Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles

माँसाहार भोजन नहीं || आचार्य प्रशांत (2019)

Author Acharya Prashant

Acharya Prashant

7 min
401 reads
माँसाहार भोजन नहीं || आचार्य प्रशांत (2019)

प्रश्न: आचार्य जी, माँसाहार और शाकाहार भोजन क्या होता है? इसको थोड़ा समझा दीजिए।

आचार्य प्रशांत जी: ‘*नॉन वेजीटेरियन*‘ (माँसाहार) कोई फ़ूड (भोजन) नहीं होता, किसी का माँस होता है।

‘*नॉन वेजीटेरियन*‘ भोजन होता ही नहीं, वो किसी का शरीर है। उसको ‘ फ़ूड (भोजन)’ आप तभी बोल सकते हैं जब आपने कभी किसी जीव से, किसी प्राणी से मोहब्बत की ही न हो। नहीं तो आप ये कह ही नहीं पाएँगे – “‘*नॉन वेजीटेरियन फ़ूड*‘ (माँसाहार भोजन)।”

फ़िर आप सीधे कहेंगे, “ फ़्लैश (माँस)।”

एक तो ये शब्द बड़े धोखेबाज़ी का है – ‘*नॉन वेजीटेरियन फ़ूड*‘।

‘*नॉन वेजीटेरियन*‘ क्यों बोल रहे हो? सीधे ‘ ऐनिमल फ़्लैश (जीव-माँस)’ क्यों नहीं बोलते?- “ आई एम ए ऐनिमल फ़्लैश ईटर (मैं जीव-माँस भोक्ता हूँ)।” क्योंकि ऐसे बोलोगे तो तुम्हारी बर्बरता, तुम्हारी क्रूरता, तुम्हारी नृशंसता साफ़ दिख जाएगी। कोई पूछे, “क्या खाते हो?” तुम कहोगे, “ आई ईट ऐनिमल फ़्लैश (मैं जानवर का माँस खाता हूँ)।” साफ़ दिख जाएगा कि कितने बर्बर हो तुम।

तो तुम बात को ज़रा सभ्य तरीक़े से बोलते हो, कहते हो, “*नॉन वेजीटेरियन।*” तो फ़िर वेजीटेरियन फ़ूड (शाकाहारी भोजन) को ‘*नॉन एनिमल फ्लैश फ़ूड*‘ क्यों नहीं कहा जा सकता, अगर ‘*नॉन*‘ की ही भाषा में बात करनी है?

अगर ‘*नॉन*‘ की ही भाषा में बात करनी है, तो जो माँस है उसे कहो – “ एनिमल फ्लैश (जीव-माँस),” और जो शाकाहारी हैं उनको कहो कि – “ये *नॉन फ्लैश ईटर हैं।*” ऐसा क्यों नहीं करते? पर ये शब्दों की धोखाधड़ी है। इससे कहीं ज़्यादा ईमानदार तरीक़े से संस्कृत में, हिन्दी में कहते हैं – “निरामिष,” “सामिष।” वहाँ बात ज़ाहिर हो जाती है। पर उसका उपयोग तुम करते नहीं। हिन्दी भाषी भी ‘निरामिष, सामिष’ नहीं बोलेंगे, वो बोलेंगे, “*नॉन वेजटेरियन।*“

“आज ज़रा नॉन वेज खाने का मन था।” अरे ये ‘*नॉन वेज*‘ क्या होता है? सीधे बोलो कि – “आज किसी की जान लेने का मन था। आज किसी की गर्दन पर छुरी चलाने का मन था।” पर ये बात बोलोगे तो तुम्हें ही अच्छा नहीं लगेगा, तो कहते हो, “चलो जी, थोड़ा नॉन वेज खाकर आएँ।” क़त्ल को बड़ी आसानी से छुपा गए, क्या ख़ूबी है। क़त्ल भी कर डाला, और गुनाह भी नहीं हुआ।

