Acharya Prashant is dedicated to building a brighter future for you
Articles
मन से मुक्ति मन की चाल || आचार्य प्रशांत, संत कबीर पर (2014)
Author Acharya Prashant
Acharya Prashant
9 min
19 reads

वक्ता:

मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वाससाधु तहाँ लौं भय करे, जो लौं पिंजर साँस।। ​

माया के बड़े से बड़े छलावों में यह है कि ‘मैं नहीं हूँ’। सबसे बड़ा भ्रम यह है कि भ्रम नहीं है, सबसे बड़ा बंधन यह है कि बंधन नहीं है। यूँ हीं नहीं कहा है कबीर ने, ‘माया महा ठगनी हम जानी’। ऐसे ही ठगती है वो कि मैं हूँ हीं नहीं, मैं हूँ हीं नहीं। जो भी तुम्हें प्रतीत हो रहा है, सब सच है, यही तरीका है माया के ठगने का। नहीं, आकर्षण नहीं है, प्रेम है। नहीं कल्पना नहीं है, तथ्य हैं। नहीं भय नहीं है, करुणा है। नहीं बेड़ियां नहीं हैं, आभूषण हैं।

यदि भ्रम दिख हीं जाये कि भ्रम है तो बहुत समय तक चल नहीं सकता। यदि बेड़ियां दिख हीं जायें कि बेड़ियां हैं तो कोई बंधा क्यों रहेगा, यदि मूर्खता दिख ही जाये कि मूर्खता है, तो बुद्ध हीं बुद्ध होंगे। यदि अधर्म दिख ही जाये कि अधर्म है, तो संसार धार्मिक हो जायेगा। कभी-कभी दिखने भी लगता है। ऐसे भी क्षण आते हैं जब अचानक से दिख जाता है। अनायास ही आते हैं, हमारे करे नहीं आते हैं, बस यूँ ही। किसी की अनुकम्पा है, आ गए या कोई संयोग हुआ आ गए, और तब पूरी व्यर्थता सामने नग्न खड़ी होती है। सब दिखाई दे रहा है कि यह तो सब फालतू ही था, व्यर्थ था। मेरे तरीके कहीं के नहीं हैं, अनर्थक। यह सब दिख जाता है और दिखने के बाद फिर गायब हो जाता है। यह दिख जाता है, आप उस दिखने, आप उस रोशनी पर दो-चार कदम चल भी लेते हो और आपको यह आभास होने लगता है कि दिशा बदल गयी, रोशनी दिखाई दी, हम देख पाये, हमने अपनी दिशा बदल ली और अब हम कहीं और को ही जा रहे हैं। बड़ा सुख मिलता है मन को इस कल्पना से। सुख ही नहीं मिलता, गर्व भी होता है।

‘पहले हम भटके हुए थे, अब हम सही राह पर हैं। पहले हम बंधन में थे अब हमें रोशनी मिली, हमने बेड़ियां तोड़ डालीं। पहले मन बेक़ाबू रहता था, अब नहीं है। पहले हम हिंसा और घृणा से भरे हुए थे, अब तो हम प्रेम पुंज हैं। मेरे जीवन में बदलाव आ गया है, बड़ी क्रांति आ गयी है, सूर्योदय हो गया है। मेरी सारी वासनाएँ मर गयी हैं, मेरे सारे भ्रम मिट गए हैं, सारे जाले साफ़ हो गए हैं’ और जब आप माया के मरने का उत्सव मना रहे होते हैं, माया बगल में खड़े होकर हंस रही होती है। जब आप कह रहे होते हैं कि मैं तो मुक्ति का गीत गा रहा हूँ, आपको पता भी नहीं होता हैं कि उस गीत के लफ़्ज़ किसने लिखे हैं। जब आप कह रहे होते हैं कि मुझे जीवन में सच्चा प्रेम मिल गया और आप अपने प्रेमी से आलिंगन -बध्य होते हैं, आपको पता भी नहीं होता है कि आपने किसको गले रखा है; माया हीं माया है। जब बंधन में रखें तब माया है और जब मुक्ति प्रतीत हो तो और बड़ी माया है। उसके अतिरिक्त कुछ नहीं है। जब आप कष्ट में ज़ार-ज़ार रोये, माया है और जब आप गहरे सुख का अनुभव करें तो और बड़ी माया है। वो अपने सबसे घातक पैतरे उनके लिए बचा कर रखती है, जो उससे भागना चाहते हैं। वो सबसे ज़्यादा उन्हीं को उलझाती है, जो सुलझने की कोशिश में लगे होते हैं। सबसे ज्यादा उन्हें हीं पकड़ती है जिनको भागने की बड़ी इच्छा हो रहीं होती है।

