प्रश्नकर्ता: मेरा सवाल ये था कि अभी थोड़ी देर पहले जैसा आपने कहा कि मरकर भी तुम्हें इन देहभाव से, जो यह देह का जो बंधन है उससे मुक्ति नहीं मिलेगी, और यही सबसे बड़ा बंधन है और यही पहला बंधन है, और यही सबसे ज़्यादा दुखदाई है, और इससे मुक्ति का रास्ता है कि परम प्रेम में पड़ जाओ। तो प्रेम में पड़ना तो अपने हाथ में नहीं है, तो परम-प्रेम में तो मैं पड़ नहीं पा रहा हूँ। और फिर मैं मरकर भी मुक्त होना चाहूँ तो आपने बोला कि मर कर भी बंधन कटेंगे नहीं। तो मर कर बंधन क्यों नहीं कटेंगे? और प्रेम में पड़ना हमारे हाथ में नहीं है।
आचार्य प्रशांत: तुम्हारे हाथ में परम-प्रेम में पड़ना नहीं है, पर तुम्हारे हाथ में परम-प्रेम को बाधित करना तो है न? और वहाँ तो तुम अपना हाथ खूब चला रहे हो। परम-प्रेम तो मन की स्वाभाविक दशा है, वो प्यासा है उसे पानी चाहिए, वो उसे तुम्हें सिखाना थोड़े ही पड़ेगा कि परम-प्रेम कैसे करना है। हाँ, तुम ये कर सकते हो कि उसे उल्टी-पुल्टी बातें सब सिखा दो; जैसे अभी कर रहे हो।
प्रेम तुम्हारे हाथ की बात नहीं है और ये गनीमत है कि प्रेम तुम्हारे हाथ की बात नहीं है। प्रेम अनिवार्यता है। प्रेम तो तुम्हें उसी क्षण से है जिस क्षण से तुमने कहा 'मैं'। जब तुमने कहा 'मैं' तभी से तुम प्रेम में पड़ गए। क्योंकि प्रेम का मतलब होता है अपूर्णता, प्रेम का मतलब होता है प्यास, प्रेम का मतलब होता है कुछ पाना है, कुछ आकर्षण है। 'मैं' जैसे ही कहा तुमने वैसे ही अधूरापन खला, बहुत बुरा लगा। 'अहम्' जिसने कहा, तत्काल उसे आत्मा से प्रेम हो गया। अहम् हो ही नहीं सकता बिना आत्मा से प्रेम करे। तो प्रेम में तो तुम हो ही, अब ताज्जुब की बात ये है कि प्रेम में होते हुए भी तुम प्रेम को रोके कैसे हुए हो — वो तुम्हारे हाथ का कमाल है।
जो कुछ भी शुभ-से-शुभ अच्छे-से-अच्छा और ऊँचे-से-ऊँचा हो सकता है, मैं कह रहा हूँ — गनीमत है कि वो अपने होने के लिए तुम पर निर्भर नहीं करता, वो स्वत: ही हो जाता है। लेकिन फिर भी तुम अपना ज़ोर एक जगह तो दिखा ही देते हो, कि जो कुछ शुभ हो रहा होता है उसे तुम बाधित कर देते हो, रोक देते हो।
तुम्हारा काम ये नहीं है कि तुम जा कर प्रेम करो, तुम्हारा काम बस इतना-सा है कि जब हो रहा है तो उसे रोको मत भई। और वो हो ही रहा है, तुम्हारी पहली साँस से हो रहा है, रोक कर क्यों रखा है उसे तुमने? कोई तुमको मैं ज़िम्मा थोड़े ही दे रहा हूँ कि "जाओ अभियान चलाओ प्रेम करने का" और तुम रोज़ सुबह सौ बार दण्ड-बैठक मार रहे हो "आचार्य जी ने कहा है प्रेम के लिए तैयार हो जाओ।" 'प्रेम कोचिंग क्लासेज़ ' (श्रोतागण हँसते हैं) और वहाँ जाकर दाखिला ले लिया है, और वो कह रहे हैं, "जाओ पहले खेतों के छः चक्कर मार कर आओ।"
