मरते समय श्रीकृष्ण का स्मरण करने से मोक्ष मिल जाएगा? || (2019)

Acharya Prashant

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मरते समय श्रीकृष्ण का स्मरण करने से मोक्ष मिल जाएगा? || (2019)

प्रश्नकर्ता: प्रणाम आचार्य जी। मेरा प्रश्न गीता से सम्बंधित है। भगवान कृष्ण ने गीता में बोला हुआ है कि मरते वक़्त अगर मेरा स्मरण किया जाए तो वो मुझे ही प्राप्त होता है। और उसी गीता में उन्होंने बोला हुआ है कि मैं कण-कण में हर प्राणियों में वास करता हूँ। तो हमें किस रूप में उनका स्मरण करना चाहिए हर वक़्त ताकि मरते वक़्त भी हमें उसी का स्मरण रहे? उन्होंने ये भी बोला हुआ है कि मैं भी परम् अक्षर ओमकार का भी रूप हूँ। चंद्रमा में उनकी चाँदनी हूँ, सूर्य में ताप हूँ।

आचार्य प्रशांत: आप जिस श्लोक का उल्लेख कर रहे हैं, उससे ठीक दो श्लोक बाद श्री कृष्ण स्पष्ट कर देते हैं कि निरंतर उनका ध्यान करना है। आप सातवें या आठवें अध्याय के आरंभिक श्लोकों की बात कर रहे हैं।

प्र: उनका ध्यान किस रूप में करना चाहिए, वही मेरा प्रश्न है?

आचार्य: बता रहा हूँ। उनका ध्यान सबसे पहले तो ये समझना ज़रूरी है कि सिर्फ़ मृत्यु के वक़्त करने से काम नहीं चलेगा। क्योंकि गीता के जिस श्लोक की आपने बात करी, आदमी का मन उसका दुरुपयोग भी बड़ी आसानी से कर लेता है। कि भई ज़िंदगी चाहे जैसी भी चल रही हो, गीता ने ही सुझाया है कि आखिरी दम में मृत्यु के समय श्री कृष्ण का स्मरण कर लेना तो मोक्ष मिल जाएगा। नहीं, बात वो नहीं है। उससे आप ज़रा सा आगे बढ़िए, दो श्लोक आगे आइए। ये श्री कृष्ण स्वयं ही स्पष्ट कर देते हैं कि नहीं, निरंतर ध्यान करना है। निरंतर ध्यान जब करोगे, जीवन भर जब ध्यान करोगे तभी तो फिर मृत्यु के वक़्त भी ध्यान कर पाओगे। नहीं तो जीते-जी जिन बातों को तुमने सर पर चढ़ा रखा था, जो बातें लगातार मन में घूमती थी, मृत्यु के क्षण में भी वही बातें मन में घूमेंगी। तो ये पहली बात स्पष्ट हुई कि इस धारणा में नहीं पड़ जाना है कि बस आखिरी मौके पर श्री कृष्ण का स्मरण कह दिया या राम-राम कहने लगे या नारायण-नारायण कह दिया तो काम बन जाएगा। नहीं ऐसा कुछ नहीं है। पूरा जीवन सही होना चाहिए।

अब दूसरे प्रश्न पर आते हैं कि अगर लगातार निरंतर पूरे जीवन श्री कृष्ण को स्मरण करना है तो पूछ रहे हैं कि, "किस रूप में करना है?" रूपों से तो मन भरा ही रहता है। तो श्री कृष्ण का स्मरण किसी रूप में नहीं करना है। रूप तो है ही वो बला जो मन पर छाई रहती है। आपके मन में रूप, आकार, रंग, स्मृति, आकृति इनके अलावा कुछ और है? बताइएगा। मन में यही सब तो चलता रहता है न, तो आप उसमें और जोड़ लेना चाहते हैं कि, "इतने रूप पहले ही थे एक रूप और जोड़ लूँ।" कौन सा रूप? "वो रूप जिसे मैंने श्री कृष्ण के रूप का नाम दिया है।"

