मौन का असली अर्थ क्या है?

Acharya Prashant

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मौन का असली अर्थ क्या है?
आमतौर पर हम जिस अर्थ में ‘मौन’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वह बहुत सतही होता है। हम केवल ना बोलने को मौन समझ लेते हैं, जबकि वास्तव में मौन तब होता है जब मन की खटपट मिट जाए और मन पूरी तरह शांत हो जाए। हमारे होंठ भी इसी कारण अधिक चलते हैं, क्योंकि मन अशांत होता है। जब तक मन अशांत है, तब तक आप मौन होकर भी मौन नहीं होते। और जब मन शांत हो जाता है, तब होंठ चलें या न चलें, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। यह सारांश प्रशांतअद्वैत फाउंडेशन के स्वयंसेवकों द्वारा बनाया गया है

आचार्य प्रशांत: तो सवाल आया है कि साइलेंस क्या है? साइलेंस को मौन या शून्य, जो भी कहो, समझने की जरूरत है। आमतौर पर हम जिस अर्थ में ‘मौन’ शब्द का प्रयोग करते हैं, वो बड़ा ही सतही अर्थ है। होंठ ना चल रहे हों, तो हम कह देते हैं कि मौन है। ये बड़ी ही छोटी बात हुई। ये बड़ा सीमित अर्थ हुआ।

कबीर ने कहा है:

कबीरा यह गत अटपटी, चटपट लखि न जाए।

जब मन की खटपट मिटे, अधर भया ठहराय।

अधर मतलब होंठ। होंठ वास्तव में तभी ठहरेंगें, तभी शांत होंगे, जब मन की खटपट मिट जाएगी। हमारे होंठ भी ज्यादा इसीलिए चलते हैं क्योंकि मन अशांत है, और जब तक मन अशांत है तब तक होंठ चलें या न चलें, कोई अंतर नहीं पड़ता क्योंकि मूल बात तो मन की अशांति है। वो बनी हुई हैl

तो किसी को शब्दहीन देखकर ये मत समझ लेना कि वो मौन हो गया है। वो बहुत ज़ोर से चिल्ला रहा है, शब्दहीन होकर चिल्ला रहा है। वो पागल ही है, बस उसके शब्द सुनाई नहीं दे रहे। वो बोल रहा है बस आवाज़ नहीं आ रही।

शब्दहीनता को, ध्वनिहीनता को मौन मत समझ लेना। वो बड़ा सस्ता अर्थ होगा। किसी काम का नहीं है। मौन है- मन का शांत हो जाना।

और मन के शांत होने से क्या अर्थ है? मन के शांत होने से ये अर्थ है कि मन जो है, बस उसको जाने, कल्पनाओं में न खोया रहे। मन, जो है ही जो सच है, उसको जाने, उसमें डूबा रहे, उसके संपर्क में रहे, कल्पनाओं की व्यर्थ उड़ान न भरे।

वो जो आंतरिक मौन होता है, जो मन का मौन होता है, वो बड़ी मजेदार चीज है। वो मजेदार इसलिए है क्योंकि उस मौन में लगातार शब्द मौजूद भी रहें तो भी, मौन बना ही रहता है। उस मौन में तुम कुछ बोलते भी रहो तो उस मौन पर कोई अंतर नहीं पड़ता।

जो ये हमारा आम बोलचाल का मौन है, इसमें तुम मौन होकर भी मौन नहीं रहते क्योंकि मन चंचल रहता है। जो आम बोलचाल का मौन है, उसमें तुम लगते तो हो मौन में पर मौन हो नहीं, और जो असली मौन है, उसमें तुम कुछ कह रहे होगे, चल रहे होगे, प्रत्येक कर्म हो रहा होगा और बड़ी ऊर्जावान तरीके से हो रहा होगा, लेकिन उसके बाद भी मौन अपनी जगह कायम रहेगा।

जैसे पहिया घूम रहा हो, पूरी ताकत से घूम रहा हो पहिया और उसका केंद्र अपनी जगह पर स्थिर खड़ा हो, वो वैसा मौन होगा। मौन मध्य में, शब्द और कर्म बाहर-बाहर। सच तो ये है कि जब तुम उस मौन को पा लोगे तो तुम्हारे सारे शब्द, सारे कर्म उसी मौन से निकलेंगे। हुई ना बड़ी मजेदार बात।