प्रेम समझ रहे हो क्या है? जहाँ अहम् है वहाँ प्रेम है। अहम् को प्रेम सिखाना नहीं पड़ेगा। अहम् की आह का नाम है प्रेम। कराह रहे हो न? उसी कराह का नाम है प्रेम। अब बताओ सीखना पड़ेगा प्रेम? पर हालत ऐसी है कि प्यार भी है और इज़हार भी नहीं करना है।
"सब घट मेरा साइयाँ सूनी सेज ना कोय। बलिहारी वा घटृ की जा घट परगट होय।।"
परगट नहीं होने देते, है तो; प्रकट नहीं होने दे रहे। और साहब ने कहा बलिहारी उसके जो प्रकट होने दे। भीतर तो सभी के है; भीतर होने में कोई विशेषता नहीं।
"घट घट मोरा साइयाँ सूनी सेज न कोय"
हर जगह है, यहाँ भी है, वहाँ भी है, वहाँ भी है, कहाँ नहीं है! लेकिन न्यारा तो वो है, शान तो उसकी है जो भीतर वाले को ज़िंदगी में उतार दे, प्रकट कर दे। अपने कर्मों में प्रकट कर दे, अपने जीवन में प्रकट कर दे, अपनी चाल में प्रकट कर दे, अपनी बात में प्रकट कर दे। तुम प्रकट नहीं करने देते, तुमने रोक रखा है, तुम कहते हो, "भीतर की बात भीतर ही रहेगी ज़िंदगी में ना उतरे।"
छुप्पे आशिक हो, वो जो खिड़कियों की दरारों से निहारते हैं, सामने आने की जिनकी हिम्मत नहीं पड़ती। और फिर कहते हैं "हम मर ही जाएँ तो कैसा रहे? उधर तेरी डोली उठेगी इधर हमारी अर्थी उठेगी!" अरे! इतने बड़े सूरमा हो तो सामने ही चले गए होते न, ये डोली-अर्थी क्या बता रहे हो।
"आचार्य जी मैं मर ही जाऊँ तो कैसा रहे?" कुछ जानते भी हो जीवन-मरण? जीवन समझा है कि मरण की बात कर रहे हो? जीवन जानते हो क्या? कि जीवन का अंत कर देना चाहते हो। ये वैसी-सी बात है कि मुझे समझ में ही ना आए कि इसका ( ऑडियो रिकॉर्डर का) उपयोग कैसे करना है। दो-चार घण्टे ज़ोर-आज़माईश करी, पर ना बुद्धि है, ना श्रद्धा है, क्या किया? फोड़ दिया।
तुम्हें पता भी है तुम किसके अंत की बात कर रहे हो? पहले उसको जान तो लो जीवन क्या बला है। "नहीं, जानेंगे कैसे? जानने के लिए भी प्रेम चाहिए।" अब प्रेम भीतर-ही-भीतर रह गया तो किसी काम का नहीं। प्रेम की तो बात ही तब है जब वो जीवन में उतरे, कदम-कदम पर दिखाई दे।
हुआ है, बहुत बार हुआ है, लोगों के घर में टीवी चल रहे हैं, पहले होता था, दूरदर्शन पर कार्यक्रम आने रात में ग्यारह बजे बंद हो जाते थे, सच्ची बात बता रहा हूँ, पुराने लोगों को याद होगा। और ग्यारह बजे के बाद भी अगर तुमने टीवी ऑन (चालु) करके रखा है तो उसमें से क्या होने लगता था?