ये सिर्फ़ इसीलिए है क्योंकि ज़िंदगी में प्रेम नहीं जानते, बहुत कमी है प्रेम की। पशुओं से क्या, इंसानों से भी प्रेम नहीं है। तुम्हें कभी किसी से सच्ची मोहब्बत हो जाए, उसके बाद माँस नहीं खा पाओगे। मोहब्बत छोड़ दो, तुम्हें मोह भी हो जाए, तो भी माँस खाना मुश्किल हो जाएगा।

यही कारण है कि दुनिया का कोई भी देश हो वहाँ स्त्रियाँ माँस कम खाती हैं, पुरुष माँस ज़्यादा खाते हैं। स्त्रियाँ प्रेम जानती हों या न जानती हों, मोह-ममता तो जानती हैं। मोह-ममता तक में इतनी ताक़त होती है कि तुम्हें माँस नहीं खाने देतीं, तो सोचो प्रेम में कितनी ताक़त होगी।

और भारत में ही नहीं दुनिया के किसी भी देश में जाकर सर्वेक्षण कर लो, कई मामले तुम ऐसे पाओगे, एक अच्छा-खासा अनुपात तुम ऐसा पाओगे, जहाँ पर पुरुष माँस खाता होगा, स्त्री नहीं खाती होगी।

कभी किसी मुर्ग़े से या बकरे से दोस्ती करके देखो, उसके बाद किसी भी मुर्ग़े को खाना तुम्हारे लिए असम्भव हो जाएगा। एक मुर्ग़े से दोस्ती करके देख लो। उसके बाद मुर्ग़ा हो, बकरी हो, हिरण हो, बतख हो, सब एक से लगेंगे, किसी का माँस नहीं खा पाओगे ।

रही अदरक-प्याज़ की बात, तो तुम शाकाहार में भी जितनी चीज़ें खाते हो, सबकी अलग-अलग प्रकृति होती है, उन सबके अलग-अलग गुण होते हैं। तो इसी तरह प्याज़-लहसुन के भी गुण होते हैं। वो गुण तुम्हारे लिए कभी विलापप्रद हो सकते हैं, कभी हानिकारक।

तुम्हारी क्या स्थिति है, इसपर निर्भर करता है कि तुम कौन-सा फल, या सब्ज़ी, या शाक, या पत्ता खाओगे। इस बारे में तुमको अध्ययन कर लेना चाहिए, पढ़ लेना चाहिए कि अदरक शरीर के साथ क्या करता है, केला क्या करता है, आम क्या करता है, प्याज़ क्या करती है, और तदानुसार तुम्हें अपना खाना चुन लेना चाहिए।

ऋतुओं के अनुसार भी भोजन बदलता है। किसी ऋतु में कोई चीज़ लाभप्रद होती है, दूसरी ऋतु में वही चीज़ हानिप्रद हो जाती है। तो वो सब देखना पड़ता है।

* ‘वीगनिज़्म’* क्या है? वो इस बात का स्वीकार है कि जीने के लिए दूसरे की खाल उतारना ज़रूरी नहीं है, कि दूसरे का शोषण किए बिना जिया जा सकता है और जिया जाना चाहिए।

* ‘वीगनिज़्म’* का बस इतना ही मतलब नहीं होता कि – “माँस नहीं खाऊँगा या दूध नहीं पीऊँगा।” ‘वीगनिज़्म’ कोई नकारात्मक सिद्धान्त नहीं है कि – “ये मत करो, और ये मत करो, और ये मत करो।” ‘वीगनिज़्म’ नकारने की एक सूची नहीं है कि – “ये, ये, ये नहीं करना है।”

* ‘वीगनिज़्म’* एक सकारात्मक बात है, एक ‘*पॉज़िटिव एफर्मेशन*‘ (सकारात्मक पुष्टि) है। किसका? मोहब्बत का।

* ‘वीगनिज़्म’* का सिर्फ़ नेगेटिव (नकारात्मक) अर्थ नहीं होता कि ये नहीं खाना है, ये नहीं पहनना है, और ऐसा नहीं करना है।

‘*वीगनिज़्म*‘ का मतलब है – प्रेम।

बात समझ में आ रही है?