मौन से शब्द निकल रहे हैं, स्थिरता से गति निकल रही है। और तब तुम जानोगे कि वो जो मौन है, वो जो शून्य है, वो हर चीज का आधार है, सब कुछ उसी में से निकलता है।

शून्य से पूर्ण निकला हुआ है। तुम्हारा पूरा संसार उसी मौन से निकला हुआ है, उसी शून्य से निकला हुआ है।वो केंद्र में बैठा है, वो है ही नहीं। वो शून्य है, पर उसके होने या ना होने से सब कुछ है, उस मौन को पाओ। और जब तुम्हारे शब्द मौन से निकलते हैं तो वो बहुत दूर से आते हैं, बड़ी गहराई से आते हैं। उनमें कुछ खास बात होती हैl

तुम्हारे शब्द होते तो इस संसार की भाषा में है पर संदेश कहीं और का देते हैं। तब तुम्हारे शब्द होते तो इस संसार की भाषा में हैं- हिंदी में होंगे, अंग्रेजी में होंगे लेकिन संदेश कहीं और का देते हैं।

जब तुम्हारे कर्म उस स्थिरता से निकलते हैं, तो कर्म तुम करते तो इसी दुनिया में हो पर तुम इस दुनिया के बंधक नहीं हो जाते। कर्म तो इसी दुनिया में हो रहे होते हैं पर तुम कर्ता नहीं बन जाते। सब कुछ हो रहा होता है लेकिन तुम उस होने से आज़ाद रहते हो।

बड़ी मजेदार स्थिति है कि नहीं? हम कर सब कुछ रहे हैं पर इस पूरे करने और होने से हम आज़ाद हैंl

एक फकीर मर रहा थाl उसके शिष्य आए उसके पास और बोले, ‘कोई आखिरी बात बताइए।' उसने कहा, 'नदी में उतरना, पर पांव गीले मत करना।' ऐसे जीता है असली आदमी- नदी पार कर जाता है पर पांव गीले नहीं करता। बात समझ रहे हो ना?

संसार में जीता है, पर ऐसे जैसे कीचड़ में कमल। कीचड़ से ही उगता है पर कीचड़ से ही अलग होता है। कीचड़ उसे छू भी नहीं जाता। जड़ें उसकी कीचड़ में हैं पर फिर भी कीचड़ उसे छू नहीं गया है।

तो दो बातें हैं- मौन से निकले तुम्हारे शब्द, और स्थिरता से निकले तुम्हारे कर्म।बाहर-बाहर पूरी गति रहे, दिखाई ऐसे दे कि पता नहीं तुम क्या-क्या कर रहे हो: यहाँ जा रहे हो, वहाँ जा रहे हो, उठ रहे हो, बैठ रहे हो, चल रहे हो, दौड़ रहे हो, भाग रहे हो, पर भीतर-भीतर तुम बिल्कुल स्थिर बने रहो। कुछ हो ही नहीं रहा। बाहर- बाहर सब होता रहे और भीतर कुछ नहीं, इतना भी परिवर्तन ना हो भीतर, इतनी भी गति ना हो भीतर।वहाँ तुम शांत खड़े हो और देख रहे हो और जान रहे हो।

ठीक इसी तरह से जब बोलो तो होंठ चले, बात कही जाए पर होंठ चलें, मन ना चले। मन चुप बैठा रहे, द्रष्टा कि तरह। शून्य से तुम्हारी आवाज़ उठे, गहराई से, किसी सोच से नहीं। हमारी आवाज़ उठती है आमतौर पर सोच से। जो हमारे विचार होते हैं, वही हम कह देते हैं। ऐसा ही होता है ना? हम क्या बोल देते है? जो हमारे विचार होते हैं, वही हम बोल देते हैं।

क्या तुमने कभी ये जाना कि बिना विचारों के बोलना क्या होता है? आज तक तुमने जो बोला है, वही बोला है जो तुम्हारा विचार है या तुम्हारी वृत्ति है, जो तुम्हारी आदत है, वही तुमने बोल दिया है। पर कभी शून्य से बोल कर देखा है? उसकी बात ही कुछ और होती है l

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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