श्रोतागण: आवाज़ें शुरू हो जाती थी।
आचार्य: घुर्र, घुर्र, घुर्र वो मक्खीयाँ आ जाती थी न पर्दे पर; याद है? तो घर के बच्चे सब सो गए, साढ़े-दस बजे से कोई धार्मिक धारावाहिक आता था वो दादी देख रही हैं। बच्चों का काम नौ बजे वाले धारावाहिक में हो गया था, वो देख-दाख कर चले गए। दादी भर देख रही हैं, ग्यारह बज गए प्रसारण बंद हो गया, अब मक्खीयाँ आ रही हैं और आवाज़ हो रही है। दादी सदा निर्भर रही थी बच्चों पर कि बच्चों टीवी लगा देना; वो जानती ही नहीं थी ऑन कहाँ से होता है, ऑफ (बंद) कहाँ से होता है, आवाज़ कहाँ से बढ़ती है कुछ नहीं पता; देखना भर जानती थीं, बैठ गए देख रहे हैं। अब बच्चे सब गए हैं सो, वो गईं बच्चों को जगाने-वगाने। टीवी वाला कमरा ही दादी का कमरा था और टीवी घर्र, घर्र, घर्र करे ही जा रहा है, उन्हें आवाज़ कम करनी भी नहीं आती है। बारह बजे दादी ने चप्पल उठाई और दे कर मारी — इसे कहते हैं आत्महत्या।
(श्रोतागण हँसते हैं)
तुम्हें चूँकि उपयोग करना नहीं आता वस्तु का तो तुमने उसे नष्ट ही कर डाला। तुम्हें चूँकि जीवन का उपयोग करना नहीं आता तो तुमने जीवन को नष्ट ही कर डाला। ज़िंदगी जीनी नहीं आती तो ज़िंदगी खत्म कर डाली। टीवी बंद करना नहीं आता तो टीवी फोड़ डाला। "परेशान बहुत कर रहा है", टीवी की ग़लती है परेशान कर रहा है?
अगले दिन दादी छाती पीट-पीट कर रोएँ "अरे! मेरा धारावाहिक दिखा दो।"
कष्ट तो उस वक़्त जो मिल रहा था वो बंद हो गया, लेकिन अब आनंद के भी तुमने सारे द्वार बंद कर दिए। जीवन नहीं है तो आनन्द की सम्भावना भी खत्म हो गई न?
प्र: आनंद की सम्भावना भले ही खत्म हो जाए लेकिन बंधन से तो मुक्ति मिल ही जाएगी न?
आचार्य: तुम्हें बंधन बुरा ही इसलिए लगता है क्योंकि तुम्हें आनंद मिला हुआ है। आनंद जानते हो तुम, तभी तो तुम्हें बंधन बुरा लगता है न?
विचार करो पहले। बंधन क्यों बुरा लगेगा अगर बंधन ही स्वभाव होता तुम्हारा? बंधन स्वभाव नहीं है तभी बंधन बुरा लगता है न? गहराई से तुम आनंद को जानते हो, और आनंद तुम्हें इतना प्रिय है कि जब वो नहीं मिलता तो तुम कहते हो "बंधन! बंधन! बुरा है! बुरा है!" जो आनंद तुम्हें इतना प्रिय है उसकी सम्भावना क्यों खत्म करना चाहते हो? बंधनों को भी तुम इसलिए हटाना चाहते हो क्योंकि आनंद से प्रेम है तुमको। पर प्रेम के लिए कोई इज़्ज़त नहीं तुम्हारे पास।
बंधन बुरे लगते क्या अगर बंधन ही स्वभाव होते तुम्हारा, बताओ? बंधनों से सबको आपत्ति होती है न? इससे क्या पता चलता है? बंधन स्वभाव नहीं है, आनंद स्वभाव है। और आनंद तुम्हें इतना प्यारा है कि बंधन बरदाश्त नहीं होते। जो इतना प्यारा है उसको क्यों गँवाए दे रहो हो भाई? बंधन स्वार्थवश ही पकड़ता है जीव। स्वार्थ हटाओ, बंधन काटो — इसी का नाम प्रेम है, यही आनंद है।
प्र: मुझे अपने जीवन में कोई बंधन नहीं दिखते, सब कट गए, बस एक देह का बंधन जो है वही है, और वो रहेगा जीवन-भर और इसी कारण आपने भी अभी बोला कि जीवन दुःख है और भगवान बुद्ध ने भी बोला कि जीवन दुःख है। और बाकी सब बंधन कट गए मेरे, कोई बंधन नहीं मानसिक तौर पर, देह का जो बंधन है वो बहुत ज़्यादा है।
आचार्य: तुम्हें बंधन भी हैं और अज्ञान भी है। भगवान बुद्ध ने इतना ही नहीं बोला था, "जीवन दुःख है।" पहला आर्य वचन था — जीवन दुःख है। चौथा था — दुःख से मुक्ति सम्भव है।
तुम पहले पर ही अटक गए! पहला वचन क्या था?
श्रोतागण: जीवन दुःख है।
आचार्य: जीवन दुःख है, और चौथा क्या है?