याद रखिए, श्री कृष्ण का क्या रूप है ये तो आप जानते नहीं। उनका रूप है भी कि नहीं ये भी आप जानते नहीं। अगर वो अव्यक्त अक्षर ओंकार हैं तो उनका तो कोई रूप हो भी नहीं सकता। लेकिन आदमी चूँकि रूपों का ही प्यासा रहता है, अहंकार चूँकि रूपों से ही सरोकार रखता है तो हम श्री कृष्ण को भी एक रूप दे देते हैं। और हम ये भूल जाते हैं कि रूप देना हमारा व्यसन है, हमारी आदत है, हमारी बीमारी है। जो मिला उसी को एक रूप दे दिया। अरूप औषधि है, दवा है, काट है, सब रूपों की। रूप कटेंगे तभी तो मन हल्का होगा, मन हल्का होगा तभी तो मन आत्मस्थ होगा। पर जो बड़ी-से-बड़ी औषधि है हम उसको भी अपने लिए ज़हर बना लेते हैं। हम श्री कृष्ण को भी रूपवान कर देते हैं। बड़े सुंदर-सुंदर रूप दे देते हैं श्री कृष्ण को। और ये कहते हैं कि ये श्री कृष्ण का रूप है, अब इसको याद रखो, स्मरण रखो। ये आदमी ने अपने साथ ही बड़ा उपद्रव कर लिया। मुक्ति की अपनी संभावना को उसने खुद ही बंद कर दिया।

तो फिर क्या करना है? श्री कृष्ण को निरंतर स्मरण रखने से फिर आशय क्या है? आशय ये है कि श्री कृष्ण वो जिनका कोई रूप ही नहीं हो सकता। और याद रखने लायक कौन है? श्री कृष्ण ही। तो जो याद रखने लायक हैं उनका तो कोई रूप नहीं। जो याद रखने लायक है वो क्या है? जिसका कोई रूप नहीं। और मैं अपने जीवन को देखूँ, अपने मन को देखूँ तो मुझे लगातार क्या याद है? सब रूप ही याद हैं मुझे। मुझे बताया गया कि जिसका कोई रूप नहीं वो याद रखने लायक है। तो ये जितने रूप हैं वो सब याद रखने लायक नहीं हैं, ये याद रखना है। अरूप को याद रखने का मतलब है, ये याद रखना कि मन में जितने रूप घूम रहे हैं वो याद रखने लायक नहीं हैं। क्या रूप घूम रहे हैं मन में? क्या स्मृतियाँ हैं, क्या छवियाँ हैं? रुपया, पैसा, धन, दौलत, ये आकर्षण, फलाना डर, यही सब रूप घूमते रहते हैं न? अरूप को याद रखने का मतलब है ये सब जो रूप मन में घूमते रहते हैं इनको विदा करो। इनको गंभीरता से मत लो। इनको समर्थन मत दो।

और निरंतर फिर श्री कृष्ण को याद रखने से क्या अर्थ हुआ? कि ये सब जो रूप हैं ये मन में कब घूमते हैं? निरंतर। मन इनसे क्या एक पल को भी मुक्त हो पाता है? ये लगातार मन में धमाचौकड़ी मचाए रहते हैं न। यही करते हैं न ये? तो ये लगातार आपको परेशान करते रहते हैं और आपको लगातार इनको ख़ारिज करते रहना है। इनका काम है आपके मन पर बार-बार आक्रमण करना। आपका काम है लगातार कहना कि, "रूप है अगर तो गंभीरता से लेने लायक नहीं है। छवि है अगर, विचार है अगर तो गंभीरता से लेने लायक नहीं है वो चाहे कोई बात हो।" यही है श्री कृष्ण की सतत् स्मृति। बात समझ में आ रही है?

ये गज़ब मत कर देना कि जैसे पचास चीज़ें लगातार याद रखते हो वैसे तुमने श्री कृष्ण की कोई मोर पंखी छवि भी याद रख ली। ये तो तुमने श्री कृष्ण को उसी आयाम पर उतार दिया जिस आयाम पर तुम्हारा बाकी सब संसार है। और इंसान यही करता है। खुद वो उठता नहीं है श्री कृष्ण से मिलने के लिए, वो श्री कृष्ण को भी खींच कर नीचे अपने तल पर उतार देता है। अपने ही जैसा बना देता है। बचिएगा। तो कुल बात का कुल आशय क्या हुआ? मन में जो रूप घूम रहे हैं इनसे ज़रा सावधान और विरक्त रहो, बस।

This article has been created by volunteers of the PrashantAdvait Foundation from transcriptions of sessions by Acharya Prashant
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