एक कहानी हैं उसको थोड़ा रूपांतरित करके कहूँगा। एक साधु था, उसकी पूरी कोशिश यही थी कि संसार की छाया उस पर ना पड़े। जिन तरीकों से वो जीता था, वो उसे बड़े नापसंद आने लगे थे। वो कहता था कि कुछ रखा नहीं है, मुझे पसंद ही नहीं आती यह दिनचर्या। तो वो यह सब छोड़छाड़ कर एक जंगल में चला गया। वहाँ एक नदी भी बहती थी, वहीं रहता था। उसने अपना नाम ही रख लिया था ‘मायाजीत’। “मैंने माया को जीत लिया, अब मैं जंगल का निवासी हूँ, रेत पर खेलता हूँ, पानी में नहाता हूँ, मस्त”। एक रात उसको सपना आया, सपने में माया आई। माया ने कहा, “तू भाग गया दुनिया से, पर कहाँ से भागा है मैंने पता कर लिया है। तू गंगा किनारे कौड़ीयाला नामक जगह पर डेरा डाल कर बैठा है। तुझे यह जगह बहुत पसंद आने लगी है। मैंने जान लिया है कि तू यहाँ रहता है। मैं आ रही हूँ तुझे लेने। पकड़ लिया हैं मैंने, बार-बार वहाँ को भागता है तू। कहाँ भागेगा? आ रही हूँ, पकड़ के ले जाऊँगी”। यह मस्त, यह उठा, थर-थर काँप रहा है, पसीने- पसीने, कि लेने आ रही है वापिस संसार में ले जाएगी। यह भागा, भागा, भागा बुरी तरह भागा। यह झरने की तरफ भागा। झरने के किनारे- किनारे एक रास्ता जाता था, यह रात भर उस पर भागता रहा। जंगली जानवरों के बीच से भागता रहा। रात के तीन बजे यह जाकर पहुँचा एक गाँव में, अँधेरा अँधा रास्ता था वो। यह भाग रहा है, भाग रहा है, भाग रहा है। भाग रहा है, वहाँ जाकर बैठ गया। बोला, “यह ऐसा दुर्गम रास्ता झाड़- झंकार, यहाँ का रास्ता माया को नहीं पता। बच गया मैं”। और वहाँ जाकर पेड़ के नीचे बैठ गया। कंधे पर किसी ने हाथ रखा, वो बोली, “मुझे तुम्हेँ ठीक यहीं मिलना था। एक बार को तो मैं चिंता में पड़ गयी थी कि इस बीहड़ जगह पर तुम रात के तीन बजे कैसे पहुँचोगे। मिलना मुझे तुम्हेँ यहीं था, और तुम आ गए। तुम मेरे सच्चे प्रेमी हो, मेरी तलाश में देखो तुम यहाँ तक आ गए, पूरी वफ़ा निभाई हैं तुमने”।

मन को मिरतक देखि के, मति माने विश्वास

जब भी लगे कि मन मृतक हो गया हैं, मन के बंधन टूट गए हैं, मन की चंचलता, मन की मूर्खताएं समाप्त हो गयी हैं, यकीन मत कर लेना। ये चाल है उसकी। जब लगे की वासनायें थमने लगी हैं, यकीन मत कर लेना। छल किया जा रहा है तुम्हारे साथ।

