ! दोबारा मत आना।” चौकन्ना नहीं रहना है।

प्र४: तो इससे हम यह सीखते हैं कि हमें संबंध भी उन्हीं से बनाने चाहिए जो हमारा विश्राम गहरा करें।

आचार्य: और क्या! जिसे सोना हो, वो ढोल बजाने वालों के कमरे में जाकर सोए तो मूर्ख ही होगा।

प्र५: आचार्य जी, आप कह रहे हैं कि पैसा भी ज़रूरी है, सेविंग (बचत) भी ज़रूरी है, मतलब जब तक शरीर है, तब तक ये सब चीज़ें ज़रूरी हैं?

आचार्य: जितनी शरीर को चाहिए हों, उतनी ही ज़रूरी हैं।

प्र५: हाँ, जितनी शरीर को चाहिए हों, उतनी ही ज़रूरी हैं। तो कुछ भी काम-धंधा करने जाओ, कुछ भी करने जाओ, तो दुनिया में तो बहुत अलग-अलग तरह के माहौल होते हैं, ये वाला माहौल तो मिलता ही नहीं है कहीं भी। इस कारण बहुत समस्या होती है।

आचार्य: कौन-सा माहौल?

प्र५: जैसे शांति की बात करें उनके सामने, अपनी शांति की तरफ़ बढ़ें।

आचार्य: चलो, तुम्हें दे देंगे माहौल। दिया।

प्र६: जब मैं देखती हूँ अपने-आपको तो मेरा जीवन बहुत भावना-प्रगाढ़ रहा है। आपने वृत्तियों की बात की। वृत्तियाँ बहुत मज़बूत होती हैं, और बाहरी प्रवाह के कारण विचार आते हैं। फिर वृत्तियाँ और गहरी होती हैं, और फिर भावना उठती है। तो इनमें अगर हमें भावना-विवश नहीं होना है, तो क्या करना चाहिए?

आचार्य: मजबूती। आँसू नहीं ढुलकाने हैं। माया को हराने का सबसे मज़ेदार तरीका माया ख़ुद होती है।

माया को ही अलार्म बना दो कि माया आयी और अलार्म बजा। माया का आना ही अलार्म है। आँसू को भी ऑंसू के ख़िलाफ़ अलार्म बना दो, आँसू आया नहीं कि सतर्क हो जाओ, कुछ गड़बड़ हुई है। आँसू को ही अलार्म बना दो आँसू के ख़िलाफ़। आँसू ही विधि हो गया, माया ही विधि हो गई माया को हराने की।

जहाँ देखो कि भीतर से भावनाओं का ज्वार उठ रहा है, सिर गोल-गोल घूम रहा है, जहाँ देखो कि चेहरा लाल हो रहा है और तमाम स्त्रैण भावनाएँ कब्ज़ा कर रही हैं, तहाँ कह दो कि "हो गई गड़बड़। यही है।"

और यह मत पूछो फिर कि “क्या गड़बड़ हुई?” बस ये कह दो, “कुछ हो गई है और इसको अब आगे नहीं बढ़ने देना है।” क्योंकि पहला आँसू अपने-आप आता है, चुपचाप आता है, दूसरा आँसू तुम्हारे समर्थन के साथ आता है। यह याद रखना।

पहला ऑंसू आ गया, कोई ग़लती नहीं कर दी तुमने। दूसरा आँसू नहीं आना चाहिए। पहला आँसू अलार्म बन जाए, पहला आँसू चेतावनी बन जाए कि कुछ गड़बड़ हो गई है। जैसे ही चेतावनी मिली, रुक जाओ तुम। दूसरा आँसू नहीं आना चाहिए फिर।

यही बात मोह पर लागू होती है, यही ममता पर लागू होती है, तमाम जो भावनात्मक उद्वेग होते हैं, सब पर लागू होती है।

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