श्रोतागण: दुःख से मुक्ति सम्भव है।
आचार्य: दुःख से मुक्ति सम्भव है। पहले के बाद सो गए, चौथे तक पहुँचे ही नहीं?
ये जो पूरा अष्टांग उन्होंने मार्ग दिया वो किसलिए दिया? क्या बोल कर दिया? कि दुःख से मुक्ति मिल जाएगी इस अष्टांग मार्ग पर चल कर। इतना ही थोड़े ही बोला था उन्होंने कि जीवन दुःख है। हाँ, जीवन दुःख है। वो तुम्हारी आरम्भिक दशा है। तो वो पहला वाक्य है और आरम्भ से फिर अंत तक आना है, जहाँ पर दुःख कट जाता है मुक्ति मात्र बचती है। जीवन दुःख है पर बात खत्म थोड़े ही हो गई है, वहाँ से तुम्हारी बात शुरू हुई है। आगे की अब यात्रा करो।
रही बात जो तुम कह रहे हो कि सारे बंधन कट गए हैं, अब बस देह का ही बंधन है — बड़ी मूढ़ता की बात है। सारी आसक्तियाँ देह के माध्यम से होती हैं। अगर अभी देह के प्रति आसक्ति है तो दुनियाभर की सारी आसक्तियाँ हैं। बिना देह के तुम किस बात से आसक्त हो सकते हो? देह नहीं है तो इससे (ऑडियो रिकॉर्डर से) आसक्ति कर सकते हो? देह नहीं है तो स्त्री से आसक्त हो सकते हो? देह नहीं है तो ज्ञान से भी आसक्त हो सकते हो क्या?
तुम कह रहे हो "मैंने बाकी सब आसक्तियाँ काट दीं, बस देह से बची है।" देह से बची है तो सब बची हैं। आसक्ति मात्र का त्याग करना होता है, जिसने आसक्ति मात्र का त्याग कर दिया अब उसे इस बात में भी कोई रुचि नहीं रह जाएगी कि इससे लड़ूँ उससे झगड़ूँ। वो कहेगा, "देह मेरी अब है ही नहीं तो देह को मारने वाला मैं होता कौन हूँ।" जो देह को मारने की बात कर रहा है उसे तो घनघोर आसक्ति है देह से। और जिसको देह से आसक्ति है उसे देह से सम्बंधित सब वस्तुओं से आसक्ति रहेगी।
तुम्हें मीठा अच्छा लगता है। मीठे से तुम्हारी आसक्ति किसके माध्यम से है?
श्रोतागण: शरीर के।
आचार्य: देह के माध्यम से है। देह से आसक्ति है तो अभी सब आसक्तियाँ हैं। कैसी बात कर रहे हो!
बड़ी आसक्ति तुम्हें अज्ञान से है। उससे अभी मुक्त हो जाओ बाकी सब बातें पीछे छोड़ो।
तुम्हें दुःख होता है तो तुम ये कहते हो क्या — अब तुम्हारे बगल में वो बैठा हुआ है (प्रश्नकर्ता के बगल के एक श्रोता को इंगित करके) — कि उसको मार दूँगा? तुम यही कह रहे हो न, "मुझे दुःख बहुत है मैं अपने-आप को मार लूँगा"? इनसे बोलो कि "मेरे बगल में बैठा है अमन, मैं अमन को मार दूँगा। मेरी ज़िंदगी में दुःख बहुत है मैं अमन को मार दूँगा।" ऐसा तो नहीं कहते तुम। तुम कहते हो, "मैं खुद को मार लूँगा", इसका मतलब क्या है? कि देह भाव सघन है; "मैं देह हूँ", "ये देह मेरी है।" बगल वाले को तो तुम कहते ही नहीं न कुछ? ना उसे अच्छा, ना बुरा। "उसको तो क्या करना ये देह मेरी है।" यह देह मेरी मात्र नहीं है, जब देह भाव होता है तो व्यक्ति कहता है "मैं यह देह हूँ।" अब 'मैं यह देह हूँ' तो देह की जितनी माँगे हैं वो भी पूरी करोगे; दुनियाभर के ग़ुलाम रहोगे।