साधु तहाँ लौं भय करे, जो लौं पिंजर साँस

जब भी यह मन मारा हुआ लगता है, तो दुबारा जी उठेगा, जैसे पिंजर सांस लेना शुरू कर दे, जैसे मुर्दा सांस लेना शुरू कर दे। इसलिए साधु कभी यकीन नहीं करता, वो अपनी किसी युक्ति पर, किसी उपाय पर कभी अंततः यह मान नहीं लेता की मैंने माया को जीत लिया। वो अपने द्वारा करे जा रहे किसी भी कर्म को, किसी भी श्रम को अपनी मुक्ति का साधन देखता ही नहीं है। वो अच्छे से जानता है कि जिसको मैंने मारा है, वो पुनः जीवत हो उठेगा। “जो लौ पिंजर साँस”, सौ बार मारा इसको, टुकड़े-टुकड़े कर दिए इसके, यह दुबारा जी उठता है। जैसे अमृत पी रखा हो इसने। और यही एक अंतर होता है एक साधु में और एक भगौड़े में। भगौड़ा सोचता है कि खुद कुछ कर-कर के वो मन को जीत लेगा और समझता भी नहीं है कि करने वाला कौन है, करा कौन रहा है। और जो करा रहा है, क्या उसके करे माया जीती जा सकती है? कौन तुम्हेँ अहसास करा रहा है कि मुक्ति मिल रही है? कष्ट में रहते हो तब तो समझ जाते हो कि मन है और यह जो मजे आ रहे हैं, ये क्या हैं? दिखाई नहीं पड़ रहा? बंधन समझ नहीं आ रहा? दुःख बंधन हैं, यह तो समझ रहे हो? सुख कितना बड़ा बंधन है, समझ में नहीं आता तुमको?

घर को तज के बन गए, बन तज मस्ती मांहि ।कबिरा बेचारा क्या करे, यह मन ठहरत नांहि।।

यहाँ से वहाँ, वहाँ से यहाँ भागते फिरते हो। यह कौन है जो भगा रहा है? कैसे गुमान हो गया तुम्हेँ कि तुम कुछ कर-कर के, कहीं जा कर, कहीं से भाग कर, किसी से मिल कर, जीत लोगे? तुम्हें कैसे यह भ्रम हो गया और कौन डाल रहा हैं तुम्हेँ इस भ्रम में? तुम उपाय लगा लोगे, तुम सौ विधियाँ बना लोगे और जीत लोगे। वो विधि लगाने वाला कौन है? तुम उसी के द्वारा उसी को जीत लोगे? तुम माया की मदद ले कर, माया को जीतने निकले हो। यह अंध विशवास है, साधु ऐसा विशवास नहीं करता। उसे पता है कि यह पिंजर सांस ले रहा है, उसको पता है कि यह मुझे धोखा दे रहा है और बहुत बड़ा धोखा है क्योंकि जब तक यह दिख रहा था कि मन जीवित है, तब तक तो सतर्कता भी संभव थी, अब तो मन ने मुझे यह जता दिया कि ‘मैं मर गया हूँ’ और अब सतर्क भी नहीं रह पाओगे और ऐसा फिसलोगे, ऐसा फिसलोगे कि पता नहीं कहा जा कर के गिरोगे। अब तुम्हारी कोई रक्षा नहीं हो पायेगी। बात आ रही है समझ में? अपने करे नहीं जीत पाओगे माया को, और अपने मार नहीं पाओगे उसको। वही तो ता-ता-थैया नचाती है।

-‘ज्ञान सेशन’ पर आधारित। स्पष्टता हेतु कुछ अंश प्रक्षिप्त हैं।

Have you benefited from Acharya Prashant's teachings?
Only through your contribution will this mission move forward.
Donate to spread the light
View All Articles