तुम्हारी बच्ची होती है, और उसके लम्बे बाल हैं। तो क्या तुम उसके लम्बे बाल काटकर के टोपा बनाते हो? क्यों नहीं बनाते? ऐसा ख़याल भी क्यों नहीं आता? बात ही अचिन्त्य है। तुम ऐसी कल्पना ही नहीं करोगे कि अपनी बिटिया के बाल काटकर के अपने लिए टोपा बना लें।

क्यों?

प्रश्नकर्ता: प्रेम है।

आचार्य प्रशांत जी: प्रेम है।

तो इसी तरीक़े से ‘*वीगनिज़्म*‘ कहता है कि -“क्या ज़रूरी है कि किसी का शोषण करके ही जिया जाए?” हो सकता है वो टोपा तुम्हें अच्छा लगता हो, बड़ा आकर्षक और बड़ा उपयोगी लगता हो। पर क्या ये ज़रूरी है कि बिटिया के बाल कटें, फ़िर टोपा बनें?

तो ‘वीगनिज़्म’ कोई कोरी बातचीत नहीं है, सिद्धान्त भर नहीं है – हार्दिक प्रेम है। वो ऐसी मोहब्बत है जिसका दायरा बहुत व्यापक है। सब जीवों को अपने आगोश में ले लेता है, इतना व्यापक है।

आदमी की करतूतें देखो – एक मादा के अण्डे लिए जा रहा है। ये घिनौनी हरक़त नहीं है – किसी स्त्री को तुम पाल ही इसीलिए रहे हो कि – “मैं इसके अण्डे खाऊँगा”? कितनी अशोभनीय बात है।

इसमें प्रेम तो है ही नहीं, ज़रा-सी सभ्यता भी नहीं है। एक मादा के अण्डे निकाल रहे हो, फ़िर गिन रहे हो, फ़िर तोल रहे हो। ये कर क्या रहे हो? लज्जास्पद बात नहीं है ये? और फ़िर थोड़ी देर में उसके सब अण्डे लेकर, छुरी चला दोगे।

कबीर साहब के उद्गार हैं,

*माँसाहारी मानवा प्रत्यक्ष राक्षस अंग* उसकी संगत मत करो पड़त भजन में भंग

माँसाहारी की संगत भी कर ली, तो भूल जाओ अध्यात्म को। ये भी मत कह देना कि – “मेरा दोस्त तो माँसाहारी है, मैं नहीं हूँ।” माँसाहारी की दोस्ती भी तुम्हें भारी पड़ेगी। ये मत कह देना कि -“हम आमने-सामने बैठकर खाते हैं। जो उसका मन होता है वो खाता है, जो मेरा मन होता है मैं खाता हूँ। वो चिकन खाता है, मैं डोसा खाता हूँ।”

तुम्हारा ये लिबरल (उदार) दृष्टिकोण तुम्हें कहीं का नहीं छोड़ेगा।

*पीर सबन की एक सी, जो जाने सो पीर* दूजी पीर न जान सी ,ते काफ़िर बेपीर

पीड़ा तो पीड़ा होती है न!

कभी किसी पशु को दर्द में तड़पते देखा है? उसकी तड़प और तुम्हारी तड़प क्या अलग-अलग है? *पीर सबन की एक सी*। पीड़ा तो सबकी एक-सी है न। और जो दूसरों की पीड़ा को पीड़ा नहीं मानता वही काफ़िर है। वो बेपीर है, निगुरा है। उसका कोई गुरु नहीं होगा।

अपनी पीड़ा पर तो सभी रो लेते हैं, इंसान तुम तब हुए जब दूसरों की पीड़ा पर भी रो सको।

YouTube Link: https://youtu.be/54a-Rrhkjc4

GET UPDATES
Receive handpicked articles, quotes and videos of Acharya Prashant regularly.
OR
Subscribe
View All Articles