जो अनासक्त हो गया उसकी पहचान ये है कि वो ना तो देह को आगे बढ़ाता है, ना उसे रोकने की बात करता है, क्योंकि दोनों ही स्थितियों में देह से सम्बद्धता और तादात्म्य का पता चलता है। जो मैं नहीं, जिससे मेरा कोई लेना-देना नहीं, मैं उसे क्या पीछे से धक्का दूँगा? जो मैं नहीं, जिससे मेरा कोई लेना-देना नहीं, क्या मैं उसे आगे से जा कर रोकूँगा? ना मैं उसे पीछे से धक्का दूँगा-बढाऊँगा, ना मैं उसे जाकर के रोकूँगा। चल रही है तो चल रही है, उसकी अपनी गति है। जब मैं वो हूँ ही नहीं तो मेरा उससे लेना-देना क्या। जब तक चलेगी तब तक चलेगी। जब जा रही होगी, हम बाधा नहीं बनेंगे। जब तक नहीं जा रही है, हम क्यों उसको ज़बरदस्ती विदा करें, हम होते कौन हैं? हमारी चीज़ ही नहीं है वो; जंगल का फूल है, हम क्यों तोड़ने जाएँ उसको, हमारी चीज़ ही नहीं है वो।
यूँ ही है बस ये जैसे किसी पेड़ के नीचे उगा कुकुरमुत्ता। ना तुम हो ना तुम्हारी है। तुम्हारा अधिकार क्या कि तुम किसी जंगली फूल को कुचल दो अपने पाँव के तले; है क्या अधिकार? और तुम्हारा कोई अधिकार है क्या कि तुम किसी और के बाग़ में जा कर फूल रोपो? तुम्हारा कोई लेना-देना नहीं।
प्र: तो पीड़ा क्यों होती है फिर? देह को दर्द क्यों होता है?
आचार्य: दर्द देह को होता है, तुम्हें थोड़े ही होता है।
प्र: पैर में रॉड (छड़ी) डली हुई है तो फील (महसूस) होता है न।
आचार्य: हाँ, तुम्हें फील इसलिए होता है क्योंकि तुम सम्बद्ध हो। नहीं तो जिसको फील होगा उसको होगा, तुम अपना काम करोगे। और ऐसा नहीं कि तुम ये बात बिलकुल ही जानते नहीं हो। अभी यहाँ इतने लोग बैठे हुए हैं, सब आयु वर्ग के लोग हैं: कुछ जवान हैं, कुछ बुजुर्ग भी हैं। पाँव में तकलीफ़ होगी कुछ लोगों के? यहाँ बैठे हैं तो तकलीफ़ हो रही है न? हो रही है न? कुछ लोगों को नींद इत्यादि आ रही होगी, कुछ लोगों की कमर में दर्द हो रहा होगा, सबको अभ्यास नहीं होता इतनी देर तक लगातार बैठने का, नहीं होता न? तो देह को दर्द हो रहा है, पर आप वो कर रहे हैं जो आपको करना है न। देह को दर्द हो रहा है पर आप देह की सुन नहीं रहे, आप अपना काम कर रहे हैं — ये कहलाती है देह से असम्बद्धता।
अगर तुम पूरी तरह देह होते तो देह को जहाँ ज़रा-सा दर्द होता तुम उठ कर चल देते। पर अभी तुमने कहा है, "देह अपना काम करे, उसको तकलीफ़ हो रही है। ठीक है उसे तकलीफ़ हो रही है, मुझे अपना काम करना है। मुझे होना है यहाँ पर, मुझे सुनना है।" हाँ, ये बात अलग है कि अभी तुम्हारा देह से रिश्ता इतनी दूर का नहीं हुआ है कि दर्द और बढ़े तुम तब भी बैठे रह जाओ। थोड़ा-सा दर्द और बढ़ेगा तो फिर तुमको हार मान कर उठ कर जाना ही पड़ेगा। लेकिन अगर तुम थोड़ी-सी दूरी दिखा सकते हो देह से तो इससे क्या सिद्ध होता है? ज़्यादा दूरी भी दिखा सकते हो। और बढ़ते, बढ़ते, बढ़ते ये दूरी इतनी भी हो सकती है कि गला कट रहा हो तुम्हारा और तुम तब भी मुस्कुरा दो।
समझ में आ रही है बात? गला कट रहा है तुम्हारा और तुम उस क्षण भी मुस्कुरा दिए। बढ़ते-बढ़ते इतनी भी कर सकते हो दूरी, वो महामुक्ति है। वो महामुक्ति तुमको हाथ की नस काटने से थोड़े ही मिल जानी है।
मुक्ति इसमें नहीं है कि दर्द इतना बढ़ा कि हमनें अपनी जान ले ली। मुक्ति इसमें है कि जब जान भी जा रही थी और दर्द अपने चरम पर था हम तब भी मुस्कुरा रहे थे। दोनों बातों में अंतर समझना: जान दोनों ही स्थितियों में जा रही है, एक स्थिति में तुम कह रहे हो, "दर्द इतना ज़्यादा है कि हमने जान दे दी।" और दूसरी स्थिति में तुम कह रहे हो, "दर्द बहुत है जान जा रही है और हम मुस्कुरा रहे हैं।" हम जान बचाने की बात नहीं कर रहे, जान तो जानी ही है, हम कह रहे हैं जान 'कैसे' जानी है।
प्र२: जब दुःख की परिस्थिति आती है तब दुःख बहुत बड़ा लगता है, पर कुछ ही समय में मन उसको समझा देता है, जस्टिफाई कर लेता है। और फिर वो दुःख छोटा लगता है उसका मायना नहीं लगता है। ऐसे में आपने कहा था कि दुःख ही अध्यात्म या मुक्ति का रास्ता दिखाता है, तो ऐसी स्थिति में मेरे लिए मुश्किल हो जाता है अध्यात्म या मुक्ति के रास्ते पर चलना। लेकिन जब सत्र शुरू हुआ, आप जैसे पहले प्रश्न का उत्तर दे रहे थे तब मुझे महसूस हुआ कि यहाँ पर दुःख जब आ रहा है तो अहंकार को चोट लग रही है और अहंकार अपना बचाव कर रहा है। तो इस अहंकार से मैं कैसे मुक्ति पाऊँ? फिर सत्र आगे बढ़ा तो देह की बात शुरू हुई तो लगा कि यहाँ पर कहीं देह का सम्बन्ध तो नहीं है। तो कृपा कर आप इस पर थोड़ा प्रकाश डालिए।
आचार्य: कहाँ उलझी हैं साफ़-साफ़ बताइए?
प्र२: दुःख जो आपने कल बात कही थी, कि दुःख ही अध्यात्म या मुक्ति का रास्ता दिखाता है, तो मुझे ऐसा लगता है जब भी कोई परिस्थिति दुःख की बनती है मेरे सामने तो वो मुझे बड़ी लगती है और उस समय लगता है कि इसका हल होना चाहिए। लेकिन कुछ समय बाद अहंकार समझा लेता है कि ठीक है सब चलता है, सबके साथ होता है, कोई बात नहीं आगे बढ़ो, ऐसा कर लो वैसा कर लो। फिर इसमें मुक्ति के रास्ते पर चल नहीं पाती ऐसे में। फिर जब सच में महसूस किया मैंने कि अहंकार भी यहाँ पर चोटिल हो रहा है और वो अपना बचाव करने के लिए दुःख समझा रहा है मन को, तो अहंकार ताक़तवर बनते जा रहा है इसीलिए वो मुक्ति के रास्ते में नहीं जाने दे रहा है। तो उस अहंकार से कैसे मुक्ति मिलेगी जो जाने ही नहीं दे रहा है, बार-बार रोक रहा है?
आचार्य: अहंकार किसको रोक रहा है?
प्र२: टूटने से रुक रहा है वो, नहीं टूटना चाहता है वो, वो मज़बूत हो रहा है बार-बार।
आचार्य: मज़बूत तो वो पहले भी बहुत हुआ है न?
प्र२: हाँ। आप बोलते हैं न टूटेगा तभी तो मुक्ति मिलेगी।
आचार्य: आगे क्या होगा वो बाद की बात है। अभी तक जितनी उसको मज़बूती दी है उस मज़बूती से कुछ लाभ हुआ है क्या? या अब परेशानी और खड़ी हो गई है कि बड़ा मज़बूत हो गया?
प्र२: जी, जीवन में तुच्छता बनी हुई है इसका मतलब है कि वो अहंकार मुश्किलें खड़ी कर रहा है।
आचार्य: वो अपनी समझ से आसानियाँ खड़ी कर रहा है। बस उसकी समझ बड़ी नासमझी की है। अहंकार कोई आपसे अलग थोड़े ही है जो आप बार-बार कह रही हैं कि, "अहंकार मेरे लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है।" आप कौन हैं, अहंकार कौन है भई?
आप ही अहंकार हैं सबसे पहले, और आप अपनी बुद्धि से, अपनी समझ से अपने लिए मुश्किलें नहीं खड़ी कर रहीं, आप तो अपने लिए रास्ता साफ़ कर रही हैं, आप तो अपने लिए आसानियाँ जुटा रही हैं, आप तो अपने लिए अच्छा-अच्छा ही कर रही हैं। आप मानें?
प्र२: अहंकार।
आचार्य: अहंकार। आप तो अपने लिए सब अच्छा-अच्छा ही कर रही हैं। और वो अच्छा-अच्छा बाद में पता चलता है कि क्या निकला? बुरा-बुरा निकला।
अब समस्या कुछ साफ़ हुई?
तो बात ये नहीं है कि कोई आपका दुश्मन है जो आपके लिए मुश्किलें खड़ी कर रहा है। आप अपने दोस्त हैं, आप अपना भला चाहते हैं, लेकिन आप अपना भला अपने अनुसार चाहते हैं। और आप अपनी भलाई के नाम पर खूब अपने लिए मुश्किलें, दुश्वारियाँ खड़ी कर लेते हैं। कोई नहीं है जो अपना अहित चाहता हो, कोई नहीं है जो अपने लिए मुश्किलें और बुराईयाँ चाहता हो। अहं भी यही चाहता है कि मेरे साथ अच्छा-अच्छा हो, मुझे ख़ुशी मिले।
अहं किसका उपासक है?
श्रोतागण: खुशी का।
आचार्य: सुख का, ख़ुशी का। अपनी नज़र में तो वो ख़ुशी तलाश़ने जाता है, ले कर आता है?
श्रोतागण: दुःख।
आचार्य: ये है। आपने तो जो पूरी कहानी सुना दी उसमें आप बिलकुल शिकार बन गईं, शोषित, कि "कोई मेरा दुश्मन है अहम् नाम का, वो छुप-छुप कर मुझ पर वार कर रहा है।" नहीं, कोई नहीं है आपसे बाहर, आप ही हैं। आप ही हैं और आप अपने अनुसार बहुत बढ़िया, बहुत ऊँचा, बड़ा चतुराई भरा कुछ काम करती हैं और वो औंधे-मुँह गिरता है।
"चौबे जी छब्बे बनने निकले थे...
श्रोतागण: "और दूबे बनकर रह गए।"
आचार्य: "और दूबे बन कर रह गए।"
प्र२: जी, ये मैं महसूस करती हूँ।
आचार्य: हम निकलते हैं कि थोड़ा और कुछ मिल जाए, और जो है वो भी लुट जाता है, 'बैठे मूल गँवाए', गए थे ब्याज पाने और 'बैठे मूल गँवाए'।
समझ में आ रही है बात?
तो करना क्या है फिर? ये जो मन की प्राकृतिक वृत्तियाँ हैं, रुझान हैं, चालाकियाँ हैं इन पर ज़रा नज़र रखनी है। ज़रा सीधा हो कर जीना है, ज़रा सरल, ज़रा भोला होकर जीना है, होश़ियारी थोड़ी कम। हमारी चालाकियाँ हमें कहीं का नहीं छोड़ती।
हम इतने भी चालाक नहीं होते न कि चालाकी ही छोड़ दें।
प्र२: हाँ।
आचार्य: हम ऐसे भोंदू होते हैं कि चालाक बने रह जाते हैं, पता भी नहीं चलता कि हमारी चालाकियाँ हमें खा गईं। और चालाकी कई बार तात्कालिक फ़ायदा भी देती प्रतीत होती है, तो चालाकी करने के प्रति हमारा रुझान और बढ़ जाता है। भोलापन कई बार तात्कालिक नुकसान कर देता है तो हमें लगता है "क्या यार बेवकूफ़ बन गए।"
आप नुकसान करवा लीजिए; सीधे रहिए, सरल रहिए, भोले रहिए। बस, कहीं कोई दुश्मन नहीं है। ठीक है?
प्र३: आचार्य जी, हम जैसे हैं हमें प्रकृति ने ऐसा बनाया है और हमारे लिए अच्छा है कि हम अध्यात्म की तरफ़ बढ़ें, तो मतलब प्रकृति और इवोल्यूशन हमको आध्यात्मिक क्यों नहीं बना देते?
आचार्य: क्यों बनाए?
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्र३: मतलब ये यही क्यों है?
आचार्य: ये क्या माँग है भई! वो जैसी है, है, प्रकृति ऐसी ही है। और वो जैसी है उतने में वो प्रसन्न है। छोटे बच्चे प्रकृतिस्थ होते हैं बिलकुल। उनको तुमने देखा है कि वो कह रहे हों कि "अरे समाधि चाहिए", "निर्वाण नहीं मिल रहा है", या कि कोई कह रहा हो छः महीने वाला "आत्महत्या कर लूँगा ज़िंदगी बड़ी बर्बाद है", ऐसा तो कभी देखा नहीं न? वैसे ही जानवर होते हैं प्रकृतिस्थ, अपना वो जैसे भी हैं घूम रहे हैं। सुअर होगा वो कीचड़ में ही लोट रहा होगा लेकिन ऐसे " चिल मैन! "
(श्रोतागण हँसते हैं)
प्रकृति को जब कोई तकलीफ़ ही नहीं तो वो क्यों मुक्ति की बात करे? आदमी अजीब है; आदमी थोड़ा प्रकृति है, थोड़ा पुरुष है। तो आदमी बात करेगा न, प्रकृति को क्यों दोष दे रहे हो? उसका अपना घर बिलकुल ठीक है।
जड़ प्रकृति हैं ये सब नदियाँ, पहाड़, चाँद, तारें, पत्थर, रेत। इन्हें तकलीफ़ में देखा क्या? चेतन प्रकृति में सब आ गए तुम्हारे जीव चेतनाधारी, उनमें भी जो पशु वगैरह हैं उन्हें देखा तकलीफ़ में? पशु में भी चेतना जितनी बढ़ती जाती है तकलीफ़ उतनी बढ़ती जाती है। जितने भी छोटे पशु होते हैं उन्हें दर्द हो सकता है पर जिसको तुम 'दुःख' बोलते हो वो उनको नहीं होता। उस दुःख का शानदार अधिकारी सिर्फ़ मनुष्य है। पूरे अस्तित्व में कोई है जिसको अस्तित्वगत पीड़ा है कि "मै हूँ ही क्यों?" वो सिर्फ़ इंसान है। कुत्ते को नहीं, सुअर को नहीं, गाय को नहीं, शेर को नहीं, पेड़ से गिरते पत्ते को नहीं — सबका बढ़िया चल रहा है।
जब बढ़िया चल रहा है तो प्रकृति क्यों बात करे, इवोल्यूशन क्यों बात करे मुक्ति की? तुम बात करो न मुक्ति की, तुम फँसे हुए हो। तुम आधे बाहर हो आधे अंदर हो। तुम पूरे अंदर ही आ जाओ, तुम पूरे जानवर ही बन जाओ तो भी तुम्हारी समस्याएँ मिट जाएँगी। दिक्क़त ये है कि तुम पूरे जानवर बन नहीं सकते, तुम्हारी चेतना अब वापस नहीं जा सकती। तुम कोशिश करते हो, कैसे? शराब पी कर, नशा कर के। नशा करके कोशिश करते हो कि चेतना दोबारा दब जाए। वो पशु बनने की कोशिश है दोबारा। कुछ देर के लिए बन जाते हो पशु। जितनी देर के लिए पशु बन जाते हो उतनी देर के लिए नशा करके आराम मिल जाता है। लेकिन नशे में ज़्यादा देर रह पाना तुम्हारी तक़दीर नहीं। थोड़ी देर में नशा उतर जाता है, दुःख फिर वापस आ जाता है। तो अब एक ही तरीका है कि ऊपर ही उठ जाओ, बाहर ही आ जाओ। आधे अंदर आधे बाहर हो, पूरा बाहर आना पड़ेगा। जो पूरा बाहर आने का विज्ञान है उसको अध्यात्म कहते हैं।
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